एक दलीय प्रभुत्व का दौर

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प्रश्न 1.  एक दलीय प्रभुत्व’ से आप क्या समझते हैं? भारतीय राजनीति के संदर्भ में इसका क्या महत्व है?

उत्तर –  परिभाषा और अवधारणा:

‘एक दलीय प्रभुत्व’ (One-Party Dominance) वह राजनीतिक स्थिति है जब एक राजनीतिक दल, विशेष रूप से राष्ट्रीय स्तर पर, लंबे समय तक सत्ता में बना रहता है और विपक्षी दलों की भूमिका सीमित या नगण्य होती है। भारत में यह अवधारणा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) के संदर्भ में प्रमुख रूप से देखी जाती है, जिसने 1952 से 1967 तक केंद्रीय और राज्य स्तर पर प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में शासन किया।

भारतीय राजनीति में इसका महत्व:

इस अवधि में कांग्रेस ने लोकतांत्रिक व्यवस्था की नींव मजबूत की, जबकि विपक्षी दलों की भूमिका सीमित रही। इस दौर के अंत में, 1967 के आम चुनावों में कांग्रेस की स्थिति कमजोर हुई, जिससे भारतीय राजनीति में नए बदलावों की शुरुआत हुई।

विस्तृत विश्लेषण:

 कांग्रेस पार्टी का उदय और प्रभुत्व:

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक समूहों का प्रतिनिधित्व किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, कांग्रेस ने अपनी संगठनात्मक संरचना और नेतृत्व के माध्यम से भारतीय राजनीति में प्रमुख स्थान प्राप्त किया। पंडित नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस ने समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष नीतियों को अपनाया, जिससे उसे व्यापक समर्थन मिला।

 एक दलीय प्रभुत्व के कारण:

  • नेतृत्व की मजबूती: पंडित नेहरू और बाद में इंदिरा गांधी जैसे नेताओं का मजबूत नेतृत्व कांग्रेस के प्रभुत्व का कारण बना।

  • विपक्ष की कमजोरी: विपक्षी दलों की कमजोर स्थिति और आपसी मतभेदों ने कांग्रेस को सत्ता में बनाए रखने में मदद की।

  • सामाजिक समावेशिता: कांग्रेस ने विभिन्न सामाजिक और धार्मिक समूहों को अपने साथ जोड़ा, जिससे उसकी लोकप्रियता बढ़ी।

  • संविधान और संस्थाओं का समर्थन: भारत का संविधान और चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत किया, जिससे कांग्रेस को सत्ता में बने रहने में सहायता मिली।

विपक्षी दलों की भूमिका:

इस अवधि में विपक्षी दलों की भूमिका सीमित रही। हालांकि, कुछ दलों ने कांग्रेस की नीतियों की आलोचना की और वैकल्पिक विचार प्रस्तुत किए, लेकिन वे सत्ता में आने में सक्षम नहीं हो पाए।

1967 के चुनावों के परिणाम:

1967 के आम चुनावों में कांग्रेस की स्थिति कमजोर हुई। कई राज्यों में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला, और क्षेत्रीय दलों ने सत्ता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह भारतीय राजनीति में बदलाव की शुरुआत का संकेत था।

निष्कर्ष:

‘एक दलीय प्रभुत्व का दौर’ ने भारतीय लोकतंत्र की नींव को मजबूत किया, लेकिन 1967 के चुनावों ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारतीय राजनीति में बहुदलीय प्रणाली की ओर बढ़ने की आवश्यकता है। इसने विपक्षी दलों को सशक्त होने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभाने का अवसर प्रदान किया।

प्रश्न 2. 1952 से 1967 तक कांग्रेस पार्टी का भारत की राजनीति में क्या स्थान था और उसने किस प्रकार से प्रभुत्व कायम किया?

परिचय:

भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात 1952 से लेकर 1967 तक का समय भारतीय राजनीति में एकदलीय प्रभुत्व का युग माना जाता है। इस कालखंड में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस न केवल केंद्र सरकार में बल्कि अधिकांश राज्यों में भी निर्विवाद रूप से सत्ता में रही। यह स्थिति किसी तानाशाही की नहीं बल्कि लोकतांत्रिक चुनावों के माध्यम से प्राप्त बहुमत की थी। कांग्रेस पार्टी का यह प्रभुत्व भारतीय लोकतंत्र की प्रारंभिक नींव, समाज की विविधता, और मजबूत संगठन के कारण संभव हो सका।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

  • कांग्रेस पार्टी की स्थापना 1885 में हुई थी और यह स्वतंत्रता संग्राम की अगुवाई करने वाली मुख्य पार्टी थी।

  • 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह देश की स्वाभाविक सत्तारूढ़ पार्टी बन गई क्योंकि इसमें नेतृत्व, संगठन, और जनविश्वास तीनों ही पर्याप्त मात्रा में मौजूद थे।

  • स्वतंत्रता के बाद भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में स्थापित करने में कांग्रेस की केंद्रीय भूमिका थी।

 1952 से 1967 तक कांग्रेस का राजनीतिक वर्चस्व:

(i) लोकसभा चुनावों में प्रदर्शन:

  • 1952 का चुनाव:

    • पहला आम चुनाव था।

    • कांग्रेस को कुल 489 सीटों में से 364 सीटें मिलीं (लगभग 74.4%)

    • वोट प्रतिशत – लगभग 45%

  • 1957 का चुनाव:

    • कांग्रेस को 371 सीटें मिलीं।

    • वोट प्रतिशत – 47.8%

  • 1962 का चुनाव:

    • कांग्रेस को 361 सीटें मिलीं।

    • वोट प्रतिशत – 44.7%

 

इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि कांग्रेस लगातार तीन चुनावों तक पूर्ण बहुमत से सत्ता में रही।

 कांग्रेस प्रभुत्व के कारण:

(i) ऐतिहासिक नेतृत्व और लोकप्रियता:

  • कांग्रेस स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी थी, जिससे जनता के मन में इसके प्रति गहरी आस्था थी।

  • पंडित जवाहरलाल नेहरू का करिश्माई नेतृत्व, सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और आधुनिकता के प्रतीक थे।

(ii) संगठनात्मक ताकत:

  • कांग्रेस के पास देशभर में एक सशक्त और व्यापक संगठन था।

  • इसकी जड़ें गाँव-गाँव तक फैली हुई थीं।

(iii) वैचारिक लचीलापन:

  • कांग्रेस किसी एक विचारधारा से बंधी नहीं थी।

  • यह एक प्रकार से ‘छत्र संगठन’ (umbrella organization) था, जिसमें दक्षिणपंथी, वामपंथी, मध्यमार्गी सभी विचारों के नेता शामिल थे।

(iv) सामाजिक समावेशिता:

  • कांग्रेस ने सभी जातियों, धर्मों, वर्गों को प्रतिनिधित्व दिया।

  • विशेषकर ग्रामीण, दलित, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों के लिए योजनाएं चलाईं।

(v) विपक्ष की कमजोरी:

  • स्वतंत्रता के बाद विपक्षी दल संगठनात्मक रूप से कमजोर और बिखरे हुए थे।

  • उनके पास संसाधनों, जनसमर्थन और स्पष्ट वैकल्पिक दृष्टिकोण की कमी थी।

कांग्रेस शासन की प्रमुख उपलब्धियाँ (1952–1967):

  • संविधान का सफल कार्यान्वयन।

  • योजना आयोग और पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत।

  • भूमि सुधार कार्यक्रम और ज़मींदारी उन्मूलन।

  • शिक्षा, स्वास्थ्य और औद्योगिकीकरण में वृद्धि।

  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा।

1967: एक निर्णायक मोड़

  • इस वर्ष हुए आम चुनावों में कांग्रेस को पहली बार अपने प्रभुत्व में गिरावट का सामना करना पड़ा।

  • कांग्रेस को केंद्र में बहुमत तो मिला, लेकिन 8 राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं।

  • हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु आदि राज्यों में विपक्षी दलों ने गठबंधन कर कांग्रेस को बाहर किया।

 कांग्रेस प्रभुत्व का मूल्यांकन:

सकारात्मक पक्ष:

  • इस दौर में लोकतंत्र की नींव मजबूत हुई।

  • राजनीतिक स्थिरता बनी रही जिससे विकास योजनाएं लागू हो सकीं।

  • भारत को एकीकृत और आधुनिक राष्ट्र बनाने में सफलता मिली।

नकारात्मक पक्ष:

  • विपक्ष की कमजोर उपस्थिति से लोकतंत्र में आलोचनात्मक संतुलन की कमी रही।

  • पार्टी के भीतर तानाशाही प्रवृत्तियाँ और गुटबाज़ी शुरू हुई।

  • राजनीतिक प्रतिस्पर्धा सीमित हो गई।

 निष्कर्ष:

1952 से 1967 तक कांग्रेस पार्टी भारत की राजनीतिक व्यवस्था का केंद्रबिंदु रही। इस दौर में पार्टी ने देश को संविधानिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से आगे बढ़ाया, लेकिन एकदलीय प्रभुत्व के कारण राजनीतिक बहस और आलोचनात्मक विमर्श सीमित रह गया। 1967 का चुनाव कांग्रेस प्रभुत्व के युग के अंत की शुरुआत बना, जिससे भारत में बहुदलीय लोकतंत्र को नई दिशा मिली।

प्रश्न 3. एक दलीय व्यवस्था और बहुदलीय व्यवस्था में क्या अंतर है? भारत किस दिशा में विकसित हुआ?”

परिचय:

राजनीतिक व्यवस्था किसी भी देश की शासन प्रणाली का मूल आधार होती है। यह व्यवस्था यह तय करती है कि सत्ता का प्रयोग कैसे और किन दलों के माध्यम से किया जाएगा। दुनिया भर में मुख्य रूप से दो प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाएँ देखने को मिलती हैं – एक दलीय व्यवस्था (One-Party System) और बहुदलीय व्यवस्था (Multi-Party System)। भारत, एक लोकतांत्रिक गणराज्य होते हुए, किस दिशा में आगे बढ़ा है — यह सवाल भारतीय राजनीति को समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

1. एक दलीय व्यवस्था क्या है?

