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राष्ट्र निर्माण तथा इसकी समस्याएँ

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प्रश्न 1: स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र निर्माण की प्रमुख चुनौतियाँ क्या थीं?

उत्तर: 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता मिली, लेकिन यह आज़ादी कई जटिल और गंभीर चुनौतियों के साथ आई। एक नया राष्ट्र बनने के लिए भारत को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्तर पर अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। स्वतंत्रता के तुरंत बाद राष्ट्र निर्माण की निम्नलिखित प्रमुख चुनौतियाँ थीं:


विभाजन और उसका प्रभाव:

  • भारत का विभाजन एक हिंसक और दर्दनाक प्रक्रिया थी। लाखों लोग पाकिस्तान से भारत और भारत से पाकिस्तान आए। इस दौरान भारी सांप्रदायिक हिंसा हुई और करीब 10 लाख लोग मारे गए।

  • शरणार्थियों का पुनर्वास और उन्हें बसाना एक बड़ी चुनौती बन गया।

देशी रियासतों का एकीकरण:

  • स्वतंत्रता के समय भारत में करीब 562 देशी रियासतें थीं, जिन्हें भारत या पाकिस्तान में शामिल होना था।

  • कई रियासतों ने शुरू में स्वतंत्र रहने की इच्छा जताई, जैसे हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर।

  • सरदार वल्लभभाई पटेल और वी.पी. मेनन के प्रयासों से इन रियासतों का भारत में एकीकरण संभव हो पाया।

आर्थिक पिछड़ापन:

  • ब्रिटिश शासन के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था काफी कमजोर हो चुकी थी। औद्योगीकरण नहीं के बराबर था और कृषि व्यवस्था भी असंगठित थी।

  • भारी बेरोजगारी, गरीबी और अशिक्षा जैसी समस्याएँ आम थीं।

संविधान का निर्माण:

  • एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में भारत को एक ऐसा संविधान चाहिए था जो सभी नागरिकों को समान अधिकार दे और देश को एकजुट रख सके।

  • संविधान सभा ने करीब 2 वर्ष 11 महीने में भारतीय संविधान का निर्माण किया।

लोकतांत्रिक प्रणाली की स्थापना:

  • भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में लोकतंत्र को सफलतापूर्वक स्थापित करना और चलाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य था।

  • जनता को मतदान का अधिकार देना, चुनाव कराना, और राजनीतिक संस्थाओं का निर्माण करना आवश्यक था।

भाषाई और सांस्कृतिक विविधता:

  • भारत में सैकड़ों भाषाएँ और अनेक धर्म, जातियाँ और परंपराएँ हैं। इस विविधता को राष्ट्रीय एकता में बदलना एक बड़ी चुनौती थी।

  • भाषा के आधार पर राज्यों की माँग को संतुलन के साथ संभालना आवश्यक था।

कश्मीर समस्या और सीमाई विवाद:

  • कश्मीर रियासत का भारत में विलय पाकिस्तान को स्वीकार नहीं था, जिससे 1947-48 में भारत-पाक युद्ध हुआ और कश्मीर मुद्दा संयुक्त राष्ट्र में गया।

  • इसके अलावा चीन और नेपाल से भी सीमाई विवाद सामने आए।

समान नागरिक अधिकारों की स्थापना:

  • जातिवाद, अस्पृश्यता, लिंग भेद और सामाजिक असमानताएँ गहरी थीं। एक समान नागरिक समाज बनाना एक दीर्घकालीन लेकिन आवश्यक कार्य था।

निष्कर्ष:

स्वतंत्रता के बाद भारत के समक्ष जो चुनौतियाँ थीं, वे राष्ट्र के अस्तित्व, एकता और विकास से जुड़ी थीं। लेकिन इन समस्याओं का समाधान भारत के नेतृत्व, संविधान, लोकतांत्रिक व्यवस्था और जनता की इच्छाशक्ति से संभव हुआ। ये शुरुआती चुनौतियाँ भारत को एक मज़बूत और सशक्त राष्ट्र बनाने की दिशा में पहले कदम थे।

प्रश्न 2: भारत का विभाजन किन कारणों से हुआ और इसके क्या प्रभाव पड़े?

