प्रश्न 1. नियोजित विकास से आप क्या समझते हैं? भारत में इसकी शुरुआत कब और क्यों हुई?
उत्तर – नियोजित विकास की राजनीति: एक परिचय
नियोजित विकास (Planned Development) का तात्पर्य है एक सुविचारित और व्यवस्थित तरीके से संसाधनों का उपयोग करके आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास की प्रक्रिया। भारत में नियोजित विकास की शुरुआत स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हुई, जब यह महसूस किया गया कि बिना सुनियोजित प्रयासों के देश की विशाल जनसंख्या और संसाधनों का उचित उपयोग संभव नहीं है।
भारत में नियोजित विकास की शुरुआत
1. स्वतंत्रता प्राप्ति और विकास की आवश्यकता
1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत को एक स्थिर और समृद्ध राष्ट्र बनाने की आवश्यकता महसूस हुई। देश की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित थी, और औद्योगिकीकरण की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए थे। इसके परिणामस्वरूप बेरोजगारी, गरीबी और पिछड़ेपन की समस्याएँ उत्पन्न हो रही थीं।
2. योजना आयोग की स्थापना
15 मार्च 1950 को पं. जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में योजना आयोग की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य देश के आर्थिक संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग करते हुए दीर्घकालिक विकास की दिशा में कार्य करना था। योजना आयोग ने पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से विकास की रूपरेखा तैयार की।
प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-1956)
प्रथम पंचवर्षीय योजना का मुख्य उद्देश्य कृषि उत्पादन में वृद्धि करना था। इस योजना में सिंचाई, भूमि सुधार और खाद्यान्न उत्पादन पर विशेष ध्यान दिया गया। भाखड़ा-नांगल, हीराकुंड और दामोदर घाटी जैसी सिंचाई परियोजनाओं की शुरुआत की गई।
द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-1961)
द्वितीय पंचवर्षीय योजना में औद्योगिकीकरण पर जोर दिया गया। पी.सी. महालनोबिस के नेतृत्व में भारी उद्योगों के विकास की दिशा में कदम उठाए गए। इसमें इस्पात, बिजली, परिवहन और संचार जैसे क्षेत्रों में निवेश किया गया। हालांकि, कृषि क्षेत्र की उपेक्षा के कारण खाद्यान्न संकट उत्पन्न हुआ।
तृतीय पंचवर्षीय योजना (1961-1966)
तृतीय पंचवर्षीय योजना में कृषि और औद्योगिकीकरण के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया गया। हालांकि, 1962 में चीन युद्ध और 1965 में पाकिस्तान युद्ध के कारण योजना के लक्ष्यों को पूरा करना चुनौतीपूर्ण हो गया।
चतुर्थ पंचवर्षीय योजना (1966-1969)
चतुर्थ पंचवर्षीय योजना में आर्थिक स्थिरता और विकास की गति को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया गया। इसमें गाडगिल फॉर्मूला के माध्यम से राज्यों के बीच संसाधनों का समान वितरण सुनिश्चित किया गया।
पंचवर्षीय योजनाओं की आलोचना
नियोजित विकास की प्रक्रिया में कुछ आलोचनाएँ भी सामने आईं:
कृषि और उद्योग के बीच असंतुलन: औद्योगिकीकरण के कारण कृषि क्षेत्र की उपेक्षा हुई, जिससे खाद्यान्न संकट उत्पन्न हुआ।
संसाधनों का असमान वितरण: विकास के लाभ सभी वर्गों और क्षेत्रों तक समान रूप से नहीं पहुँचे।
पर्यावरणीय प्रभाव: विकास परियोजनाओं के कारण पर्यावरणीय असंतुलन उत्पन्न हुआ।
निष्कर्ष
नियोजित विकास की राजनीति ने भारत को आर्थिक और सामाजिक दृष्टिकोण से प्रगति की दिशा में अग्रसर किया। हालांकि, इस प्रक्रिया में कुछ चुनौतियाँ और असंतुलन उत्पन्न हुए, फिर भी यह देश के समग्र विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भविष्य में, नियोजित विकास की प्रक्रिया को और अधिक समावेशी, सतत और पर्यावरणीय दृष्टिकोण से संतुलित बनाने की आवश्यकता है।
सुझावित विस्तार के लिए विषय:
नियोजित विकास और समाजवाद: कैसे नियोजित विकास समाजवादी सिद्धांतों पर आधारित था।
नियोजन आयोग और राष्ट्रीय विकास परिषद्: इन संस्थाओं की भूमिका और योगदान।
नियोजित विकास की राजनीति और लोकतंत्र: कैसे नियोजन प्रक्रिया ने लोकतांत्रिक संस्थाओं को प्रभावित किया।
नियोजन की आलोचना और सुधार की दिशा: नियोजन की आलोचनाएँ और भविष्य में सुधार की संभावनाएँ।
प्रश्न 2. भारतीय योजना आयोग की स्थापना कब हुई और इसका मुख्य उद्देश्य क्या था?