एक दलीय व्यवस्था वह शासन प्रणाली है जिसमें एक ही राजनीतिक दल देश में सत्ता में होता है और आमतौर पर कोई अन्य पार्टी उसके विरुद्ध चुनाव नहीं लड़ सकती या चुनाव लड़ने के बाद भी जीत नहीं पाती।

मुख्य विशेषताएँ:

  • एक ही दल का सत्ता पर पूर्ण नियंत्रण होता है।

  • विपक्ष या तो मौजूद नहीं होता या बहुत कमजोर होता है।

  • चुनाव यदि होते हैं तो केवल प्रतीकात्मक या नियंत्रित होते हैं।

  • मीडिया और संस्थानों पर शासन कर रहे दल का प्रभाव होता है।

उदाहरण:

  • चीन (चाइनीज़ कम्युनिस्ट पार्टी)

  • उत्तर कोरिया

  • क्यूबा आदि

2. बहुदलीय व्यवस्था क्या है?

बहुदलीय व्यवस्था वह प्रणाली है जिसमें दो या दो से अधिक राजनीतिक दल सक्रिय रूप से चुनाव में भाग लेते हैं, और सत्ता में आने का अवसर प्राप्त करते हैं।

मुख्य विशेषताएँ:

  • कई दल चुनाव लड़ते हैं और सरकार बनाने की दौड़ में शामिल होते हैं।

  • विपक्ष की भूमिका मजबूत होती है।

  • गठबंधन सरकारें बन सकती हैं।

  • मीडिया और न्यायपालिका स्वतंत्र भूमिका निभाती हैं।

  • मतदाताओं को विकल्प उपलब्ध होते हैं।

उदाहरण:

  • भारत

  • जर्मनी

  • इटली

  • नीदरलैंड्स

  • फ्रांस

 एक दलीय और बहुदलीय व्यवस्था में अंतर:

 

पक्ष एक दलीय व्यवस्था बहुदलीय व्यवस्था
दल की संख्या केवल एक प्रमुख दल दो या अधिक दल
विपक्ष की भूमिका नहीं के बराबर प्रभावशाली
लोकतांत्रिक चुनाव सीमित या नियंत्रित स्वतंत्र और निष्पक्ष
जन प्रतिनिधित्व सीमित विविधता को प्रतिबिंबित करता है
नीतिगत विविधता सीमित वैचारिक बहस विभिन्न दृष्टिकोणों की प्रतिस्पर्धा
सरकार गठन एक ही दल की सरकार गठबंधन या वैकल्पिक सरकार

भारत किस दिशा में विकसित हुआ?

(i) प्रारंभिक दौर (1952–1967):

भारत में भले ही बहुदलीय प्रणाली अपनाई गई थी, लेकिन पहले दो दशकों तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का एकदलीय प्रभुत्व रहा। इसे “एक दल का प्रभुत्व, बहुदलीय ढांचा” कहा जा सकता है।

(ii) 1967 के बाद का दौर:

  • पहली बार कई राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं।

  • विपक्ष मजबूत हुआ।

  • भारत की राजनीति ने स्पष्ट रूप से बहुदलीय प्रणाली की दिशा में कदम बढ़ाया।

(iii) 1989 के बाद:

  • गठबंधन युग की शुरुआत हुई (नेशनल फ्रंट, यूपीए, एनडीए)।

  • क्षेत्रीय दलों का उदय — जैसे DMK, AIADMK, SP, BSP, TMC, BJD आदि।

(iv) वर्तमान स्थिति:

  • भारत पूर्ण रूप से एक बहुदलीय लोकतंत्र है, जहाँ राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दोनों प्रकार के दल सक्रिय हैं।

  • केंद्र और राज्य स्तर पर अलग-अलग दलों की सरकारें हैं।

निष्कर्ष:

भारत का संविधान और लोकतांत्रिक ढाँचा स्पष्ट रूप से बहुदलीय व्यवस्था की ओर इंगित करता है। हालांकि स्वतंत्रता के बाद शुरुआती वर्षों में कांग्रेस का वर्चस्व रहा, लेकिन समय के साथ देश ने विपक्ष को भी मजबूत स्थान दिया और राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को अपनाया। आज भारत में राजनीतिक बहुलता, वैचारिक विविधता और सत्ता का विकेंद्रीकरण लोकतंत्र की मजबूती का प्रतीक है।

प्रश्न 4.  कांग्रेस पार्टी के प्रभुत्व के क्या प्रमुख कारण थे?