उत्तर: भारत का विभाजन 15 अगस्त 1947 को हुआ, जिसके तहत ब्रिटिश भारत से दो स्वतंत्र राष्ट्र अस्तित्व में आए — भारत और पाकिस्तान। यह विभाजन राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और ऐतिहासिक कारणों से उत्पन्न हुआ था। इसका प्रभाव न केवल तत्कालीन भारत पर पड़ा, बल्कि यह आज भी भारतीय उपमहाद्वीप की राजनीति और समाज को प्रभावित करता है।

🔹 विभाजन के प्रमुख कारण:

1. धार्मिक मतभेद और साम्प्रदायिकता का बढ़ना:

  • ब्रिटिश शासन के अंतिम वर्षों में हिंदू-मुस्लिम तनाव बढ़ता गया।

  • मुस्लिम लीग ने यह प्रचार किया कि मुसलमानों को हिंदू-बहुल भारत में उनका हक नहीं मिलेगा।

2. मुस्लिम लीग और ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’:

  • मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने यह दावा किया कि हिंदू और मुस्लिम दो अलग-अलग राष्ट्र हैं, जिनकी संस्कृति, धर्म और जीवनशैली अलग है।

  • 1940 के लाहौर प्रस्ताव में मुस्लिम बहुल क्षेत्रों के लिए अलग देश की माँग रखी गई।

3. ब्रिटिश नीति – ‘फूट डालो और राज करो’:

  • ब्रिटिश सरकार ने जानबूझकर हिंदू-मुस्लिम समुदायों के बीच दूरी बढ़ाई।

  • उन्होंने मुस्लिम लीग और कांग्रेस के बीच तनाव को बढ़ावा दिया और समय पर निर्णायक भूमिका नहीं निभाई।

4. कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच समझौते की विफलता:

  • 1946 में कैबिनेट मिशन योजना भारत को एकजुट रखने का अंतिम प्रयास थी, लेकिन दोनों दलों के बीच मतभेद के कारण यह विफल रही।

5. सीधी कार्रवाई दिवस और दंगे (1946):

  • मुस्लिम लीग द्वारा 16 अगस्त 1946 को मनाया गया सीधी कार्रवाई दिवस कोलकाता और अन्य क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा का कारण बना।

🔹 भारत विभाजन के प्रभाव:

1. जनसंख्या का भारी पलायन और हिंसा:

  • विभाजन के कारण लगभग 1.5 करोड़ लोग भारत और पाकिस्तान के बीच दिशा बदलकर चले गए

  • इस दौरान सांप्रदायिक दंगों में लगभग 10 लाख लोगों की मौत हुई और लाखों महिलाएं अत्याचार का शिकार हुईं।

2. शरणार्थियों की समस्या:

  • भारत को लाखों विस्थापितों को बसाना पड़ा। यह आर्थिक और सामाजिक दोनों दृष्टि से एक बहुत बड़ी चुनौती थी।

3. संपत्ति और संसाधनों का बँटवारा:

  • सेना, प्रशासन, रेल, सरकारी खजाने आदि का बँटवारा करना जटिल और विवादास्पद रहा।

  • भारत ने पाकिस्तान को उसके हिस्से का पैसा देने से मना किया था, जिसे बाद में गांधीजी के आग्रह पर दिया गया।

4. कश्मीर विवाद की शुरुआत:

  • जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय को लेकर पाकिस्तान ने आपत्ति जताई और 1947-48 में युद्ध हुआ। तब से कश्मीर एक अंतरराष्ट्रीय विवाद बना हुआ है।

5. भारत-पाक संबंधों में कटुता:

  • विभाजन के बाद से भारत और पाकिस्तान के बीच तीन बड़े युद्ध हो चुके हैं (1947, 1965, 1971) और आज तक राजनयिक तनाव बना हुआ है।

6. मानवता पर धक्का:

  • विभाजन के दौरान हुई हिंसा, बलात्कार, लूटपाट और नरसंहार ने मानवता को शर्मसार किया और लाखों लोगों की जिंदगी हमेशा के लिए बदल दी।

🔹 निष्कर्ष:

भारत का विभाजन ऐतिहासिक रूप से एक दुखद, जटिल और हिंसक प्रक्रिया थी। यह केवल एक राजनीतिक निर्णय नहीं था, बल्कि करोड़ों आम लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाली त्रासदी बन गया। इसके पीछे धार्मिक, राजनीतिक और औपनिवेशिक नीतियों का योगदान था। विभाजन से उत्पन्न समस्याएँ — जैसे कश्मीर विवाद, साम्प्रदायिकता और भारत-पाक तनाव — आज भी भारतीय उपमहाद्वीप के लिए चुनौती बने हुए हैं।

प्रश्न 3: भारतीय संविधान के निर्माण में डॉ. भीमराव अंबेडकर की क्या भूमिका थी?

