Class 12th Political Science ( लघु उत्तरीय प्रश्न ) PART- 6

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Q.150. शीतयुद्ध के दौरान महाशक्तियों द्वारा बनाए गए किन्हीं दो सैन्य संगठनों के नाम लिखिए। सैन्य संधियाँ किस सिद्धांत पर आधारित थीं ?

उत्तर – 1. नाटो (NATO)
1949 में अमेरिका के नेतृत्व में साम्यवाद के प्रसार को रोकने के उद्देश्य से नाटो (उत्तर अटलांटिक संधि संगठन) का गठन किया गया था। वर्तमान में नाटो के सदस्य देशों को ‘शांति के भागीदार’ के रूप में जाना जाता है, जो आपसी सुरक्षा और सहयोग के लिए एकजुट हैं।

2. वारसा संधि
1955 में सोवियत संघ के नेतृत्व में वारसा संधि का गठन हुआ। इसका मुख्य उद्देश्य सदस्य देशों को अमेरिका के प्रभुत्व से बचाना था। इसमें पोलैंड, हंगरी, पूर्वी जर्मनी, बुल्गारिया जैसे पूर्वी यूरोप के देश शामिल थे। यह सैन्य संधि सदस्य देशों की आत्मरक्षा के लिए बनाई गई थी। सदस्य राष्ट्र अपने आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक हितों को ध्यान में रखते हुए इन सैनिक गुटों में शामिल हुए। ये संधियाँ सामूहिक सुरक्षा की अवधारणा पर आधारित थीं।

Q.151. द्वि-राष्ट्र सिद्धांत क्या है ?

उत्तर –शीत युद्ध और द्विध्रुवीयता शीत युद्ध (1945-1991) के दौरान विश्व दो प्रमुख गुटों में विभाजित था। एक गुट का नेतृत्व सोवियत संघ करता था, जबकि दूसरे का नेतृत्व अमेरिका के हाथ में था। इस प्रकार की व्यवस्था को ‘द्विध्रुवीयता’ कहा जाता है। ऐसे राष्ट्र जो दोनों ध्रुवों से जुड़े रहते थे, वे ‘द्वि-राष्ट्र सिद्धांत’ के समर्थक माने जाते थे। द्वि-राष्ट्र सिद्धांत में दो मत, दो प्रभाव और दो ध्रुवों के विचारों को स्वीकार किया जाता था, जिससे वे दोनों पक्षों के बीच संतुलन बनाए रखना चाहते थे।

Q.152. आर्थिक न्याय क्या है ?

उत्तर – आर्थिक न्याय का अर्थ आर्थिक न्याय से तात्पर्य समाज में समानता और संतुलन स्थापित करने के प्रयास से है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी व्यक्ति के पास अत्यधिक संपत्ति का भंडार न हो और कोई भी भूख या गरीबी से त्रस्त न रहे। सभी नागरिकों को उनके मूलभूत आवश्यक संसाधनों और सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना ही आर्थिक न्याय कहलाता है। इस प्रकार, आर्थिक न्याय समाज में समृद्धि का समान वितरण और सामाजिक कल्याण की गारंटी प्रदान करता है।

Q. 153. दक्षेस क्या है ?

उत्तर – दक्षेस अर्थात् South Asian Association for Regional Cooperation दक्षिण एशिया के आठ देशों का एक क्षेत्रीय सहयोग संगठन है। इसकी स्थापना 8 दिसंबर 1985 को हुई थी। इस संगठन के सदस्य देश हैं: भारत, भूटान, अफगानिस्तान, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश। दक्षेस का 16वाँ शिखर सम्मेलन 28-29 अप्रैल 2010 को भूटान की राजधानी थिम्पू में सफलतापूर्वक संपन्न हुआ।

Q. 154. प्रत्यक्ष प्रजातंत्र से आप क्या समझते हैं ?

उत्तर – जब जनता सीधे तौर पर चुनाव में भाग लेकर सरकार चुनती है, तो इसे प्रत्यक्ष प्रजातंत्र कहा जाता है। भारत में लोकतंत्र का यह रूप अपनाया गया है। यहाँ सभी नागरिकों को मतदान का अधिकार प्राप्त है, जिससे वे अपनी इच्छा अनुसार अपने सांसद और विधायक चुन सकते हैं।

Q.155. भूमण्डलीय तापन क्या है ?

उत्तर – विज्ञान और तकनीक के विकास के साथ कल-कारखानों और मोटर वाहनों की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई है। इन स्रोतों से निकलने वाला धुआँ, गर्म वाष्प और प्रदूषित गैसें वातावरण को प्रभावित करती हैं। इन प्रदूषित तत्वों की वजह से धरती के ऊपर धुआँ और धूलकणों की एक परत बन जाती है, जो सूर्य की गर्मी को अंतरिक्ष में वापस जाने से रोकती है। इस प्रक्रिया को हरित-गृह प्रभाव कहा जाता है, जिसके कारण धरती का तापमान बढ़ता जा रहा है। इसी घटना को भूमंडलीय तापन (Global Warming) कहा जाता है।

Q.156. भारत और नेपाल के मध्य संबंधों पर एक टिप्पणी लिखिए।

उत्तर – भारत-नेपाल के संबंध

  1. मधुर और विशिष्ट संबंध:
    भारत और नेपाल के बीच गहरे और मधुर संबंध हैं, जो विश्व में अपने तरह के अनोखे उदाहरण माने जाते हैं। दोनों देशों के बीच एक विशेष संधि है, जिसके तहत दोनों देशों के नागरिक बिना पासपोर्ट (पारपत्र) और वीजा के एक-दूसरे के देश में आ-जा सकते हैं और कार्य कर सकते हैं। हालांकि, खास और घनिष्ठ संबंधों के बावजूद अतीत में व्यापार से जुड़े कुछ मतभेद भी रहे हैं।

  2. नेपाल-चीन संबंध और भारत की चिंता:
    नेपाल के चीन के साथ बढ़ते मित्रता संबंधों को लेकर भारत सरकार ने कई बार अपनी अप्रसन्नता जाहिर की है। इसके अलावा, भारत-विरोधी तत्वों के खिलाफ नेपाल सरकार की कार्रवाई न करने से भी भारत में असंतोष व्याप्त है।

  3. सुरक्षा संबंधी चिंताएं:
    भारत की सुरक्षा एजेंसियां नेपाल में चल रहे नक्सलवादी आंदोलनों को अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानती हैं, क्योंकि भारत के विभिन्न हिस्सों में नक्सलवाद बढ़ रहा है। वहीं नेपाल में भी कुछ लोग यह मानते हैं कि भारत उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करता है और उसके नदी जल व पनबिजली संसाधनों पर नजर रखता है।

  4. भू-राजनीतिक दृष्टिकोण:
    नेपाल, जो चारों तरफ से भूमि से घिरा हुआ है, यह महसूस करता है कि भारत उसे अपने भू-भाग से होकर समुद्र तक पहुंचने से रोकता है। हालांकि, इन मतभेदों के बावजूद भारत-नेपाल के संबंध मजबूती और शांति के साथ बने हुए हैं। दोनों देश व्यापार, वैज्ञानिक सहयोग, साझा प्राकृतिक संसाधनों, बिजली उत्पादन और जल प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में मिलकर काम कर रहे हैं। नेपाल में लोकतंत्र की बहाली के बाद दोनों देशों के संबंध और भी सुदृढ़ होने की उम्मीद है।

Q.157. भारत-श्रीलंका समझौता 1987 पर टिप्पणी लिखें।

उत्तर – भारत-श्रीलंका समझौता, 1987

जुलाई 1987 में तमिलों की समस्या को सुलझाने के लिए भारत और श्रीलंका के बीच एक महत्वपूर्ण समझौता हुआ। इस समझौते के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे:

  1. उत्तरी और पूर्वी प्रांतों का एकीकरण:
    श्रीलंका के उत्तरी और पूर्वी दो प्रांतों को, जहाँ तमिल बहुसंख्यक हैं, एकीकृत क्षेत्र के रूप में गठित किया जाएगा।

  2. स्थानीय सरकार का गठन:
    इस एकीकृत क्षेत्र में विधानसभा का गठन किया जाएगा और वहां लोकप्रिय सरकार स्थापित की जाएगी।

  3. जनमत संग्रह:
    जनमत संग्रह के माध्यम से यह पता लगाया जाएगा कि क्या ये दोनों प्रांत विलय के पक्ष में हैं या नहीं। यदि वे विलय के विरोध में निर्णय देते हैं, तो उनकी सरकारें स्वतंत्र रहेंगी। यह जनमत संग्रह 1988 तक कराए जाने थे।

  4. शांति स्थापना हेतु भारतीय सेना की भूमिका:
    यदि तमिल उग्रवादी इस समझौते का उल्लंघन कर सशस्त्र संघर्ष जारी रखते हैं, तो श्रीलंका सरकार शांति स्थापना के लिए भारतीय सेना को आमंत्रित कर सकती है।

  5. श्रीलंका की अखंडता का सम्मान:
    समझौते में श्रीलंका की राष्ट्रीय अखंडता पर सहमति व्यक्त की गई। इसके बाद भारतीय सेना श्रीलंका के निमंत्रण पर वहाँ पहुँची और उसने सराहनीय कार्य किया। उत्तर और पूर्वी प्रांतों में लोकप्रिय सरकारें स्थापित हुईं, हालांकि तमिल उग्रवादी संघर्ष जारी रहे।

  6. भारतीय सेना की वापसी:
    श्रीलंका सरकार के जनता दबाव के चलते जुलाई 1989 तक भारतीय सेना को वापस बुलाने का आग्रह किया गया। भारत सरकार ने शांति स्थापित किए बिना सेना की वापसी का विरोध किया, लेकिन अंततः मार्च 1990 तक भारतीय सेना वापस लौट गई।

इस सैन्य कार्यवाही के कारण तमिल समाज में भारत सरकार के प्रति रोष पैदा हुआ। इसी पृष्ठभूमि में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या हुई। आज के समय में दोनों देशों के बीच संबंध फिर से मधुर और सहयोगपूर्ण बने हुए हैं।

Q. 158. तथ्य दीजिए कि पर्यावरण से जुड़े सरोकार 1960 के दशक के बाद राजनैतिक चरित्र ग्रहण कर सके।

उत्तर –  पर्यावरण से जुड़े सरोकारों का लंबा इतिहास है लेकिन आर्थिक विकास के कारण पर्यावरण पर होने वाले असर की चिंता ने 1960 के दशक के बाद से राजनीतिक चरित्र ग्रहण किया वैश्विक मामलों से सरोकार रखनेवाले एक विद्वत् समूह ‘क्लब आव रोम’ ने 1992 में ‘लिमिट्स टू ग्रोथ शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित की। यह पुस्तक दुनिया की बढ़ती जनसंख्या के आलोक में प्राकृतिक संसाधनों के विनाश के संदेश को बड़ी खूबी से बताती है।

Q.159. रियो सम्मेलन के क्या परिणाम हुए ? अथवा, रियो सम्मेलन का आयोजन क्यों और कहाँ हुआ था ? इससे जुड़ी कुा विशेषताएँ भी लिखिए।

उत्तर – 1. उद्देश्य एवं स्थान – 1992 में संयुक्त राष्ट्रसंघ का पर्यावरण और विकास के मुद्दे पर केन्द्रित एक सम्मेलन, ब्राजील के रियो डी जनेरियो में हुआ। इसे पृथ्वी सम्मेलन कह जाता है।

2. विशेषताएँ – (i) इस सम्मेलन में 170 देश, हजारों स्वयं सेवी संगठन तथा अनेक बहुराष्ट्रीय निगमों ने भाग लिया। वैश्विक राजनीति के दायरे में पर्यावरण को लेकर बढ़ते सरोकारों को इस सम्मेलन में एक ठोस रूप मिला।

(ii) इस सम्मेलन मे पाँच साल पहले (1987) अवर कॉमन फ्यूचर’ शीर्षक बर्टलैंड रिपोर्ट छपी थी। रिपोर्ट में चेताया गया था कि आर्थिक विकास के चालू तौर-तरीके आगे चलकर टिकाऊ साबित नहीं होंगे। विश्व के दक्षिणी हिस्से में औद्योगिक विकास की माँग ज्यादा प्रबल है और रिपोर्ट में इसी हवाले से चेतावनी दी गई थी।

(iii) रियो-सम्मेलन में यह बात खुलकर सामने आयी कि विश्व के धनी और विकसित देश यानी उत्तरी गोलार्द्ध तथा गरीब और विकासशील देश यानी दक्षिणी गोलार्द्ध पर्यावरण के अलग-अलग अजेंडे के पैरोकार हैं। उत्तरी देशों की मुख्य चिंता ओजोन परत की छेद और वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) को लेकर थी। दक्षिणी देश आर्थिक विकास और पर्यावरण प्रबंधन के आपसी रिश्ते को सुलझाने के लिए ज्यादा चिंतित थे।

(iv) रियो-सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन जैव-विविधता और वानिकी के संबंध में कुछ नियमाचार निर्धारित हुए । इसमें ‘एजेंडा-21’ के रूप में विकास के कुछ तौर-तरीके भी सुझाए गए लेकिन इसके बाद भी आपसी अंतर और कठिनाइयाँ बनी रहीं।

(v) सम्मेलन में इस बात पर सहमति बनी कि आर्थिक वृद्धि से पर्यावरण को नुकसान न पहुँचे इसे ‘टिकाऊ विकास’ का तरीका कहा गया लेकिन समस्या यह थी कि ‘टिकाऊ विकास’ पर अमल कैसे किया जाएगा। कुछ आलोचकों का कहना है कि ‘एजेंडा-21’ का झुकाव पर्यावरण संरक्षण को सुनिश्चित करने के बजाय आर्थिक वृद्धि की ओर है।

Q.160. विश्व की ‘साझी विरासत’ का क्या अर्थ है ? इसका दोहन और प्रदूषण कैसे होता है ?