उत्तर – भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात, 1952 से 1967 तक का समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रभुत्व काल माना जाता है। इस दौर में कांग्रेस पार्टी ने तीन आम चुनावों में भारी बहुमत से जीत हासिल की और केंद्र तथा अधिकांश राज्यों में सत्ता पर अपना नियंत्रण बनाए रखा। यह प्रभुत्व किसी तानाशाही की उपज नहीं था, बल्कि जनसमर्थन, संगठित ढांचे और ऐतिहासिक विरासत का परिणाम था।

यहाँ कांग्रेस पार्टी के प्रभुत्व के प्रमुख कारणों का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत है:

ऐतिहासिक विरासत और स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ाव:

  • कांग्रेस पार्टी ने स्वतंत्रता आंदोलन में केंद्रीय भूमिका निभाई थी।

  • महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, सुभाष चंद्र बोस जैसे प्रमुख नेताओं का कांग्रेस से जुड़ाव था।

  • जनता के मन में कांग्रेस को “राष्ट्रनिर्माता” के रूप में देखा जाता था।

🔹 परिणाम: स्वतंत्र भारत में जनता ने स्वाभाविक रूप से कांग्रेस पर भरोसा जताया।

 करिश्माई और सशक्त नेतृत्व:

  • पंडित जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री के रूप में आधुनिक भारत की नींव रखी।

  • उनका करिश्मा, अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण और समाजवादी सोच ने उन्हें अपार जनसमर्थन दिलाया।

  • उनके बाद लाल बहादुर शास्त्री और फिर इंदिरा गांधी जैसे नेताओं ने पार्टी को स्थिर नेतृत्व दिया।

🔹 परिणाम: कांग्रेस की नीतियाँ और नेतृत्व दोनों ही जनता में विश्वसनीय बने रहे।

वैचारिक लचीलापन और व्यापक अपील:

  • कांग्रेस कोई एक विचारधारा की पार्टी नहीं थी, बल्कि यह एक “छत्र संगठन” (umbrella organization) था।

  • इसमें समाजवादी, उदारवादी, दक्षिणपंथी, धार्मिक, और क्षेत्रीय विचारों वाले नेता भी शामिल थे।

🔹 परिणाम: पार्टी ने हर वर्ग, हर क्षेत्र और हर समुदाय के मतदाताओं को जोड़ लिया।

मजबूत संगठनात्मक ढांचा:

  • कांग्रेस का ढांचा अखिल भारतीय स्तर पर बहुत ही मजबूत और सक्रिय था।

  • ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक इसका नेटवर्क फैला हुआ था।

  • बूथ लेवल तक कार्यकर्ता मौजूद थे जो जनता से सीधा संवाद रखते थे।

🔹 परिणाम: चुनावी स्तर पर कांग्रेस अजेय साबित हुई।

 विपक्ष की कमजोरी:

  • शुरुआती वर्षों में विपक्षी दल संगठनात्मक और वैचारिक रूप से कमजोर थे।

  • वामपंथी और दक्षिणपंथी दल बिखरे हुए थे और कांग्रेस के समकक्ष विकल्प नहीं दे पा रहे थे।

  • जनता को कांग्रेस का कोई ठोस विकल्प नहीं दिखाई देता था।

🔹 परिणाम: कांग्रेस का राजनीतिक प्रभुत्व लंबे समय तक बना रहा।

नीतिगत पहल और योजनाएँ:

  • कांग्रेस ने पंचवर्षीय योजनाओं, भूमि सुधार, हरित क्रांति, नगरीकरण, शिक्षा और स्वास्थ्य योजनाओं की शुरुआत की।

  • नेहरू के वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आधुनिक राष्ट्र निर्माण की योजनाओं को जनता ने सराहा।

🔹 परिणाम: जनता को लगा कि कांग्रेस उन्हें एक आधुनिक और विकसित भारत की ओर ले जा सकती है।

 संविधान निर्माण और लोकतंत्र की नींव:

  • संविधान सभा और उसके कार्य में कांग्रेस के नेताओं की बड़ी भूमिका रही।

  • कांग्रेस ने लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थाओं (जैसे चुनाव आयोग, न्यायपालिका) को मज़बूती दी।

🔹 परिणाम: लोकतांत्रिक संस्थाओं पर भरोसा और कांग्रेस की विश्वसनीयता दोनों बढ़ी।

सामाजिक समावेशिता और विविधता को साथ लेना:

  • कांग्रेस ने जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्रीय अस्मिता के बावजूद सबको साथ लिया।

  • मुस्लिम, दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्गों को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की गई।

🔹 परिणाम: इसे सभी वर्गों का समर्थन प्राप्त हुआ।

 मीडिया और सूचना पर प्रभाव:

  • कांग्रेस शासन में मीडिया को स्वतंत्रता तो दी गई, लेकिन साथ ही इसे प्रभावित करने के प्रयास भी होते रहे।

  • सरकार की नीतियाँ और योजनाएं बड़े पैमाने पर प्रचारित होती थीं।

🔹 परिणाम: जनमत को प्रभावित करना आसान हो गया।

 अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थिति:

  • शीत युद्ध के दौर में भारत की गुटनिरपेक्ष नीति ने कांग्रेस को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा दिलाई।

  • इससे नेहरू और कांग्रेस की छवि विश्व में भी मजबूत हुई।

निष्कर्ष:

1952 से 1967 तक कांग्रेस का राजनीतिक प्रभुत्व केवल चुनावी आंकड़ों का परिणाम नहीं था, बल्कि ऐतिहासिक, सामाजिक, वैचारिक और संगठकीय कारणों का संयोजन था। कांग्रेस ने न केवल सत्ता संभाली, बल्कि लोकतंत्र को भी जड़ें जमाने का अवसर दिया। हालांकि 1967 के बाद यह प्रभुत्व धीरे-धीरे चुनौती में बदला, लेकिन शुरुआती दो दशकों में कांग्रेस भारतीय राजनीति का पर्याय बन गई थी।

प्रश्न 5.  एक दलीय प्रभुत्व के दौर में विपक्ष की क्या भूमिका थी? क्या विपक्षी दल प्रभावशाली थे?