उत्तर – भारतीय योजना आयोग (Planning Commission of India) की स्थापना 15 मार्च 1950 को की गई थी। यह एक गैर-संवैधानिक और गैर-वैधानिक निकाय था, जिसका गठन भारत सरकार द्वारा एक कार्यकारी आदेश (executive resolution) के माध्यम से किया गया था। इसे संविधान में विशेष रूप से उल्लेखित नहीं किया गया है।
स्थापना का पृष्ठभूमि:
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत एक नवोदित राष्ट्र था जिसे व्यापक गरीबी, बेरोजगारी, आर्थिक असमानता, औद्योगिक पिछड़ेपन और अविकसित बुनियादी ढांचे जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था।
इसके समाधान के लिए एक समन्वित और वैज्ञानिक योजना की आवश्यकता महसूस की गई।
इसी उद्देश्य से प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में योजना आयोग की स्थापना की गई।
मुख्य उद्देश्य:
भारतीय योजना आयोग का मुख्य उद्देश्य देश के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाएँ तैयार करना और उनके क्रियान्वयन की निगरानी करना था। इसके विस्तृत उद्देश्यों में शामिल थे:
संसाधनों का मूल्यांकन
देश के उपलब्ध भौतिक, मानव और वित्तीय संसाधनों का आकलन करना।
विकास योजनाओं का निर्माण
अल्पकालिक और दीर्घकालिक योजनाओं का निर्माण करना, खासकर पंचवर्षीय योजनाएँ।
संसाधनों का प्रभावी आवंटन
संसाधनों का इस प्रकार आवंटन करना जिससे अधिकतम उत्पादन और रोजगार सृजन हो सके।
प्राथमिकताओं का निर्धारण
राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुसार प्राथमिक क्षेत्रों (जैसे कृषि, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य) की पहचान करना।
राज्यों के साथ समन्वय
केंद्र और राज्यों के बीच योजना से संबंधित कार्यों का समन्वय करना।
प्रगति की निगरानी और मूल्यांकन
योजनाओं के कार्यान्वयन की निगरानी करना और आवश्यकतानुसार उनमें सुधार करना।
निष्कर्ष:
भारतीय योजना आयोग ने दशकों तक भारत के विकास की दिशा तय करने में केंद्रीय भूमिका निभाई। इसकी मदद से भारत ने कृषि, औद्योगिक उत्पादन, बुनियादी ढांचे और सामाजिक कल्याण जैसे क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति की। हालांकि, समय के साथ इसकी आलोचना भी हुई कि यह एक केंद्रीकृत और लचीलेपन से रहित संस्था है। इसलिए 2015 में इसे भंग कर दिया गया और इसके स्थान पर “नीति आयोग (NITI Aayog)” की स्थापना की गई।
प्रश्न 3. भारत में प्रथम पंचवर्षीय योजना के मुख्य लक्ष्य क्या थे?
उत्तर – भारत की प्रथम पंचवर्षीय योजना की शुरुआत 1951-1956 के बीच हुई थी। यह योजना पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनाई गई थी और इसका आधार सामाजिक न्याय के साथ आर्थिक विकास था। योजना का निर्माण हैरोड-डोमर मॉडल (Harrod-Domar Model) पर आधारित था, जो पूंजी निर्माण और आर्थिक वृद्धि को केंद्र में रखता है।
मुख्य लक्ष्य (Main Objectives):
कृषि क्षेत्र का विकास
स्वतंत्रता के बाद भारत एक खाद्यान्न संकट से जूझ रहा था।
इसलिए इस योजना का प्राथमिक उद्देश्य कृषि उत्पादन में वृद्धि करना था।
सिंचाई, उन्नत बीज, खाद, कीटनाशक और भूमि सुधार जैसे उपायों को बढ़ावा दिया गया।
खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना
देश में भुखमरी और खाद्यान्न की कमी को दूर करने के लिए उत्पादन बढ़ाना अनिवार्य था।
सिंचाई और जल परियोजनाओं पर बल
कृषि को सहायता देने के लिए भाखड़ा नांगल, हीराकुंड, और दामोदर घाटी जैसी बड़ी सिंचाई परियोजनाओं की शुरुआत की गई।
रोजगार सृजन
ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर पैदा कर बेरोजगारी को कम करना।
निवेश में वृद्धि और पूंजी निर्माण
बुनियादी ढाँचे में निवेश बढ़ाकर देश के दीर्घकालिक औद्योगिक विकास की नींव रखना।
पारंपरिक उद्योगों को बढ़ावा देना
हस्तशिल्प, खादी, और लघु उद्योगों को प्रोत्साहित कर स्वदेशी उत्पादन को बल देना।
शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाएँ
शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा और जनकल्याण की बुनियादी संरचना को विकसित करना।
निष्कर्ष:
प्रथम पंचवर्षीय योजना का प्रमुख उद्देश्य था कृषि को सुदृढ़ कर भारत की आर्थिक नींव को मजबूत बनाना। इस योजना को अपेक्षाकृत सफलता भी मिली — कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई और भारत ने आत्मनिर्भरता की ओर पहला कदम बढ़ाया।
प्रश्न 4. भारतीय नियोजित विकास में नेहरू जी की क्या भूमिका थी?