उत्तर – (i) विश्व की साझी विरासत का अर्थ

विश्व की साझी विरासत (Global Commons) से तात्पर्य उन संसाधनों और क्षेत्रों से है जो किसी एक देश या व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में नहीं आते, बल्कि जिन पर समस्त मानवता का साझा अधिकार होता है। जैसे एक गाँव में साझा चूल्हा, चारागाह, कुआँ या मैदान पूरे समुदाय की संपत्ति होते हैं, वैसे ही वैश्विक स्तर पर कुछ क्षेत्र – जैसे पृथ्वी का वायुमंडल, अंटार्कटिका, समुद्री सतह और बाहरी अंतरिक्ष – सभी मनुष्यों की साझा विरासत माने जाते हैं।

इनका कोई एक मालिक नहीं होता, इसलिए इनका संरक्षण और प्रबंधन अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के माध्यम से किया जाता है। यही कारण है कि इन्हें ‘मानवता की साझी विरासत’ या ‘वैश्विक संपदा’ (Global Heritage) कहा जाता है। इन संसाधनों का संरक्षण केवल वर्तमान पीढ़ी के लिए नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के हित में भी आवश्यक है।

(ii) दोहन और प्रदूषण की समस्या

1. वैश्विक सहयोग की चुनौती:
वैश्विक संपदा के संरक्षण हेतु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग स्थापित करना एक कठिन कार्य है। हालांकि कुछ महत्वपूर्ण संधियाँ इस दिशा में बनी हैं, जैसे:

  • अंटार्कटिका संधि (1959) – इसने अंटार्कटिका को वैज्ञानिक अनुसंधान और शांति का क्षेत्र घोषित किया।

  • मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल (1987) – ओजोन परत को बचाने के लिए हानिकारक गैसों पर नियंत्रण का प्रयास।

  • अंटार्कटिका पर्यावरणीय प्रोटोकॉल (1991) – अंटार्कटिका में पर्यावरणीय संरक्षण हेतु दिशा-निर्देश।

फिर भी, वैज्ञानिक तथ्यों की व्याख्या और समयसीमा को लेकर देशों के बीच मतभेद होते हैं, जिससे एक सर्वसम्मत पर्यावरणीय एजेंडा बनाना कठिन हो जाता है।

2. ओजोन परत में छेद – एक चेतावनी:
1980 के दशक के मध्य में अंटार्कटिका के ऊपर ओजोन परत में छेद की खोज ने पूरी दुनिया को चौंका दिया। यह घटना इस बात की चेतावनी थी कि अगर वैश्विक संपदा का अंधाधुंध दोहन और प्रदूषण यूँ ही चलता रहा, तो इसका दुष्प्रभाव पूरी मानवता को भुगतना पड़ेगा।

3. बाहरी अंतरिक्ष और असमानता:
बाहरी अंतरिक्ष के उपयोग में भी असमानता स्पष्ट दिखती है। तकनीकी और औद्योगिक रूप से विकसित देश ही इस क्षेत्र में अधिक लाभ उठा रहे हैं, जबकि विकासशील और गरीब देशों की भागीदारी सीमित है। यह असमानता न केवल वर्तमान पीढ़ी के लिए अन्यायपूर्ण है, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के संसाधनों पर भी खतरा बनकर उभर रही है।

निष्कर्ष

मानवता की साझी विरासत को सुरक्षित रखना न केवल नैतिक जिम्मेदारी है, बल्कि यह वैश्विक न्याय, स्थिरता और पर्यावरणीय संतुलन के लिए भी आवश्यक है। इसके लिए सभी देशों को अपने मतभेदों को भुलाकर एक समवेत प्रयास करना होगा, ताकि पृथ्वी और इसके संसाधन आने वाली पीढ़ियों के लिए भी संरक्षित रह सकें।

Q.161. भारत के संदर्भ में साझी संपदा के अर्थ को उदाहरण देकर संक्षेप में समझाइए।

उत्तर – भारत में सांझी संपदा की संकल्पना

1. अर्थ (Meaning)

सांझी संपदा से तात्पर्य ऐसे संसाधनों से है जिन पर किसी एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि समुदाय के सभी सदस्यों का सामूहिक अधिकार होता है। इसका उद्देश्य यह होता है कि उस संपदा का उपयोग, संरक्षण और प्रबंधन सभी सदस्य मिल-जुलकर करें। इसमें प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान अधिकार के साथ-साथ समान उत्तरदायित्व भी तय होते हैं।

2. उदाहरण (Example)

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में यह अवधारणा सदियों से चली आ रही है। परंपरागत रूप से गाँवों ने आपसी सहमति और रीति-रिवाज़ों के माध्यम से यह सुनिश्चित किया है कि जल स्रोत, चारागाह, जंगल, तालाब, आदि पर सभी का समान अधिकार हो और सभी उनके संरक्षण के लिए जिम्मेदार भी हों। यह स्थानीय स्तर पर पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने और समुदाय की एकजुटता को मजबूत करने का एक कारगर तरीका रहा है।

3. सांझी संपदा में कमी के कारण (Reasons for Reducing Size of Common Property)

हाल के वर्षों में सांझी संपदा के क्षेत्र और महत्व में गिरावट देखी गई है। इसके प्रमुख कारण हैं:

  • निजीकरण (Privatization): भूमि और संसाधनों का व्यक्तिगत स्वामित्व बढ़ने से साझा संपदा सिमटती जा रही है।

  • गहन कृषि (Intensive Farming): कृषि भूमि के अत्यधिक उपयोग ने चारागाह और जंगल जैसे साझा संसाधनों को प्रभावित किया है।

  • जनसंख्या वृद्धि (Population Growth): बढ़ती जनसंख्या ने संसाधनों पर दबाव बढ़ा दिया है, जिससे साझा संपदा की उपलब्धता और गुणवत्ता दोनों में गिरावट आई है।

  • पारिस्थितिकी तंत्र की गिरावट (Ecological Degradation): जलवायु परिवर्तन, वन कटाई और पर्यावरणीय असंतुलन ने भी इन संसाधनों को क्षतिग्रस्त किया है, जिससे गरीबों की उन तक पहुंच और भी कठिन हो गई है।

4. भारत में सांझी संपदा के उदाहरण (Common Property in India)

भारत में कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं जहाँ राज्य के स्वामित्व वाली भूमि और वन क्षेत्र समुदायों द्वारा पारंपरिक रूप से प्रबंधित किए जाते हैं।
विशेषकर दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में पावन वन-प्रांत (Sacred Groves) मौजूद हैं, जिनका संरक्षण ग्रामीण समुदायों द्वारा परंपरा और धार्मिक विश्वासों के आधार पर किया जाता है। ये वन केवल जैव विविधता के संरक्षण का उदाहरण नहीं हैं, बल्कि सांझी संपदा के प्रबंधन की एक जीवंत मिसाल भी हैं।

निष्कर्ष

भारत में सांझी संपदा की परंपरा एक गहरी सामाजिक और सांस्कृतिक जड़ें रखने वाली अवधारणा है। हालांकि बदलते समय और आर्थिक विकास की दौड़ में इस पर खतरा मंडरा रहा है, फिर भी इसे संरक्षित करना पर्यावरणीय संतुलन, सामाजिक न्याय और समुदाय आधारित विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए नीतिगत हस्तक्षेप, सामुदायिक जागरूकता और परंपरागत ज्ञान की पुनर्स्थापना जरूरी है।

Q.162. देश की स्वतंत्रता के उपरांत विकास के स्वरूप एवं इससे जुड़े नीतिगत निर्णयों के बारे में किस सीमा तक टकराव था? क्या यह टकराव आज भी जारी है ? संक्षेप में समझाइए।

उत्तर – राजनीतिक टकराव एवं विकास

(i) स्वतंत्रता के बाद विकास की दिशा

भारत 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र हुआ। आज़ादी के बाद देश के सामने विकास को लेकर अनेक बड़े और कठिन फैसले थे। इन निर्णयों को टालना या नज़रअंदाज़ करना संभव नहीं था, क्योंकि ये सभी फैसले किसी न किसी रूप में आर्थिक विकास के एक साझा दृष्टिकोण या कहें तो ‘विकास-वीजन’ से जुड़े हुए थे।

(ii) विकास का उद्देश्य

स्वतंत्रता के तुरंत बाद लगभग सभी राजनैतिक और सामाजिक वर्गों में इस बात पर सहमति थी कि भारत के विकास का अर्थ केवल आर्थिक संवृद्धि (economic growth) नहीं, बल्कि आर्थिक और सामाजिक न्याय दोनों होना चाहिए। साथ ही यह भी माना गया कि इस लक्ष्य को केवल व्यापारियों, उद्योगपतियों या किसानों पर छोड़ देना उचित नहीं होगा।

(iii) सरकार की भूमिका को लेकर मतभेद

यह स्पष्ट था कि सरकार को इस दिशा में प्रमुख भूमिका निभानी होगी। लेकिन सवाल यह था कि सरकार की भूमिका कैसी होनी चाहिए – पूरी तरह सक्रिय (interventionist) या निष्क्रिय (hands-off)? इस पर मतभेद उभरकर सामने आए।
कुछ मुख्य प्रश्न थे:

  • क्या एक केंद्रीय योजना आयोग की स्थापना जरूरी है जो राष्ट्रीय विकास की योजनाएं बनाए?

  • क्या सरकार को कुछ प्रमुख उद्योगों और व्यवसायों को अपने नियंत्रण में लेकर स्वयं (सार्वजनिक क्षेत्र में) संचालित करना चाहिए?

  • यदि सामाजिक न्याय की माँगें आर्थिक संवृद्धि में बाधा बनें, तो ऐसी स्थिति में सामाजिक न्याय को कितना महत्व दिया जाना चाहिए?

(iv) राजनीतिक टकराव और निर्णय

इन सभी प्रश्नों पर समय-समय पर गहरे राजनीतिक टकराव हुए हैं, जो आज तक जारी हैं। विकास से जुड़े फैसलों के राजनीतिक परिणाम भी सामने आए। चूँकि ये मुद्दे केवल प्रशासनिक नहीं थे, बल्कि सामाजिक और राजनैतिक भी थे, इसलिए इन पर निर्णय लेने के लिए:

  • विभिन्न राजनीतिक दलों से विमर्श करना पड़ा,

  • और जनता की स्वीकृति प्राप्त करना भी आवश्यक हुआ।

निष्कर्ष

स्वतंत्र भारत में विकास केवल आर्थिक नीतियों का मामला नहीं रहा, बल्कि यह लगातार राजनीतिक बहस, निर्णय और संघर्ष का विषय रहा है। सामाजिक न्याय और आर्थिक संवृद्धि के बीच संतुलन बनाना आज भी एक चुनौती है, और इसके समाधान के लिए निरंतर लोकतांत्रिक विमर्श और सहभागिता की आवश्यकता बनी रहती है।

Q.163. वामपंथ एवं दक्षिण पंथ के अर्थ स्पष्ट कीजिए। भारतीय राजनयिक दलों को ध्यान में रखकर दोनों रूझानों को आशय स्पष्ट कीजिए।

उत्तर – वामपंथ और दक्षिणपंथ: विचारधारात्मक अंतर

1. वामपंथ (Left-wing Ideology)

वामपंथ उस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है जो सामाजिक समानता, साम्यवादी या समाजवादी व्यवस्था, और गरीब एवं पिछड़े वर्गों के कल्याण की पक्षधर होती है।

  • वामपंथी दल अक्सर ऐसी नीतियाँ बनाते हैं जो किसानों, मजदूरों और वंचित वर्गों को लाभ पहुँचाएं।

  • वे भूमि सुधार, उद्योगों और उत्पादन साधनों के सामूहिक स्वामित्व एवं प्रबंधन की बात करते हैं।

  • भारत में प्रमुख वामपंथी दल हैं:

    • भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI)

    • भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) (CPI-M)

    • समाजवादी दल

    • माओवादी, नक्सलवादी, फॉरवर्ड ब्लॉक आदि

इन दलों की विचारधारा लेनिनवादी-मार्क्सवादी सिद्धांतों से प्रेरित रही है और ये अक्सर सोवियत संघ या चीन की साम्यवादी नीतियों को आदर्श मानते रहे हैं।