उत्तर: डॉ. भीमराव अंबेडकर भारतीय संविधान के निर्माण में सबसे प्रमुख और निर्णायक व्यक्तियों में से एक थे। उन्हें “भारतीय संविधान का शिल्पकार” (Architect of the Indian Constitution) कहा जाता है। उनका योगदान न केवल संविधान के प्रारूपण में था, बल्कि उन्होंने भारतीय लोकतंत्र के सामाजिक न्याय, समानता और मानवाधिकारों की नींव भी रखी।

🔹 1. संविधान सभा में उनकी भूमिका:

  • डॉ. अंबेडकर संविधान सभा के सदस्य थे और उन्हें 7 सदस्यीय प्रारूप समिति (Drafting Committee) का अध्यक्ष नियुक्त किया गया, जो संविधान का प्रारूप तैयार करने की जिम्मेदारी निभा रही थी।

  • प्रारूप समिति की रिपोर्ट के आधार पर ही भारतीय संविधान तैयार हुआ।

🔹 2. सामाजिक न्याय और समानता के विचार:

  • अंबेडकर ने संविधान के माध्यम से सामाजिक समानता और न्याय की गारंटी दी।

  • उन्होंने जाति-प्रथा और छुआछूत के खिलाफ ठोस प्रावधान कराए — जैसे अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता की समाप्ति।

  • उन्होंने सभी नागरिकों के लिए समान अवसर और अवसरों की समानता का अधिकार सुनिश्चित किया।

🔹 3. मौलिक अधिकारों की वकालत:

  • डॉ. अंबेडकर ने संविधान में मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) को विशेष महत्त्व दिया।

  • उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि हर नागरिक को विचार, अभिव्यक्ति, धर्म, शिक्षा, समानता और स्वतंत्रता के अधिकार मिले।

🔹 4. धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की स्थापना:

  • उन्होंने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में परिभाषित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जहाँ राज्य किसी धर्म का पक्ष नहीं लेता।

  • उन्होंने लोकतांत्रिक प्रणाली की वकालत की — जिसमें संसद, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन हो।

🔹 5. आरक्षण नीति की नींव:

  • डॉ. अंबेडकर ने सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों (SC/ST) के लिए शैक्षणिक, राजनीतिक और नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था करवाई, ताकि वे बराबरी से मुख्यधारा में आ सकें।

🔹 6. संविधान सभा में उनके भाषण:

  • उनका 25 नवंबर 1949 को दिया गया समापन भाषण ऐतिहासिक था, जिसमें उन्होंने संविधान के महत्व, उसके क्रियान्वयन, और लोकतंत्र को मजबूत करने की आवश्यकता पर बल दिया।

  • उन्होंने तीन चेतावनियाँ भी दीं — भक्तिवाद से सावधान रहना, सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना, और संवैधानिक तरीकों से संघर्ष करना।

🔹 निष्कर्ष:

डॉ. भीमराव अंबेडकर की भूमिका भारतीय संविधान के निर्माण में केवल तकनीकी विशेषज्ञ की नहीं, बल्कि एक दूरदर्शी समाज-सुधारक की रही। उन्होंने भारत के संविधान को एक ऐसा दस्तावेज बनाया जो केवल कानूनों का संग्रह नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बन गया। उनके विचार और योगदान आज भी भारतीय लोकतंत्र की आत्मा माने जाते हैं। इसलिए उन्हें संविधान का “मुख्य वास्तुकार” कहा जाता है।

प्रश्न 4: देशी रियासतों का एकीकरण कैसे हुआ? इस प्रक्रिया में सरदार पटेल की भूमिका पर प्रकाश डालिए।

उत्तर: भारत को जब 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता मिली, तब पूरा देश एक राजनीतिक इकाई नहीं था। ब्रिटिश भारत के साथ-साथ लगभग 562 देशी रियासतें (Princely States) थीं जो अंग्रेजों के अधीन होते हुए भी आंतरिक रूप से स्वतंत्र थीं। स्वतंत्रता के समय इन रियासतों को यह छूट दी गई थी कि वे भारत या पाकिस्तान में शामिल हो सकती हैं या स्वतंत्र भी रह सकती हैं। यह भारत की एकता और अखंडता के लिए गंभीर चुनौती थी। इस चुनौती का सफल समाधान सरदार वल्लभभाई पटेल और उनके सचिव वी.पी. मेनन के अद्भुत प्रशासनिक कौशल और कूटनीति से संभव हुआ।