उत्तर – पंडित जवाहरलाल नेहरू, भारत के पहले प्रधानमंत्री, भारतीय नियोजित विकास के प्रणेता और दृष्टा माने जाते हैं। उन्होंने देश के सामाजिक, आर्थिक और औद्योगिक विकास के लिए योजना आधारित विकास मॉडल को अपनाने का मार्ग प्रशस्त किया। भारत की आर्थिक नियोजन प्रणाली की नींव उन्हीं की सोच पर आधारित थी।
🔷 नेहरू जी की भूमिका: विस्तृत विवरण
1. नियोजन के विचार के प्रति प्रतिबद्धता
नेहरू जी ने सोवियत संघ की पंचवर्षीय योजनाओं से प्रेरणा लेकर भारत में नियोजित विकास की अवधारणा को अपनाया।
उनका मानना था कि एक नवस्वतंत्र, निर्धन और विविधताओं से भरे देश के विकास के लिए योजनाबद्ध प्रयास जरूरी हैं।
2. योजना आयोग की स्थापना (1950)
15 मार्च 1950 को योजना आयोग (Planning Commission) की स्थापना नेहरू जी के नेतृत्व में की गई।
वे स्वयं इसके अध्यक्ष बने और उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि आयोग देश की सामाजिक और आर्थिक प्राथमिकताओं के अनुसार योजना बनाए।
3. पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत
नेहरू जी के कार्यकाल में तीन पंचवर्षीय योजनाएँ लागू हुईं:
प्रथम योजना (1951-56): कृषि और सिंचाई पर बल।
द्वितीय योजना (1956-61): भारी उद्योगों और औद्योगिक आधार का विकास।
तृतीय योजना (1961-66): कृषि और उद्योग में संतुलन।
4. मिश्रित अर्थव्यवस्था की अवधारणा
नेहरू जी ने भारत के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति अपनाई, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र दोनों की भूमिका रही।
इसका उद्देश्य था कि समाजवादी दृष्टिकोण के साथ-साथ उद्यमशीलता को भी बढ़ावा दिया जाए।
5. सार्वजनिक क्षेत्र का विकास
भारी उद्योग, इस्पात संयंत्र, जल विद्युत परियोजनाएं, रेल, बैंक, और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में सरकारी निवेश को प्राथमिकता दी गई।
नेहरू जी का मानना था कि “हमारे पास साधन कम हैं, लेकिन इच्छाशक्ति असीम है।”
6. विज्ञान, प्रौद्योगिकी और शिक्षा को बढ़ावा
नियोजित विकास के तहत उन्होंने आईआईटी, आईआईएससी, भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर जैसे संस्थानों की स्थापना को प्रोत्साहित किया।
यह दीर्घकालिक विकास की आधारशिला साबित हुआ।
7. ध्यान समाजवादी आदर्शों पर
नेहरू जी का विकास दृष्टिकोण समाजवादी आदर्शों से प्रेरित था – जैसे समानता, गरीबी उन्मूलन, और संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण।
उन्होंने कहा था:
“Planning is not just a matter of economics, it is the way to build a new society.”
🔷 निष्कर्ष:
नेहरू जी ने भारत में नियोजित विकास की नींव रखी और उसे दिशा दी। उनके नेतृत्व में विकास को सिर्फ आर्थिक उन्नति नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का उपकरण माना गया। वे मानते थे कि राज्य को एक “विकासक” (Developer State) की भूमिका निभानी चाहिए। नेहरू जी की नीतियाँ ही आज भी भारत के आर्थिक आधार की रूपरेखा निर्धारित करती हैं।
प्रश्न 5. भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था का क्या अर्थ है और यह किस प्रकार नियोजित विकास से जुड़ी है?
उत्तर – भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था का अर्थ और नियोजित विकास से जुड़ाव
मिश्रित अर्थव्यवस्था का परिचय
मिश्रित अर्थव्यवस्था एक ऐसी आर्थिक प्रणाली है जिसमें पूंजीवाद और समाजवाद दोनों के तत्वों का सम्मिलन होता है। इसमें कुछ उद्योगों का स्वामित्व और नियंत्रण सरकार के पास होता है, जबकि कुछ उद्योग निजी क्षेत्र के हाथों में होते हैं। इस प्रकार, मिश्रित अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों का सह-अस्तित्व होता है।मिश्रित अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ:
- निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों का सह-अस्तित्व: मिश्रित अर्थव्यवस्था में निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों का सह-अस्तित्व होता है। सार्वजनिक क्षेत्र में वे उद्योग आते हैं जो राष्ट्रीय सुरक्षा, बुनियादी ढाँचा, और सामाजिक कल्याण से जुड़े होते हैं, जैसे रक्षा, ऊर्जा, परिवहन आदि। निजी क्षेत्र में वे उद्योग आते हैं जो प्रतिस्पर्धा और लाभ के उद्देश्य से कार्य करते हैं।