2. दक्षिणपंथ (Right-wing Ideology)

दक्षिणपंथ उन विचारों का समर्थन करता है जो खुली प्रतिस्पर्धा, बाजार आधारित अर्थव्यवस्था, और सरकारी हस्तक्षेप की न्यूनता में विश्वास रखते हैं।

  • यह विचारधारा पूंजीवाद, उदारीकरण, व्यक्तिवाद और वैश्वीकरण का समर्थन करती है।

  • दक्षिणपंथी दल मानते हैं कि आर्थिक प्रगति बाजार की शक्तियों के माध्यम से ही संभव है, न कि सरकारी नियंत्रण से।

  • भारत में दक्षिणपंथी माने जाने वाले प्रमुख दल हैं:

    • भारतीय जनता पार्टी (BJP)

    • एन.डी.ए. से जुड़े अन्य दल

    • स्वतंत्रता पार्टी (भूतपूर्व)

    • भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (विशेषकर 1991 की नई आर्थिक नीति के बाद)

3. अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य

  • वामपंथी उदाहरण:

    • सोवियत संघ की बोल्शेविक पार्टी

    • चीन की कम्युनिस्ट पार्टी

  • दक्षिणपंथी उदाहरण:

    • अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी और रिपब्लिकन पार्टी

    • ब्रिटेन की कंजरवेटिव पार्टी

इन दलों ने वैश्विक स्तर पर उन्मुक्त व्यापार, निजीकरण, और पूंजीवादी विकास को बढ़ावा दिया है।

4. भारत में विचारधारा की स्थिति

  • 1947 से 1990 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को एक मध्यवर्ती (Centre-left) या केन्द्रीय नीतियों वाली पार्टी माना जाता था, क्योंकि वह न तो पूरी तरह वामपंथी थी और न ही पूर्ण दक्षिणपंथी।

  • 1991 की नई आर्थिक नीति के बाद कांग्रेस ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण को अपनाया, जिससे वह दक्षिणपंथ की ओर झुकाव रखने लगी।

निष्कर्ष

वामपंथ और दक्षिणपंथ दो प्रमुख राजनीतिक विचारधाराएँ हैं, जो सामाजिक-आर्थिक विकास को लेकर अलग-अलग दृष्टिकोण रखती हैं। जहां वामपंथ सामाजिक समानता और श्रमिकों के हितों पर ज़ोर देता है, वहीं दक्षिणपंथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता और बाजार आधारित प्रगति को प्राथमिकता देता है। भारत जैसे विविधताओं वाले लोकतंत्र में ये दोनों धाराएँ समय-समय पर अपनी भूमिका निभाती रही हैं, जिससे देश की नीतियों में संतुलन बना रहता है।

Q.164. द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त कई देशों ने शक्तिशाली राष्ट्रों की इच्छानुसार अपनी विदेश नीति क्यों अपनायी थी ?

उत्तर – द्वितीय विश्व युद्ध के बाद नव स्वतंत्र देशों की विदेश नीति

द्वितीय विश्व युद्ध (1945) के पश्चात वैश्विक राजनीति में एक नया दौर आरंभ हुआ। इसी समय विश्व के कई विकासशील देशों और नव स्वतंत्र राष्ट्रों का उदय हुआ। इन देशों के समक्ष स्वतंत्रता प्राप्त करने के तुरंत बाद आर्थिक पुनर्निर्माण, राजनीतिक स्थायित्व, और विकास की चुनौती थी।

इस समय अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर दो महाशक्तियाँ प्रमुख थीं:

  • संयुक्त राज्य अमेरिका (USA)

  • सोवियत संघ (USSR)

इन दोनों शक्तियों के बीच प्रारंभ हुआ शीत युद्ध (Cold War), जिसने दुनिया को दो गुटों में बाँट दिया — पूंजीवादी गुट और साम्यवादी गुट

विकासशील देशों की विदेश नीति पर प्रभाव

  • नव स्वतंत्र देशों के पास आर्थिक संसाधनों की भारी कमी थी।

  • इन्हें अपने देश के बुनियादी ढांचे, शिक्षा, स्वास्थ्य, और औद्योगिक विकास के लिए अनुदान (Grants) और ऋण (Loans) की आवश्यकता थी।

  • ऐसे में इन देशों ने अपनी विदेश नीति अक्सर उन्हीं ताकतवर देशों की मर्जी और हितों के अनुसार बनानी शुरू की, जो उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान करते थे।

  • कई बार यह नीति राजनैतिक दबाव के तहत भी तय की जाती थी, ताकि सहायता मिलती रहे और आंतरिक विकास हो सके।

परिणाम

  • इससे इन देशों की स्वतंत्र विदेश नीति प्रभावित हुई।

  • वे किसी-न-किसी गुट का हिस्सा बनते चले गए, जिससे उनकी गुटनिरपेक्षता कमजोर पड़ी।

  • हालांकि बाद में भारत जैसे देशों ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) की शुरुआत की, ताकि विकासशील देश स्वतंत्र और तटस्थ विदेश नीति अपना सकें।

निष्कर्ष

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद नव स्वतंत्र विकासशील देशों ने मजबूरीवश अपनी विदेश नीति उन ताकतवर देशों के अनुरूप बनाई, जो उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान कर रहे थे। यह दौर विकास की प्राथमिकता और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के दबाव के बीच संतुलन बनाने का था।

Q.165. विदेशी संबंध के विषय में संविधान निर्माताओं ने राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों के अन्तर्गत अनुच्छेद 51 में क्या कहा है। संक्षेप में उल्लेख कीजिए।

उत्तर – भारतीय संविधान का अनुच्छेद 51 – अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा का संवैधानिक संकल्प

अनुच्छेद 51 भारतीय संविधान के राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों (Directive Principles of State Policy) का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह भारत की विदेश नीति की आधारशिला को दर्शाता है और बताता है कि भारत विश्व समुदाय में शांति, सहयोग और न्याय को किस प्रकार बढ़ावा देने का प्रयास करता है।

इस अनुच्छेद के अनुसार, राज्य का प्रयास होगा कि वह:

(a) अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि करे।
→ भारत वैश्विक स्तर पर युद्ध, आतंकवाद और संघर्ष को समाप्त करने और शांति स्थापित करने के पक्ष में है।

(b) राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत और सम्मानपूर्ण संबंधों को बनाए रखे।
→ भारत सभी देशों के साथ समानता, सम्मान और पारस्परिक सहयोग के आधार पर संबंध रखने की नीति अपनाता है।

(c) अंतर्राष्ट्रीय कानून और संधि-बाध्यताओं के प्रति आदर को बढ़ावा दे।
→ भारत अंतर्राष्ट्रीय संधियों, समझौतों और नियमों का पालन करता है, और चाहता है कि सभी देश भी इन्हें आदर दें।

(d) अंतर्राष्ट्रीय विवादों के समाधान के लिए आपसी बातचीत को प्रोत्साहित करे।
→ भारत हिंसा या युद्ध की बजाय कूटनीतिक वार्ता और शांति-पूर्ण समाधान का समर्थन करता है।

निष्कर्ष

अनुच्छेद 51 भारत के अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण को दर्शाता है, जो विश्व शांति, न्याय, और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की स्थापना के लिए प्रतिबद्ध है। यह भारत की गुटनिरपेक्ष विदेश नीति और संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों के प्रति उसकी निष्ठा को भी रेखांकित करता है।

Q.166. प्रथम एफ्रो एशियाई एकता सम्मेलन कहाँ, कब हुआ ? इसकी कुछ विशेषताएं बताइए।

उत्तर – एफ्रो-एशियाई एकता सम्मेलन, 1955

परिचय:
एफ्रो-एशियाई एकता सम्मेलन वर्ष 1955 में इंडोनेशिया के बांडुग शहर में आयोजित हुआ। यह सम्मेलन एशिया और अफ्रीका के नव-स्वतंत्र देशों की एक ऐतिहासिक पहल थी, जिसका उद्देश्य साम्राज्यवाद, नस्लवाद और गुटीय राजनीति का विरोध करना था।

मुख्य विशेषताएँ (Features) – 6 बिंदु

(i) इस सम्मेलन को आमतौर पर बांडुग सम्मेलन के नाम से जाना जाता है।

(ii) यहीं से गुट-निरपेक्ष आंदोलन (Non-Aligned Movement – NAM) की नींव पड़ी, जो आगे चलकर भारत, यूगोस्लाविया, मिस्र, इंडोनेशिया और घाना जैसे देशों की अगुआई में विकसित हुआ।

(iii) सम्मेलन में भाग लेने वाले देशों ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद (Apartheid) और नस्लवाद के अन्य रूपों का कड़ा विरोध किया।

(iv) सम्मेलन ने साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और नव-उपनिवेशवाद के विरुद्ध एकजुट संघर्ष का आह्वान किया।

(v) इसका उद्देश्य एशियाई और अफ्रीकी देशों के बीच सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक सहयोग को बढ़ावा देना था।

(vi) बांडुग सम्मेलन ने दुनिया के विकासशील देशों को एक सशक्त वैश्विक मंच प्रदान किया, जहाँ वे बड़ी शक्तियों के प्रभाव से मुक्त रहकर अपनी स्वतंत्र विदेश नीति विकसित कर सकें।

निष्कर्ष

बांडुग सम्मेलन 1955 ने वैश्विक राजनीति में एक नया अध्याय शुरू किया। इसने भारत सहित अनेक नव स्वतंत्र देशों को यह रास्ता दिखाया कि वे न तो पूंजीवादी गुट में जाएं और न ही साम्यवादी गुट में, बल्कि अपनी स्वतंत्र नीति के साथ शांति, सहयोग और समानता की राह अपनाएं।

Q. 167. द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में संयुक्त राज्य अमेरिका की स्थिति का वर्णन कीजिए।

उत्तर – द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात वैश्विक शक्ति-संतुलन और अमेरिकी विदेश नीति

द्वितीय विश्व युद्ध (1939–1945) के समाप्त होने के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) विश्व का सबसे शक्तिशाली राष्ट्र बनकर उभरा। उसकी आर्थिक, सैन्य और तकनीकी शक्ति अन्य सभी देशों से कहीं अधिक थी। इस स्थिति ने अमेरिका पर विश्व नेतृत्व का नैतिक और राजनीतिक दायित्व डाल दिया।

शक्ति-संतुलन की स्थिति:

  • संयुक्त राज्य अमेरिका (USA):

    • पूंजीवादी विचारधारा का समर्थक।

    • आर्थिक रूप से समृद्ध और सैन्य दृष्टि से अत्यंत सक्षम।

    • उसने लोकतंत्र और मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने की नीति अपनाई।

  • सोवियत रूस (USSR):

    • साम्यवादी विचारधारा का प्रमुख केंद्र।

    • अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साम्यवाद के प्रचार-प्रसार और साम्यवादी क्रांति के विस्तार में सक्रिय।

    • पूर्वी यूरोप के कई देशों में कम्युनिस्ट सरकारों की स्थापना में सहयोग दिया।

अन्य क्षेत्रों की स्थिति:

  • पश्चिमी यूरोप:

    • द्वितीय विश्व युद्ध की तबाही के कारण आर्थिक और सैन्य रूप से शक्तिहीन हो चुका था।

    • अमेरिका से आर्थिक सहायता प्राप्त करने के लिए प्रयासरत था (जैसे – मार्शल योजना)।

  • एशिया और अफ्रीका:

    • अधिकांश देश औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्र होकर नव स्वतंत्र राष्ट्र बने थे।

    • इन क्षेत्रों में आर्थिक दरिद्रता, राजनीतिक अस्थिरता, और विकास की चुनौती प्रमुख थी।

    • साम्यवाद के प्रति झुकाव की संभावना अधिक थी, विशेषकर गरीब और शोषित वर्गों में।

अमेरिका की विदेश नीति का दृष्टिकोण:

  • अमेरिका ने अपनी विदेश नीति को साम्यवाद के प्रसार को रोकने (Containment of Communism) पर आधारित किया।

  • इस उद्देश्य से उसने:

    • मार्शल योजना के तहत आर्थिक सहायता दी।

    • नाटो (NATO) जैसे सैन्य गठबंधनों की स्थापना की।

    • विभिन्न देशों में साम्यवादी आंदोलनों को रोकने के लिए राजनीतिक और सैन्य हस्तक्षेप किया।

निष्कर्ष:

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ के बीच उभरा वैचारिक संघर्ष ही शीत युद्ध (Cold War) का मूल था। अमेरिका ने अपनी विदेश नीति को साम्यवाद को रोकने, पूंजीवाद को फैलाने और नव स्वतंत्र देशों को अपने प्रभाव क्षेत्र में बनाए रखने की दिशा में केंद्रित किया। यह संघर्ष आने वाले दशकों तक विश्व राजनीति को आकार देता रहा

Q.168. विरोधी दलों के विरोध तथा काँग्रेस की टूट ने आपातकाल की पृष्ठभूमि कैसे तैयार की थी ?

