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Q1. आर्युवेद क्या है ?

ANS.  आयुर्वेद एक प्राचीन चिकित्सा पद्धति है, जो मुख्य रूप से भारत में उत्पन्न हुई थी, लेकिन अब यह पूरी दुनिया में प्रचलित है। “आयुर्वेद” शब्द संस्कृत के दो शब्दों से लिया गया है: “आयु” जिसका अर्थ है जीवन, और “वेद” जिसका अर्थ है ज्ञान या विज्ञान। इस प्रकार, आयुर्वेद का शाब्दिक अर्थ होता है “जीवन का विज्ञान।”

आयुर्वेद की नींव इस विचार पर आधारित है कि शरीर, मन और आत्मा के बीच संतुलन बनाए रखना स्वास्थ्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। आयुर्वेद न केवल शारीरिक स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करता है, बल्कि मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को भी महत्व देता है। यह प्राचीन भारतीय दर्शन, योग और प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियों के साथ जुड़ा हुआ है।

आयुर्वेद का सिद्धांत:

आयुर्वेद के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति का शरीर पाँच तत्त्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) से बना होता है। ये तत्त्व तीन प्रमुख दोषों—वात, पित्त और कफ—के रूप में शरीर में मौजूद होते हैं। आयुर्वेद का मानना है कि जब इन दोषों का संतुलन बिगड़ता है, तो यह बीमारियों का कारण बन सकता है। इसलिये आयुर्वेद में इन दोषों को संतुलित करने के उपायों पर ध्यान दिया जाता है।

आयुर्वेद की चिकित्सा विधियाँ:

आयुर्वेद में शरीर और मन के संतुलन को बहाल करने के लिए कई प्रकार की चिकित्सा विधियाँ अपनाई जाती हैं। इनमें से कुछ प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं:

  1. हर्बल उपचार (Herbal Treatments): आयुर्वेद में जड़ी-बूटियों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। ये जड़ी-बूटियाँ शरीर के विभिन्न अंगों की कार्यप्रणाली को सुधारने और रोगों से बचाव करने में मदद करती हैं।

  2. पंचकर्म (Panchakarma): यह एक शुद्धिकरण प्रक्रिया है, जिसमें शरीर को विषाक्त पदार्थों से मुक्त करने के लिए विशिष्ट चिकित्सा विधियों का उपयोग किया जाता है। इसमें विशेष प्रकार की मालिश, स्नान और अन्य उपचार शामिल होते हैं।

  3. आहार और जीवनशैली (Diet and Lifestyle): आयुर्वेद का मानना है कि एक संतुलित आहार और सही जीवनशैली से शरीर के दोषों को संतुलित किया जा सकता है। आयुर्वेद में आहार के प्रकार, समय और मात्रा को लेकर विस्तार से मार्गदर्शन किया जाता है।

  4. योग और प्राणायाम (Yoga and Pranayama): आयुर्वेद में शारीरिक, मानसिक और आत्मिक संतुलन के लिए योग और प्राणायाम के अभ्यास को अत्यधिक महत्व दिया जाता है।

आयुर्वेद का उद्देश्य:

आयुर्वेद का मुख्य उद्देश्य न केवल रोगों का इलाज करना है, बल्कि समग्र स्वास्थ्य को बनाए रखना और जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाना है। आयुर्वेद जीवन के प्रत्येक पहलू को ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत उपचार विधियों का सुझाव देता है। आयुर्वेद का मानना है कि हर व्यक्ति की शारीरिक संरचना और मानसिक स्थिति अलग होती है, और इसलिए इलाज भी व्यक्तिगत होना चाहिए।

आयुर्वेद के लाभ:

  1. प्राकृतिक उपचार: आयुर्वेद में प्राकृतिक तत्वों का उपयोग किया जाता है, जिससे कोई साइड इफेक्ट्स नहीं होते।
  2. व्यक्तिगत उपचार: यह उपचार प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक संरचना, मनोवैज्ञानिक स्थिति और जीवनशैली को ध्यान में रखते हुए किया जाता है।
  3. रोगों की रोकथाम: आयुर्वेद का उद्देश्य केवल उपचार नहीं, बल्कि रोगों की रोकथाम करना भी है।
  4. समग्र स्वास्थ्य: आयुर्वेद शरीर, मन और आत्मा के संतुलन पर जोर देता है, जिससे समग्र स्वास्थ्य बेहतर होता है।

आयुर्वेद का इतिहास:

आयुर्वेद का इतिहास लगभग 5000 वर्षों पुराना है। यह भारतीय उपमहाद्वीप के प्राचीन ग्रंथों, जैसे कि वेदों और उपनिषदों में वर्णित है। इसके अतिरिक्त, आयुर्वेद को कई महान ऋषियों और चिकित्सकों द्वारा विकसित किया गया था, जिनमें चरक, सुश्रुत और वाग्भट का नाम प्रमुख है। इन व्यक्तियों ने आयुर्वेद को व्यवस्थित और वैज्ञानिक रूप से परिभाषित किया।

समकालीन संदर्भ:

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के विकास के बावजूद आयुर्वेद आज भी लोकप्रिय है। आजकल, लोग आयुर्वेद का उपयोग शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए भी कर रहे हैं। इसके अलावा, आयुर्वेद का एक बड़ा लाभ यह है कि यह पूरी तरह से प्राकृतिक होता है, जिससे इसका कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता। इसके उपयोग के बढ़ते चलन ने आयुर्वेद को दुनिया भर में एक प्रचलित चिकित्सा पद्धति बना दिया है।

निष्कर्ष:

आयुर्वेद न केवल एक चिकित्सा पद्धति है, बल्कि यह जीवन जीने का एक तरीका भी है। यह हमें प्राकृतिक उपचारों, संतुलित आहार और जीवनशैली के माध्यम से शरीर और मन के बीच सामंजस्य बनाए रखने का मार्गदर्शन करता है। आयुर्वेद का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति के समग्र स्वास्थ्य को बेहतर बनाना है, ताकि वह एक स्वस्थ और संतुलित जीवन जी सके।

आशा है कि यह जानकारी आपके काम आई होगी! अगर आप और जानना चाहते हैं, तो कृपया बताएं।

Q2. वायु प्रदूषण से होने वाली प्रमुख बीमारियों का नाम लिखें ?

ANS. वायु प्रदूषण से होने वाली प्रमुख बीमारियों पर विस्तार से चर्चा करने से पहले यह समझना महत्वपूर्ण है कि वायु प्रदूषण क्या है। वायु प्रदूषण तब होता है जब वायुमंडल में हानिकारक तत्वों, जैसे कि गैसें, धूल, और अन्य प्रदूषक पदार्थों की मात्रा अत्यधिक बढ़ जाती है। यह प्रदूषक तत्व मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए अत्यधिक हानिकारक हो सकते हैं। वायु प्रदूषण के कारण विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न हो सकती हैं, जो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं।

वायु प्रदूषण के प्रमुख कारण:

वायु प्रदूषण के प्रमुख कारणों में वाहन, औद्योगिकीकरण, कृषि से जुड़े गतिविधियाँ (जैसे जलाना), निर्माण कार्य, और अन्य मानवीय गतिविधियाँ शामिल हैं। इसके अलावा, प्राकृतिक घटनाएँ जैसे जंगलों की आग और धूल के तूफान भी वायु प्रदूषण का कारण बन सकते हैं।

वायु प्रदूषण से होने वाली प्रमुख बीमारियाँ:

  1. श्वसन तंत्र की बीमारियाँ: वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा प्रभाव श्वसन तंत्र पर पड़ता है। वायु में उपस्थित धूल, धुआं, और अन्य विषैले पदार्थ जैसे सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, और ओजोन श्वसन तंत्र को प्रभावित करते हैं और श्वसन संबंधी बीमारियाँ उत्पन्न करते हैं। प्रमुख बीमारियाँ जो वायु प्रदूषण से होती हैं, उनमें शामिल हैं:

    • दमा (Asthma): वायु प्रदूषण दमा के मरीजों के लिए खतरनाक हो सकता है, क्योंकि प्रदूषण से उनकी सांस लेने की क्षमता और भी कमजोर हो जाती है। प्रदूषित वायु में सूक्ष्म कण (PM2.5) और गैसों की उपस्थिति दमा की समस्याओं को बढ़ा सकती है।

    • क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (COPD): यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें श्वसन नलिकाएँ संकुचित हो जाती हैं और सांस लेने में कठिनाई होती है। वायु प्रदूषण इसके विकास को बढ़ावा दे सकता है।

    • ब्रोंकाइटिस (Bronchitis): प्रदूषण से ब्रोंकाइटिस का खतरा बढ़ता है, क्योंकि वायु में उपस्थित हानिकारक तत्व श्वसन मार्ग में सूजन पैदा कर सकते हैं।

  2. हृदय संबंधित बीमारियाँ: वायु प्रदूषण का हृदय पर भी गंभीर प्रभाव पड़ता है। प्रदूषण के संपर्क में आने से रक्त वाहिकाओं में सूजन आ सकती है और रक्त संचार में समस्या उत्पन्न हो सकती है। यह उच्च रक्तचाप (हाइपरटेंशन) और दिल से संबंधित बीमारियों के जोखिम को बढ़ाता है। प्रदूषित वायु के कारण दिल के दौरे और स्ट्रोक का खतरा भी बढ़ सकता है।

  3. कैंसर (Cancer): वायु प्रदूषण में मौजूद विषैले पदार्थ जैसे बेंजीन और आर्सेनिक का लगातार संपर्क में आना कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों का कारण बन सकता है। विशेष रूप से फेफड़ों का कैंसर वायु प्रदूषण से जुड़ा हुआ है। इन हानिकारक तत्वों का लगातार श्वसन तंत्र में प्रवेश फेफड़ों की कोशिकाओं को नुकसान पहुँचाता है, जिससे कैंसर का खतरा बढ़ता है।

  4. मस्तिष्क पर प्रभाव: वायु प्रदूषण केवल शारीरिक अंगों को ही नहीं, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है। प्रदूषण से मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं, जैसे तनाव (anxiety), अवसाद (depression), और याददाश्त में कमी। अध्ययन से पता चला है कि वायु प्रदूषण मानसिक विकारों के जोखिम को बढ़ा सकता है।

  5. त्वचा और नेत्रों की बीमारियाँ: वायु प्रदूषण के संपर्क में आने से त्वचा पर समस्याएँ हो सकती हैं, जैसे मुँहासे, जलन, और झुर्रियाँ। इसके अलावा, प्रदूषण के कारण आँखों में जलन, लालपन, और एलर्जी जैसी समस्याएँ हो सकती हैं। यह स्थिति विशेष रूप से उन लोगों के लिए खतरनाक होती है जो प्रदूषित वातावरण में अधिक समय बिताते हैं।

  6. गर्भावस्था और शिशु स्वास्थ्य: गर्भवती महिलाओं और नवजात शिशुओं के लिए वायु प्रदूषण बेहद खतरनाक साबित हो सकता है। गर्भवती महिलाओं के लिए प्रदूषण से उच्च रक्तचाप, मधुमेह और समय से पहले प्रसव जैसी समस्याएँ हो सकती हैं। शिशुओं में प्रदूषण के कारण अस्थमा, दमा, और अन्य श्वसन तंत्र की समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं।

  7. वृद्धों में स्वास्थ्य समस्याएँ: वायु प्रदूषण वृद्ध व्यक्तियों के लिए विशेष रूप से खतरनाक हो सकता है, क्योंकि उनका शारीरिक तंत्र पहले से ही कमजोर होता है। प्रदूषण के कारण वृद्धों में दिल और श्वसन तंत्र से जुड़ी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं, जो उनकी जीवन गुणवत्ता को प्रभावित करती हैं।