उत्तर – परिचय:

1952 से 1967 तक का समय भारतीय राजनीति में ‘एक दलीय प्रभुत्व’ का युग कहा जाता है, जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस केंद्र और अधिकांश राज्यों में निर्विवाद रूप से सत्ता में थी। इस अवधि में कांग्रेस का वर्चस्व इतना प्रबल था कि अन्य दल चुनावों में भाग लेने के बावजूद सत्ता प्राप्त नहीं कर सके। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि विपक्ष पूरी तरह निष्क्रिय या अप्रभावी था। उन्होंने भारतीय लोकतंत्र में कई महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं।

विपक्ष की तत्कालीन स्थिति:

  • 1952, 1957 और 1962 के आम चुनावों में विपक्षी दलों को सीटें तो मिलीं, लेकिन वे संख्या में बहुत कम थीं।
  • एक भी दल ऐसा नहीं था जो कांग्रेस के सामने सशक्त वैकल्पिक शक्ति के रूप में उभर सके।
  • लोकसभा में विपक्ष के पास इतनी सीटें नहीं थीं कि वे “आधिकारिक विपक्ष” की मान्यता भी पा सकें (इसके लिए 10% सीटें जरूरी थीं)।

 विपक्ष की प्रमुख पार्टियाँ:

पार्टी विचारधारा प्रमुख नेता
भारतीय जनसंघ (अब BJP) राष्ट्रवादी / दक्षिणपंथी श्यामा प्रसाद मुखर्जी
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) वामपंथी / समाजवादी ई.एम.एस. नंबूदिरीपाद
समाजवादी पार्टी समाजवाद / गांधीवाद डॉ. राममनोहर लोहिया
स्वतंत्र पार्टी आर्थिक उदारवाद सी. राजगोपालाचारी
प्रजा सोशलिस्ट पार्टी मिश्रित समाजवाद आचार्य नरेंद्र देव

इन दलों के मत प्रतिशत अलग-अलग थे लेकिन कांग्रेस के सामने वे सत्ता में नहीं आ सके।

 विपक्ष की भूमिका (1952–1967):

(i) संसद में आलोचक की भूमिका:

  • भले ही संख्या कम थी, लेकिन विपक्षी सांसदों ने नीतिगत मुद्दों पर सरकार की तीव्र आलोचना की।
  • डॉ. राममनोहर लोहिया और नाथ पै जैसे नेताओं की वाकपटुता ने संसद में बहस का स्तर ऊँचा किया।
  • महत्वपूर्ण विषय जैसे – भ्रष्टाचार, असमानता, लोकतंत्र की सीमाएँ – विपक्ष ने बार-बार उठाए।

(ii) वैकल्पिक विचारधाराओं की प्रस्तुति:

  • जहां कांग्रेस समाजवादी लोकतंत्र की ओर थी, वहीं जनसंघ ने हिन्दुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात की।
  • वामपंथी दलों ने मजदूरों और किसानों के मुद्दे पर जोर दिया।
  • समाजवादी दलों ने विकेंद्रीकरण और ग्राम स्वराज को महत्व दिया।

(iii) क्षेत्रीय आंदोलनों और असंतोष का नेतृत्व:

  • कई राज्यों में विपक्षी दलों ने भाषाई, सांस्कृतिक और आर्थिक असंतोष को आवाज दी।
  • दक्षिण भारत में द्रविड़ आंदोलन, पश्चिम बंगाल में मजदूर आंदोलन, पंजाब में अकाली आंदोलन – इनमें विपक्षी दल सक्रिय रहे।

(iv) लोकतंत्र की सुरक्षा में योगदान:

  • विपक्ष की उपस्थिति ने यह सुनिश्चित किया कि कांग्रेस पूरी तरह से निरंकुश न हो सके।
  • मीडिया और जनता को विपक्ष की बातों से वैकल्पिक दृष्टिकोण मिला।

क्या विपक्ष प्रभावशाली था?

संख्यात्मक दृष्टि से – नहीं:

  • विपक्ष के पास संसद में पर्याप्त सीटें नहीं थीं।
  • वे सरकार को गिराने या बिल रोकने की स्थिति में नहीं थे।

वैचारिक और नैतिक दृष्टि से – हाँ:

  • उन्होंने जनहित के मुद्दों को उठाया और संसद में जीवंत बहस को जन्म दिया।
  • कई बार उनकी आलोचनाओं ने सरकार को नीति बदलने या सुधारने के लिए मजबूर किया।

राजनीतिक दृष्टि से – आंशिक रूप से प्रभावशाली:

  • उन्होंने 1967 तक धीरे-धीरे जनता के बीच जगह बनानी शुरू की।
  • 1967 के आम चुनावों में कई राज्यों में गठबंधन सरकारें बनाकर कांग्रेस को हराया गया।