उत्तर – आपातकाल की पृष्ठभूमि और राजनैतिक परिस्थितियाँ (1952–1975)

1952 के पहले आम चुनाव में और उसके बाद भी लंबे समय तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने केंद्र और अधिकांश राज्यों में सत्ता पर अपना नियंत्रण बनाए रखा। यद्यपि कुछ राज्यों में विपक्षी दलों या संयुक्त मोर्चों की सरकारें बनीं, लेकिन वे केंद्र की सत्ता तक पहुँचने में सफल नहीं हो सकीं।

विपक्ष की चिंताएँ और आरोप:

  • विपक्षी दलों को यह महसूस होने लगा कि कांग्रेस के नेता सरकारी तंत्र का उपयोग निजी हितों के लिए कर रहे हैं।

  • उन्हें लगने लगा कि भारतीय राजनीति दिन-ब-दिन अत्यधिक व्यक्तिगत और सत्ताकेंद्रित होती जा रही है।

  • विशेष रूप से इंदिरा गांधी के नेतृत्व में, कांग्रेस पार्टी के भीतर स्वतंत्र विचारों और आंतरिक लोकतंत्र की गुंजाइश कम होती जा रही थी।

कांग्रेस में टूट और नेतृत्व संघर्ष:

  • 1969 में कांग्रेस दो भागों में विभाजित हो गई:

    • इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली “कांग्रेस (इंदिरा)”,

    • और पुराने नेतृत्व की “सिंडिकेट” समर्थित “कांग्रेस (संगठन)”।

  • इंदिरा गांधी ने स्वयं को पार्टी और सरकार दोनों का अकेला केंद्र बना लिया था।

  • सत्ता में बने रहने की उनकी रणनीतियाँ विरोधियों के लिए असहनीय होती जा रही थीं।

जन आंदोलनों और असंतोष का उभार:

  • 1970 के दशक में गुजरात और बिहार में भ्रष्टाचार और महँगाई के खिलाफ बड़े जन आंदोलन शुरू हुए।

  • इन आंदोलनों को विपक्षी दलों का समर्थन मिला और इन्हें राष्ट्रव्यापी आंदोलन में बदलने की कोशिश की गई।

  • जयप्रकाश नारायण जैसे नेता ने “संपूर्ण क्रांति” का आह्वान किया और इंदिरा गांधी से सरकार छोड़ने की माँग की।

इंदिरा गांधी की प्रतिक्रिया और आपातकाल की भूमिका:

  • सत्ता को बनाए रखने की जिद, विपक्षी आक्रोश, न्यायपालिका द्वारा चुनाव को रद्द किया जाना (1975) और कानून-व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति ने आपातकाल लागू करने की भूमिका तैयार की

  • आलोचक मानते हैं कि इंदिरा गांधी कांग्रेस को पूरी तरह अपने नियंत्रण में लेना चाहती थीं और इसके लिए उन्होंने सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं को पीछे धकेल दिया।

  • इस दौरान सत्ता का केन्द्रीयकरण और व्यक्तिगत अधिकार का प्रदर्शन चरम पर था।

निष्कर्ष:

1952 से 1975 के बीच भारत की राजनीति में कांग्रेस का वर्चस्व, विपक्ष की हताशा, और नेतृत्व का अहंकार – इन सभी कारकों ने आपातकाल (1975–77) जैसी अभूतपूर्व घटना के लिए राजनीतिक, सामाजिक और वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार की। यह दौर भारतीय लोकतंत्र के लिए एक चेतावनी था कि सत्ता का केंद्रीकरण और राजनीतिक असहिष्णुता लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर कर सकते हैं।

Q.169. किन्हीं उन प्रमुख चार नेताओं का उल्लेख कीजिए जिन्होंने समाज के दलितों के कल्याण के लिए प्रयास किए।

उत्तर – दलित उत्थान में प्रमुख व्यक्तित्वों का योगदान

भारतीय समाज में सदियों से व्याप्त जातिगत भेदभाव, छुआछूत, और सामाजिक असमानता के विरुद्ध अनेक समाज-सुधारकों ने संघर्ष किया। इनमें विशेष रूप से दलित वर्ग के अधिकारों और सम्मान की स्थापना के लिए कई महान व्यक्तित्वों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया।

(i) महात्मा ज्योतिराव फुले (1827–1890)

  • वे भारतीय समाज में ब्राह्मणवादी वर्चस्व और सामाजिक असमानता के कट्टर विरोधी थे।

  • उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना की, जो पिछड़े वर्गों के शिक्षा, समानता, और सामाजिक न्याय के लिए कार्य करता था।

  • फुले ने महिलाओं और दलितों की शिक्षा पर विशेष बल दिया और उनकी आवाज को सामाजिक विमर्श में स्थान दिलाया।

(ii) महात्मा गांधी (1869–1948)

  • गांधी जी ने छुआछूत को “हरिजन विरोध” कहकर उसका विरोध किया और हरिजन सेवक संघ की स्थापना की।

  • उन्होंने ‘हरिजन’ नामक पत्रिका निकाली और दलितों को मंदिर प्रवेश, शिक्षा और सामाजिक अधिकार दिलाने हेतु व्यापक प्रयास किए।

  • हालांकि “हरिजन” शब्द को आज के परिप्रेक्ष्य में कुछ दलित संगठन अपमानजनक मानते हैं और “दलित” शब्द को अधिक उपयुक्त मानते हैं।

(iii) डॉ. भीमराव अंबेडकर (1891–1956)

  • डॉ. अंबेडकर दलित समुदाय के सबसे प्रखर और प्रभावशाली नेता थे।

  • उन्होंने बहिष्कृत हितकारिणी सभा, सामाजिक आंदोलनों और राजनीतिक दलों के माध्यम से दलितों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी।

  • भारतीय संविधान के निर्माता के रूप में उन्होंने छुआछूत को अपराध घोषित किया और इसके खिलाफ कठोर दंडात्मक प्रावधान संविधान में सुनिश्चित कराए।

  • उन्होंने दलितों को शिक्षा, प्रतिनिधित्व और समानता का अधिकार दिलाने के लिए आजीवन संघर्ष किया।

(iv) कांशीराम (1934–2006)

  • कांशीराम ने डॉ. अंबेडकर को अपना आदर्श मानते हुए बहुजन समाज पार्टी (BSP) की स्थापना की।

  • उनका नारा था: “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी“।

  • उन्होंने राजनीतिक शक्ति के माध्यम से दलितों, पिछड़ों और वंचितों को संगठित कर उन्हें सामाजिक न्याय की दिशा में आगे बढ़ाया।

  • बहुजन समाज पार्टी आज भी उनके विचारों को आगे बढ़ाते हुए दलित हितों की रक्षा के लिए कार्य कर रही है।

निष्कर्ष

ज्योतिराव फुले, महात्मा गांधी, डॉ. भीमराव अंबेडकर और कांशीराम जैसे महान समाज-सुधारकों ने भारतीय समाज में दलितों के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों के लिए ऐतिहासिक कार्य किए। उनके प्रयासों का परिणाम है कि आज दलित वर्ग सशक्तिकरण की दिशा में आगे बढ़ रहा है, यद्यपि चुनौतियाँ अभी भी बनी हुई हैं।

Q.170. संयुक्त राष्ट्र की कुछ उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।

उत्तर – संयुक्त राष्ट्र की स्थापना और प्रमुख उपलब्धियाँ

संयुक्त राष्ट्र (United Nations) की स्थापना 24 अक्टूबर 1945 को हुई। इसका मुख्य उद्देश्य था विश्व में शांति, सुरक्षा और सहयोग को बढ़ावा देना। स्थापना के बाद से ही संयुक्त राष्ट्र ने विश्व के अनेक गंभीर संकटों का समाधान निकाला और शांति स्थापना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

संयुक्त राष्ट्र की प्रमुख उपलब्धियाँ:

  1. फिलिस्तीन समस्या का समाधान:

    • 1948 में संयुक्त राष्ट्र ने फिलिस्तीन को दो भागों में बाँटकर यहूदियों के लिए स्वतंत्र इजरायल राज्य की स्थापना की।

  2. कोरिया और हिंद-चीन युद्ध का अंत:

    • संयुक्त राष्ट्र ने कोरिया युद्ध को समाप्त कराया और कोरिया की स्वतंत्रता सुरक्षित रखी।

    • हिंद-चीन के युद्ध के दौरान भी इसने मध्यस्थता की।

  3. इंडोनेशिया की स्वतंत्रता:

    • 1948 में डच सेनाओं को इंडोनेशिया से वापस लौटने के लिए मजबूर किया, जिससे इंडोनेशिया को स्वतंत्रता मिली।

  4. भारत-पाकिस्तान के युद्धों का समाधान:

    • 1948 और 1965 में कश्मीर सीमा पर हुए युद्धों को बंद कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

  5. स्वेज नहर विवाद का निपटारा:

    • इंग्लैंड और मिस्र के बीच स्वेज नहर को लेकर हुए विवाद का सफल समाधान किया।

    • मलाया, लीबिया, ट्यूनिशिया, घाना, टोगोलैंड जैसे देशों की स्वतंत्रता में सहायता प्रदान की।

  6. कांगो में शांति स्थापना:

    • कांगो में शांति बहाल करने के प्रयास किए और मदद प्रदान की।

  7. महाशक्तियों के तनाव कम करना:

    • सोवियत रूस और अमेरिका के बीच शीत युद्ध के दौरान तनाव कम करने में मध्यस्थता की।

  8. विनाशकारी हथियारों की रोकथाम:

    • विभिन्न शिखर सम्मेलनों के माध्यम से परमाणु और अन्य विनाशकारी हथियारों की रोकथाम के लिए पहल की।

  9. ईरान-इराक युद्ध का अंत:

    • 1988 में आठ वर्षों से चल रहे ईरान-इराक युद्ध को समाप्त कराने में सफलता हासिल की।

निष्कर्ष:

संयुक्त राष्ट्र ने अपनी स्थापना के बाद विश्व में शांति और सुरक्षा बनाए रखने के लिए कई क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह विश्व समुदाय के बीच सहयोग और समझ का एक प्रमुख मंच बना हुआ है।

Q.171. भारत को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता से क्या लाभ हुए ?

उत्तर – संयुक्त राष्ट्र की विशेष संस्थाओं द्वारा भारत के विकास में योगदान

संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न संस्थाओं ने भारत की शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक, तकनीकी और वैज्ञानिक उन्नति में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। कुछ प्रमुख योगदान इस प्रकार हैं:

1. खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO)

  • उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र को कृषि योग्य बनाने में सहायता।

  • राजस्थान के रेगिस्तान के विस्तार को रोकने और उसे हराभरा बनाने के प्रयास।

  • भारत में कृषि सुधार और सतत कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना।

2. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO)

  • जनस्वास्थ्य सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

  • डी.डी.टी. का प्रबंध और तपेदिक के लिए बी.सी.जी. वैक्सीन की उपलब्धता सुनिश्चित की।

  • चिकित्सा क्षेत्र में उच्च शिक्षा के लिए छात्रवृत्तियाँ प्रदान कीं।

3. शैक्षिक, सांस्कृतिक और तकनीकी क्षेत्र में यूनेस्को (UNESCO)

  • भारत में शिक्षा के प्रसार में मदद।

  • तकनीकी क्षेत्र में विदेशी अध्यापकों और छात्रों के आदान-प्रदान को बढ़ावा।

  • अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक संपर्कों को मजबूत करना।

4. आर्थिक विकास में सहायता

  • विश्व बैंक द्वारा पंचवर्षीय योजनाओं के लिए ऋण प्रदान करना।

  • योजनाओं के कार्यान्वयन हेतु तकनीकी विशेषज्ञों की सलाह उपलब्ध कराना।

  • भारत के आर्थिक विकास को गति देने में सहयोग।

निष्कर्ष:

संयुक्त राष्ट्र और इसकी विशेष संस्थाओं ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग प्रदान कर देश के समग्र विकास में एक अहम भूमिका निभाई है।

Q.172. 1990 ई० का दशक भारतीय राजनीति में नए बदलाव का दशक क्यों माना जाता है ?