  8. आंखों और नाक में जलन: वायु प्रदूषण में उपस्थित हानिकारक रसायन आंखों में जलन, लालपन और आंसू का कारण बन सकते हैं। साथ ही, नाक में खुजली, जुकाम, और नाक से खून आने जैसी समस्याएँ भी उत्पन्न हो सकती हैं।

  9. आंतरिक अंगों पर असर: लंबे समय तक प्रदूषण का शिकार होने पर आंतरिक अंगों, जैसे लिवर और किडनी, पर भी असर पड़ सकता है। प्रदूषण के कारण शरीर में विषैले तत्व जमा हो सकते हैं, जो इन अंगों की कार्यप्रणाली को प्रभावित कर सकते हैं।

निष्कर्ष:

वायु प्रदूषण न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक स्वास्थ्य को भी गंभीर रूप से प्रभावित करता है। प्रदूषित वायु में उपस्थित हानिकारक गैसों और कणों के संपर्क में आने से विभिन्न बीमारियाँ उत्पन्न हो सकती हैं, जो जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित करती हैं। इसलिए, वायु प्रदूषण से बचने के लिए हमें व्यक्तिगत रूप से और सामूहिक रूप से प्रयास करने की आवश्यकता है। इसके लिए प्रदूषण कम करने के उपायों को अपनाना, जैसे वाहनों का कम उपयोग, स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों का प्रयोग, और पेड़-पौधों की संख्या बढ़ाना, अत्यंत आवश्यक है।

सिर्फ सरकार ही नहीं, बल्कि प्रत्येक नागरिक को वायु प्रदूषण के खिलाफ जागरूकता फैलानी चाहिए और इसे नियंत्रित करने के लिए कार्य करना चाहिए, ताकि हम और हमारी आने वाली पीढ़ियाँ एक स्वच्छ और स्वस्थ वातावरण में रह सकें।

Q3. झारखण्ड में वन उन्मूलन के मुख्य कारण क्या हैं ?

ANS.  झारखंड में वन उन्मूलन (deforestation) एक गंभीर समस्या बन चुकी है, जो राज्य के पर्यावरण, जैव विविधता, और स्थानीय लोगों के जीवन पर नकारात्मक प्रभाव डाल रही है। वन उन्मूलन के कारणों को समझने के लिए यह जरूरी है कि हम उन कारकों को पहचाने जो सीधे तौर पर इस समस्या को जन्म दे रहे हैं। झारखंड राज्य में वन क्षेत्र महत्वपूर्ण है क्योंकि यह राज्य का लगभग 29% क्षेत्र वनाच्छादित है, लेकिन आज यह वन क्षेत्र तेजी से घट रहा है।

झारखंड में वन उन्मूलन के प्रमुख कारण:

  1. कृषि विस्तार: झारखंड के बहुत से हिस्सों में कृषि भूमि का विस्तार करना वन उन्मूलन का एक प्रमुख कारण है। यहां के ग्रामीण और आदिवासी समुदाय अक्सर खेती के लिए जंगलों को काटते हैं। बढ़ती जनसंख्या और खाद्य आपूर्ति की आवश्यकता के कारण अधिक कृषि भूमि की जरूरत होती है, जिससे जंगलों का क्षेत्र घटता जा रहा है। किसान जंगलों की भूमि को साफ कर उसे कृषि कार्य के लिए उपयोग में लाते हैं, जो वनस्पतियों और जीवों की विविधता को नष्ट करता है।

  2. खनिज संसाधनों का दोहन: झारखंड खनिज संपदा से भरपूर राज्य है। कोयला, लौह अयस्क, बॉक्साइट, और अन्य खनिजों का विशाल भंडार यहां पाया जाता है। इन खनिजों की खुदाई के लिए जंगलों की कटाई की जाती है। खनिज खनन के लिए बड़े पैमाने पर खनन परियोजनाएं चलायी जाती हैं, जिससे विशाल वन क्षेत्र नष्ट हो जाते हैं। इससे न केवल जंगलों का विनाश होता है, बल्कि पारिस्थितिकी तंत्र में भी भारी बदलाव आता है।

  3. विकास परियोजनाएँ (Infrastructure Development): शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के कारण भी वन उन्मूलन हो रहा है। सड़क निर्माण, जलाशय परियोजनाएँ, रेलवे लाइन, और अन्य अवसंरचनाओं के निर्माण के लिए जंगलों को काटा जाता है। झारखंड में खनन और औद्योगिक क्षेत्रों की वृद्धि के कारण वन क्षेत्र में कमी आ रही है। इन परियोजनाओं के तहत बड़े पैमाने पर वनस्पतियों का नाश होता है, और जैव विविधता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

  4. वनों से लकड़ी और ईंधन की अतिक्रित कटाई: झारखंड में आदिवासी और ग्रामीण समुदायों का मुख्यत: वन संपत्ति पर निर्भरता होती है। वे लकड़ी, घास, ईंधन, और औषधीय पौधों के लिए जंगलों का शिकार करते हैं। हालांकि, यह प्रक्रिया पारंपरिक और छोटे पैमाने पर होती है, लेकिन अत्यधिक और अज्ञानतापूर्ण कटाई के कारण वनों का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ जाता है। जब इन संसाधनों का अत्यधिक शोषण किया जाता है, तो यह वन क्षेत्र के नष्ट होने का कारण बनता है।

  5. अवैध वन कटाई: अवैध रूप से वन संपत्ति का शोषण भी एक बड़ी समस्या है। झारखंड में वन क्षेत्र में अवैध रूप से लकड़ी की कटाई, विशेषकर कीमती लकड़ी जैसे सागौन, शीशम आदि की होती है। यह वन उन्मूलन की प्रक्रिया को और तेज करता है। अवैध वन कटाई से न केवल वनों का नुकसान होता है, बल्कि स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र भी प्रभावित होता है।

  6. आग और प्राकृतिक आपदाएँ: झारखंड में गर्मी के मौसम में जंगलों में आग लगने की घटनाएँ भी आम होती हैं। यह आग प्राकृतिक रूप से भी लग सकती है या इंसानों द्वारा लगाई जाती है। जंगलों में आग लगने से बड़ी मात्रा में वनस्पतियाँ और जानवरों का नुकसान होता है। आग के कारण वन क्षेत्र में व्यापक रूप से नुकसान होता है, जो वन उन्मूलन के कारणों में से एक है।

  7. वन संरक्षण और प्रबंधन की कमी: वन क्षेत्र के संरक्षण और प्रबंधन में कमी भी वन उन्मूलन का एक कारण है। यदि वन क्षेत्रों का उचित संरक्षण नहीं किया जाता और उन्हें अवैध कटाई, अतिक्रमण, और अन्य खतरों से बचाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जाते, तो यह वन उन्मूलन को बढ़ावा देता है। वन विभाग और स्थानीय प्रशासन द्वारा वन प्रबंधन के प्रभावी उपायों की कमी के कारण यह समस्या गंभीर हो जाती है।

  8. आदिवासी समुदायों का विस्थापन: झारखंड में आदिवासी समुदायों का बड़ा हिस्सा जंगलों पर निर्भर रहता है। लेकिन जब सरकार या निजी कंपनियाँ खनन, औद्योगिकीकरण या अन्य विकास कार्यों के लिए इन इलाकों पर कब्जा करती हैं, तो आदिवासी समुदायों को विस्थापित किया जाता है। विस्थापन के कारण ये समुदायों का वन संसाधनों पर निर्भरता कमजोर हो जाती है, जिससे जंगलों की कटाई में वृद्धि होती है। यह समस्या वन उन्मूलन को और बढ़ाती है।

  9. जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन भी वन उन्मूलन के एक कारण के रूप में देखा जा सकता है। वैश्विक तापमान में वृद्धि, अनियमित वर्षा, और सूखा जैसे प्रभावों के कारण जंगलों पर दबाव बढ़ता है। यह जंगलों की वृद्धि दर को प्रभावित करता है और उनकी क्षमता को कम करता है, जिससे वन क्षेत्र में गिरावट आती है।

नतीजा:

झारखंड में वन उन्मूलन के कारण पारिस्थितिकी तंत्र पर गंभीर प्रभाव पड़ रहे हैं। यह जैव विविधता, जलवायु परिवर्तन, और स्थानीय समुदायों के जीवन स्तर को प्रभावित कर रहा है। इससे न केवल वन्य जीवों की संख्या में कमी हो रही है, बल्कि मृदा अपरदन, जल चक्र में असंतुलन, और पर्यावरणीय आपदाओं का खतरा भी बढ़ रहा है।

समाधान:

झारखंड में वन उन्मूलन को रोकने के लिए कुछ प्रमुख उपाय किए जा सकते हैं:

  • स्थायी कृषि पद्धतियाँ अपनाना और वनों की कटाई को नियंत्रित करना।
  • खनन क्षेत्रों में पर्यावरणीय सुधार और वनों के पुनर्निर्माण के लिए विशेष प्रयास।
  • वन संरक्षण कानूनों को सख्ती से लागू करना।
  • आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा और उनका वन संसाधनों पर निर्भरता बनाए रखना।
  • जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपाय और नवीकरणीय ऊर्जा का अधिक उपयोग।

इस प्रकार, झारखंड में वन उन्मूलन को रोकने के लिए विभिन्न स्तरों पर सक्रिय कदम उठाने की आवश्यकता है। यदि समय रहते उचित कदम नहीं उठाए गए, तो यह राज्य के पर्यावरणीय संतुलन के लिए खतरनाक हो सकता है।

Q4. जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को लिखें।

ANS. जलवायु परिवर्तन के प्रभाव

जलवायु परिवर्तन आज की दुनिया में एक गंभीर समस्या बन चुका है, जिसका प्रभाव न केवल प्राकृतिक पर्यावरण पर, बल्कि मानव जीवन और जीव-जंतुओं के लिए भी अत्यधिक हानिकारक साबित हो रहा है। जलवायु परिवर्तन से तात्पर्य है वातावरण में स्थायी बदलाव, जो प्राकृतिक संसाधनों और पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रतिकूल असर डालता है। यह प्राकृतिक असंतुलन उत्पन्न करता है और जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। जलवायु परिवर्तन के प्रमुख कारणों में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन, जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, और नाइट्रस ऑक्साइड का बढ़ता स्तर, हैं। इन गैसों की वृद्धि के कारण पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है, जिसे वैश्विक तापवृद्धि (Global Warming) कहा जाता है।

1. उच्च तापमान (Rising Temperatures)

जलवायु परिवर्तन का सबसे स्पष्ट और प्रमुख प्रभाव तापमान में वृद्धि है। पृथ्वी का औसत तापमान बढ़ने से गर्मी की लहरें बढ़ रही हैं, जिससे जीवन की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है। गर्मी के अधिक दिनों के कारण न केवल मानव स्वास्थ्य पर असर पड़ता है, बल्कि कृषि उत्पादन भी प्रभावित हो रहा है। अत्यधिक गर्मी से फसलों का उत्पादन घटता है और पानी की उपलब्धता कम होती है।

2. जलवायु संकट (Water Crisis)

जलवायु परिवर्तन के कारण जलवायु संकट और पानी की कमी की समस्या बढ़ रही है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण पानी के स्रोतों में सूखा और पानी की कमी जैसी समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। गर्मी बढ़ने से जल स्रोतों का वाष्पीकरण बढ़ता है, जिससे नदियाँ, झीलें और जलाशय सूखने लगते हैं। इसके परिणामस्वरूप पीने के पानी की कमी और कृषि के लिए पानी का संकट उत्पन्न हो सकता है। यह संकट विशेष रूप से उन क्षेत्रों में अधिक गंभीर है जहां पहले से ही पानी की कमी थी।