 1967: विपक्ष की निर्णायक सफलता

  • संयुक्त विधायक दल (SVD) गठबंधन बनाकर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु आदि राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं।
  • यह साबित हुआ कि विपक्ष संगठित हो तो कांग्रेस को चुनौती दी जा सकती है।
  • यह भारत में कोयलेशन (गठबंधन) राजनीति की शुरुआत थी।

 निष्कर्ष:

1952 से 1967 तक भले ही कांग्रेस का प्रभुत्व था, लेकिन विपक्ष ने संसद और जनता दोनों के बीच में नैतिक और वैचारिक भूमिका निभाई। विपक्ष ने सरकार को जवाबदेह बनाया, लोकतंत्र में विविधता बनाए रखी, और वैकल्पिक विचारधाराओं को जीवित रखा। यही कारण है कि 1967 के बाद से भारत में विपक्ष न केवल संगठित हुआ बल्कि सत्ता में भागीदार भी बनने लगा।

प्रश्न 6. 1967 के आम चुनावों ने एक दलीय प्रभुत्व को किस प्रकार चुनौती दी?

उत्तर – 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद से कांग्रेस पार्टी देश की राजनीति पर हावी रही थी। यह पार्टी स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत, करिश्माई नेतृत्व (नेहरू, पटेल, इंदिरा गांधी आदि), और एक संगठित ढांचे के कारण जनता के बीच व्यापक समर्थन रखती थी। लेकिन 1967 के आम चुनावों ने इस एकदलीय प्रभुत्व को गंभीर चुनौती दी और भारतीय लोकतंत्र में सत्ता के प्रतिस्पर्धात्मक युग की शुरुआत की।

1967 का चुनाव पृष्ठभूमि और परिणाम

1967 का आम चुनाव भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। यह चुनाव कई कारणों से असाधारण था:

  1. नेहरू युग का अंत: पंडित जवाहरलाल नेहरू के निधन (1964) और लाल बहादुर शास्त्री की असामयिक मृत्यु (1966) के बाद कांग्रेस के पास अब कोई निर्विवाद करिश्माई नेता नहीं था।

  2. आर्थिक संकट: 1960 के दशक के मध्य में भारत ने भीषण सूखा, खाद्य संकट, मुद्रास्फीति और बेरोजगारी का सामना किया। इससे जनता में असंतोष बढ़ा।

  3. इंदिरा गांधी का नेतृत्व: इंदिरा गांधी, जो 1966 में प्रधानमंत्री बनीं, अनुभव की कमी के कारण पार्टी के भीतर और बाहर दोनों जगह सवालों के घेरे में थीं।

इन परिस्थितियों में हुए 1967 के आम चुनावों में कांग्रेस को काफी नुकसान उठाना पड़ा। पार्टी ने लोकसभा में तो बहुमत हासिल कर लिया, लेकिन 1962 की तुलना में उसकी सीटें 78 कम हो गईं। सबसे बड़ा झटका यह था कि कांग्रेस ने नौ राज्यों में अपनी सरकारें खो दीं – जिनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और पंजाब जैसे प्रमुख राज्य शामिल थे।

गठबंधन राजनीति की शुरुआत

1967 के चुनावों ने “संयुक्त विधायक दल” (United Front) जैसे गठबंधनों की राजनीति की शुरुआत की। विभिन्न विचारधाराओं वाली पार्टियाँ – सोशलिस्ट, जनसंघ, कम्युनिस्ट और क्षेत्रीय दल – कांग्रेस को हराने के लिए एकजुट हुईं। इन गठबंधनों ने कई राज्यों में कांग्रेस विरोधी सरकारें बनाईं, जिन्हें “संयुक्त मोर्चा सरकार” कहा गया।

राजनीतिक प्रभुत्व की समाप्ति के संकेत

इस चुनाव ने स्पष्ट कर दिया कि:

  • कांग्रेस अब अजेय नहीं रही।

  • क्षेत्रीय और वैकल्पिक शक्तियाँ उभरने लगी थीं।

  • भारतीय मतदाता अब अधिक जागरूक और बदलाव के लिए तैयार थे।

लोकतंत्र की परिपक्वता का प्रतीक

1967 का चुनाव भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता का प्रतीक भी था। यह पहला अवसर था जब मतदाताओं ने सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ बड़ी संख्या में वोट दिया। इससे यह सिद्ध हुआ कि भारतीय लोकतंत्र में सत्ता परिवर्तन संभव है और जनता विकल्प चाहती है।

निष्कर्ष

1967 के आम चुनावों ने भारतीय राजनीति में एकदलीय प्रभुत्व की अवधारणा को गंभीर चुनौती दी। इसने कांग्रेस की सर्वोच्चता को पहली बार कमजोर किया और क्षेत्रीय दलों व गठबंधन की राजनीति को बढ़ावा दिया। यह चुनाव भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ जिसने प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति की नींव रखी। इससे आगे चलकर भारतीय राजनीति बहुदलीय और अधिक जटिल होती गई, लेकिन यह लोकतांत्रिक विकास की दिशा में एक जरूरी कदम था।