- आर्थिक स्वतंत्रता: निजी क्षेत्र को अपनी गतिविधियों में स्वतंत्रता होती है, लेकिन यह स्वतंत्रता सरकारी नीतियों और नियमों के अधीन होती है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि निजी क्षेत्र की गतिविधियाँ समाज के हित में हों।
- आय और संपत्ति का समान वितरण: मिश्रित अर्थव्यवस्था में सरकार आय और संपत्ति के समान वितरण के लिए नीतियाँ बनाती है, जैसे प्रगतिशील कराधान, सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ, और गरीबों के लिए सब्सिडी।
- आर्थिक नियोजन: सरकार दीर्घकालिक विकास योजनाएँ बनाती है और उनका कार्यान्वयन करती है। यह योजनाएँ आर्थिक विकास, सामाजिक कल्याण, और क्षेत्रीय संतुलन सुनिश्चित करने के लिए होती हैं।
- मूल्य निर्धारण प्रणाली: मिश्रित अर्थव्यवस्था में कुछ वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें बाजार बलों द्वारा निर्धारित होती हैं, जबकि कुछ वस्तुओं की कीमतें सरकार द्वारा नियंत्रित होती हैं, जैसे आवश्यक वस्तुएँ।
नियोजित विकास का अर्थ
नियोजित विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सरकार दीर्घकालिक विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए योजनाएँ बनाती है और उनका कार्यान्वयन करती है। यह विकास आर्थिक, सामाजिक, और भौतिक क्षेत्रों में संतुलित और समग्र प्रगति सुनिश्चित करने के लिए होता है।नियोजित विकास की विशेषताएँ:
- दीर्घकालिक योजना: नियोजित विकास में सरकार दीर्घकालिक विकास लक्ष्यों को निर्धारित करती है और उनके लिए योजनाएँ बनाती है।
- संसाधनों का प्रभावी उपयोग: संसाधनों का प्रभावी और न्यायसंगत उपयोग सुनिश्चित करने के लिए योजनाएँ बनाई जाती हैं।
- सामाजिक कल्याण: नियोजित विकास का उद्देश्य सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देना है, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, और गरीबी उन्मूलन।
- क्षेत्रीय संतुलन: विकास को सभी क्षेत्रों में समान रूप से फैलाने के लिए योजनाएँ बनाई जाती हैं, ताकि क्षेत्रीय असंतुलन को कम किया जा सके।
- नियंत्रण और निगरानी: योजनाओं के कार्यान्वयन की निगरानी और नियंत्रण के लिए तंत्र स्थापित किया जाता है।
मिश्रित अर्थव्यवस्था और नियोजित विकास का संबंध
भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था और नियोजित विकास एक-दूसरे से गहरे रूप से जुड़े हुए हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, भारत ने औद्योगिक नीति 1948 के माध्यम से मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया। इसके तहत, कुछ उद्योगों का स्वामित्व और नियंत्रण सरकार के पास रखा गया, जबकि अन्य उद्योग निजी क्षेत्र के हाथों में रहे।1950 में योजना आयोग की स्थापना की गई, जिसका उद्देश्य दीर्घकालिक विकास योजनाएँ बनाना और उनका कार्यान्वयन करना था। योजना आयोग ने पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से नियोजित विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। इन योजनाओं में सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों की भागीदारी सुनिश्चित की गई।मिश्रित अर्थव्यवस्था में, सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से बुनियादी ढाँचा, ऊर्जा, परिवहन, और अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों में निवेश किया, जबकि निजी क्षेत्र को औद्योगिकीकरण, सेवाएँ, और उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में प्रोत्साहित किया। इस प्रकार, मिश्रित अर्थव्यवस्था ने नियोजित विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।निष्कर्ष
भारत की मिश्रित अर्थव्यवस्था ने नियोजित विकास की प्रक्रिया को सफलतापूर्वक लागू किया है। सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के सामंजस्यपूर्ण सहयोग ने आर्थिक विकास, सामाजिक कल्याण, और क्षेत्रीय संतुलन सुनिश्चित किया है। हालांकि, समय के साथ चुनौतियाँ उत्पन्न हुई हैं, जैसे बेरोजगारी, गरीबी, और असमान विकास, लेकिन सरकार इन समस्याओं के समाधान के लिए निरंतर प्रयासरत है।मिश्रित अर्थव्यवस्था और नियोजित विकास की प्रक्रिया ने भारत को एक मजबूत और समृद्ध राष्ट्र बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। भविष्य में, इन दोनों प्रणालियों के समन्वित उपयोग से भारत और भी प्रगति की ओर अग्रसर होगा।हरित क्रांति (Green Revolution) भारत में 1960 के दशक में शुरू हुई एक कृषि सुधार प्रक्रिया थी, जिसका उद्देश्य कृषि उत्पादन में तेज़ी से वृद्धि करना था। यह क्रांति विशेष रूप से गेहूं और चावल की फसलों पर केंद्रित थी और इसमें उच्च उपज वाली किस्में (HYV – High Yielding Varieties), रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और सिंचाई सुविधाओं के प्रयोग को बढ़ावा दिया गया।