3. वायुमंडलीय परिवर्तनों के कारण तूफान और आंधी (Storms and Hurricanes)

जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र का स्तर बढ़ रहा है, और इससे तूफान, बाढ़, और समुद्री जलवायु की स्थिति में वृद्धि हो रही है। उच्च तापमान से समुद्र के पानी में अधिक ऊर्जा जमा हो रही है, जिससे तूफान और हरिकेन की आवृत्ति और तीव्रता बढ़ रही है। समुद्र तटों पर बसा हुआ मानव जीवन और बुनियादी ढाँचा इन तूफानों से प्रभावित हो रहा है। साथ ही, मानसूनी वर्षा के पैटर्न में भी बदलाव आ रहा है, जिससे कुछ क्षेत्रों में अधिक बाढ़ और कुछ में सूखा जैसी समस्याएँ बढ़ रही हैं।

4. ग्लेशियरों और बर्फ की चादरों का पिघलना (Melting of Glaciers and Ice Sheets)

जलवायु परिवर्तन का एक और प्रमुख प्रभाव ग्लेशियरों और बर्फ की चादरों का पिघलना है। ग्लेशियरों का पिघलना समुद्र स्तर के बढ़ने का मुख्य कारण बन रहा है, जिससे तटीय क्षेत्रों में बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है। अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड में स्थित बर्फ की चादरों का तेजी से पिघलना वैश्विक समुद्र स्तर को बढ़ा रहा है, जो लाखों लोगों के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकता है।

5. जैव विविधता में गिरावट (Biodiversity Loss)

जलवायु परिवर्तन का जैव विविधता पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है। जब तापमान और मौसम पैटर्न में बदलाव होता है, तो बहुत से वनस्पति और प्राणी अपनी पारंपरिक आवासीय स्थलों को छोड़ने के लिए मजबूर हो जाते हैं। कई प्रजातियाँ इस बदलाव के साथ समायोजित नहीं कर पातीं, जिससे उनका अस्तित्व संकट में पड़ जाता है। वैश्विक स्तर पर कई प्रजातियाँ संकट में हैं, और कई विलुप्त हो रही हैं। जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन बढ़ेगा, प्रजातियों की यह हानि और भी बढ़ सकती है।

6. कृषि पर प्रभाव (Impact on Agriculture)

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कृषि क्षेत्र पर भी गहरा हो रहा है। बढ़ते तापमान, पानी की कमी, और अनियमित वर्षा पैटर्न के कारण कृषि उत्पादन प्रभावित हो रहा है। गर्मी की लहरें, सूखा और बाढ़ के कारण किसानों के लिए उत्पादन में कमी और खाद्य सुरक्षा संकट उत्पन्न हो रहा है। गेहूँ, चावल, और अन्य प्रमुख फसलों का उत्पादन प्रभावित हो सकता है, जिससे खाद्य कीमतों में वृद्धि हो सकती है और विकासशील देशों में भूख और कुपोषण की समस्या बढ़ सकती है।

7. स्वास्थ्य पर प्रभाव (Impact on Health)

जलवायु परिवर्तन मानव स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर खतरा बनता जा रहा है। बढ़ती गर्मी और पर्यावरणीय परिवर्तन से शारीरिक समस्याएँ बढ़ रही हैं, जैसे हीट स्ट्रोक (heat stroke), हृदय रोग और सांस की बीमारियाँ। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन से जल जनित रोगों (waterborne diseases) जैसे हैजा और टायफॉइड के फैलने का खतरा भी बढ़ सकता है। अधिक बारिश और बाढ़ से मच्छर जनित बीमारियाँ जैसे मलेरिया और डेंगू फैलने का जोखिम भी बढ़ता है। साथ ही, पर्यावरणीय तनाव के कारण मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ भी उत्पन्न हो सकती हैं।

8. आर्थिक प्रभाव (Economic Impact)

जलवायु परिवर्तन के कारण आर्थिक विकास पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है। कृषि, ऊर्जा, और पर्यटन जैसे क्षेत्रों में नुकसान हो रहा है। बाढ़, सूखा, और तूफानों की वजह से अवसंरचना का नुकसान होता है, जिससे आर्थिक संकट उत्पन्न होता है। व्यापारिक क्षेत्र, खासकर खेती और मछली पालन से जुड़े उद्योग, जलवायु परिवर्तन से गंभीर रूप से प्रभावित हो रहे हैं। इन प्राकृतिक आपदाओं के कारण पुनर्निर्माण और पुनः व्यवस्थित होने में भारी खर्च आता है।

9. संवेदनशील समुदायों पर प्रभाव (Impact on Vulnerable Communities)

जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा प्रभाव गरीब और संवेदनशील समुदायों पर पड़ता है। इन समुदायों के पास जलवायु परिवर्तन से बचने के लिए संसाधन या क्षमता नहीं होती। विशेष रूप से विकासशील देशों और तटीय क्षेत्रों में रहने वाले लोग इस समस्या से अधिक प्रभावित होते हैं। झीलों, नदियों और तटीय क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों के लिए जलवायु परिवर्तन जीवनयापन में कठिनाई पैदा कर रहा है।

10. सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव (Social and Political Impact)

जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली समस्याएँ सामाजिक और राजनीतिक अस्थिरता का कारण बन सकती हैं। पानी, भोजन और प्राकृतिक संसाधनों की कमी से संघर्ष और तनाव बढ़ सकता है। जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न होने वाली मानवीय समस्याएँ देशों और समुदायों के बीच संघर्षों को जन्म दे सकती हैं, विशेष रूप से सीमांत क्षेत्रों और तटीय क्षेत्रों में।

निष्कर्ष:

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव हमारे दैनिक जीवन, पर्यावरण, और समाज पर अत्यधिक हानिकारक पड़ रहा है। इसका समाधान वैश्विक स्तर पर तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता को दर्शाता है। हमें न केवल प्रदूषण को नियंत्रित करना होगा, बल्कि नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग बढ़ाना होगा, जंगलों की रक्षा करनी होगी, और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए वैश्विक सहयोग को बढ़ावा देना होगा। यदि समय रहते उपाय नहीं किए गए, तो जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से उबरना बहुत मुश्किल हो सकता है।

Q5. गंगा एक्शन प्लान क्या है?

ANS.

गंगा एक्शन प्लान (Ganga Action Plan)

परिचय:

गंगा एक्शन प्लान (GAP) भारत की सबसे महत्वपूर्ण नदी, गंगा, को स्वच्छ और प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए 1986 में शुरू किया गया था। यह योजना भारत सरकार द्वारा गंगा नदी के प्रदूषण को नियंत्रित करने और उसकी स्वच्छता को बढ़ाने के उद्देश्य से बनाई गई थी। गंगा न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से भारतीय समाज के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है, बल्कि यह देश की जीवनरेखा भी मानी जाती है। यह योजना गंगा के विभिन्न क्षेत्रों में प्रदूषण को कम करने और नदी के पारिस्थितिकी तंत्र को पुनः सुधारने के लिए कई उपायों का प्रस्ताव करती है।

गंगा एक्शन प्लान का उद्देश्य:

गंगा एक्शन प्लान का मुख्य उद्देश्य गंगा नदी के जल की गुणवत्ता में सुधार करना और नदी के किनारे के क्षेत्रों में बढ़ते प्रदूषण के स्तर को कम करना था। योजना का लक्ष्य नदी के जल को प्रदूषण से मुक्त करना, जल जीवन के लिए सुरक्षित बनाना, और गंगा के पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करना था।

गंगा एक्शन प्लान के प्रमुख उद्देश्य:

  1. गंगा नदी के जल को स्वच्छ करना: योजना का पहला और सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य गंगा के जल को स्वच्छ करना था ताकि यह न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण रहे, बल्कि इससे लाखों लोगों को पीने योग्य जल भी मिल सके।

  2. प्रदूषण को नियंत्रित करना: गंगा के किनारे बसे शहरों और कस्बों से निकलने वाले औद्योगिक और घरेलू अपशिष्टों को नदी में गिरने से रोकना, और इसके लिए अपशिष्ट प्रबंधन की प्रभावी व्यवस्था करना।

  3. नदी के पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करना: गंगा के पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करना और नदी में मौजूद विभिन्न जैविक प्रजातियों की रक्षा करना।

  4. जन जागरूकता फैलाना: गंगा के महत्व के बारे में लोगों को जागरूक करना और उन्हें नदी के संरक्षण के प्रति संवेदनशील बनाना।

  5. नदी के किनारे के क्षेत्र में अवसंरचना का सुधार: नदी के किनारे के इलाकों में गंदगी, जलभराव, और अव्यवस्थित जल निकासी की समस्या को दूर करना और इस क्षेत्र में स्वच्छता की सुविधाएं सुनिश्चित करना।

गंगा एक्शन प्लान के प्रमुख तत्व:

  1. नदी में गंदे जल के प्रवाह को रोकना: गंगा एक्शन प्लान के तहत, गंगा में गंदे जल के प्रवाह को रोकने के लिए कई उपायों की योजना बनाई गई थी। इन उपायों में गंगा के किनारे की बस्तियों और नगरों में सीवेज उपचार संयंत्र (Sewage Treatment Plants, STPs) लगाना, गंदे जल के सीधे नदी में गिरने से रोकना, और अवैध सीवेज कनेक्शनों को खत्म करना शामिल था।

  2. औद्योगिक प्रदूषण नियंत्रण: गंगा के किनारे स्थित औद्योगिक क्षेत्रों से निकलने वाले प्रदूषण को नियंत्रित करना और प्रदूषणकारी उद्योगों को जल गुणवत्ता मानकों के अनुसार कार्य करने के लिए प्रेरित करना। इसके लिए, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा औद्योगिक इकाइयों का निरीक्षण और अवैध प्रदूषण उत्सर्जन को रोकने के लिए सख्त कदम उठाए गए थे।

  3. नदी के किनारे के शहरों में सफाई और अवसंरचना का सुधार: गंगा के किनारे बसे शहरों और कस्बों में सफाई अभियान चलाना और वहां की अवसंरचनाओं को सुधारना, जैसे कि गंदे जल के संग्रहण और उपचार के लिए नए संयंत्र लगाना।

  4. जल पुनर्चक्रण: गंगा के पानी का पुनर्चक्रण करके उसकी गुणवत्ता में सुधार लाना और जल की बर्बादी को कम करना। इससे न केवल गंगा का प्रदूषण कम होता, बल्कि जल संकट से भी निपटने में मदद मिलती।

  5. जन जागरूकता अभियान: गंगा के महत्व को समझाने और लोगों को उसके संरक्षण के लिए प्रेरित करने के लिए जन जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। यह जागरूकता स्कूलों, कॉलेजों, और विभिन्न समुदायों में फैलाई गई।

गंगा एक्शन प्लान की आलोचना और सीमाएँ:

गंगा एक्शन प्लान का क्रियान्वयन अपेक्षाकृत धीमा रहा है, और योजना की सफलता को लेकर कई आलोचनाएँ की गई हैं। इसकी कुछ प्रमुख आलोचनाएँ इस प्रकार हैं:

  1. आवश्यक संसाधनों की कमी: गंगा एक्शन प्लान को लागू करने के लिए आवश्यक संसाधन और धन की कमी रही। सरकारी एजेंसियों की कमजोर कार्यप्रणाली और सही दिशा में निवेश की कमी के कारण योजना की प्रभावशीलता सीमित रही।