🔹 देशी रियासतों के एकीकरण की प्रक्रिया:

1. राजनीतिक विकल्प:

ब्रिटिश सरकार ने स्पष्ट किया कि स्वतंत्रता के बाद देशी रियासतें अब ब्रिटिश सत्ता के अधीन नहीं रहेंगी। इससे कई रियासतों ने स्वतंत्र रहने या पाकिस्तान में शामिल होने की इच्छा व्यक्त की।

2. सरदार पटेल की पहल:

  • सरदार पटेल ने भारत सरकार में गृहमंत्री और रियासत विभाग के मंत्री के रूप में देशी रियासतों के एकीकरण का कार्यभार संभाला।

  • उन्होंने रियासतों को “भारतीय संघ” में शामिल होने के लिए प्रेरित किया।

3. विलय पत्र (Instrument of Accession):

पटेल ने रियासतों के शासकों को यह प्रस्ताव दिया कि वे विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर भारत में सम्मिलित हो जाएँ, जिसमें भारत केवल रक्षा, विदेश नीति और संचार के मामलों में हस्तक्षेप करेगा।

4. कूटनीति और दृढ़ता का मिश्रण:

सरदार पटेल ने कुछ रियासतों को समझाया, कुछ को दबाव डाला, और कुछ जगहों पर सैन्य कार्रवाई का संकेत देकर सभी को भारत में मिलाने में सफलता प्राप्त की।

🔹 कुछ प्रमुख रियासतों का एकीकरण:

1. हैदराबाद:

  • निज़ाम स्वतंत्र रहना चाहता था।

  • वहाँ रजाकारों के आतंक के कारण स्थिति बिगड़ने लगी।

  • ‘ऑपरेशन पोलो’ नामक सैन्य कार्रवाई कर के 1948 में हैदराबाद का भारत में विलय कराया गया।

2. जूनागढ़:

  • यह एक मुस्लिम शासक की रियासत थी लेकिन बहुसंख्यक जनता हिंदू थी।

  • नवाब ने पाकिस्तान में शामिल होने की घोषणा की, लेकिन जनमत संग्रह (Referendum) कराया गया, जिसमें जनता ने भारत के पक्ष में मतदान किया।

3. जम्मू-कश्मीर:

  • राजा हरि सिंह पहले स्वतंत्र रहना चाहते थे।

  • पाकिस्तान के कबायली हमले के बाद उन्होंने भारत में विलय का निर्णय लिया, जिसके बाद भारत ने वहाँ अपनी सेना भेजी।

🔹 सरदार पटेल की भूमिका:

✅ कुशल संगठनकर्ता और रणनीतिकार:

  • पटेल ने यह समझा कि यदि रियासतों को स्वतंत्र रहने दिया गया, तो भारत की एकता असंभव हो जाएगी।

  • उन्होंने दृढ़ता और व्यावहारिकता से काम लिया।

राजनीतिक द्रष्टा:

  • पटेल ने राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखा और व्यक्तिगत भावनाओं से ऊपर उठकर निर्णय लिए।

“लौह पुरुष” की छवि:

  • उनके कठोर लेकिन न्यायपूर्ण रुख के कारण ही उन्हें “Iron Man of India” (भारत का लौह पुरुष) कहा जाता है।

🔹 निष्कर्ष:

देशी रियासतों का एकीकरण भारत के लिए सबसे बड़ी प्रारंभिक चुनौतियों में से एक था, और इसमें सरदार वल्लभभाई पटेल की भूमिका ऐतिहासिक और निर्णायक रही। उनकी दूरदर्शिता, नेतृत्व क्षमता और राष्ट्र के प्रति अटूट समर्पण ने भारत को एक एकीकृत और संगठित राष्ट्र के रूप में स्थापित किया। यह कार्य उनके अद्वितीय प्रशासनिक कौशल और दृढ़ संकल्प का प्रमाण है।

प्रश्न 6: भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की आवश्यकता क्यों महसूस की गई?