हरित क्रांति के जनक के रूप में डॉ. नॉर्मन बोरलॉग को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर और एम. एस. स्वामीनाथन को भारत में जाना जाता है।
भारत में हरित क्रांति की शुरुआत:
भारत ने 1960 के दशक की शुरुआत में गंभीर खाद्य संकट का सामना किया। देश को खाद्यान्न के लिए अमेरिका से PL-480 योजना के तहत आयात करना पड़ता था। इसके समाधान के रूप में सरकार ने वैज्ञानिक कृषि तकनीकों को अपनाने का निर्णय लिया, और 1966-67 के दौरान हरित क्रांति की शुरुआत की गई, विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में।
हरित क्रांति के मुख्य घटक:
HYV बीजों का प्रयोग
रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग
सिंचाई सुविधाओं का विकास
मशीनों का प्रयोग (जैसे ट्रैक्टर, थ्रेशर)
सरकारी सहायता और न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP)
भारत के आर्थिक ढांचे पर प्रभाव:
1. कृषि उत्पादन में वृद्धि
हरित क्रांति के कारण भारत गेहूं और चावल के उत्पादन में आत्मनिर्भर बन गया। उदाहरण:
1965-66 में भारत में गेहूं उत्पादन लगभग 10 मिलियन टन था।
1971-72 में यह बढ़कर लगभग 26 मिलियन टन हो गया।
2. आयात पर निर्भरता में कमी
भारत को PL-480 योजना के तहत अमेरिका से गेहूं आयात करने की आवश्यकता समाप्त हो गई। देश ने खाद्य सुरक्षा हासिल की।
3. नौकरी और कृषि आधारित उद्योगों में वृद्धि
कृषि उत्पादकता बढ़ने से सहायक उद्योगों में रोजगार बढ़ा, जैसे ट्रैक्टर निर्माण, उर्वरक उद्योग आदि।
4. निजी निवेश में वृद्धि
किसानों ने HYV बीज, उर्वरक, पंप सेट आदि खरीदने के लिए निवेश किया, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पूंजीगत निवेश बढ़ा।
भारत के सामाजिक ढांचे पर प्रभाव:
1. क्षेत्रीय असमानता
हरित क्रांति का लाभ मुख्यतः पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे क्षेत्रों को मिला। बाकी राज्यों में इसका प्रभाव सीमित रहा, जिससे क्षेत्रीय विषमता बढ़ी।
2. आय में असमानता
बड़े और मध्यम किसानों ने नई तकनीकें अपनाईं और लाभ कमाया, जबकि छोटे और सीमांत किसानों को HYV बीज, उर्वरक, सिंचाई आदि के लिए पूंजी की कमी के कारण पीछे रहना पड़ा। इससे सामाजिक असमानता बढ़ी।
3. कृषि में यंत्रीकरण और बेरोजगारी
हरित क्रांति के कारण कृषि में मशीनों का प्रयोग बढ़ा, जिससे खेतिहर मज़दूरों की आवश्यकता कम हुई और ग्रामीण बेरोजगारी बढ़ी।
4. महिलाओं की स्थिति
महिलाओं की भूमिका पारंपरिक कृषि से जुड़ी थी, लेकिन हरित क्रांति के यंत्रीकरण के कारण उनकी भूमिका सीमित हुई और उनकी आर्थिक निर्भरता बढ़ी।
5. पर्यावरणीय प्रभाव
अत्यधिक उर्वरक और कीटनाशकों के प्रयोग ने भूमि की उर्वरता को नुकसान पहुँचाया।
भूजल का अत्यधिक दोहन हुआ जिससे कई क्षेत्रों में जल संकट उत्पन्न हो गया।
निष्कर्ष:
हरित क्रांति ने भारत की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई और देश को एक भूखा राष्ट्र से आत्मनिर्भर राष्ट्र बना दिया। लेकिन इसके साथ ही यह कई आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय चुनौतियाँ भी लेकर आई। भारत के लिए यह आवश्यक है कि वह हरित क्रांति की उपलब्धियों को स्थायी विकास की ओर मोड़े—जहाँ उत्पादन बढ़े, लेकिन साथ ही समानता, पर्यावरण संरक्षण और सभी वर्गों की भागीदारी भी सुनिश्चित हो।
भारत में स्वतंत्रता के बाद आर्थिक विकास के लिए एक नियोजित विकास मॉडल को अपनाया गया, जिसमें पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से देश के संसाधनों का समुचित उपयोग कर आर्थिक, सामाजिक और क्षेत्रीय विकास को गति देने का प्रयास किया गया। इस नियोजित विकास प्रक्रिया में जहाँ एक ओर सार्वजनिक क्षेत्र को विशेष महत्व दिया गया, वहीं निजी क्षेत्र को भी महत्वपूर्ण भूमिका दी गई।
1. नियोजित विकास में निजी क्षेत्र को शामिल करने की आवश्यकता