प्रश्न 7. पंडित जवाहरलाल नेहरू की भूमिका ‘एक दल के प्रभुत्व’ की स्थापना में कितनी महत्वपूर्ण रही?
उत्तर – पंडित जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री थे और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे प्रमुख नेताओं में से एक। स्वतंत्रता के बाद भारत में कांग्रेस पार्टी का जो ‘एक दल का प्रभुत्व’ (One-Party Dominance) बना, उसमें नेहरू की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही। यह प्रभुत्व केवल राजनीतिक शक्ति का नहीं, बल्कि वैचारिक, सामाजिक और संस्थागत प्रभाव का भी था। नेहरू के नेतृत्व ने इस प्रभुत्व को सुदृढ़ किया और लोकतांत्रिक व्यवस्था में कांग्रेस की केंद्रीय भूमिका सुनिश्चित की।

नेहरू की वैचारिक नेतृत्व क्षमता

नेहरू एक करिश्माई नेता थे, जिनकी वैचारिक स्पष्टता और आधुनिक दृष्टिकोण ने उन्हें व्यापक जनसमर्थन दिलाया। उन्होंने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी और लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में आकार देने का दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उन्होंने योजना आयोग, वैज्ञानिक अनुसंधान, और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की नींव रखी। इससे कांग्रेस को एक नीति-निर्माता और राष्ट्रनिर्माता दल की छवि मिली।

संविधान और संस्थाओं के निर्माण में नेतृत्व

नेहरू संविधान सभा के सदस्य थे और उन्होंने भारत के लोकतांत्रिक संविधान को व्यवहार में लाने में सक्रिय भूमिका निभाई। उनके कार्यकाल में संसद, न्यायपालिका, और चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं को मज़बूत किया गया। इससे कांग्रेस की संस्थागत वैधता और सत्ता की निरंतरता सुनिश्चित हुई।

चुनावी सफलता और जनसमर्थन

नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस ने 1952, 1957 और 1962 के आम चुनावों में भारी बहुमत से जीत हासिल की। नेहरू स्वयं जनप्रिय नेता थे, जिनकी छवि ईमानदार, आदर्शवादी और अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण वाले नेता की थी। उनकी लोकप्रियता ने कांग्रेस को देश के हर कोने में गहरी पकड़ बनाने में मदद की।

कांग्रेस संगठन का विस्तार

नेहरू के काल में कांग्रेस केवल एक चुनावी पार्टी नहीं थी, बल्कि एक राष्ट्रव्यापी संगठन थी जो हर गांव और शहर में मौजूद थी। इसका संगठनात्मक ढांचा मजबूत था और यह जनता की समस्याओं को उठाने वाली पार्टी के रूप में देखी जाती थी। नेहरू ने इस ढांचे को बनाए रखा और उसे मजबूत किया।

विपक्ष की कमजोरी का लाभ

नेहरू के दौर में विपक्ष कमजोर और विभाजित था। कोई भी दल कांग्रेस के समकक्ष चुनौती नहीं दे सका। नेहरू ने विपक्ष का दमन नहीं किया, लेकिन उनकी वैचारिक श्रेष्ठता और कांग्रेस की व्यापक स्वीकार्यता के कारण विपक्ष हाशिये पर रहा। इससे कांग्रेस का प्रभुत्व और मजबूत हुआ।

निष्कर्ष

पंडित जवाहरलाल नेहरू की भूमिका ‘एक दल के प्रभुत्व’ की स्थापना में केन्द्रीय रही। उन्होंने कांग्रेस को एक वैचारिक, राजनीतिक और संस्थागत शक्ति के रूप में स्थापित किया। उनके नेतृत्व में कांग्रेस केवल एक राजनीतिक दल नहीं रही, बल्कि राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया की धुरी बन गई। हालांकि यह प्रभुत्व लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर था, फिर भी यह एक लंबे समय तक भारतीय राजनीति पर कांग्रेस की केंद्रीय भूमिका सुनिश्चित करने वाला युग था, जिसकी नींव नेहरू ने रखी।
 
प्रश्न 8. क्या एक दलीय प्रभुत्व लोकतंत्र के लिए खतरा है या एक मजबूत शुरुआत? अपने उत्तर की विवेचना कीजिए।

उत्तर – 1967 के आम चुनाव भारतीय राजनीति में एक निर्णायक मोड़ साबित हुए। यह वह क्षण था जब कांग्रेस के एकदलीय प्रभुत्व की पकड़ ढीली पड़नी शुरू हुई और भारतीय लोकतंत्र एक नई प्रतिस्पर्धात्मक एवं गठबंधन युग में प्रवेश करने लगा। इस चुनाव के बाद राजनीतिक परिदृश्य में कई गहरे और व्यापक परिवर्तन देखने को मिले, जिनमें से कुछ अस्थायी रहे, परंतु कई बदलाव स्थायी रूप से भारतीय राजनीति की दिशा और चरित्र को बदल गए।

प्रमुख परिवर्तन (1967 के बाद):

1. एकदलीय प्रभुत्व का अंत और बहुदलीय राजनीति की शुरुआत:

1967 से पहले कांग्रेस पार्टी का लगभग एकछत्र शासन था। लेकिन इस चुनाव के बाद कांग्रेस को नौ राज्यों में सत्ता गंवानी पड़ी। यह पहली बार हुआ जब विभिन्न दलों ने संयुक्त मोर्चा सरकारें बनाईं, जिससे भारत में बहुदलीय राजनीति की नींव मजबूत हुई।