उत्तर: स्वतंत्रता के बाद भारत में प्रशासनिक इकाइयाँ ब्रिटिश काल की सीमाओं पर आधारित थीं, जिनमें विभिन्न भाषाई और सांस्कृतिक समूहों को एक साथ जोड़ा गया था। परंतु जनता की भाषाई पहचान और सांस्कृतिक समानता को ध्यान में रखते हुए राज्यों के पुनर्गठन की मांग उठी। भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन भारत के राजनीतिक स्थिरता, प्रशासनिक दक्षता, और सामाजिक एकता के लिए आवश्यक हो गया था।

🔹 भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की आवश्यकता के प्रमुख कारण:

1. भाषाई असमानता और प्रशासनिक कठिनाई:

  • ब्रिटिश भारत के विभाजन में कई भाषाई समूह ऐसे थे जिन्हें अलग-अलग राज्यों में रखा गया था।

  • इससे प्रशासनिक कार्यों में जटिलता आई क्योंकि स्थानीय जनता अपनी भाषा में सरकारी सेवाओं और शिक्षण में सुविधा चाहती थी।

2. जनता की भाषाई पहचान और अधिकार की मांग:

  • अलग-अलग क्षेत्र की जनता अपनी भाषा और संस्कृति को बनाए रखने की इच्छा रखती थी।

  • भाषाई आधार पर अलग राज्य मांगना लोगों के स्वाभिमान और पहचान से जुड़ा हुआ मुद्दा था।

3. सांस्कृतिक और सामाजिक समरसता बढ़ाने के लिए:

  • भाषा किसी भी क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा होती है।

  • एक ही भाषा बोलने वाले लोगों को एक साथ रखने से सामाजिक और सांस्कृतिक एकता मजबूत होती है।

4. प्रशासनिक दक्षता में सुधार:

  • भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन से प्रशासनिक कामकाज सुगम हुआ।

  • स्थानीय भाषाओं में कानून, शिक्षा, और सरकारी सेवाएं अधिक प्रभावी ढंग से संचालित हो सकीं।

5. राजनीतिक दबाव और आंदोलनों के कारण:

  • 1950 के दशक में आंध्र प्रदेश में तेलुगू भाषी जनता ने विजयवाड़ा आंदोलन चलाया, जिसमें तेलुगू भाषी लोगों के लिए अलग राज्य की मांग की गई।

  • इस आंदोलन ने भारत सरकार को भाषाई पुनर्गठन पर विचार करने के लिए मजबूर किया।

6. संविधान के अनुच्छेद 3 के तहत राज्यों के पुनर्गठन की अनुमति:

  • संविधान में राज्यों की सीमाओं को पुनर्गठित करने की व्यवस्था थी।

  • सरकार ने 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया ताकि भाषा और सांस्कृतिक आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया जा सके।

🔹 निष्कर्ष:

भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की आवश्यकता इसलिए महसूस की गई क्योंकि यह भारत के विशाल और विविध समाज में प्रशासनिक दक्षता, सामाजिक समरसता और राजनीतिक स्थिरता सुनिश्चित करता था। इससे लोगों को उनकी भाषाई और सांस्कृतिक पहचान को मान्यता मिली, जिससे राष्ट्रीय एकता और लोकतंत्र को मजबूती मिली। 1956 में पुनर्गठन आयोग की रिपोर्ट के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हुआ, जिसने भारत को आज का संघीय स्वरूप दिया।

प्रश्न 7: भारतीय लोकतंत्र के लिए ‘एक दलीय प्रभुत्व’ क्या मायने रखता था? इसे कौन चुनौती दे पाया?

उत्तर: 🔹 ‘एक दलीय प्रभुत्व’ का अर्थ और भारतीय लोकतंत्र के लिए महत्व:

एक दलीय प्रभुत्व का मतलब है कि किसी देश में केवल एक ही राजनीतिक पार्टी इतनी मजबूत हो कि वह लंबे समय तक सत्ता पर काबिज रहे और अन्य दलों को प्रभावी चुनौती न दे पाए। भारत में स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस पार्टी ने ऐसा प्रभुत्व स्थापित किया।

भारतीय लोकतंत्र में एक दलीय प्रभुत्व के मायने:

  1. राजनीतिक स्थिरता:

    • कांग्रेस के मजबूत नेतृत्व ने भारत को स्वतंत्रता के बाद राजनीतिक स्थिरता दी।

    • विकास कार्यों और नीतियों को सुचारू रूप से लागू करने में सहूलियत मिली।

  2. राष्ट्रीय एकता का आधार:

    • कांग्रेस ने विभिन्न वर्गों, भाषाओं और धर्मों के लोगों को एकजुट रखा।

    • देश के विभिन्न हिस्सों में एकता बनाए रखने में सहायक रही।

  3. विकास और सुधार के लिए अवसर:

    • एक पार्टी के होने से नीतिगत फैसले बिना बहुत अधिक विवाद के लिए बन पाए।

    • कृषि सुधार, औद्योगिकीकरण और शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई।

एक दलीय प्रभुत्व के नकारात्मक पहलू:

  • लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा कमजोर हुई।

  • सत्ता पर काबिज पार्टी की आलोचना और विकल्प सीमित हुए।

  • कभी-कभी भ्रष्टाचार और तानाशाही प्रवृत्तियाँ बढ़ सकती हैं।

🔹 एक दलीय प्रभुत्व को चुनौती देने वाले दल:

  1. 1967 के आम चुनाव:

    • यह चुनाव कांग्रेस के लिए बड़ा झटका था। कई राज्यों में कांग्रेस की सत्ता डगमगाई।

    • कई क्षेत्रीय दल और विपक्षी दलों ने कांग्रेस को कड़ी टक्कर दी।

  2. क्षेत्रीय दलों की भूमिका:

    • जैसे तेलुगु देशम पार्टी (TDP), शिवसेना, समाजवादी पार्टी, जनता दल आदि ने स्थानीय मुद्दों को प्रमुखता देकर कांग्रेस के प्रभुत्व को चुनौती दी।

    • ये दल अपनी-अपनी भाषाई और सामाजिक पहचान के आधार पर जनसमर्थन जुटाने में सफल रहे।

  3. कांग्रेस के भीतर से विरोध:

    • 1969 में कांग्रेस पार्टी दो धड़ों में बंट गई — इंदिरा गांधी का धड़ा और ओल्ड कांग्रेस

    • इससे कांग्रेस की एकजुटता और प्रभुत्व प्रभावित हुआ।

🔹 निष्कर्ष:

भारतीय लोकतंत्र के लिए ‘एक दलीय प्रभुत्व’ ने स्वतंत्रता के बाद राजनीतिक स्थिरता और विकास में योगदान दिया, लेकिन लंबे समय तक इससे लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा पर असर पड़ा। 1967 के चुनावों के बाद क्षेत्रीय दलों और विपक्षी संगठनों ने कांग्रेस के प्रभुत्व को चुनौती दी, जिससे भारत में बहुदलीय प्रणाली मजबूत हुई। इस बदलाव ने भारतीय लोकतंत्र को और अधिक जीवंत, उत्तरदायी और बहुलवादी बनाया।

प्रश्न 8: योजना आयोग की स्थापना क्यों की गई और इसके प्रमुख उद्देश्य क्या थे?

उत्तर: 🔹 योजना आयोग की स्थापना का कारण:

भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद देश की आर्थिक और सामाजिक स्थिति बहुत कमजोर थी। गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, और कमजोर उद्योगों जैसी समस्याएँ व्याप्त थीं। ऐसे में विकास की योजनाबद्ध प्रक्रिया को अपनाने की जरूरत थी ताकि देश की समृद्धि और खुशहाली सुनिश्चित हो सके। इसी उद्देश्य से 1950 में योजना आयोग की स्थापना की गई।

🔹 योजना आयोग की स्थापना कब और किसने की?

  • योजना आयोग की स्थापना 15 मार्च 1950 को की गई।

  • इसका गठन भारत सरकार ने किया था।

  • इसका उद्देश्य था देश के विकास के लिए आर्थिक नीतियाँ और योजनाएँ बनाना।

🔹 योजना आयोग के प्रमुख उद्देश्य:

  1. योजनाओं का निर्माण और क्रियान्वयन:

    • देश के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाएँ बनाना।

    • इन योजनाओं के माध्यम से कृषि, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों का विकास करना।

  2. संसाधनों का समन्वय:

    • केंद्र और राज्यों के बीच संसाधनों का वितरण और समन्वय करना।

    • विकास कार्यों के लिए धन और संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करना।

  3. देश के आर्थिक लक्ष्यों का निर्धारण:

    • राष्ट्रीय विकास के लिए लक्ष्य तय करना, जैसे उत्पादन में वृद्धि, गरीबी उन्मूलन, रोजगार सृजन आदि।

  4. अल्पकालिक और दीर्घकालिक विकास रणनीतियाँ तैयार करना:

    • आर्थिक नीति का नियोजन और उसका मूल्यांकन करना।

    • समग्र विकास के लिए नीतिगत सुझाव देना।

  5. क्षेत्रीय असमानताओं को कम करना:

    • देश के विभिन्न क्षेत्रों में विकास के अंतर को कम करने के लिए विशेष प्रयास करना।

🔹 योजना आयोग का महत्व:

  • इस आयोग ने भारत के विकास को एक नई दिशा दी।

  • पहली पंचवर्षीय योजना (1951-56) से लेकर अनेक योजनाओं ने देश को आर्थिक रूप से मजबूत करने में मदद की।

  • यह योजना आयोग भारत के विकास मॉडल का आधार बना।

🔹 निष्कर्ष:

योजना आयोग की स्थापना भारत के समग्र और सुनियोजित विकास के लिए की गई थी। इसके द्वारा बनाई गई योजनाएँ देश की आर्थिक समस्याओं को दूर करने और विकास की गति तेज करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रहीं। यह भारत के विकास का मार्गदर्शक संस्था थी जिसने योजना आधारित विकास की संस्कृति को स्थापित किया।

प्रश्न 9: भारत की विदेश नीति में गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) की भूमिका क्या थी?

उत्तर:🔹 गुटनिरपेक्ष आंदोलन (Non-Aligned Movement – NAM) का परिचय:

गुटनिरपेक्ष आंदोलन की स्थापना 1961 में हुई, जब दुनिया दो बड़े सैन्य और राजनीतिक गुटों — नाटो (पश्चिमी देश) और वारसॉ संधि संगठन (सोवियत ब्लॉक) — में बंटी हुई थी। भारत ने इस आंदोलन को अपनाकर किसी भी महाशक्ति या सैन्य गुट के साथ न जुड़ने की नीति अपनाई।

🔹 भारत की विदेश नीति में NAM की भूमिका:

1. स्वतंत्र और स्वतंत्रता से निर्णय लेने वाली विदेश नीति:

  • भारत ने गुटनिरपेक्षता को अपनाकर यह संदेश दिया कि वह किसी भी महाशक्ति के प्रभाव में नहीं आएगा।

  • यह नीति भारत को अपने राष्ट्रीय हितों के अनुसार स्वतंत्र निर्णय लेने की आज़ादी देती थी।

2. शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का समर्थन:

  • NAM के तहत भारत ने सभी देशों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और सहयोग की नीति अपनाई।

  • तनाव और युद्ध की बजाय संवाद और सहमति को प्राथमिकता दी गई।

3. वैश्विक शांति और सुरक्षा में योगदान:

  • भारत ने शीत युद्ध के दौरान दोनों गुटों के बीच तनाव कम करने में भूमिका निभाई।

  • भारत ने आर्थिक और सामाजिक विकास को वैश्विक शांति का आधार माना।

4. विकासशील देशों के हितों की रक्षा:

  • NAM ने विश्व के गरीब और विकासशील देशों को एक मंच दिया जहाँ वे अपनी आवाज़ उठा सके।

  • भारत ने इस मंच से विकासशील देशों के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत किया।

5. वैश्विक शक्ति संतुलन में संतुलन बनाना:

  • भारत ने दोनों महाशक्तियों के बीच संतुलन कायम रखने की कोशिश की, जिससे भारत का क्षेत्रीय और वैश्विक महत्व बना रहे।

6. स्वतंत्रता संग्राम के बाद नया स्वरूप:

  • स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने यह सुनिश्चित किया कि वह किसी भी सैन्य गठबंधन में फंसे बिना अपनी विदेश नीति बनाए।

🔹 भारत के लिए NAM का महत्व:

  • प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गुटनिरपेक्षता की नींव रखी और NAM के संस्थापक सदस्यों में से एक थे।

  • NAM ने भारत को एक विश्वसनीय, शांतिप्रिय और स्वतंत्र शक्ति के रूप में स्थापित किया।

  • इस नीति ने भारत को वैश्विक राजनीति में अपनी अलग पहचान बनाने में मदद की।

🔹 निष्कर्ष:

गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने भारत की विदेश नीति को स्वतंत्र, संतुलित और शांति-प्रधान बनाया। इसने भारत को विश्व राजनीति में एक प्रभावशाली भूमिका दी, जिससे भारत ने न केवल अपनी सुरक्षा और विकास के लिए सही नीति अपनाई, बल्कि विकासशील देशों के हितों को भी मजबूती से प्रस्तुत किया। NAM की नीति ने भारत को शीत युद्ध के दौर में गुटों के प्रभाव से बचाकर एक स्थिर और सम्मानित वैश्विक भूमिका दी।

प्रश्न 10: भारतीय राजनीति में 1967 के आम चुनावों का क्या महत्व था? इसने राष्ट्र निर्माण की दिशा को कैसे प्रभावित किया?