  2. नदी के प्रदूषण के गंभीर कारणों पर ध्यान का अभाव: इस योजना का ध्यान मुख्य रूप से सीवेज और गंदे जल के नियंत्रण पर केंद्रित था, लेकिन उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषण, प्लास्टिक कचरा, और अन्य प्रदूषणकारी तत्वों को नियंत्रित करने के लिए अधिक प्रभावी कदम नहीं उठाए गए।

  3. स्थानीय समुदायों की भागीदारी की कमी: गंगा के किनारे बसे स्थानीय समुदायों और नागरिकों को अधिक सक्रिय रूप से शामिल करने की आवश्यकता थी, ताकि वे नदी की स्वच्छता के लिए जिम्मेदारी लें। योजना में इन समुदायों की भागीदारी पर्याप्त नहीं थी।

नमामि गंगे योजना (Namami Gange Programme):

गंगा एक्शन प्लान की असफलताओं को देखते हुए, 2014 में भारत सरकार ने “नमामि गंगे” योजना शुरू की। यह योजना गंगा की सफाई और संरक्षण के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करती है और इसमें अधिक संसाधन, स्थायी समाधान, और लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने पर जोर दिया गया है। इस योजना के तहत सीवेज उपचार संयंत्रों, जल पुनर्चक्रण, नदी के किनारे के क्षेत्रों में जैव विविधता संरक्षण, और जन जागरूकता अभियान जैसी कई महत्वपूर्ण पहलों को शामिल किया गया है।

निष्कर्ष:

गंगा एक्शन प्लान, गंगा नदी के प्रदूषण को नियंत्रित करने और उसकी स्वच्छता को बढ़ाने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था, लेकिन इसके कार्यान्वयन में कई चुनौतियाँ आईं। हालांकि, इसके बावजूद गंगा एक्शन प्लान ने गंगा के प्रदूषण की समस्या पर ध्यान आकर्षित किया और इसके बाद की योजनाओं, जैसे “नमामि गंगे”, को एक मजबूत नींव प्रदान की। गंगा के संरक्षण के लिए सतत और व्यापक प्रयासों की आवश्यकता है, ताकि भविष्य में यह महत्वपूर्ण नदी प्रदूषण मुक्त और स्वस्थ बनी रहे।

Q6. इतिहास में वैश्विक पर्यावरण जागरुकता के मील के पत्थर की चर्चा करें।

ANS.

इतिहास में वैश्विक पर्यावरण जागरूकता के मील के पत्थर

वैश्विक पर्यावरण जागरूकता का इतिहास लंबे और संघर्षपूर्ण रास्ते से गुजरा है, जिसमें दुनिया भर के विभिन्न आंदोलनों, वैज्ञानिक अध्ययनों, और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज पर्यावरणीय समस्याएँ, जैसे जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता का नुकसान, प्रदूषण, और प्राकृतिक संसाधनों की अत्यधिक खपत, वैश्विक चिंताओं के रूप में उभर चुकी हैं। इन समस्याओं के समाधान की दिशा में वैश्विक पर्यावरण जागरूकता में कई मील के पत्थर हैं, जो ऐतिहासिक रूप से समय-समय पर सामने आए। इन घटनाओं, आंदोलनों और समझौतों ने पर्यावरण संरक्षण के प्रति वैश्विक दृष्टिकोण को आकार दिया और दुनिया को यह समझने में मदद की कि पर्यावरण की सुरक्षा केवल कुछ देशों का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह पूरे मानवता के अस्तित्व से जुड़ा हुआ है।

1. प्रारंभिक पर्यावरणीय जागरूकता (Early Environmental Awareness)

20वीं सदी के मध्य से पहले, पर्यावरणीय मुद्दों पर बहुत कम ध्यान दिया जाता था। हालांकि, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के साथ प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों की अत्यधिक खपत बढ़ी, जिससे पर्यावरणीय संकट की शुरुआत हुई। 1960 और 1970 के दशक में पश्चिमी देशों में प्रदूषण और जैव विविधता के संकट को लेकर जन जागरूकता बढ़ी। इस समय में पर्यावरण पर विचार करना एक सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा बन गया।

2. रेचेल कार्सन की पुस्तक “साइलेंट स्प्रिंग” (1962)

यह किताब पर्यावरणीय जागरूकता की शुरुआत में एक प्रमुख मील का पत्थर साबित हुई। रेचेल कार्सन द्वारा लिखी गई इस पुस्तक ने कीटनाशकों के पर्यावरणीय प्रभावों को उजागर किया और इन रासायनिक पदार्थों के पर्यावरण पर पड़ने वाले खतरनाक प्रभावों को सार्वजनिक रूप से सामने लाया। इस पुस्तक ने न केवल पर्यावरणीय आंदोलनों को प्रेरित किया, बल्कि इससे कानूनों और नियमों में भी बदलाव आया। इसके बाद ही अमेरिका में कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगाने की दिशा में कदम उठाए गए।

3. क्लब ऑफ रोम की रिपोर्ट “द लिमिट्स टू ग्रोथ” (1972)

“द लिमिट्स टू ग्रोथ” रिपोर्ट ने वैश्विक संसाधनों के तेजी से खत्म होने और पर्यावरणीय संकट के बढ़ने की भविष्यवाणी की थी। इस रिपोर्ट ने यह बताने की कोशिश की कि अगर इसी तरह से संसाधनों का उपयोग जारी रहा तो पृथ्वी की सीमाएँ जल्द ही समाप्त हो जाएंगी। इस रिपोर्ट ने पर्यावरणीय नीति निर्माताओं को चेतावनी दी और वैश्विक विकास की सीमा और इसकी स्थिरता पर सवाल उठाए। यह रिपोर्ट पर्यावरणीय शास्त्र के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कदम था।

4. स्टॉकहोम सम्मेलन (1972)

स्टॉकहोम में आयोजित संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सम्मेलन (United Nations Conference on the Human Environment) ने पर्यावरण के संरक्षण के महत्व को वैश्विक मंच पर रखा। यह सम्मेलन पर्यावरणीय मुद्दों पर पहली बार वैश्विक स्तर पर बातचीत करने का अवसर प्रदान करता था और यह पर्यावरणीय नीति के निर्माण में एक महत्वपूर्ण कदम था। इस सम्मेलन ने पर्यावरण संरक्षण को एक वैश्विक समस्या के रूप में पहचाना और इसमें “मानव पर्यावरण” के मुद्दे को प्राथमिकता दी गई।

इस सम्मेलन में 113 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया और एक वैश्विक पर्यावरणीय आंदोलन की नींव रखी। स्टॉकहोम सम्मेलन के परिणामस्वरूप, विश्व में पहली बार पर्यावरण के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय नीति और कार्यक्रम विकसित किया गया। इसके बाद, इस सम्मेलन ने पर्यावरणीय जागरूकता को एक वैश्विक स्तर पर प्रमुखता दी और पर्यावरणीय कानूनों के निर्माण की दिशा में कदम उठाए गए।

5. विश्व पृथ्वी दिवस (1970)

विश्व पृथ्वी दिवस (Earth Day) की शुरुआत 22 अप्रैल 1970 को हुई थी, जब लाखों लोग पर्यावरणीय मुद्दों पर जागरूकता बढ़ाने के लिए सड़कों पर उतरे। इस दिन का उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा और प्रदूषण के खिलाफ जागरूकता फैलाना था। इसे यू.एस. सीनेटर गेएलॉर्ड नेल्सन द्वारा शुरू किया गया था और इसके बाद यह एक अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन बन गया। आज, पृथ्वी दिवस हर साल 190 से अधिक देशों में मनाया जाता है और यह पर्यावरणीय जागरूकता बढ़ाने के सबसे बड़े आयोजनों में से एक है।

6. रियो पृथ्वी शिखर सम्मेलन (1992)

रियो डि जनेरियो में आयोजित संयुक्त राष्ट्र पृथ्वी सम्मेलन (UN Conference on Environment and Development – UNCED) या रियो शिखर सम्मेलन ने पर्यावरणीय मुद्दों को वैश्विक मंच पर और अधिक महत्वपूर्ण बना दिया। इस सम्मेलन में 178 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया और “रियो घोषणा” को अपनाया। इसने स्थिर विकास (Sustainable Development) की अवधारणा को प्रस्तुत किया, जो पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक विकास को संतुलित करने की बात करता है। इसके साथ ही, सम्मेलन में “आइजनटन प्रोटोकॉल” और “बायोडायवर्सिटी कन्वेंशन” जैसे महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए।

7. कीओटो प्रोटोकॉल (1997)

कीओटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) ने वैश्विक तापमान में वृद्धि को नियंत्रित करने के उद्देश्य से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को घटाने के लिए एक कानूनी समझौते के रूप में काम किया। यह 1997 में जापान के कीओटो में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में अपनाया गया था और इसमें विकसित देशों को अपने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कटौती करने का लक्ष्य दिया गया था। हालांकि कई देशों ने इसे अस्वीकार किया, फिर भी यह वैश्विक जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों में एक महत्वपूर्ण कदम था।

8. पेरिस जलवायु समझौता (2015)

पेरिस जलवायु सम्मेलन (COP21) में 195 देशों ने पेरिस जलवायु समझौते (Paris Climate Agreement) पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते में प्रत्येक देश ने अपनी-अपनी जलवायु परिवर्तन से संबंधित प्रतिबद्धताओं को स्वीकार किया। इसका मुख्य उद्देश्य वैश्विक तापमान में वृद्धि को 1.5°C तक सीमित करना था। इस समझौते ने दुनिया भर के देशों को जलवायु परिवर्तन को गंभीरता से लेने के लिए एक साथ लाया और एक साझा लक्ष्य तय किया, जिससे यह वैश्विक पर्यावरण संरक्षण में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर बन गया।

9. संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्य (2015)

संयुक्त राष्ट्र ने 2015 में 17 सतत विकास लक्ष्य (SDGs) को अपनाया, जो 2030 तक विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय लक्ष्यों को प्राप्त करने का उद्देश्य रखते हैं। इनमें “सतत पर्यावरणीय संरक्षण” को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है। इन लक्ष्यों में जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई, जीवन के लिए समुद्र और भूमि की सुरक्षा, और प्राकृतिक संसाधनों का न्यायपूर्ण और जिम्मेदार उपयोग शामिल हैं। इन लक्ष्यों ने पर्यावरणीय जागरूकता को एक वैश्विक एजेंडा बना दिया और यह नीति निर्माताओं, नागरिकों, और संगठनों के लिए एक मार्गदर्शक बन गया है।

10. स्मार्ट सिटी और हरित विकास (Smart Cities and Green Development)

21वीं सदी के मध्य में, शहरीकरण की गति बढ़ी और स्मार्ट सिटी और हरित विकास की अवधारणाओं ने तेजी से विकास की दिशा पकड़ी। स्मार्ट सिटी की योजनाओं में पर्यावरणीय अनुकूल प्रौद्योगिकियों, नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों, और पर्यावरणीय प्रभावों को न्यूनतम करने पर जोर दिया गया। यह दिखाता है कि कैसे विकास और पर्यावरण संरक्षण को संतुलित किया जा सकता है।

निष्कर्ष:

पर्यावरण जागरूकता के मील के पत्थर न केवल यह दर्शाते हैं कि किस प्रकार पर्यावरणीय चिंताओं को वैश्विक स्तर पर पहचाना गया, बल्कि यह भी दिखाते हैं कि समय के साथ कैसे समाज ने इन मुद्दों को हल करने के लिए आवश्यक कदम उठाए हैं। वैश्विक पर्यावरण जागरूकता ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पर्यावरणीय समस्याएँ केवल कुछ देशों की समस्या नहीं हैं, बल्कि यह सभी मानवता के लिए चुनौती हैं। आने वाले वर्षों में हमें अधिक से अधिक वैश्विक सहयोग, नीति परिवर्तन, और स्थिर विकास की दिशा में प्रयासों की आवश्यकता है ताकि हम आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्वस्थ और सुरक्षित पर्यावरण सुनिश्चित कर सकें।

Q7. झारखण्ड की प्रमुख पर्यावरणीय चुनौतियों पर निबंध लिखें ।

ANS.