स्वतंत्रता के समय भारत एक कृषि प्रधान, पिछड़ी और औपनिवेशिक शोषण की मार झेल चुकी अर्थव्यवस्था थी। सीमित संसाधनों और विशाल जनसंख्या की आवश्यकताओं को देखते हुए केवल सरकार (सार्वजनिक क्षेत्र) के बलबूते पर आर्थिक विकास संभव नहीं था। इसलिए, निजी क्षेत्र को एक पूरक भागीदार के रूप में नियोजित विकास प्रक्रिया में शामिल किया गया।
2. पंचवर्षीय योजनाओं में निजी क्षेत्र की भूमिका
🔹 प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951–56):
मुख्यतः कृषि और सिंचाई पर केंद्रित रही।
निजी क्षेत्र की भूमिका सीमित रही, परंतु उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण में उसे प्रोत्साहित किया गया।
🔹 द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956–61) – नेहरू-महालनोबिस मॉडल:
भारी उद्योगों पर जोर दिया गया।
सार्वजनिक क्षेत्र को प्राथमिकता दी गई, लेकिन निजी क्षेत्र को हल्के उद्योगों और उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में बड़ी भूमिका दी गई।
🔹 तृतीय से पाँचवीं योजनाओं तक (1961–78):
खाद्य संकट, युद्ध और सूखा जैसी चुनौतियों के बावजूद निजी क्षेत्र को वस्त्र, रसायन, सीमेंट, आदि क्षेत्रों में योगदान के लिए प्रोत्साहित किया गया।
हरित क्रांति के दौरान निजी क्षेत्र ने बीज, उर्वरक और मशीनरी के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाई।
🔹 1980 के दशक:
सरकार ने नव-औद्योगिक नीति के तहत निजी क्षेत्र को अधिक प्रोत्साहन देना शुरू किया।
लाइसेंस प्रणाली को ढीला किया गया, जिससे निजी निवेश में वृद्धि हुई।
3. निजी क्षेत्र की मुख्य भूमिकाएँ
✅ औद्योगिक विकास में योगदान:
उपभोक्ता वस्तुओं, सीमेंट, इस्पात, वस्त्र, वाहन निर्माण आदि में निजी क्षेत्र की बड़ी भूमिका रही।
निजी उद्यमों ने रोजगार, पूंजी निर्माण और तकनीकी नवाचार को बढ़ावा दिया।
✅ सेवाक्षेत्र में अग्रणी भूमिका:
निजी क्षेत्र ने बैंकिंग, बीमा, शिक्षा, स्वास्थ्य, सूचना प्रौद्योगिकी और दूरसंचार जैसे क्षेत्रों में तेजी से विस्तार किया, विशेषकर 1990 के बाद।
✅ रोजगार सृजन:
निजी कंपनियों और छोटे व्यवसायों ने लाखों लोगों को रोजगार दिया, जिससे देश में शहरीकरण और आय में वृद्धि हुई।
✅ विदेशी पूंजी निवेश (FDI) का माध्यम:
निजी क्षेत्र ने वैश्विक कंपनियों को भारत में निवेश करने के लिए आकर्षित किया और बहुराष्ट्रीय साझेदारियों की शुरुआत की।
4. 1991 के बाद की स्थिति: निजीकरण और उदारीकरण
1991 में आर्थिक संकट के बाद भारत ने नई आर्थिक नीति लागू की जिसमें उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (LPG) को बढ़ावा दिया गया। इसके तहत:
कई सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को निजी क्षेत्र को सौंपा गया।
लाइसेंस राज लगभग समाप्त किया गया।
निजी क्षेत्र को ऊर्जा, दूरसंचार, बैंकिंग, बीमा, विमानन, शिक्षा जैसे क्षेत्रों में स्वतंत्रता दी गई।
नतीजतन, भारत की अर्थव्यवस्था ने तेज़ी से विकास करना शुरू किया।
5. चुनौतियाँ और आलोचनाएँ
लाभ का असमान वितरण: निजी क्षेत्र के विकास से लाभ समाज के सभी वर्गों तक समान रूप से नहीं पहुँच पाया।
मोनोपॉली और भ्रष्टाचार: कुछ बड़े उद्योग घरानों का अत्यधिक प्रभुत्व बढ़ा।
न्यूनतम सामाजिक उत्तरदायित्व: कई निजी कंपनियों ने पर्यावरण, श्रमिक अधिकार, और स्थानीय समुदायों की उपेक्षा की।
6. वर्तमान संदर्भ में भूमिका
आज के समय में भारत की अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र द्वारा नियंत्रित है। स्टार्टअप्स, ई-कॉमर्स, फार्मास्युटिकल्स, आईटी सेक्टर और नवीकरणीय ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की अगुवाई है।सरकार “मेक इन इंडिया”, “स्टार्टअप इंडिया”, “डिजिटल इंडिया” जैसी योजनाओं के माध्यम से निजी क्षेत्र को न केवल नियोजित विकास में भागीदार बना रही है, बल्कि नीति-निर्धारण में भी उसका सहयोग ले रही है।
निष्कर्ष:
भारत में नियोजित विकास की प्रक्रिया में निजी क्षेत्र की भूमिका सहभागी, पूरक और आवश्यक रही है। प्रारंभ में सीमित भूमिका से शुरू होकर यह आज आर्थिक विकास का मुख्य इंजन बन चुका है। भविष्य में सतत और समावेशी विकास के लिए सरकार और निजी क्षेत्र के बीच सहयोग, उत्तरदायित्व और पारदर्शिता बेहद आवश्यक होगी।
प्रश्न 8. 1980 और 1990 के दशक में नियोजित विकास की नीति में क्या परिवर्तन आया?
प्रश्न 9. विकास को लेकर भारत में क्षेत्रीय असमानता क्यों उत्पन्न हुई? नियोजन इस समस्या को किस प्रकार संबोधित करता है?