उत्तर: 🔹 1967 के आम चुनावों का राजनीतिक महत्व:

1967 के आम चुनाव स्वतंत्रता के बाद भारत में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक मोड़ साबित हुए। यह पहला ऐसा चुनाव था जिसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पूर्ण दलीय प्रभुत्व कमजोर हुआ। कांग्रेस ने अधिकांश राज्यों में तो जीत हासिल की, लेकिन कई महत्वपूर्ण राज्यों में उसे सत्ता गंवानी पड़ी या उसकी स्थिति डगमगा गई।

🔹 1967 के चुनावों की प्रमुख विशेषताएँ:

  1. कांग्रेस का प्रभुत्व कम होना:

    • कांग्रेस ने 1962 के मुकाबले सीटों की संख्या में भारी कमी देखी।

    • छह राज्यों में विपक्षी दलों या गठबंधनों ने सरकार बनाई।

  2. क्षेत्रीय दलों और विपक्ष का उदय:

    • क्षेत्रीय दलों जैसे कि तेलुगु देशम पार्टी, शिवसेना, समाजवादी पार्टी आदि ने अपनी पहचान बनाई।

    • विपक्षी दलों के गठबंधनों ने कांग्रेस को चुनौती दी।

  3. लोकतंत्र की बहुदलीय व्यवस्था को बल मिला:

    • यह चुनाव बहुदलीय लोकतंत्र की परिपक्वता का संकेत था।

    • लोकतांत्रिक प्रक्रिया में प्रतिस्पर्धा बढ़ी।

🔹 राष्ट्र निर्माण की दिशा पर प्रभाव:

1. राजनीतिक सततता में बदलाव:

  • कांग्रेस की सर्वशक्तिमान स्थिति में कमी आने से शासन में जवाबदेही बढ़ी।

  • विपक्षी दलों ने नीतियों पर जांच और आलोचना का काम शुरू किया।

2. क्षेत्रीय मुद्दों और पहचान को बढ़ावा:

  • विभिन्न क्षेत्रों की भाषाई, सांस्कृतिक और आर्थिक समस्याएँ अब बेहतर तरीके से सामने आईं।

  • इससे राज्यों के पुनर्गठन, क्षेत्रीय विकास और सांस्कृतिक संरक्षण की दिशा में काम हुआ।

3. सत्ता का विकेंद्रीकरण:

  • सत्ता केवल राष्ट्रीय स्तर पर केंद्रीकृत न होकर राज्यों और स्थानीय स्तरों पर भी मजबूत हुई।

  • इससे संघीय प्रणाली को मजबूती मिली।

4. लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का गहन विकास:

  • चुनावी प्रतिस्पर्धा से लोकतंत्र अधिक जीवंत हुआ।

  • नेताओं और पार्टियों को जनता की अपेक्षाओं और समस्याओं के प्रति संवेदनशील होना पड़ा।

5. नयी राजनीतिक सोच और नेतृत्व का उदय:

  • कांग्रेस के भीतर नए नेताओं ने अपनी अलग पहचान बनाई।

  • अन्य पार्टियों ने नए नीतिगत दृष्टिकोण पेश किए।

🔹 निष्कर्ष:

1967 के आम चुनाव भारतीय राजनीति में कांग्रेस के एकदलीय प्रभुत्व की समाप्ति और बहुदलीय लोकतंत्र की स्थापना का प्रतीक थे। इस चुनाव ने भारतीय लोकतंत्र को अधिक प्रतिस्पर्धी, जवाबदेह और संवेदनशील बनाया, जिससे राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया और अधिक समावेशी और लोकतांत्रिक हुई। इसके परिणामस्वरूप भारत की संघीय संरचना मजबूत हुई और क्षेत्रीय विविधताओं को मान्यता मिली, जो देश की अखंडता और विकास के लिए आवश्यक था।

Author

SANTU KUMAR

I am a passionate Teacher of Class 8th to 12th and cover all the Subjects of JAC and Bihar Board. I love creating content that helps all the Students. Follow me for more insights and knowledge.

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