झारखंड की प्रमुख पर्यावरणीय चुनौतियाँ

झारखंड भारत के पूर्वी भाग में स्थित एक राज्य है, जो अपनी समृद्ध खनिज संपदा, जंगलों और जैव विविधता के लिए प्रसिद्ध है। इस राज्य में लगभग 29% वन क्षेत्र है, और यह विभिन्न प्रकार के खनिजों और प्राकृतिक संसाधनों से भरा हुआ है। हालांकि, यह राज्य अपनी प्राकृतिक संपत्ति से समृद्ध है, लेकिन पर्यावरणीय चुनौतियाँ भी यहाँ बड़ी समस्या बनी हुई हैं। इन पर्यावरणीय समस्याओं का असर न केवल राज्य के पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ रहा है, बल्कि स्थानीय समुदायों और राज्य की आर्थिक स्थिति पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ रहा है। इस निबंध में झारखंड की प्रमुख पर्यावरणीय समस्याओं पर चर्चा की जाएगी।

1. वनों की अंधाधुंध कटाई (Deforestation)

झारखंड राज्य का अधिकांश क्षेत्र वनाच्छादित है, जो न केवल जैव विविधता का घर है, बल्कि पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हालांकि, पिछले कुछ दशकों में वन क्षेत्रों की अंधाधुंध कटाई और अवैध लकड़ी कटाई की घटनाओं में भारी वृद्धि हुई है। झारखंड में प्रमुख रूप से खनन उद्योग और कृषि विस्तार के कारण जंगलों की अंधाधुंध कटाई की जा रही है। इससे न केवल जैव विविधता को नुकसान हो रहा है, बल्कि जलवायु परिवर्तन की दिशा में भी योगदान हो रहा है। जंगलों की कमी से वर्षा के पैटर्न में बदलाव, बाढ़ और सूखा जैसी समस्याओं में भी वृद्धि हो रही है।

वनों की कटाई से आदिवासी समुदायों की आजीविका भी प्रभावित हो रही है, जो इन जंगलों पर निर्भर हैं। जंगलों के नष्ट होने से मिट्टी का कटाव बढ़ रहा है, जो कृषि भूमि को नुकसान पहुंचाता है। इसके साथ ही, वन्य जीवों का प्राकृतिक आवास भी नष्ट हो रहा है, जिससे उनकी संख्या में गिरावट आई है।

2. खनन और खनिजों का अत्यधिक दोहन (Mining and Overexploitation of Minerals)

झारखंड राज्य खनिजों से भरपूर है, जिसमें कोयला, लोहा, यूरेनियम, और अन्य खनिजों का महत्वपूर्ण भंडार है। इन खनिजों के दोहन के लिए बड़े पैमाने पर खनन गतिविधियाँ की जाती हैं, जो पर्यावरण के लिए गंभीर खतरे पैदा करती हैं। खनन कार्यों से जल, वायु और मृदा प्रदूषण होता है। खनन से उत्पन्न होने वाली धूल और गैसें वायू प्रदूषण का कारण बनती हैं, जिससे स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

इसके अलावा, खनन के दौरान जंगलों और जल स्रोतों का भी विनाश होता है। खनिज खनन की प्रक्रिया में विशाल जलाशयों का निर्माण होता है, जो स्थानीय जलवायु और पारिस्थितिकी तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। यह पर्यावरणीय संतुलन को प्रभावित कर सकता है, और जलवायु परिवर्तन के खतरे को बढ़ा सकता है।

3. जल संकट और जलवायु परिवर्तन (Water Crisis and Climate Change)

झारखंड में जल संकट एक महत्वपूर्ण पर्यावरणीय चुनौती है। राज्य में अधिकांश जल स्रोत मानसून पर निर्भर करते हैं, और अगर वर्षा की मात्रा कम होती है तो जल संकट गहरा जाता है। इसके अतिरिक्त, जलाशयों की कमी और जल वितरण की असमानता भी समस्या को और बढ़ाती है। झारखंड में कई क्षेत्रों में जल आपूर्ति के लिए पारंपरिक जल स्रोत जैसे कुएं, तालाब और नदी सूख रहे हैं, जिससे पेयजल की समस्या पैदा हो रही है।

जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम में भी बदलाव आ रहा है, जिससे असमय बारिश, अत्यधिक गर्मी, बर्फबारी और सूखा जैसी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। इन समस्याओं के कारण कृषि पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है, और जल की उपलब्धता में कमी हो रही है। इसके परिणामस्वरूप, कृषि संकट और स्थानीय समुदायों के लिए पानी की गंभीर समस्या उत्पन्न हो रही है।

4. वायु प्रदूषण (Air Pollution)

झारखंड में औद्योगिकीकरण और खनन गतिविधियों के कारण वायु प्रदूषण एक प्रमुख समस्या बन गई है। राज्य के प्रमुख शहरों और खनन क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता में गिरावट आई है। कोयला खनन और उद्योगों के धुएं से निकलने वाले प्रदूषण के कारण हवा में हानिकारक गैसों की मात्रा बढ़ गई है। इसके परिणामस्वरूप स्थानीय लोगों में श्वसन समस्याओं, अस्थमा और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं में वृद्धि हो रही है।

इसके अतिरिक्त, वाहनों के बढ़ते इस्तेमाल और कृषि जलावन के कारण भी वायु प्रदूषण में वृद्धि हो रही है। वायु प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है, और इससे विभिन्न रोगों जैसे अस्थमा, तपेदिक, और श्वसन समस्याओं की वृद्धि हो रही है।

5. भूमि क्षरण (Soil Erosion)

झारखंड में भूमि क्षरण एक अन्य गंभीर समस्या है, जो मुख्य रूप से वनस्पति की कमी, खनन कार्य और कृषि भूमि के अतिक्रमण के कारण उत्पन्न होती है। जंगलों की अंधाधुंध कटाई, और कृषि के लिए भूमि की अत्यधिक उपयोगिता के कारण मृदा का कटाव हो रहा है। मृदा क्षरण के कारण कृषि उत्पादकता में कमी आ रही है, जिससे किसानों को कठिनाइयाँ उत्पन्न हो रही हैं। भूमि क्षरण से जल संसाधनों की उपलब्धता भी प्रभावित हो रही है, क्योंकि मिट्टी का कटाव जलाशयों और नदियों को अवरुद्ध कर देता है।

6. जैव विविधता का नुकसान (Loss of Biodiversity)

झारखंड में अद्वितीय वनस्पति और जीवों की जैव विविधता है, लेकिन अंधाधुंध वनों की कटाई, खनन और प्रदूषण के कारण जैव विविधता में भारी कमी आई है। अनेक प्रजातियाँ जो कभी यहाँ पाई जाती थीं, अब संकटग्रस्त हो चुकी हैं। असंख्य पक्षी, जानवर, और पौधे लुप्तप्राय हैं।

वन्य जीवन की रक्षा के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं, और इस कारण से कई प्रजातियाँ अस्तित्व संकट में हैं। राज्य के कुछ प्रमुख जंगलों और अभ्यारण्यों में भी विकास गतिविधियाँ हो रही हैं, जो इन वन्य प्राणियों के जीवन को प्रभावित कर रही हैं।

7. कचरा प्रबंधन (Waste Management)

झारखंड में शहरीकरण बढ़ने के साथ-साथ कचरा प्रबंधन एक गंभीर समस्या बन गई है। शहरों में कचरे का निस्तारण ठीक से नहीं हो पा रहा है, और खुले में कचरा फेंकने से पर्यावरण में प्रदूषण बढ़ रहा है। प्लास्टिक कचरे की समस्या भी बढ़ रही है, जो न केवल जल स्रोतों को प्रदूषित कर रही है, बल्कि यह भूमि और वायू प्रदूषण का भी कारण बन रही है। कचरे के उचित निस्तारण के लिए आवश्यक इंफ्रास्ट्रक्चर और जन जागरूकता की कमी है।

8. संरक्षण की कमी (Lack of Conservation Efforts)

झारखंड में पर्यावरण संरक्षण के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। सरकार और स्थानीय प्रशासन द्वारा पर्यावरणीय समस्याओं को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। राज्य में पर्यावरणीय शिक्षा और जागरूकता की कमी है, जिससे लोगों को पर्यावरण संरक्षण के महत्व का ज्ञान नहीं होता। इसके परिणामस्वरूप, लोग पर्यावरणीय नीतियों और नियमों का पालन नहीं करते, और प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन करते हैं।

निष्कर्ष:

झारखंड की प्रमुख पर्यावरणीय चुनौतियाँ राज्य की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को प्रभावित कर रही हैं। पर्यावरणीय संकटों से निपटने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। राज्य में पर्यावरण संरक्षण के लिए नीतियों को मजबूत करना, वनस्पति और जल स्रोतों का संरक्षण करना, और खनन और औद्योगिक गतिविधियों को नियंत्रित करना आवश्यक है। इसके साथ ही, आम लोगों में पर्यावरणीय जागरूकता फैलाने और स्थिर विकास की दिशा में काम करने की जरूरत है। यह राज्य के पर्यावरणीय संकट को हल करने में सहायक हो सकता है और भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक स्वस्थ और सुरक्षित वातावरण सुनिश्चित कर सकता है।

Q8. वर्णन करें कैसे जागरूक नागरिक जैव विविधता निगरान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

ANS. 

जागरूक नागरिक जैव विविधता निगरानी में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं

जैव विविधता हमारे पर्यावरण की मूलभूत संरचना है, जो न केवल पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य और संतुलन को बनाए रखने में मदद करती है, बल्कि यह मानव जीवन के लिए भी अत्यंत आवश्यक है। इसमें पौधों, जानवरों, माइक्रोब्स और उनके जीवन के विभिन्न रूप शामिल हैं, जो पृथ्वी पर जीवन के विभिन्न पहलुओं को बनाए रखने के लिए सहायक हैं। लेकिन आजकल, जैव विविधता पर गंभीर संकट मंडरा रहा है, जो मानव गतिविधियों, जैसे अंधाधुंध वनों की कटाई, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, अवैध शिकार, और प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक उपयोग के कारण बढ़ रहा है। इस संकट को ध्यान में रखते हुए, जैव विविधता की निगरानी के लिए जागरूक नागरिकों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है। नागरिकों की भागीदारी से न केवल जैव विविधता के नुकसान को रोका जा सकता है, बल्कि इसे संरक्षित और पुनर्स्थापित करने में भी मदद मिल सकती है।

1. जागरूकता फैलाने में नागरिकों की भूमिका

पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम जैव विविधता की निगरानी में जागरूकता फैलाना है। जागरूक नागरिक समाज में जैव विविधता के महत्व को समझाने और उसे बचाने के लिए लोगों को प्रेरित कर सकते हैं। वे स्कूलों, कॉलेजों, और समाज के अन्य क्षेत्रों में पर्यावरणीय शिक्षा का प्रचार-प्रसार कर सकते हैं। इसके अलावा, वे सार्वजनिक कार्यक्रमों और संगठनों के माध्यम से जैव विविधता से संबंधित मुद्दों पर चर्चा कर सकते हैं, ताकि लोग इसके महत्व को समझ सकें और पर्यावरणीय संकट के प्रति संवेदनशील बन सकें।