उत्तर – 🔷 भूमिका (Introduction)
भारत एक विशाल और विविधताओं से भरा देश है – जहाँ प्राकृतिक संसाधन, भौगोलिक स्थिति, जनसंख्या घनत्व, सामाजिक संरचना और आर्थिक गतिविधियाँ एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न हैं। इसलिए विकास की प्रक्रिया सभी क्षेत्रों में समान रूप से नहीं हो सकी, जिसके परिणामस्वरूप भारत में क्षेत्रीय असमानता (Regional Disparity) उत्पन्न हुई। यह असमानता आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, औद्योगिक और अवसंरचनात्मक क्षेत्रों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। नियोजन का उद्देश्य इस असमानता को कम करना रहा है, लेकिन इसके परिणाम मिश्रित रहे हैं।
🔶 भारत में क्षेत्रीय असमानता के कारण
1. ⚙️ भौगोलिक और प्राकृतिक कारक
कुछ क्षेत्रों जैसे पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उपजाऊ मिट्टी, सिंचाई की सुविधा और अनुकूल जलवायु के कारण हरित क्रांति सफल रही।
जबकि पूर्वोत्तर, मध्य भारत और पठारी क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता कम या कठिनाईपूर्ण रही।
2. 🏗️ औद्योगिक विकास का असमान वितरण
औद्योगीकरण पश्चिमी भारत (महाराष्ट्र, गुजरात) और दक्षिण भारत (कर्नाटक, तमिलनाडु) में केंद्रित रहा।
उत्तर-पूर्व, बिहार, झारखंड जैसे राज्यों में औद्योगिक विकास अपेक्षाकृत धीमा रहा।
3. 🚧 आधारभूत संरचना की असमानता
सड़क, बिजली, संचार और परिवहन सुविधाएँ कुछ राज्यों में बेहतर हैं।
दूरदराज़ और ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी बुनियादी सुविधाओं की कमी है।
4. 👥 सामाजिक और राजनीतिक नेतृत्व
कुछ राज्यों में नेतृत्व की दूरदर्शिता और प्रशासनिक कुशलता के कारण विकास योजनाओं का बेहतर क्रियान्वयन हुआ।
वहीं अन्य राज्यों में भ्रष्टाचार, राजनीतिक अस्थिरता और प्रशासनिक अक्षमता के कारण योजनाओं का उचित लाभ नहीं मिल सका।
5. 💰 निवेश और पूंजी प्रवाह का एकतरफा रुझान
निजी निवेशक उन्हीं क्षेत्रों में निवेश करना पसंद करते हैं जहाँ संसाधन, बाजार और सुविधाएँ पहले से मौजूद हैं।
पिछड़े राज्यों में निवेश की संभावना कम रहती है।
6. 🎓 शिक्षा और मानव संसाधन की गुणवत्ता
जिन क्षेत्रों में शिक्षा और कौशल विकास बेहतर है, वहाँ उद्योग और सेवाक्षेत्रों में रोजगार के अवसर अधिक हैं।
कम शिक्षित क्षेत्रों में गरीबी और बेरोजगारी बनी रहती है।
🔶 नियोजन द्वारा क्षेत्रीय असमानता को दूर करने के प्रयास
भारत की नियोजन प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य संतुलित क्षेत्रीय विकास रहा है। पंचवर्षीय योजनाओं और अन्य नीतिगत उपायों के माध्यम से सरकार ने इस असमानता को कम करने के प्रयास किए।
1. 📊 पिछड़े क्षेत्रों की पहचान और विशेष सहायता
योजना आयोग ने “पिछड़े क्षेत्र” (Backward Areas) की पहचान की।
इन क्षेत्रों को विशेष सहायता (Special Central Assistance – SCA) दी गई।
2. 🏭 औद्योगिक नीति में परिवर्तन
पिछड़े क्षेत्रों में उद्योगों को स्थापित करने के लिए टैक्स छूट, सब्सिडी और अन्य प्रोत्साहन दिए गए।
विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ), औद्योगिक क्लस्टर और मेगा फूड पार्क जैसी योजनाएँ चलाई गईं।
3. 🏞️ क्षेत्र-विशिष्ट योजनाएँ
पहाड़ी क्षेत्रों, रेगिस्तानी क्षेत्रों, और आदिवासी बहुल क्षेत्रों के लिए विशेष योजनाएँ शुरू की गईं जैसे:
उत्तर पूर्व क्षेत्र विकास योजना
बैकवर्ड रीजन ग्रांट फंड (BRGF)
प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना
4. 🚜 ग्रामीण विकास कार्यक्रम
मनरेगा, प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना, राष्ट्रीय ग्राम स्वराज अभियान जैसी योजनाओं के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में अवसंरचना और रोजगार को बढ़ावा दिया गया।
5. 🏛️ विकेंद्रीकृत नियोजन (Decentralized Planning)
73वाँ और 74वाँ संविधान संशोधन अधिनियम (1992) के तहत स्थानीय स्वशासन को बल दिया गया, जिससे स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार योजनाएँ बनाना और लागू करना संभव हुआ।
6. 🏫 मानव संसाधन विकास पर बल
शिक्षा, स्वास्थ्य और कौशल विकास योजनाओं के माध्यम से पिछड़े राज्यों के लोगों को मुख्यधारा में लाने का प्रयास किया गया।
🔶 सीमाएँ और चुनौतियाँ
नीतियों का सही क्रियान्वयन न हो पाना।
भ्रष्टाचार और राजनीतिक हस्तक्षेप।
संसाधनों का केंद्रित उपयोग, जिससे कुछ राज्यों को ही अधिक लाभ हुआ।
जनसंख्या दबाव और प्राकृतिक आपदाओं ने कई योजनाओं को प्रभावित किया।
✅ निष्कर्ष
क्षेत्रीय असमानता भारत के लिए एक जटिल और दीर्घकालिक चुनौती रही है। हालाँकि नियोजन प्रक्रिया ने इसे कम करने के लिए कई प्रयास किए हैं, फिर भी असमानता पूरी तरह समाप्त नहीं हो सकी है। भविष्य में इस दिशा में नवाचार आधारित योजनाएँ, सहयोगी संघवाद, और प्रौद्योगिकी आधारित निगरानी प्रणाली अपनाकर असमान विकास को संतुलित करने की आवश्यकता है।
📌 भारत तभी एक समग्र और समावेशी राष्ट्र बन सकता है जब विकास का लाभ देश के हर कोने तक पहुँचे — न कि केवल कुछ राज्यों या वर्गों तक सीमित रहे।
प्रश्न 10. नियोजित विकास की आलोचना किन आधारों पर की जाती है?