2. गठबंधन राजनीति का उदय:

क्षेत्रीय और वैचारिक रूप से विविध दलों ने मिलकर संयुक्त विधायक दल (SVD) के रूप में कांग्रेस के खिलाफ सरकारें बनाईं। यद्यपि ये गठबंधन लंबे समय तक नहीं टिके, लेकिन इससे यह संकेत मिला कि सत्ता अब केवल एक पार्टी तक सीमित नहीं रहेगी।

3. क्षेत्रीय दलों का उदय:

DMK (तमिलनाडु), अकाली दल (पंजाब), तेलुगु देशम पार्टी (आंध्र प्रदेश, 1980 के दशक में), और शिवसेना (महाराष्ट्र) जैसे दलों का प्रभाव बढ़ने लगा। इन दलों ने स्थानीय मुद्दों, भाषाई पहचान, और सांस्कृतिक अस्मिता को मुख्यधारा की राजनीति में लाया।

4. राजनीतिक अस्थिरता और सरकारों का अल्पायु होना:

1967 के बाद कई राज्यों में सरकारें जल्दी-जल्दी गिरने लगीं, क्योंकि गठबंधन टिकाऊ नहीं थे। यह प्रवृत्ति 1980 और 1990 के दशक में केंद्र स्तर तक पहुँची, जब भारत ने अल्पमत सरकारों और बार-बार चुनावों का अनुभव किया।

5. केंद्र-राज्य संबंधों में बदलाव:

क्षेत्रीय दलों के सशक्त होने से राज्यों ने अधिक अधिकार और स्वायत्तता की माँग शुरू की। इससे केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव भी आया और संघीय व्यवस्था पर नए विमर्श शुरू हुए।

6. जन आंदोलन और लोकतंत्र की परीक्षा (1975-77 आपातकाल):

1967 के बाद का राजनीतिक अस्थिरता काल अंततः 1975 में आपातकाल की घोषणा तक पहुँचा। यह एक ऐसा दौर था जब लोकतांत्रिक संस्थाएं खतरे में आ गईं। लेकिन 1977 में जनता पार्टी की ऐतिहासिक जीत ने यह सिद्ध किया कि भारतीय लोकतंत्र में आत्मसुधार की क्षमता है।

7. वोटर का बढ़ता राजनीतिक परिपक्वता:

1967 के बाद भारतीय मतदाता ने यह दर्शा दिया कि वह केवल परंपरा या भावनाओं से नहीं, बल्कि प्रदर्शन और विकल्प के आधार पर मतदान करेगा। जनता अब सत्ता परिवर्तन के लिए मतदान करने लगी, जो लोकतंत्र की परिपक्वता का संकेत था।


क्या ये बदलाव स्थायी सिद्ध हुए?

हाँ, अधिकांश परिवर्तन स्थायी सिद्ध हुए, विशेषकर निम्नलिखित:

  • बहुदलीय व्यवस्था आज भारतीय लोकतंत्र का स्थायी और स्वीकृत पहलू है। अब किसी एक दल की पूर्ण और दीर्घकालिक सत्ता बहुत दुर्लभ हो गई है।

  • क्षेत्रीय दल अब राष्ट्रीय राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाते हैं — चाहे वह केंद्र में सरकार बनवाने की हो या राष्ट्रीय नीति निर्धारण में।

  • गठबंधन की राजनीति ने भारतीय राजनीति की कार्यप्रणाली को बदल दिया है। 1990 के बाद से यह मुख्य प्रवृत्ति बन गई।

  • वोटर की सक्रियता और जागरूकता लगातार बढ़ रही है, जिससे सत्ता का अहंकार बार-बार चुनौती दी जाती है।

हालाँकि कुछ गठबंधन अल्पकालिक रहे और अस्थिरता बनी रही, फिर भी व्यापक दृष्टि से देखा जाए तो 1967 के बाद जो राजनीतिक पुनर्संरचना शुरू हुई, उसने भारतीय लोकतंत्र को अधिक सहभागी, प्रतिस्पर्धात्मक और विविधतापूर्ण बना दिया।

निष्कर्ष:

1967 के बाद की भारतीय राजनीति में जो बदलाव आए, वे सिर्फ तत्कालीन सत्ता समीकरणों तक सीमित नहीं थे, बल्कि उन्होंने लोकतंत्र की गहराई और पहुँच को बढ़ाया। इन परिवर्तनों ने यह साबित किया कि भारत का लोकतंत्र केवल एक दल पर आधारित नहीं है, बल्कि यह जनता की सहभागिता, विकल्पों की उपलब्धता और सत्ता के उत्तरदायित्व की बुनियाद पर खड़ा है। इस प्रकार, 1967 के बाद का काल भारतीय राजनीति के लिए एक स्थायी परिवर्तन और लोकतांत्रिक परिपक्वता की दिशा में एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ।

Author

SANTU KUMAR

I am a passionate Teacher of Class 8th to 12th and cover all the Subjects of JAC and Bihar Board. I love creating content that helps all the Students. Follow me for more insights and knowledge.

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