उत्तर – 1980 के दशक से 1990 के दशक तक भारत की राजनीतिक स्थिति के प्रमुख घटनाक्रम

  1. 1984 का राजनीतिक घटनाक्रम

    • 1984 में भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या उनके अंगरक्षकों द्वारा कर दी गई।

    • इसके बाद लोकसभा चुनाव में सहानुभूति की लहर में कांग्रेस को भारी जीत मिली।

    • इंदिरा गांधी के पुत्र राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने।

    • 1989 में कांग्रेस की हार हुई और 1991 में मध्यावधि चुनाव कराए गए।

  2. मंडल आयोग और ओबीसी मुद्दा

    • राष्ट्रीय राजनीति में मंडल आयोग की सिफारिशों के कारण अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) का उदय हुआ।

    • इसके तहत सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण का मुद्दा सामने आया।

  3. नई आर्थिक नीति और सुधार

    • विभिन्न सरकारों ने नई आर्थिक नीति अपनाई।

    • भारत में उदारीकरण (Liberalization) और वैश्वीकरण (Globalization) को बढ़ावा मिला।

    • निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित किया गया और सरकारी नियंत्रण कम किया गया।

  4. अयोध्या विवाद और सामाजिक तनाव

    • अयोध्या में विवादित राम जन्मभूमि ढांचे का विध्वंस हुआ, जिससे पूरे देश में सांप्रदायिक तनाव और दंगे भड़क उठे।

    • इस घटना ने राजनीति में गठबंधन की राजनीति को बढ़ावा दिया।

    • नए राजनीतिक दल जैसे भारतीय जनता पार्टी (BJP), उसके सहयोगी दल और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) के समर्थक दलों का तेजी से उदय हुआ।

सारांश

1980 और 1990 के दशक में भारत ने राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से कई महत्वपूर्ण बदलाव देखे। यह दशक कांग्रेस की सत्ता में उतार-चढ़ाव, ओबीसी आरक्षण का उठना, आर्थिक नीतियों में बदलाव और सांप्रदायिक संघर्षों के कारण राजनीतिक दलों के नए स्वरूप का उदय लेकर आया।

Q.173. शांति स्थापना कार्यवाही से आप क्या समझते हैं ? उसमें भारत की भूमिका का वर्णन कीजिए।

उत्तर – संयुक्त राष्ट्र के तहत भारत का विश्व शांति स्थापना में योगदान

  • 1950-60 के दशक में विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में विवाद उत्पन्न हुए, जिनमें भारत ने संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से शांति स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

  • भारत ने संयुक्त राष्ट्र मिशनों के लिए अपनी सेनाएँ भेजीं और अनेक कठिन शांति अभियानों में हिस्सा लिया, जिसमें भारी नुकसान झेलते हुए शांति स्थापित की।

  • कोरिया युद्ध में भारत का योगदान:

    • युद्ध पीड़ितों और घायलों की सेवा के लिए पारामेडिकल यूनिट भेजी।

    • 1953 में युद्ध विराम के बाद भारत को तटस्थ राष्ट्र आयोग (Neutral Nations Repatriation Commission) का अध्यक्ष नियुक्त किया गया।

  • मध्य एशिया में शांति स्थापना में मदद:

    • 1954 में भारत अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण आयोग (International Control Commission) का अध्यक्ष था, जिसने वियतनाम, लाओस, कम्बोडिया और फ्रांस में युद्ध विराम लागू कराया।

  • संयुक्त राष्ट्र आपात सेना (UNEF):

    • 1956 में भारत ने इन्फैंट्री बटालियन उपलब्ध कराई जो 11 वर्षों (1956-1967) तक कार्यरत रही।

  • कांगो में मानवतापूर्ण कार्य:

    • 1960 में भारतीय सेना के अनुशासन और मानवीय कार्यों की प्रशंसा हुई।

  • अन्य मिशन:

    • यमन (1960), साइप्रस, ईरान-इराक सीमा विवाद में भारत ने सैन्य और तकनीकी सहायता प्रदान की।

    • फार्स कमांडर और ऑब्जर्वर भेजे गए।

    • संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न कार्रवाइयों में भारत के अफसर और इंजीनियर भी शामिल रहे।

  • सारांश:
    भारत ने विश्व के अनेक हिस्सों में शांति स्थापना के लिए सक्रिय भूमिका निभाई। अफ्रीकी-एशियाई एकता और संयुक्त राष्ट्र में भी भारत ने शांति प्रयासों के लिए लगातार अपनी मजबूत आवाज उठाई है।

Q.174. द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त महाशक्तियों को गुट बनाने की आवश्यकता क्यों पड़ी थी ?

उत्तर – द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद महाशक्तियों को गुट बनाने की आवश्यकताएँ

  1. राजनीतिक प्रभाव बढ़ाना
    महाशक्तियाँ अपने राजनीतिक प्रभाव और समर्थकों की संख्या बढ़ाने के लिए गुट बनाना चाहती थीं।

  2. सैन्य सुरक्षा और सहयोग
    दोनों महाशक्तियाँ पूर्व में एक-दूसरे के विरुद्ध दो विश्वयुद्ध लड़ चुकी थीं और वे तीसरे विश्वयुद्ध की स्थिति में अपने समर्थक देशों से तत्काल सैनिक, युद्ध सामग्री एवं खाद्य सामग्री प्राप्त करना चाहती थीं।

  3. तेल और ऊर्जा संसाधनों का नियंत्रण
    तेल और डीजल उत्पादक देशों को अपने पक्ष में करना जरूरी था ताकि आर्थिक विकास और युद्ध संचालन निर्बाध रह सके।

  4. खनिज संसाधनों की उपलब्धता
    एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमेरिका के खनिज संसाधनों का लाभ उठाने के लिए गुट बनाए गए।

  5. सैन्य ठिकानों और भू-क्षेत्रों का नियंत्रण
    महाशक्तियाँ अपने हथियारों और सेनाओं के संचालन के लिए छोटे देशों के भू-क्षेत्रों का उपयोग करना चाहती थीं।

  6. जासूसी और разведगीरी
    समर्थक देशों के माध्यम से शत्रु के ठिकानों की जासूसी और सैनिक गतिविधियों का पता लगाना आसान था।

  7. आर्थिक सहयोग और सहायता
    आर्थिक मदद और व्यापार के लिए अपने गुट के सदस्यों का प्रयोग महाशक्तियाँ करती थीं।

  8. वैचारिक संघर्ष
    पूंजीवादी देशों के गुट ने साम्यवाद को अपनी विचारधारा के लिए खतरा माना और इसके विरुद्ध संगठित हुआ।

Q.175. “किसी देश की सुरक्षा, आंतरिक शांति और कानून व्यवस्था पर निर्भर करती है। इस कथन को समझाते हुए बताइए कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद विश्व की दो महान शक्तियों ने अपनी सीमाओं के बाहर खतरों पर ध्यान क्यों केन्द्रित किया ?

उत्तर – सुरक्षा की पारंपरिक और आधुनिक धारणा

  1. पारंपरिक धारणा:
    किसी देश की सुरक्षा का मूल आधार उसकी आंतरिक शांति और कानून-व्यवस्था होती है। यदि देश के भीतर हिंसा, संघर्ष या अशांति फैली हो, तो वह देश बाहरी आक्रमणों का सामना कैसे कर सकता है? जब देश के अंदर सुरक्षा कमजोर हो, तो बाहर की सुरक्षा की तैयारी करना मुश्किल होता है। इसलिए, पारंपरिक रूप से देश की सुरक्षा का एक अहम हिस्सा आंतरिक सुरक्षा भी माना जाता है।

  2. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की स्थिति:
    दूसरे विश्वयुद्ध के बाद आंतरिक सुरक्षा को उतना महत्व नहीं दिया गया, क्योंकि उस समय अधिकांश शक्तिशाली देश अपनी आंतरिक सुरक्षा को लेकर अपेक्षाकृत सुरक्षित और स्थिर थे। इसलिए उनका ध्यान मुख्य रूप से बाहरी खतरों की तरफ केन्द्रित हो गया।

  3. 1945 के बाद का परिप्रेक्ष्य:
    1945 के बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ जैसे देशों में आंतरिक शांति बनी रही और उनकी सीमाओं के भीतर समुदायों के बीच कोई बड़ा खतरा नहीं था। इसी कारण इन महाशक्तियों ने अपनी सुरक्षा नीतियों का फोकस बाहरी सीमाओं पर रखा, न कि आंतरिक सुरक्षा पर।

Q.176. तीसरी दुनिया के देशों और विकसित देशों की जनता के सामने मौजूद खतरों में क्या अंतर है ?

उत्तर – तीसरी दुनिया और विकसित देशों के बीच अंतर और उनके समक्ष सुरक्षा खतरे

  1. तीसरी दुनिया की परिभाषा:
    तीसरी दुनिया से हमारा अभिप्राय उन सभी एशियाई, अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देशों से है, जो जापान को छोड़कर विकासशील हैं। इन देशों की समस्याएँ विकसित देशों की तुलना में काफी भिन्न और जटिल हैं।

  2. विकसित देशों की परिभाषा:
    विकसित देश प्रथम और द्वितीय दुनिया के देश हैं। प्रथम दुनिया में संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली और पश्चिमी यूरोप के अधिकांश देश आते हैं। दूसरी दुनिया में पूर्व सोवियत संघ (अब रूस) और पूर्वी यूरोप के देश शामिल हैं।

  3. तीसरी दुनिया के सामने सुरक्षा खतरे:

    • बाहरी खतरे: बड़ी शक्तियाँ इन देशों पर सैन्य, राजनीतिक और आर्थिक वर्चस्व स्थापित करना चाहती हैं। वे पड़ोसी देशों के मामलों में हस्तक्षेप करके, कठपुतली सरकारें बनाकर या आतंकवाद को बढ़ावा देकर इन देशों के लिए खतरे पैदा करती हैं।

    • आर्थिक खतरे: उदारीकरण, मुक्त व्यापार, वैश्वीकरण, और सशर्त निवेश के माध्यम से इन देशों में बेरोजगारी, गरीबी, आर्थिक असमानता और निम्न जीवन स्तर बढ़ता है।

  4. आंतरिक खतरे:

    • आतंकवाद, महामारियाँ जैसे एड्स, बर्ड फ्लू आदि।

    • सामाजिक समस्याएँ जैसे जाति-पात, धार्मिक कट्टरता, क्षेत्रवाद, भाषावाद, और सांस्कृतिक शोषण।

    • महिलाओं व बच्चों का शोषण और यौन उत्पीड़न।

    • बाहरी संस्कृतियों का दबाव जिससे स्थानीय संस्कृति और पहचान खतरे में पड़ती है।

  5. विकसित देशों के लिए प्रमुख चिंता:
    विकसित राष्ट्र परमाणु हथियारों के वर्चस्व को बनाए रखना चाहते हैं और अन्य देशों के परमाणु शक्ति बनने को रोकना चाहते हैं। प्रथम दुनिया के देश चाहते हैं कि नाटो गठबंधन मजबूत रहे और वे परमाणु शक्ति का प्रभुत्व बनाए रखें।

Q.177. मणिपुर रियासत का विलय भारत संघ में किस प्रकार सम्पन्न हुआ ? संक्षेप में समझाइए।

उत्तर – मणिपुर का भारत संघ में विलय (Annexation of Manipur into Indian Union)

(i) भारतीय सरकार और राजा के बीच समझौता:

  • भारत की आज़ादी से कुछ दिन पहले, मणिपुर के महाराजा बोधचंद्र सिंह ने भारत सरकार के साथ एक सहमति-पत्र (Agreement) पर हस्ताक्षर किए।

  • इस समझौते के तहत मणिपुर भारत संघ में विलय के लिए सहमत हुआ, साथ ही महाराजा को आश्वासन दिया गया कि मणिपुर की आंतरिक स्वायत्तता बरकरार रहेगी।

(ii) चुनाव:

  • जनता के दबाव में महाराजा ने जून 1948 में मणिपुर में चुनाव करवाए।

  • इन चुनावों के परिणामस्वरूप मणिपुर में संवैधानिक राजतंत्र की स्थापना हुई।

  • मणिपुर भारत का पहला क्षेत्र था जहाँ सार्वभौम वयस्क मताधिकार के सिद्धांत पर चुनाव हुए।

(iii) राजनीतिक दलों में मतभेद:

  • मणिपुर की विधान सभा में भारत में विलय को लेकर गहरे मतभेद थे।

  • मणिपुर कांग्रेस विलय के पक्ष में थी, जबकि अन्य राजनीतिक दल इसके विरोध में थे।

(iv) अंतिम समझौता और विलय:

  • भारत सरकार ने मणिपुर की निर्वाचित विधान सभा से परामर्श किए बिना महाराजा पर दबाव बनाया कि वे भारतीय संघ में शामिल होने का समझौता करें।

  • महाराजा ने इस दबाव में सहमति दे दी और मणिपुर का विलय हो गया।

  • इस कदम से मणिपुर की जनता में भारी नाराजगी और असंतोष फैल गया, जिसका प्रभाव आज तक महसूस किया जाता है।

Q.178. भारत का प्रथम आम चुनाव अथवा 1952 ई० का चुनाव देश के लोकतंत्र के इतिहास के लिए मील का पत्थर (Milestone) क्यों और कैसे साबित हुआ ? संक्षेप में लिखिए।

उत्तर – स्वतंत्र भारत के प्रथम आम चुनाव (1951-52) के मुख्य तथ्य

  1. चुनाव स्थगित और आयोजन:

    • स्वतंत्र भारत के प्रथम आम चुनाव दो बार स्थगित किए गए।

    • अंततः अक्टूबर 1951 से फरवरी 1952 तक मतदान हुआ, पर अधिकांश क्षेत्र में यह 1952 में ही संपन्न हुआ।

    • मतदान और मतगणना में लगभग छह महीने लगे।

  2. उम्मीदवारों की प्रतिस्पर्धा और मतदान:

    • औसतन हर विधानसभा सीट पर चार उम्मीदवार मैदान में थे।

    • लोगों ने इस चुनाव में उत्साह से भाग लिया।

    • कुल मतदाताओं में से आधे से अधिक ने मतदान किया।

  3. परिणामों की स्वीकार्यता और सार्वभौम मताधिकार का सफल प्रयोग:

    • चुनाव परिणामों को सभी, यहां तक कि हारने वाले उम्मीदवारों ने भी निष्पक्ष माना।

    • सार्वभौम मताधिकार के इस ऐतिहासिक प्रयोग ने आलोचकों को चुप करा दिया।

    • टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसे “उन सभी आलोचकों के संदेहों पर पानी फेरने वाला” बताया, जो सार्वभौम मताधिकार को खतरे के रूप में देखते थे।

  4. अंतर्राष्ट्रीय प्रशंसा और लोकतंत्र का उदाहरण:

    • देश-विदेश के पर्यवेक्षक इस चुनाव के सफल आयोजन से हैरान और प्रभावित थे।

    • हिंदुस्तान टाइम्स ने लिखा कि यह “विश्व के इतिहास में लोकतंत्र के सबसे बड़े प्रयोगों में से एक” था।

    • यह चुनाव साबित करता है कि गरीबी और अशिक्षा के माहौल में भी लोकतांत्रिक चुनाव सफलतापूर्वक कराए जा सकते हैं।

    • भारत का यह चुनाव लोकतंत्र के लिए एक मील का पत्थर साबित हुआ।

Q.179. उन कारकों की चर्चा कीजिए जिनकी वजह से प्रथम आम चुनाव में कांग्रेस को भारी सफलता प्राप्त हुई थी ?