नागरिकों को यह समझाना आवश्यक है कि जैव विविधता केवल वन्य जीवन या पेड़ों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे पारिस्थितिकी तंत्र, जिसमें पानी, मिट्टी, हवा और अन्य प्राकृतिक संसाधन शामिल हैं, से संबंधित है। इसके माध्यम से नागरिक प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और उनकी स्थिरता के महत्व को स्पष्ट कर सकते हैं।

2. स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र की निगरानी

जागरूक नागरिक अपने आसपास के पारिस्थितिकी तंत्र की निगरानी कर सकते हैं और जैव विविधता की स्थिति का मूल्यांकन कर सकते हैं। उदाहरण स्वरूप, अगर नागरिकों को अपने क्षेत्र में किसी विशेष पौधे या पशु प्रजाति में कमी या वृद्धि का पता चलता है, तो वे यह जानकारी पर्यावरणीय अधिकारियों या संरक्षण संगठनों को दे सकते हैं। स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र की निगरानी से यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि कोई विशेष प्रजाति लुप्तप्राय नहीं हो रही है, और यदि कोई खतरा है, तो उसे समय रहते समझा जा सके।

इस तरह, नागरिकों की भागीदारी से स्थानीय जैव विविधता का उचित संरक्षण सुनिश्चित किया जा सकता है। जैसे कि, अगर कोई क्षेत्रीय जलाशय या नदी प्रदूषित हो रही है, तो नागरिक इसे जल्दी पहचान कर प्रदूषण के स्रोत को रोकने के लिए संबंधित अधिकारियों से कार्रवाई की मांग कर सकते हैं। यह व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयासों से जैव विविधता की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है।

3. स्थानीय जैव विविधता संरक्षण परियोजनाओं में भागीदारी

नागरिकों को अपने समुदायों में विभिन्न जैव विविधता संरक्षण परियोजनाओं में भाग लेने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, वृक्षारोपण अभियानों में हिस्सा लेना, पशु संरक्षण कार्यक्रमों में भागीदारी, और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए प्रयास करना। जब नागरिक सक्रिय रूप से ऐसे कार्यक्रमों में भाग लेते हैं, तो यह न केवल जैव विविधता की रक्षा में मदद करता है, बल्कि यह अन्य लोगों को भी प्रेरित करता है कि वे भी इन प्रयासों में शामिल हों।

इसके अलावा, नागरिकों को अपनी स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करने के लिए नियमों और कानूनों के पालन को सुनिश्चित करने में भी भूमिका निभानी चाहिए। वे पर्यावरणीय कानूनों की समझ को फैलाने में मदद कर सकते हैं और साथ ही उन पर निगरानी भी रख सकते हैं ताकि उन्हें उल्लंघन न हो।

4. सामाजिक मीडिया और डिजिटल प्लेटफार्मों का उपयोग

आज के डिजिटल युग में, सोशल मीडिया और अन्य ऑनलाइन प्लेटफार्मों के माध्यम से जागरूक नागरिकों का प्रभाव बहुत बड़ा हो सकता है। वे सोशल मीडिया पर जैव विविधता से संबंधित मुद्दों को उजागर कर सकते हैं, जिससे पूरी दुनिया में एक जागरूकता फैले। इसके अलावा, वे पर्यावरणीय संगठनों के अभियानों में समर्थन और भागीदारी के लिए लोगों को प्रेरित कर सकते हैं। वे ब्लॉग लिखकर, वीडियो बनाकर, और अन्य डिजिटल सामग्री के माध्यम से लोगों को जैव विविधता के महत्व के बारे में जानकारी दे सकते हैं।

इसके अलावा, डिजिटल प्लेटफार्मों के माध्यम से नागरिकों को जैव विविधता की निगरानी के लिए उपकरण और संसाधन प्रदान किए जा सकते हैं, जैसे कि मोबाइल ऐप्स, जो किसी विशेष प्रजाति के अवलोकन और डेटा संग्रह में मदद कर सकते हैं। इस प्रकार, जागरूक नागरिक जैव विविधता की निगरानी के लिए डिजिटल माध्यमों का उपयोग करके इसे संरक्षण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बना सकते हैं।

5. स्थानीय नीति और कानूनों में बदलाव के लिए दबाव डालना

जागरूक नागरिकों को अपने स्थानीय, राज्य और राष्ट्रीय सरकारों पर दबाव डालने का अधिकार है, ताकि जैव विविधता और पर्यावरणीय संरक्षण के लिए सख्त नीतियाँ बनाई जाएं। यदि नागरिक पर्यावरणीय मुद्दों पर संवेदनशील होते हैं और इन मुद्दों के बारे में सरकार को समय-समय पर चेतावनी देते रहते हैं, तो यह न केवल सरकार को जागरूक करता है, बल्कि यह नीतियों और योजनाओं को प्रभावित करने में भी मदद करता है।

नागरिक, पर्यावरणीय संगठनों और अभियानों में भाग लेकर, निर्णय निर्माताओं पर दबाव बना सकते हैं, ताकि वे जैव विविधता के संरक्षण और समुचित निगरानी के लिए आवश्यक नीतियाँ लागू करें। इसके अलावा, नागरिक जागरूकता अभियानों में भाग लेकर, सरकार को प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की दिशा में अतिरिक्त कदम उठाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

6. प्राकृतिक आपदाओं और प्रदूषण में नागरिकों की भूमिका

जब जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, तो पर्यावरणीय आपदाएँ, जैसे कि बाढ़, सूखा, और जंगलों की आग जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। जागरूक नागरिक इन प्राकृतिक आपदाओं के दौरान राहत कार्यों में भाग ले सकते हैं और आपदा प्रभावित क्षेत्रों में पुनर्निर्माण कार्यों में मदद कर सकते हैं। इसके अलावा, प्रदूषण को कम करने के लिए वे विभिन्न कार्यक्रमों और अभियानों में भाग ले सकते हैं, जैसे प्लास्टिक मुक्त अभियान, जल संरक्षण अभियान और पेड़-पौधों के संरक्षण के लिए प्रयास।

7. संवेदनशील प्रजातियों और पारिस्थितिकी तंत्रों की रक्षा

जागरूक नागरिक संवेदनशील और लुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। ये प्रजातियाँ पारिस्थितिकी तंत्र के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और इनके संरक्षण से जैव विविधता की सुरक्षा होती है। जागरूक नागरिकों के समूह इन प्रजातियों की स्थिति पर निगरानी रख सकते हैं, उनका डेटा एकत्र कर सकते हैं और यदि कोई खतरा हो, तो समय रहते अधिकारियों को सूचित कर सकते हैं।

निष्कर्ष

जैव विविधता की निगरानी में जागरूक नागरिकों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि वे न केवल अपने व्यक्तिगत स्तर पर पर्यावरणीय संरक्षण कर सकते हैं, बल्कि वे सामूहिक प्रयासों को भी प्रेरित कर सकते हैं। जागरूक नागरिकों का उद्देश्य जैव विविधता को संरक्षित करना, उसके महत्व को समझाना, और पर्यावरणीय संकटों से निपटने के लिए प्रभावी कदम उठाना होना चाहिए। यदि नागरिक जिम्मेदारी से अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, तो यह न केवल जैव विविधता की रक्षा करेगा, बल्कि यह समग्र पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य को भी सुनिश्चित करेगा, जिससे भविष्य में मानवता के लिए एक स्थिर और स्वस्थ पर्यावरण सुनिश्चित किया जा सके।

Q9. जल प्रदूषण में उद्योगों के कारणों और प्रभावों की व्याख्या करें। उसे रोकने के उपाय सुझाएँ।

ANS.

जल प्रदूषण में उद्योगों के कारण और प्रभाव, और उसे रोकने के उपाय

जल एक अमूल्य प्राकृतिक संसाधन है, जो जीवन के लिए आवश्यक है। यह न केवल मनुष्यों के लिए, बल्कि सभी जीवों और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। पानी की उपलब्धता और उसकी गुणवत्ता का सीधे तौर पर हमारे स्वास्थ्य, कृषि, उद्योगों, और पर्यावरण पर असर पड़ता है। हालांकि, आजकल जल प्रदूषण एक गंभीर समस्या बन चुका है, और इसके प्रमुख कारणों में से एक है औद्योगिकीकरण। औद्योगिक गतिविधियाँ न केवल जल स्रोतों की गुणवत्ता को प्रभावित करती हैं, बल्कि यह पारिस्थितिकी तंत्र को भी नुकसान पहुंचाती हैं। जल प्रदूषण के कारणों, प्रभावों और इसे नियंत्रित करने के उपायों पर गहन चर्चा इस निबंध में की जाएगी।

1. जल प्रदूषण में उद्योगों के कारण:

औद्योगिक गतिविधियाँ जल स्रोतों को प्रदूषित करने का एक प्रमुख कारण हैं। उद्योगों से निकलने वाले कचरे, रसायन, और अपशिष्ट जल सीधे नदियों, तालाबों, और जलाशयों में मिश्रित हो जाते हैं, जिससे जल की गुणवत्ता में गिरावट आती है। औद्योगिक प्रदूषण के कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार हैं:

a) रासायनिक अपशिष्ट:

उद्योगों में कच्चे माल की प्रोसेसिंग, निर्माण, और अन्य उत्पादन गतिविधियों के दौरान विभिन्न प्रकार के रासायनिक अपशिष्ट उत्पन्न होते हैं। इन रसायनों में भारी धातुएं जैसे पारा, कैडमियम, लेड, आर्सेनिक, आदि शामिल हो सकते हैं, जो जल में मिलकर उसे जहरीला बना देते हैं। इन रसायनों के कारण जल में जीवन को sustain करने की क्षमता घट जाती है और यह मनुष्य और जलीय जीवों के लिए खतरनाक हो सकता है।

b) जल में तेल और ग्रीस का मिश्रण:

खाद्य प्रसंस्करण, पेट्रोलियम, और रासायनिक उद्योगों में तेल और ग्रीस का उपयोग किया जाता है। जब यह अपशिष्ट जल में मिल जाते हैं, तो पानी में तेल का एक घना परत बन जाता है, जिससे पानी के ऑक्सीजन अवशोषण में कमी आती है। यह जल जीवन के लिए हानिकारक होता है और मछलियों और अन्य जलजीवों की मृत्यु का कारण बन सकता है।

c) भारी धातुओं का उत्सर्जन:

उद्योगों में विभिन्न धातुओं, जैसे लोहा, तांबा, जस्ता, आदि का प्रयोग किया जाता है, और इन धातुओं से उत्पन्न होने वाला अपशिष्ट जल में भारी धातुओं का उत्सर्जन करता है। इन भारी धातुओं के जल स्रोतों में मिल जाने से जल की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, और यह जलजन्य बीमारियों का कारण बन सकता है।

d) कार्बनिक अपशिष्ट:

कृषि, खाद्य प्रसंस्करण और अन्य उद्योगों से उत्पन्न होने वाले कार्बनिक अपशिष्ट भी जल में मिलकर प्रदूषण बढ़ाते हैं। जब ये अपशिष्ट जल में घुलते हैं, तो जल के भीतर ऑक्सीजन की मात्रा घट जाती है, जिससे जलजीवों का जीवन संकट में पड़ जाता है। इसके अलावा, जब इन अपशिष्टों के कारण जल में अत्यधिक बैक्टीरिया और सूक्ष्मजीव बढ़ जाते हैं, तो पानी पीने के लिए अनुपयुक्त हो जाता है।

e) तापमान वृद्धि:

कुछ उद्योगों से निकलने वाला गर्म पानी नदियों या जलाशयों में डाला जाता है, जिससे जल का तापमान बढ़ जाता है। इस तापमान वृद्धि के कारण जलजीवों की जीवनशैली पर प्रभाव पड़ता है, क्योंकि अधिकांश जलजीव विशेष तापमान पर ही रह सकते हैं। उच्च तापमान से ऑक्सीजन की उपलब्धता भी कम हो जाती है, जिससे जल में जीवन को sustain करना कठिन हो जाता है।

2. जल प्रदूषण के प्रभाव:

a) मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव:

जल प्रदूषण का सबसे बड़ा प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर पड़ता है। जब प्रदूषित पानी का सेवन किया जाता है, तो यह विभिन्न जलजन्य बीमारियों, जैसे दस्त, हैजा, टाइफाइड, पेचिश, और जल जनित संक्रमणों का कारण बनता है। इसके अलावा, भारी धातुओं से प्रदूषित जल के सेवन से कैंसर, न्यूरोलॉजिकल विकार और गुर्दे की बीमारियाँ जैसी गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं।

b) जलजीवों पर प्रभाव:

प्रदूषित जल में जीवन को बनाए रखना अत्यंत कठिन हो जाता है। जब पानी में रासायनिक पदार्थ, भारी धातुएं और कार्बनिक अपशिष्ट मिल जाते हैं, तो यह जलजीवों की मृत्यु का कारण बनता है। मछलियाँ, मेंढक, और अन्य जलजीव इस प्रदूषण के कारण नष्ट हो जाते हैं, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन बिगड़ जाता है। इसके परिणामस्वरूप, खाद्य श्रृंखला में भी गड़बड़ी होती है।

c) पारिस्थितिकी तंत्र का असंतुलन:

जल प्रदूषण से जल स्रोतों का पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता है। प्रदूषित जल में ऑक्सीजन की मात्रा घट जाती है, जिससे जलजीवों की जीवित रहने की क्षमता प्रभावित होती है। प्रदूषण से नदियाँ और जलाशय गंदगी से भर जाते हैं, जिससे जलीय पौधे और अन्य जीवनदायिनी प्रणालियाँ नष्ट हो जाती हैं। यह पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन का कारण बनता है।

d) कृषि पर प्रभाव:

जब पानी में रसायन और भारी धातुएं मिल जाती हैं, तो वह कृषि के लिए उपयुक्त नहीं रहता। प्रदूषित जल से सिंचाई करने से फसलों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिससे कृषि उत्पादन में कमी आती है। इसके अलावा, रासायनिक प्रदूषण से मिट्टी की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है, जो दीर्घकालिक रूप से कृषि उत्पादन को नुकसान पहुँचाता है।

3. जल प्रदूषण को रोकने के उपाय:

a) औद्योगिक अपशिष्ट जल का उपचार:

उद्योगों को अपने अपशिष्ट जल का उपचार करने के लिए उच्च गुणवत्ता वाले जल उपचार संयंत्र स्थापित करने चाहिए। रासायनिक, जैविक, और भौतिक प्रक्रियाओं के माध्यम से प्रदूषित जल को शुद्ध किया जा सकता है। इसके अलावा, उद्योगों को अपने प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए पर्यावरणीय मानकों का पालन करना चाहिए और नियमानुसार प्रदूषक तत्वों को जल स्रोतों में नहीं डालना चाहिए।

b) अपशिष्ट जल पुनर्चक्रण (Water Recycling):

औद्योगिक इकाइयाँ अपशिष्ट जल का पुनर्चक्रण करके इसे पुनः उपयोग कर सकती हैं। इससे जल की खपत को कम किया जा सकता है और प्रदूषण भी नियंत्रित किया जा सकता है। जल पुनर्चक्रण से जल स्रोतों पर दबाव कम होता है और जल की गुणवत्ता को बनाए रखा जा सकता है।

c) जैविक और रासायनिक रीसाइक्लिंग:

उद्योगों को जैविक अपशिष्टों का प्रबंधन और रासायनिक रीसाइक्लिंग के उपायों को अपनाना चाहिए। जैविक अपशिष्टों के निपटान के लिए वर्मीकोम्पोस्टिंग और बायोगैस संयंत्रों का प्रयोग किया जा सकता है, जिससे जल स्रोतों पर दबाव नहीं पड़ेगा और प्रदूषण भी कम होगा।

d) कड़े पर्यावरणीय नियम और निगरानी:

सरकार को औद्योगिक प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए कड़े पर्यावरणीय नियम लागू करने चाहिए। उद्योगों को जल प्रदूषण नियंत्रण मानकों का पालन करना अनिवार्य होना चाहिए। इसके लिए नियमित निगरानी और निरीक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए ताकि प्रदूषण के स्तर पर नियंत्रण रखा जा सके।

e) जन जागरूकता और शिक्षा:

जल प्रदूषण को रोकने के लिए जनता में जागरूकता फैलाना आवश्यक है। नागरिकों को जल संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण और प्रदूषण के स्वास्थ्य पर प्रभावों के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए। इसके साथ ही, उद्योगों को भी प्रदूषण नियंत्रण के महत्व को समझाया जाना चाहिए ताकि वे जिम्मेदार तरीके से अपने कचरे का प्रबंधन कर सकें।

निष्कर्ष:

जल प्रदूषण एक गंभीर समस्या बन चुकी है, और इसके प्रभावों से निपटने के लिए एक संगठित प्रयास की आवश्यकता है। उद्योगों के कारण जल प्रदूषण के कारणों और प्रभावों को समझकर और विभिन्न उपायों को अपनाकर इस समस्या को नियंत्रित किया जा सकता है। उद्योगों को पर्यावरणीय दृष्टिकोण से जिम्मेदार बनाना, जल उपचार की तकनीकों को बढ़ावा देना, और जन जागरूकता फैलाना इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हो सकते हैं। यदि हम सभी मिलकर इस दिशा में काम करते हैं, तो जल प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सकता है और आने वाली पीढ़ियों के लिए स्वच्छ जल उपलब्ध कराया जा सकता है।

Q10. कैसे मानवीय क्रियाकलाप ने जलवायु परिवर्तन को गति दी है ? उदाहरण सहित समझाएँ।

ANS.

जलवायु परिवर्तन आज दुनिया भर के सबसे बड़े पर्यावरणीय संकटों में से एक है। यह न केवल पर्यावरण को प्रभावित कर रहा है, बल्कि इसका असर मानव जीवन, कृषि, वन्य जीवन, और समग्र पारिस्थितिकी तंत्र पर भी पड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण मानवीय क्रियाकलाप है, जो प्राचीन और प्राकृतिक जलवायु चक्रों में अव्यवस्था उत्पन्न कर रहा है। औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, कृषि, परिवहन, ऊर्जा उत्पादन, और वन्य क्षेत्रों की अतिक्रमण जैसी मानवीय गतिविधियाँ जलवायु परिवर्तन को तेज कर रही हैं। इस निबंध में हम यह समझेंगे कि कैसे मानवीय क्रियाकलाप जलवायु परिवर्तन को गति देते हैं और इसके उदाहरणों के माध्यम से इसे स्पष्ट करेंगे।

1. ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन

जलवायु परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण है ग्रीनहाउस गैसों (GHGs) का अत्यधिक उत्सर्जन। ग्रीनहाउस गैसें, जैसे कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), मीथेन (CH4), नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) और फ्लोरोकार्बन, वातावरण में जमा हो जाती हैं और सूरज से आने वाली गर्मी को पृथ्वी की सतह पर फँसाए रखती हैं। इस प्रक्रिया को ग्रीनहाउस प्रभाव कहा जाता है। औद्योगिक क्रांति के बाद से मानव गतिविधियों के कारण इन गैसों का उत्सर्जन तेजी से बढ़ा है, जिससे पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है।

उदाहरण:

  • उद्योग और परिवहन: उद्योगों में जीवाश्म ईंधन जैसे कोयला, पेट्रोलियम और गैस का अत्यधिक उपयोग किया जाता है, जिससे CO2 का उत्सर्जन होता है। उदाहरण के तौर पर, कारों और अन्य परिवहन वाहनों में पेट्रोल और डीजल का जलना भी CO2 उत्सर्जन का एक महत्वपूर्ण कारण है।
  • विज्ञान और ऊर्जा उत्पादन: कोयला आधारित बिजली संयंत्रों और अन्य जीवाश्म ईंधन पर आधारित ऊर्जा उत्पादन विधियाँ अधिक CO2 उत्पन्न करती हैं। जैसे, भारत और चीन में विशाल कोयला आधारित ऊर्जा संयंत्र हैं जो भारी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करते हैं।

2. वनों की अतिक्रमण और विनाश

वन, पृथ्वी के सबसे महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रों में से एक हैं। ये कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने और ऑक्सीजन छोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन मानवीय गतिविधियों, जैसे वनों की अतिक्रमण और कटाई के कारण यह प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है। जब पेड़ों को काटा जाता है, तो वे CO2 को संग्रहित नहीं कर पाते और इसके बजाय वे ग्रीनहाउस गैसों का स्रोत बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त, जंगलों की कटाई से भूमि की उपजाऊ क्षमता भी प्रभावित होती है, जो जलवायु परिवर्तन को और बढ़ावा देती है।

उदाहरण:

  • अमेज़न वर्षावन: दुनिया के सबसे बड़े वर्षावनों में से एक अमेज़न वर्षावन है, जिसे ‘पृथ्वी का फेफड़ा’ कहा जाता है। यहाँ पर बड़े पैमाने पर वनों की अतिक्रमण हो रही है, जिससे CO2 का अवशोषण कम हो रहा है और वनों से निकलने वाली ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है।
  • भारत में वन कटाई: भारत के कई हिस्सों में खेती के लिए भूमि प्राप्त करने के उद्देश्य से जंगलों की अतिक्रमण हो रही है, खासकर हिमालयी क्षेत्र और पूर्वी भारत में। इससे न केवल कार्बन उत्सर्जन बढ़ रहा है, बल्कि जलवायु परिवर्तन के अन्य प्रभाव भी तीव्र हो रहे हैं।

3. कृषि और पशुपालन

कृषि और पशुपालन भी जलवायु परिवर्तन में योगदान करने वाले प्रमुख मानवीय क्रियाकलाप हैं। कृषि में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग, मिट्टी की उर्वरता को कम करता है और कार्बन के भंडारण में कमी आती है। इसके अलावा, मवेशियों और अन्य पशुओं से मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है, जो CO2 से कई गुणा अधिक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है।

उदाहरण:

  • पशुपालन: मवेशियों का अत्यधिक पालन और उनके द्वारा उत्सर्जित मीथेन गैस का जलवायु परिवर्तन पर गहरा असर पड़ता है। यह विशेष रूप से ब्राजील और अर्जेंटीना जैसे देशों में देखा जाता है, जहाँ बड़े पैमाने पर मवेशी पालन होता है।
  • कृषि में रासायनिक उर्वरक: कृषि में रासायनिक उर्वरकों का अत्यधिक उपयोग नाइट्रस ऑक्साइड का उत्सर्जन करता है, जो एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है।

4. शहरीकरण और निर्माण

शहरीकरण और निर्माण गतिविधियाँ जलवायु परिवर्तन में महत्वपूर्ण योगदान करती हैं। जैसे-जैसे शहरों का विस्तार होता है, हरे-भरे क्षेत्रों की जगह कंक्रीट और सीमेंट से बने भवनों और सड़कों का निर्माण होता है, जिससे प्राकृतिक जलवायु चक्रों में परिवर्तन होता है। इसके अलावा, शहरों में भारी यातायात और ऊर्जा की खपत के कारण ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ता है।

उदाहरण:

  • शहरी तापदाब (Urban Heat Island Effect): शहरी क्षेत्रों में कंक्रीट, सीमेंट और अन्य निर्माण सामग्री के कारण तापमान में वृद्धि होती है। इसे ‘शहरी तापदाब’ (Urban Heat Island Effect) कहा जाता है, जिससे जलवायु परिवर्तन की तीव्रता बढ़ जाती है।
  • विकसित देशों का शहरीकरण: अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों में बढ़ती शहरीकरण गतिविधियाँ जलवायु परिवर्तन को और अधिक प्रभावित कर रही हैं, क्योंकि वहाँ ऊर्जा की खपत और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन अत्यधिक है।

5. जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप अप्रत्याशित घटनाएँ

मानवीय क्रियाकलापों के कारण जलवायु परिवर्तन ने विभिन्न अप्रत्याशित और हिंसक घटनाओं को जन्म दिया है, जैसे गर्मी की लहरें, तूफान, बर्फबारी, सूखा, और बाढ़। ये घटनाएँ न केवल मानव जीवन के लिए खतरे का कारण बनती हैं, बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन को भी प्रभावित करती हैं।

उदाहरण:

  • पैसिफिक क्षेत्र में तूफान: वायुमंडलीय ग्रीनहाउस गैसों के उच्च स्तर के कारण समुद्र का तापमान बढ़ रहा है, जिससे महासागर में तूफानों की तीव्रता और आवृत्ति बढ़ रही है। इसका उदाहरण हाल के वर्षों में हरिकेन कात्रिना (2005), हरिकेन इरमा (2017) और अन्य तीव्र तूफान हैं।
  • भारत में सूखा: भारत में 2016 और 2019 में गंभीर सूखा पड़ा था, जो जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती जलवायु असंतुलन का परिणाम था। इसने कृषि और जल आपूर्ति पर गंभीर असर डाला।

निष्कर्ष:

जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण मानवीय गतिविधियाँ हैं, जो हमारे जीवन के विभिन्न पहलुओं में शामिल हैं। ग्रीनहाउस गैसों का अत्यधिक उत्सर्जन, वनों की अतिक्रमण, कृषि और पशुपालन की प्रक्रियाएँ, शहरीकरण, और अन्य मानवीय क्रियाकलाप जलवायु परिवर्तन को गति देने के प्रमुख कारण हैं। यह न केवल प्राकृतिक संसाधनों की कमी का कारण बनता है, बल्कि पर्यावरणीय असंतुलन, स्वास्थ्य संकट, और अन्य गंभीर समस्याओं को भी जन्म देता है। यदि हम जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करना चाहते हैं, तो हमें अपनी क्रियाकलापों में सुधार करना होगा, अधिक सतत विकास की दिशा में काम करना होगा, और पर्यावरणीय संरक्षण के उपायों को लागू करना होगा। केवल सामूहिक प्रयासों से ही जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम किया जा सकता है और पृथ्वी को एक सुरक्षित और स्थिर वातावरण प्रदान किया जा सकता है।

11. पर्यावरण अध्ययन क्या है?

उत्तर:
पर्यावरण अध्ययन एक अंतरविषयक शैक्षिक क्षेत्र है, जो पर्यावरण, जैव विविधता, पारिस्थितिकी, जलवायु परिवर्तन और स्थिरता जैसे मुद्दों का अध्ययन करता है। यह अध्ययन मानवों और प्राकृतिक संसाधनों के बीच रिश्तों को समझने, पर्यावरणीय समस्याओं का विश्लेषण करने, और उन समस्याओं के समाधान की दिशा में काम करने के लिए किया जाता है।

12. आजकल के प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दे कौन से हैं?

उत्तर:
आजकल के प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दे निम्नलिखित हैं:

  • जलवायु परिवर्तन: ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ना।
  • प्रदूषण: वायु, जल और मृदा प्रदूषण, जिसमें प्लास्टिक कचरा, रासायनिक अपवाह, और औद्योगिक उत्सर्जन शामिल हैं।
  • वनों की कटाई: वनों की अवैध कटाई और नष्ट होने से जैव विविधता का नुकसान।
  • जैव विविधता का नुकसान: पारिस्थितिकी तंत्रों का विघटन और प्रजातियों का विलुप्त होना।
  • जनसंख्या वृद्धि: प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक उपभोग और बढ़ती जनसंख्या का दबाव।
  • संसाधन समाप्ति: खनिज, जल, और ऊर्जा संसाधनों का अत्यधिक उपयोग।

13. स्थिरता (Sustainability) क्या है?

उत्तर:
स्थिरता का अर्थ है वर्तमान की जरूरतों को इस प्रकार पूरा करना, कि भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताएँ बिना समझौता किए पूरी की जा सकें। इसमें पर्यावरण, समाज और अर्थव्यवस्था के बीच संतुलन बनाए रखना शामिल है। स्थिरता से जुड़े उपायों में संसाधनों का जिम्मेदार उपयोग, नवीकरणीय ऊर्जा का प्रचार, अपशिष्ट प्रबंधन, और पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करना शामिल है।

4. जैव विविधता का महत्व क्या है?

उत्तर:
जैव विविधता पृथ्वी पर जीवन के विभिन्न रूपों (पौधे, जानवर, सूक्ष्मजीव, आदि) को कहा जाता है। यह पारिस्थितिकी तंत्रों के स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए आवश्यक है, जो हमें कई प्रकार की सेवाएँ प्रदान करते हैं, जैसे:

  • फसलों का परागण
  • जल और वायु का शुद्धिकरण
  • जलवायु का नियंत्रण
  • खाद्य और औषधियों के स्रोत
  • सांस्कृतिक और मनोरंजन के लाभ
    जैव विविधता पारिस्थितिकी तंत्र को लचीला बनाती है, जिससे यह प्राकृतिक आपदाओं और मानवीय गतिविधियों से उत्पन्न तनावों का सामना कर पाता है।

15. प्रदूषण के विभिन्न प्रकार और उनके प्रभाव क्या हैं?

उत्तर:
प्रदूषण प्राकृतिक संसाधनों में हानिकारक तत्वों के मिश्रण को कहते हैं। प्रदूषण के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं:

  • वायु प्रदूषण: औद्योगिक उत्सर्जन, वाहन धुआं और जीवाश्म ईंधनों के जलने से होता है। इसके प्रभावों में श्वसन रोग, स्मॉग, और ग्लोबल वार्मिंग शामिल हैं।
  • जल प्रदूषण: रासायनिक अपवाह, सीवेज, प्लास्टिक और औद्योगिक कचरा जल स्रोतों में मिलता है, जो जलीय जीवन को नुकसान पहुँचाता है और पीने योग्य जल को प्रदूषित करता है।
  • मृदा प्रदूषण: रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और कचरे से मृदा प्रदूषित होती है, जो कृषि उत्पादन को प्रभावित करता है और खाद्य श्रृंखला को भी प्रदूषित करता है।
  • ध्वनि प्रदूषण: शहरी गतिविधियाँ, वाहनों और औद्योगिक उपकरणों से उच्च ध्वनि स्तर उत्पन्न होता है, जो मानसिक तनाव और सुनने में परेशानी का कारण बनता है।

16. पर्यावरण नैतिकता (Environmental Ethics) के प्रमुख सिद्धांत क्या हैं?

उत्तर:
पर्यावरण नैतिकता मानव और पर्यावरण के बीच नैतिक संबंधों पर आधारित है। इसके प्रमुख सिद्धांत हैं:

  • मानव-केंद्रित दृष्टिकोण (Anthropocentrism): यह दृष्टिकोण कहता है कि पर्यावरण का मूल्य केवल मानव कल्याण के संदर्भ में है।
  • जीव-केंद्रित दृष्टिकोण (Biocentrism): इसमें सभी जीवों को समान महत्व दिया जाता है, न सिर्फ मानवों को।
  • पर्यावरण-केंद्रित दृष्टिकोण (Ecocentrism): यह सिद्धांत कहता है कि सम्पूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण महत्वपूरण है, जिसमें न केवल जीवित जीव, बल्कि निर्जीव तत्व भी शामिल हैं।
  • गहरी पारिस्थितिकी (Deep Ecology): इस दृष्टिकोण में प्राकृतिक जगत की आंतरिक मूल्य और जीवन के प्रति गहरी समझ और सम्मान को महत्व दिया जाता है।

17. नवीकरणीय ऊर्जा का स्थिर विकास में क्या योगदान है?

उत्तर:
नवीकरणीय ऊर्जा जैसे सौर, पवन, जल और भू-तापीय ऊर्जा स्थिर विकास के लिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये पारंपरिक जीवाश्म ईंधनों के मुकाबले पर्यावरण पर कम प्रभाव डालती हैं। ये ऊर्जा स्रोत शुद्ध हैं, ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन नहीं करते और अपारंपरिक ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता को कम करते हैं। इनका उपयोग जलवायु परिवर्तन से लड़ने, ऊर्जा सुरक्षा बढ़ाने और नई हरित प्रौद्योगिकियों के लिए रोजगार सृजन में मदद करता है।

18. “कॉमन पूल रिसोर्सेस का संकट” (Tragedy of the Commons) क्या है?

उत्तर:
“कॉमन पूल रिसोर्सेस का संकट” वह स्थिति है, जब लोग अपनी स्वार्थी प्रवृत्तियों के कारण साझा संसाधनों का अत्यधिक उपयोग करते हैं, जिससे वह संसाधन नष्ट हो जाता है। यह स्थिति अक्सर तब उत्पन्न होती है जब लोग साझा संसाधनों का उपयोग करते हैं, जैसे कि घास के मैदान, मछली पकड़ने के स्थल, या वन, और बिना किसी नियंत्रण या समन्वय के उनका अत्यधिक उपयोग करते हैं। इस समस्या को हल करने के लिए साझेदारी और संसाधन प्रबंधन की आवश्यकता होती है।

19. अंतरराष्ट्रीय संगठनों की पर्यावरण संरक्षण में भूमिका क्या है?

उत्तर:
अंतरराष्ट्रीय संगठनों जैसे संयुक्त राष्ट्र (UN), विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO), और अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) का पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान है। ये संगठन:

  • अंतरराष्ट्रीय संधियों और समझौतों को बढ़ावा देते हैं (जैसे पेरिस समझौता, जलवायु परिवर्तन पर)
  • पर्यावरणीय मुद्दों पर शोध और विशेषज्ञता प्रदान करते हैं
  • स्थिरता और संरक्षण के लिए वैश्विक प्रयासों का समन्वय करते हैं
  • नीति परिवर्तनों के लिए सिफारिशें और जागरूकता बढ़ाते हैं

20. वनों की कटाई के प्रमुख कारण क्या हैं?

उत्तर:
वनों की कटाई के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:

  • कृषि विस्तार: बड़े पैमाने पर कृषि (जैसे सोया या पाम तेल के लिए) और मवेशी पालन के लिए जंगलों की कटाई की जाती है।
  • शहरीकरण: बढ़ते हुए शहरों और बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए वन क्षेत्र को काटा जाता है।
  • लकड़ी की कटाई: वाणिज्यिक लकड़ी के उत्पादन के लिए वनों की कटाई की जाती है।
  • खनन: खनिजों और जीवाश्म ईंधनों के खनन के लिए जंगलों को नष्ट किया जाता है।
  • आग: प्राकृतिक और मानवजनित आग वनों की नष्ट करने का कारण बनती है।
Author

SANTU KUMAR

I am a passionate Teacher of Class 8th to 12th and cover all the Subjects of JAC and Bihar Board. I love creating content that helps all the Students. Follow me for more insights and knowledge.

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