उत्तर – नियोजित विकास की आलोचना: मुख्य आधार
भारत में स्वतंत्रता के बाद नियोजित विकास की प्रक्रिया को पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से लागू किया गया, जिसका उद्देश्य आर्थिक विकास, सामाजिक न्याय और आत्मनिर्भरता प्राप्त करना था। लेकिन इस प्रक्रिया की समय-समय पर विभिन्न आधारों पर आलोचना भी हुई है।
नीचे नियोजित विकास की प्रमुख आलोचनाओं को क्रमबद्ध और स्पष्ट रूप से समझाया गया है:
🔶 1. ❌ क्षेत्रीय असमानता में वृद्धि
नियोजन का एक प्रमुख उद्देश्य संतुलित क्षेत्रीय विकास था, लेकिन कुछ राज्य (जैसे पंजाब, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात) तेज़ी से विकसित हुए, जबकि अन्य (बिहार, झारखंड, ओडिशा, उत्तर पूर्वी राज्य) पिछड़े रह गए।
हरित क्रांति, औद्योगीकरण और अवसंरचना का विकास कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित रहा।
🔶 2. ❌ गरीबी, बेरोजगारी और जनसंख्या वृद्धि पर सीमित प्रभाव
दशकों की योजनाओं के बावजूद गरीबी और बेरोजगारी की समस्या पूरी तरह से समाप्त नहीं हो सकी।
जनसंख्या में निरंतर वृद्धि ने विकास के फायदों को दबा दिया।
उदाहरण:
मनरेगा जैसी योजनाएँ शुरू की गईं, लेकिन वे स्थायी रोजगार नहीं दे सकीं।
🔶 3. ❌ योजना और क्रियान्वयन के बीच अंतर
कई योजनाएँ केवल कागज़ों पर बनी रहीं।
भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, प्रशासनिक अक्षमता के कारण योजनाओं का सही क्रियान्वयन नहीं हो पाया।
ज़मीनी स्तर पर स्थानीय ज़रूरतों और संसाधनों को ध्यान में रखकर योजनाएँ नहीं बनाईं गईं।
🔶 4. ❌ अत्यधिक केंद्रीकरण
योजना आयोग द्वारा बनाई गई योजनाएँ केंद्र से निर्देशित होती थीं।
राज्यों और स्थानीय निकायों को सीमित भूमिका दी गई, जिससे स्थानीय आवश्यकताओं की उपेक्षा हुई।
🔶 5. ❌ निजी क्षेत्र की उपेक्षा (शुरुआती चरणों में)
1950-1980 के बीच की योजनाओं में सार्वजनिक क्षेत्र को अत्यधिक प्राथमिकता दी गई।
निजी क्षेत्र को नियंत्रित किया गया, जिससे उद्यमशीलता और प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा नहीं मिल सका।
🔶 6. ❌ आर्थिक निर्णयों में लचीलापन की कमी
पंचवर्षीय योजनाओं में एक निश्चित समयसीमा और लक्ष्य निर्धारित किए जाते थे, जिससे बदलते वैश्विक और घरेलू आर्थिक परिवेश के अनुसार नीतियों में शीघ्र परिवर्तन नहीं हो पाता था।
🔶 7. ❌ पूंजीगत संसाधनों का दुरुपयोग
सार्वजनिक क्षेत्र की कई कंपनियाँ घाटे में चली गईं।
भारी निवेश के बावजूद उत्पादन और उत्पादकता में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ।
उदाहरण:
कई सरकारी उद्योग बिना लाभ के चलाए जाते रहे।
🔶 8. ❌ योजना आयोग की आलोचना
योजना आयोग को एक प्रभावशाली लेकिन गैर-जवाबदेह संस्था माना गया।
इसकी कार्यप्रणाली रचनात्मक सहयोग की बजाय आदेशात्मक थी।
इस कारण 2015 में योजना आयोग को समाप्त करके नीति आयोग की स्थापना की गई।
🔶 9. ❌ सतत विकास की उपेक्षा
पर्यावरण, जलवायु और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण पर शुरूआती योजनाओं में विशेष ध्यान नहीं दिया गया।
औद्योगिकीकरण और कृषि विस्तार ने कई क्षेत्रों में पर्यावरणीय संकट को जन्म दिया।
🔶 10. ❌ सामाजिक असमानता में वृद्धि
अमीर और गरीब, शहरी और ग्रामीण, शिक्षित और अशिक्षित वर्गों के बीच की खाई कम नहीं हो सकी।
योजनाओं का लाभ अक्सर ऊपरी वर्गों तक ही सीमित रहा।
✅ निष्कर्ष
हालाँकि नियोजित विकास ने भारत को भुखमरी, उपनिवेशिक शोषण और आर्थिक पिछड़ेपन से उबारने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई, लेकिन इसके परिणाम अपूर्ण और असमान रहे।
इसके आलोचकों का कहना है कि यदि योजनाओं में स्थानीय भागीदारी, पारदर्शिता, जवाबदेही और लचीलापन अधिक होता, तो विकास और अधिक समावेशी और प्रभावी होता।
📌 इसलिए 21वीं सदी में नीति आयोग के माध्यम से सरकार ने “टॉप-डाउन” मॉडल के बजाय “बॉटम-अप” दृष्टिकोण को अपनाने की कोशिश की है, जिससे नियोजन अधिक सहभागी, समावेशी और व्यवहारिक बन सके।

SANTU KUMAR
I am a passionate Teacher of Class 8th to 12th and cover all the Subjects of JAC and Bihar Board. I love creating content that helps all the Students. Follow me for more insights and knowledge.
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