उत्तर – 1952 का पहला आम चुनाव और कांग्रेस की जीत

  1. चुनाव परिणाम अपेक्षित थे:
    भारत में 1952 ई. में हुए पहले आम चुनाव के परिणामों से ज़्यादा हैरानी नहीं हुई। अधिकांश लोगों को पहले से ही उम्मीद थी कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ही विजेता बनेगी।

  2. कांग्रेस की मजबूत विरासत:
    भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जिसे आमतौर पर “कांग्रेस पार्टी” कहा जाता है, को स्वतंत्रता संग्राम की विरासत प्राप्त थी। लोगों के मन में इस पार्टी के लिए विशेष आदर और विश्वास था क्योंकि यही पार्टी ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ लंबे संघर्ष की अगुवा रही थी।

  3. देशव्यापी संगठनात्मक ढाँचा:
    उस समय कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी थी जिसका देशभर में मज़बूत और सक्रिय संगठन मौजूद था। ग्रामीण और शहरी, दोनों क्षेत्रों में कांग्रेस की पहुँच थी, जो अन्य किसी भी दल की तुलना में कहीं अधिक थी।

  4. नेहरू की लोकप्रियता और नेतृत्व:
    पार्टी के पास पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसे नेता थे, जो उस समय भारतीय राजनीति के सबसे लोकप्रिय और करिश्माई व्यक्तित्व माने जाते थे।
    नेहरू ने पूरे देश का दौरा किया और चुनाव अभियान की कमान खुद संभाली। उनके विचार, व्यक्तित्व और भाषणों ने जनता पर गहरा असर डाला।

  5. भारी जीत:
    जब चुनाव परिणाम आए, तो भले ही कांग्रेस की जीत की उम्मीद थी, लेकिन उसकी विशाल और एकतरफा जीत ने भी लोगों को चौंका दिया। यह कांग्रेस के संगठनात्मक बल, नेहरू के नेतृत्व और स्वतंत्रता संग्राम की विरासत की ताकत को दर्शाता था।

Q.180. केरल में प्रथम कम्युनिस्टों की जीत और धारा 356 का काँग्रेस द्वारा दुरुपयोग विषय पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर – I. केरल में कम्युनिस्टों की पहली चुनावी जीत (1957)

  1. ऐतिहासिक जीत:
    भारत के स्वतंत्रता के बाद 1957 में हुए केरल विधानसभा चुनावों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) ने जबरदस्त सफलता हासिल की। पार्टी को कुल 126 में से 76 सीटें प्राप्त हुईं और पाँच स्वतंत्र विधायकों का समर्थन भी उन्हें मिला।

  2. लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार:
    यह विश्व का पहला उदाहरण था जब किसी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई थी।
    इसके बाद राज्यपाल ने ई. एम. एस. नम्बूदरीपाद को मुख्यमंत्री नियुक्त किया।

  3. क्रांतिकारी व प्रगतिशील नीतियाँ:
    कम्युनिस्ट सरकार ने भूमि सुधार और शिक्षा नीतियों जैसे क्षेत्रों में कई प्रगतिशील बदलावों की शुरुआत की, जिससे समाज के कुछ वर्गों को नुकसान होता दिखाई दिया।

II. संविधान की धारा 356 का दुरुपयोग (1959)

  1. ‘मुक्ति संघर्ष’ की शुरुआत:
    सरकार की नीतियों का विरोध करते हुए कांग्रेस ने केरल में ‘मुक्ति संघर्ष’ शुरू किया। इसमें धार्मिक संगठनों और निहित स्वार्थों की भागीदारी भी देखने को मिली।

  2. राज्य सरकार की बर्खास्तगी:
    1959 में केंद्र की कांग्रेस सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 356 का उपयोग कर कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर दिया।
    इसके तहत राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया।

  3. विवादास्पद फैसला:
    यह घटना भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में धारा 356 के पहले बड़े और विवादास्पद उपयोग के रूप में दर्ज हुई।
    इसे संविधान प्रदत्त आपातकालीन शक्तियों के दुरुपयोग का उदाहरण माना जाता है।

Q.181. लोकनायक जयप्रकाश नारायण के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनके महत्त्वपूर्ण कार्यों या उपलब्धियों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर – लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी): एक संक्षिप्त परिचय

1. संक्षिप्त परिचय:

  • जयप्रकाश नारायण का जन्म 1902 ई. में हुआ।

  • वे आरंभ में मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे, लेकिन बाद में उन्होंने गांधीवाद और समाजवाद को अपनाया।

  • उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और बाद में सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना में योगदान दिया और पार्टी के महासचिव भी रहे।

2. प्रमुख कार्य व उपलब्धियाँ:

(i) स्वतंत्रता संग्राम में योगदान:

  • भारत छोड़ो आंदोलन (1942) के प्रमुख नेता रहे।

  • स्वतंत्रता संग्राम में उनके नेतृत्व और साहस के कारण उन्हें “लोकनायक” की उपाधि मिली।

(ii) स्वतंत्रता के बाद:

  • स्वतंत्र भारत में उन्हें नेहरू के उत्तराधिकारी के रूप में देखा गया, लेकिन उन्होंने पद या सत्ता ग्रहण करने से इंकार किया।

  • वे भूदान आंदोलन में विनोबा भावे के साथ सक्रिय रूप से जुड़े।

(iii) सामाजिक योगदान:

  • नागा विद्रोह और कश्मीर समस्या के शांतिपूर्ण समाधान के लिए प्रयास किए।

  • चंबल के डकैतों को आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित किया।

(iv) राजनीतिक नेतृत्व (1970 के बाद):

  • बिहार आंदोलन (1974) के नेतृत्वकर्ता बने, जो एक व्यापक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन था।

  • आपातकाल (1975) के घोर विरोधी बनकर उभरे।

  • उन्होंने जनता पार्टी के गठन में प्रमुख भूमिका निभाई, जिसने 1977 में इंदिरा गाँधी को सत्ता से बाहर किया।

3. निधन:

  • जयप्रकाश नारायण का निधन 1979 में हुआ।

निष्कर्ष:

जयप्रकाश नारायण केवल एक राजनेता नहीं, बल्कि एक आदर्शवादी, क्रांतिकारी और गांधीवादी समाजसेवी थे। उन्होंने भारतीय राजनीति में नैतिकता, ईमानदारी और जनहित के मूल्यों को स्थापित करने का निरंतर प्रयास किया। वे आज भी स्वराज और सामाजिक न्याय के प्रतीक के रूप में स्मरण किए जाते हैं।

Q. 182. आंध्र प्रदेश में चले शराब विरोधी आंदोलन ने देश का ध्यान कुछ गंभीर मुद्दों की तरफ खींचा। ये मुद्दे क्या थे ?

उत्तर – आंध्र प्रदेश में ताड़ी-विरोधी (शराब-विरोधी) आंदोलन: मुख्य मुद्दे एवं प्रभाव

1. सरल नारा, गहरे मुद्दे

  • आंदोलन का नारा था: “ताड़ी की बिक्री बंद करो

  • यह साधारण-सा नारा व्यापक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं की ओर इशारा करता था, विशेषकर महिलाओं के जीवन पर इसके प्रभाव की ओर।

2. अपराध और राजनीति का गठजोड़

  • ताड़ी व्यवसाय के माध्यम से अपराध और राजनीति के बीच गहरा संबंध बन गया था।

  • राज्य सरकार को ताड़ी से राजस्व प्राप्त होता था, जिससे प्रतिबंध लगाने में रुचि नहीं दिखाई गई।

3. घरेलू हिंसा और महिलाओं की भागीदारी

  • स्थानीय महिलाओं ने आंदोलन की अगुवाई की।

  • इसने महिलाओं को पहली बार घरेलू हिंसा जैसे निजी मुद्दों पर सार्वजनिक रूप से बोलने का मंच दिया।

4. महिला आंदोलन का विस्तार

  • यह आंदोलन, महिला आंदोलन का ग्रामीण विस्तार बन गया।

  • पहले, महिला आंदोलन मुख्यतः शहरी, मध्यवर्गीय महिलाओं तक सीमित था।

5. यौन हिंसा और दहेज प्रथा के खिलाफ

  • 1980 के दशक में महिला आंदोलनों ने यौन हिंसा, दहेज प्रथा और संपत्ति अधिकारों पर जोर दिया।

  • इन आंदोलनों ने यह स्पष्ट किया कि लैंगिक भेदभाव केवल निजी समस्या नहीं, बल्कि एक सामाजिक संरचना की देन है।

6. समाज में जागरूकता और बहस

  • इस तरह के अभियानों ने समाज में जागरूकता पैदा की।

  • अब महिलाएं सिर्फ कानूनी सुधारों तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि सामाजिक टकराव और असमानता पर भी चर्चा करने लगीं।

7. राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग

  • 1990 के दशक में महिलाओं ने राजनीतिक हिस्सेदारी की भी माँग शुरू कर दी।

  • परिणामस्वरूप, 73वां और 74वां संविधान संशोधन करके स्थानीय निकायों में महिलाओं को आरक्षण दिया गया।

निष्कर्ष:

आंध्र प्रदेश का ताड़ी-विरोधी आंदोलन सामान्य आर्थिक मुद्दे से उठकर महिलाओं के सामाजिक-राजनीतिक सशक्तिकरण का प्रतीक बन गया। यह आंदोलन ग्रामीण महिलाओं की राजनीतिक चेतना और संगठित शक्ति को दर्शाने वाला महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन था।

Q.183. क्या आंदोलन और विरोध की कार्यवाहियों से देश का लोकतंत्र मजबूत होता है? अपने उत्तर की पुष्टि में उदाहरण दीजिए।

उत्तर – अहिंसक और शांतिपूर्ण आंदोलनों की लोकतंत्र में भूमिका

भूमिका:
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में अहिंसक और कानूनसम्मत आंदोलनों ने सामाजिक परिवर्तन, जनजागरण और सरकारी नीतियों को जन-हितैषी बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐसे आंदोलनों ने लोकतंत्र को मजबूत किया है।

प्रमुख उदाहरण:

(i) चिपको आंदोलन:

  • प्रकृति प्रेम और पर्यावरण रक्षा का प्रतीक यह आंदोलन पूरी तरह अहिंसक और शांतिपूर्ण था।

  • स्थानीय महिलाओं ने पेड़ों से लिपटकर वनों की कटाई का विरोध किया।

  • परिणामस्वरूप सरकार को झुकना पड़ा और जंगलों की सुरक्षा हेतु नीतियाँ बनीं।
    लोकतंत्र में जनता की सहभागिता से पर्यावरणीय संरक्षण संभव हुआ।

(ii) वामपंथी किसान-मज़दूर आंदोलन:

  • ये आंदोलन शांतिपूर्ण तरीकों से मजदूरों और किसानों के हक़ की आवाज़ बने।

  • श्रम कानूनों, न्यूनतम मज़दूरी, भूमि सुधार आदि पर सरकार ने ध्यान दिया।
    सर्वहारा वर्ग की हिस्सेदारी और जागरूकता में वृद्धि हुई।

(iii) दलित पैंथर्स आंदोलन:

  • यह आंदोलन दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की सामाजिक जागरूकता और आत्मसम्मान का प्रतीक बना।

  • साहित्य, कविता और राजनीतिक भाषणों से जातिवाद, छुआछूत पर चोट की गई।
    सामाजिक न्याय, समानता और संवैधानिक अधिकारों को बल मिला।

(iv) ताड़ी-विरोधी (शराब-विरोधी) आंदोलन:

  • महिलाओं ने शराबबंदी के लिए शांतिपूर्ण तरीके से विरोध किया।

  • इसने घरेलू हिंसा, दहेज, महिलाओं के उत्पीड़न जैसे मुद्दों को सामने लाया।

  • नशाबंदी, महिला सशक्तिकरण और राजनीतिक आरक्षण जैसे सुधार संभव हुए।
    महिलाओं की राजनीतिक जागरूकता और प्रतिनिधित्व बढ़ा।

निष्कर्ष:

इन सभी उदाहरणों से स्पष्ट है कि गांधीवादी विचारधारा, यानी अहिंसा और सत्याग्रह, आज भी लोकतंत्र को मज़बूत करने का एक प्रभावी साधन है। शांतिपूर्ण जनांदोलन संवैधानिक परिवर्तन, नीति-निर्माण और सामाजिक सुधार के सफल वाहक रहे हैं।

Q. 184. “ऑपरेशन विजय” का वर्णन कीजिए तथा उसका महत्त्व बताइए।

उत्तर – ऑपरेशन विजय भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण सैन्य अभियान था, जिसके माध्यम से 19 दिसंबर 1961 को गोवा, दमन, दीव और दादरा नगर हवेली को पुर्तगाली शासन से मुक्त कराया गया। यह अभियान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अधूरे अध्याय को पूरा करने की दिशा में एक निर्णायक कदम था।

ऑपरेशन विजय का पृष्ठभूमि

15 अगस्त 1947 को भारत की स्वतंत्रता के बाद भी गोवा, दमन, दीव और दादरा नगर हवेली पुर्तगाली उपनिवेश बने रहे। पुर्तगाल ने भारत के साथ इन क्षेत्रों के हस्तांतरण की बात स्वीकार नहीं की, जिससे भारतीय जनता में असंतोष बढ़ा। 1955 में भारत ने गोवा की मुक्ति के लिए सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया, लेकिन पुर्तगाल ने इसे दबाने के लिए बल प्रयोग किया। नवंबर 1961 में पुर्तगाली सैनिकों ने गोवा के मछुआरों पर गोलियां चलाईं, जिसमें एक मछुआरे की मृत्यु हो गई। इस घटना ने भारत सरकार को सैन्य हस्तक्षेप की आवश्यकता महसूस कराई।

ऑपरेशन विजय की योजना और क्रियान्वयन

ऑपरेशन विजय की योजना 17 दिसंबर 1961 को बनाई गई। इसमें भारतीय सेना, नौसेना और वायुसेना की संयुक्त कार्रवाई शामिल थी। भारतीय सेना ने तीन दिशाओं से गोवा में प्रवेश किया: उत्तर में सावंतवाड़ी, दक्षिण में कारवार और पूर्व में बेलगाम से। भारतीय वायुसेना ने डाबोलिम हवाई अड्डे पर बमबारी की, जबकि भारतीय नौसेना ने समुद्री मार्गों को अवरुद्ध किया। पुर्तगाली सैनिकों ने कुछ प्रतिरोध किया, लेकिन भारतीय सेना की तत्परता और रणनीति के सामने उनका प्रतिरोध टिक नहीं सका।amritvichar.com+2ED Times | Youth Media परिणाम और महत्व

19 दिसंबर 1961 को पुर्तगाली गवर्नर जनरल मैनुअल एंटोनियो वासलो ई सिल्वा ने आत्मसमर्पण के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए, जिससे गोवा, दमन, दीव और दादरा नगर हवेली भारतीय संघ का हिस्सा बन गए। इस सैन्य अभियान में भारतीय सेना के 22 जवान शहीद हुए, जबकि लगभग 30 पुर्तगाली सैनिक मारे गए और 4,668 को बंदी बनाया गया। ऑपरेशन विजय ने भारतीय सशस्त्र बलों की क्षमता और रणनीतिक कौशल को प्रदर्शित किया। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि भारत अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिए सैन्य कार्रवाई कर सकता है।5गोवा मुक्ति दिवस, 19 दिसंबर, को हर वर्ष गोवा में ‘गोवा मुक्ति दिवस’ के रूप में मनाया जाता है, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इस महत्वपूर्ण अध्याय की याद दिलाता है।

Q.185. गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा सन् 1987 में किस तरह प्राप्त हुआ? संक्षेप में लिखिए।

उत्तर – गोवा: पुर्तगाल से मुक्ति के बाद की राजनीति और जनमत संग्रह (1961–1987)

1. गोवा की मुक्ति (1961):

  • दिसंबर 1961 में भारत ने “ऑपरेशन विजय” के अंतर्गत गोवा, दमन और दीव को पुर्तगाल से मुक्त कराया।
  • इसके बाद गोवा को संघशासित प्रदेश घोषित किया गया।

2. महाराष्ट्र में विलय की माँग:

  • गोमांतक पार्टी, जो मराठी भाषी लोगों का प्रतिनिधित्व करती थी, ने गोवा को महाराष्ट्र में मिलाने की माँग की।
  • उन्होंने तर्क दिया कि गोवा की भाषा, संस्कृति और इतिहास महाराष्ट्र से जुड़ा हुआ है।

3. गोवा की अलग पहचान की माँग:

  • यूनाइटेड गोअन पार्टी और गोवा के बहुत से नागरिकों ने गोवा की स्वतंत्र सांस्कृतिक पहचान और कोंकणी भाषा की रक्षा की बात कही।
  • उन्होंने महाराष्ट्र में विलय का विरोध किया और गोवा को अलग रखने की माँग की।

4. जनमत संग्रह (1967):

  • भारत में इकलौता जनमत संग्रह (Referendum) 1967 में गोवा में कराया गया।
  • इसमें जनता से पूछा गया:
    “क्या गोवा महाराष्ट्र में मिलना चाहिए या स्वतंत्र रूप से संघशासित प्रदेश बना रहना चाहिए?”
  • परिणाम:
    • बहुमत ने स्वतंत्र रूप से संघशासित प्रदेश बने रहने के पक्ष में मत दिया।
    • महाराष्ट्र में विलय का प्रस्ताव अस्वीकृत हो गया।

5. गोवा का राज्य बनना (1987):

  • वर्षों तक एक अलग सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने की माँग के बाद,
  • 30 मई 1987 को गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान किया गया।
  • कोंकणी भाषा को भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया।

निष्कर्ष:

गोवा का मामला भारतीय लोकतंत्र में जनमत संग्रह की ताकत, सांस्कृतिक विविधता के सम्मान और संघीय ढांचे की लचीलेपन का अद्भुत उदाहरण है। यह दर्शाता है कि भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में स्थानीय इच्छाओं और पहचान को महत्व दिया जाता है।

 

Q.186. कारगिल की लड़ाई पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर – कारगिल युद्ध (Kargil War) – एक दृष्टि में

1. युद्ध की पृष्ठभूमि:

  • समय: मई से जुलाई 1999

  • स्थान: जम्मू-कश्मीर के कारगिल जिले के क्षेत्र – द्रास, माश्कोह, काकसर, बतालिक

  • घटना: पाकिस्तान समर्थित घुसपैठियों (जो खुद को मुजाहिदीन बता रहे थे) ने नियंत्रण रेखा (LoC) पार कर भारतीय चौकियों पर कब्जा कर लिया।

  • सच्चाई: इन घुसपैठियों को पाकिस्तानी सेना, विशेष रूप से नॉर्दन लाइट इन्फैंट्री, का सीधा समर्थन प्राप्त था।

2. भारत की प्रतिक्रिया:

  • भारतीय सेना ने ऑपरेशन विजय के तहत मोर्चा संभाला।

  • वायुसेना ने भी ऑपरेशन सफेद सागर के तहत दुश्मन ठिकानों पर हमले किए।

  • भारत ने 26 जुलाई 1999 तक लगभग सभी प्रमुख चौकियों पर फिर से कब्जा कर लिया।

3. अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया:

  • दोनों देश हाल ही में (1998) परमाणु परीक्षण कर चुके थे, इसलिए युद्ध ने वैश्विक चिंता को जन्म दिया।

  • भारत ने अंतरराष्ट्रीय दबाव के बावजूद नियंत्रण रेखा पार नहीं की, जिससे उसकी छवि एक जिम्मेदार शक्ति के रूप में उभरी।

  • अमेरिका और अन्य देशों ने पाकिस्तान को पीछे हटने के लिए बाध्य किया।

4. पाकिस्तान में परिणाम:

  • इस युद्ध ने पाकिस्तान के भीतर राजनीतिक संकट को जन्म दिया।

  • कहा गया कि जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को विश्वास में लिए बिना यह योजना बनाई थी।

  • युद्ध के कुछ ही महीनों बाद, अक्टूबर 1999 में परवेज़ मुशर्रफ ने नवाज शरीफ की सरकार को हटाकर सैन्य तख्तापलट कर दिया।

5. भारत में प्रभाव:

  • भारतीय सेना और शहीद जवानों के बलिदान ने देश में राष्ट्रवाद और एकता की भावना को मजबूत किया।

  • 26 जुलाई को हर साल “कारगिल विजय दिवस” के रूप में मनाया जाता है।

निष्कर्ष:

कारगिल युद्ध भारत की सैन्य क्षमता, कूटनीतिक परिपक्वता और राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रमाण था। यह युद्ध पाकिस्तान की कूटनीतिक हार और भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को मजबूत करने वाला मोड़ बन गया।

Q.187. भारत और विश्व शांति पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर – 🌏 भारत की विदेश नीति और विश्व शांति की दिशा में योगदान

1. विदेश नीति का उद्देश्य:

  • भारत की विदेश नीति का मूल उद्देश्य विश्व में शांति की स्थापना है।

  • पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 1949 में स्पष्ट किया था कि भारत की नीति पंचशील, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, निरस्त्रीकरण, और मानवाधिकारों के समर्थन पर आधारित होगी।

2. शीत युद्ध काल में भूमिका (1947–1989):

  • भारत ने विश्व की दो महाशक्तियों – अमेरिका और सोवियत संघ – के बीच शीत युद्ध को समाप्त करने की दिशा में गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) का नेतृत्व किया।

  • भारत ने हमेशा उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष और स्वतंत्रता आंदोलनों का समर्थन किया।

3. संयुक्त राष्ट्र के शांति प्रयासों में योगदान:

भारत ने संयुक्त राष्ट्र शांति मिशनों में निरंतर सक्रिय भूमिका निभाई है। भारत द्वारा भेजी गई शांति टुकड़ियों के कुछ उदाहरण:

सालदेश / क्षेत्रप्रकार / भूमिका
1950कोरियाचिकित्सा दल (Paramedical unit)
1956मिस्र और गाज़ासैनिक टुकड़ियाँ (UNEF)
1960-64कांगोशांति स्थापना बल (Infantry battalion)
1964साइप्रससंयुक्त राष्ट्र अभियान में भागीदारी

4. भारत का रुख:

  • भारत ने कभी आक्रामक रुख नहीं अपनाया, बल्कि संवाद, सहयोग और कूटनीति के माध्यम से समस्याओं के समाधान को प्राथमिकता दी।

  • भारत आज भी विश्व स्तर पर शांति, स्थिरता और सहयोग के लिए एक उत्तरदायी और सम्मानित राष्ट्र माना जाता है।

निष्कर्ष:

भारत की विदेश नीति हमेशा से नैतिक मूल्यों, गुटनिरपेक्षता और शांति की स्थापना पर आधारित रही है। भारत का यह योगदान न केवल देश की प्रतिष्ठा को बढ़ाता है, बल्कि वैश्विक स्थिरता के लिए भी एक प्रेरणा बनता है।

Q.188.सामाजिक अधिकारों से आप क्या समझते हैं ?

उत्तर – मानव अधिकारों से संबंधित हैं, जो विशेष रूप से सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा पत्र (Universal Declaration of Human Rights – UDHR) में वर्णित हैं। इन्हें हम इस प्रकार स्पष्ट और क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं:

🌍 मुख्य मानवाधिकार (UDHR के अनुसार)

1. विवाह और परिवार का अधिकार (अनुच्छेद 16):

  • प्रत्येक स्त्री और पुरुष को विवाह करने और परिवार बसाने का अधिकार है, चाहे वह किसी भी नस्ल, राष्ट्रीयता या धर्म के हों।

  • विवाह दोनों पक्षों की स्वतंत्र और पूर्ण सहमति से ही होगा।

  • परिवार समाज की मूल और प्राकृतिक इकाई है, जिसे राज्य और समाज द्वारा पूर्ण संरक्षण मिलना चाहिए।

2. शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 26):

  • प्राथमिक और मौलिक शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य होनी चाहिए।

  • शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए:

    • व्यक्तित्व का पूर्ण विकास,

    • मानवाधिकारों और स्वतंत्रता के प्रति सम्मान को बढ़ावा देना,

    • सहनशीलता, समझदारी, और शांति को प्रोत्साहित करना।

निष्कर्ष:

इन अधिकारों का उद्देश्य हर व्यक्ति को गरिमा, स्वतंत्रता और समानता के साथ जीवन जीने का अवसर देना है। भारत ने भी इन मूल अधिकारों को अपने संविधान (विशेषकर मौलिक अधिकारों और नीति-निर्देशक तत्वों) में सम्मिलित किया है।

Q.189.मानव अधिकारों में सांस्कृतिक अधिकारों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर – सार्वभौमिक मानवाधिकारों की घोषणा (Universal Declaration of Human Rights – UDHR) के अनुच्छेद 27 और अनुच्छेद 29 पर आधारित है। इसे हम नीचे स्पष्ट रूप में प्रस्तुत करते हैं:

🌐 मानव अधिकारों से जुड़ी प्रमुख धाराएँ:

अनुच्छेद 27 – सांस्कृतिक और वैज्ञानिक अधिकार:

  1. हर व्यक्ति को समाज के सांस्कृतिक जीवन में भाग लेने, कलाओं का आनंद लेने और वैज्ञानिक प्रगति तथा उसके लाभों में हिस्सा लेने का अधिकार है।

  2. प्रत्येक व्यक्ति को अपनी वैज्ञानिक, साहित्यिक या कलात्मक रचनाओं से उत्पन्न नैतिक और भौतिक हितों की रक्षा का अधिकार है।

अनुच्छेद 29 – कर्तव्य और स्वतंत्रता की सीमाएँ:

  1. हर व्यक्ति का अपने समुदाय के प्रति कर्तव्य होता है, क्योंकि वही समुदाय उसके व्यक्तित्व के पूर्ण विकास का माध्यम होता है।

  2. व्यक्ति द्वारा अपने अधिकारों और स्वतंत्रताओं के प्रयोग पर कुछ सीमाएँ लगाई जा सकती हैं –
    ये सीमाएँ कानून द्वारा निर्धारित होनी चाहिए और उनका उद्देश्य होना चाहिए:

    • दूसरों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं का सम्मान करना।

    • नैतिकता, सार्वजनिक व्यवस्था और जनकल्याण को बनाए रखना।

✍️ निष्कर्ष:

सार्वभौमिक मानवाधिकारों की घोषणा न केवल व्यक्ति को अधिकार देती है, बल्कि समाज और समुदाय के प्रति उसकी जिम्मेदारियाँ भी तय करती है। यह संतुलन ही एक समतामूलक, नैतिक और न्यायपूर्ण समाज की नींव है।

Q. 190. वैश्विक तापवृद्धि विश्व में किस प्रकार खतरा उत्पन्न करता है ?

उत्तर – भौगोलिक और मानवीय खतरों की गंभीरता को दर्शाता है। यह जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले समुद्र-स्तर वृद्धि (Sea Level Rise) के प्रभावों का ठोस और प्रामाणिक उदाहरण है। नीचे इस स्थिति को और स्पष्ट किया गया है:

🌍 वैश्विक तापवृद्धि से उत्पन्न भौगोलिक खतरे:

🔺 समुद्र-स्तर में वृद्धि का प्रभाव:

  1. बांग्लादेश

    • यदि समुद्र का स्तर 1.5–2.0 मीटर बढ़ता है, तो अनुमानतः
      20% भूमि जलमग्न हो जाएगी
      ➤ लाखों लोगों को आवास और कृषि भूमि से विस्थापित होना पड़ेगा।
      ➤ देश की आर्थिक और सामाजिक संरचना को गहरा झटका लगेगा।

  2. मालदीव

    • एक निम्न समुद्र-स्तरीय द्वीप राष्ट्र।
      ➤ यदि समुद्र का स्तर 1.5 मीटर भी बढ़ता है, तो मालदीव का अधिकांश हिस्सा डूब सकता है
      ➤ यह देश अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है।

  3. थाईलैंड

    • विशेषकर इसकी राजधानी बैंकॉक बहुत निचले इलाके में स्थित है।
      ➤ अनुमान है कि समुद्र-स्तर बढ़ने से 50% आबादी पर संकट आ सकता है।
      ➤ बाढ़, तटीय कटाव, और जनविस्थापन की समस्याएँ उत्पन्न होंगी।

🌡️ वैश्विक तापवृद्धि के अन्य प्रभाव:

  • ग्लेशियर पिघलना – हिमालयी क्षेत्रों में जल प्रवाह असंतुलन और बाढ़ की आशंका।

  • सूखा और वर्षा असंतुलन – कृषि, जल आपूर्ति और खाद्य सुरक्षा पर असर।

  • तटीय जैव विविधता का विनाश – प्रवाल भित्तियों, मैंग्रोव और समुद्री जीवन को खतरा।

  • जलवायु प्रवास (Climate Refugees) – लाखों लोगों को अपने स्थानों से विस्थापित होना पड़ेगा।

निष्कर्ष:

आपका दिया गया उदाहरण वैश्विक तापवृद्धि की गंभीरता को स्पष्ट रूप से उजागर करता है। इससे यह समझना जरूरी हो जाता है कि जलवायु परिवर्तन सिर्फ एक पर्यावरणीय मुद्दा नहीं, बल्कि यह राजनीतिक, आर्थिक और मानवाधिकार का भी प्रश्न है।

Q. 191. काका कालेलकर की अध्यक्षता में नियुक्त गठित आयोग संविधान की किस धारा के अंतर्गत नियुक्त किया गया ? इस आयोग की सिफारिशों को क्यों नहीं स्वीकृत किया गया ?

उत्तर – काका कालेलकर आयोग (Kaka Kalelkar Commission) के गठन, उद्देश्यों और उसकी सिफारिशों की अस्वीकृति को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करता है। नीचे इसे एक संगठित और सरल रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिससे यह परीक्षोपयोगी और समझने में सुगम हो:

🧾 काका कालेलकर आयोग (1953)

📌 गठन का आधार:

  • संविधान की धारा 340 (1) के अंतर्गत

  • गठन वर्ष: 1953

  • अध्यक्ष: काका कालेलकर

🎯 उद्देश्य:

  1. सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की स्थिति का अध्ययन करना।

  2. उनकी कठिनाइयों का मूल्यांकन करना।

  3. उन्हें सुधारने के लिए सरकार को उपयुक्त सिफारिशें देना।

📑 रिपोर्ट और सिफारिशें:

  • रिपोर्ट मार्च 1955 में प्रस्तुत की गई।

  • आयोग ने कुल 2399 जातियों को “पिछड़ी जातियों” में रखा।

  • पिछड़े वर्गों को पहचानने के लिए सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक मानदंड अपनाए।

सिफारिशों की अस्वीकृति:

  • सरकार ने सिफारिशें स्वीकार नहीं कीं

  • मुख्य कारण: आयोग ने किसी विशेष रियायत या आरक्षण की ठोस अनुशंसा नहीं की

  • काका कालेलकर का मत था कि:

    “सेवाएँ समाज के लिए होती हैं, न कि किसी वर्ग विशेष के लिए।”

📚 महत्वपूर्ण तथ्य:

  • यह भारत में पिछड़े वर्गों के लिए गठित प्रथम राष्ट्रीय आयोग था।

  • हालांकि इसकी सिफारिशें लागू नहीं हुईं, परंतु इसने बाद के मंडल आयोग (1979) के गठन की आधारभूमि तैयार की।

Q.192. ज्योतिराव फूले पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

उत्तर – ज्योतिराव फूले (Jyotirao Phule) के योगदान को बहुत अच्छी तरह दर्शाता है। नीचे इसे एक संक्षिप्त, परीक्षोपयोगी बिंदुवार रूप में प्रस्तुत किया गया है:

🌟 ज्योतिराव फूले (1827–1890)

अन्य नाम: ज्योतिबा फूले
जन्म: 11 अप्रैल 1827, पूना (अब पुणे), महाराष्ट्र
मृत्यु: 28 नवंबर 1890

👤 परिचय:

  • जातीय पृष्ठभूमि: माली जाति (पारंपरिक रूप से फूलों का व्यापार)

  • शिक्षा: स्कॉटिश मिशन स्कूल, पूना

  • स्वभाव: चिंतनशील, न्यायप्रिय, समाज-सुधारक दृष्टिकोण

🎯 मुख्य कार्य और योगदान:

  1. सामाजिक सुधारक:

    • जातिगत भेदभाव और ब्राह्मणवादी वर्चस्व का विरोध किया।

    • अछूतों और शूद्रों के अधिकारों के प्रबल पक्षधर।

  2. नारी शिक्षा के प्रणेता:

    • भारत में लड़कियों के लिए पहला स्कूल अपनी पत्नी सावित्रीबाई फूले के साथ मिलकर खोला (1848)।

    • महिलाओं की शिक्षा और विधवाओं के पुनर्विवाह का समर्थन।

  3. सत्यशोधक समाज की स्थापना (1873):

    • जाति-विभाजन और धार्मिक अंधविश्वासों के विरुद्ध आंदोलन चलाया।

    • समानता, शिक्षा और सामाजिक न्याय को बढ़ावा दिया।

  4. प्रमुख कृतियाँ:

    • गुलामगिरी (1873): ब्राह्मणवादी अत्याचार और जाति-व्यवस्था की आलोचना।

    • तृतीय रत्न (नाटक): सामाजिक विषमताओं पर प्रहार।

🕊️ विरासत:

  • ज्योतिबा फूले को दलितों, पिछड़ों और महिलाओं के अधिकारों की आवाज माना जाता है।

  • उन्होंने भारतीय समाज में सामाजिक जागरूकता और समानता की नींव रखी

Q.193. महिला सशक्तिकरण की राष्ट्रीय नीति 2001 के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख करें।

उत्तर – 2001 की राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण नीति के मुख्य उद्देश्यों का संक्षिप्त सार इस प्रकार है:

2001 की राष्ट्रीय महिला सशक्तिकरण नीति के मुख्य उद्देश्य

  1. महिलाओं का पूर्ण विकास:
    सकारात्मक आर्थिक और सामाजिक नीतियाँ बनाकर ऐसा वातावरण तैयार करना जिसमें महिलाएं अपनी पूर्ण क्षमता को पहचान सकें और उसका विकास कर सकें।

  2. समान अधिकार और स्वतंत्रताएँ:
    महिलाओं को पुरुषों के समान राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और नागरिक अधिकार तथा मौलिक स्वतंत्रताएँ कानूनी और वास्तविक रूप से प्राप्त हों।

  3. समान सुविधाएँ एवं अवसर:
    स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा (प्रत्येक स्तर पर), जीविका एवं व्यावसायिक मार्गदर्शन, रोजगार, समान वेतन, व्यावसायिक स्वास्थ्य एवं सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा और सार्वजनिक पदों पर समान अवसर प्रदान करना।

  4. न्याय व्यवस्था का सशक्तीकरण:
    महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव समाप्त करने के लिए न्याय व्यवस्था को मजबूत बनाना।
    केंद्रीय और राज्य स्तर पर महिला एवं बाल कल्याण विभागों तथा महिला आयोगों के साथ समन्वय से नीति के कार्यान्वयन हेतु समयबद्ध योजनाएँ बनाना।

Q.194. किन्हीं पाँच मानव अधिकारों के नाम लिखिए।

उत्तर – मानव अधिकारों के घोषणा-पत्र के महत्वपूर्ण अधिकारों की सूची सही और स्पष्ट है। इसे मैं थोड़ा विस्तार से और क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत करता हूँ:

मानव अधिकारों के घोषणा-पत्र के कुछ महत्वपूर्ण अधिकार:

  1. जीवन की सुरक्षा और स्वतंत्रता का अधिकार:
    प्रत्येक व्यक्ति का जीवन सुरक्षित होना चाहिए और उसे स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है।

  2. दासता और बंधुआ मजदूरी से स्वतंत्रता का अधिकार:
    किसी भी व्यक्ति को दासता, गुलामी या जबरन मजदूरी में रखा जाना स्वीकार्य नहीं है।

  3. स्वतंत्र न्यायपालिका से न्याय प्राप्त करने का अधिकार:
    सभी को बिना किसी भेदभाव के निष्पक्ष और स्वतंत्र न्यायालय से न्याय मिलने का अधिकार है।

  4. विवाह करने और पारिवारिक जीवन का अधिकार:
    हर व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से विवाह करने और पारिवारिक जीवन बिताने का अधिकार है।

  5. कहीं भी आने-जाने और घूमने-फिरने की स्वतंत्रता का अधिकार:
    व्यक्ति को अपने देश में कहीं भी जाने-फिरने की आज़ादी होती है।

Author

SANTU KUMAR

I am a passionate Teacher of Class 8th to 12th and cover all the Subjects of JAC and Bihar Board. I love creating content that helps all the Students. Follow me for more insights and knowledge.

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