Q.41. अपने राज्य के उच्च न्यायालय के संगठन तथा अधिकार क्षेत्र का वर्णन करें। इस न्यायालय की स्वतंत्रता किस प्रकार संरक्षित की गई है ?
उत्तर – उच्च न्यायालय : राज्य का प्रमुख न्यायिक निकाय
उच्च न्यायालय किसी भी राज्य का सर्वोच्च न्यायिक संस्था होती है। यह राज्य के न्यायिक संगठन की सर्वोच्च कड़ी पर स्थित होता है। भारतीय संविधान के अनुसार, प्रत्येक राज्य में एक उच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है। हालांकि, संविधान यह भी प्रावधान करता है कि संसद अपने विधिक अधिकारों के अंतर्गत एक संयुक्त उच्च न्यायालय की स्थापना दो या दो से अधिक राज्यों या केंद्र शासित प्रदेशों के लिए कर सकती है। संसद को उच्च न्यायालयों की स्थापना, पुनर्गठन या क्षेत्रीय अधिकारों में परिवर्तन करने का भी अधिकार प्राप्त है।
न्यायाधीशों की नियुक्ति
उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, जिसमें भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और संबंधित राज्य के राज्यपाल से परामर्श लिया जाता है। अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से भी परामर्श किया जाता है। राष्ट्रपति, आवश्यकतानुसार, अस्थायी और अतिरिक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति भी कर सकते हैं। हालांकि, अतिरिक्त न्यायाधीश केवल 62 वर्ष की आयु तक ही पद पर रह सकते हैं। वर्तमान में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को ₹2,50,000 तथा अन्य न्यायाधीशों को ₹2,25,000 मासिक वेतन के साथ-साथ विभिन्न भत्ते भी प्रदान किए जाते हैं।
उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार
उच्च न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र को मुख्य रूप से दो भागों में बाँटा जा सकता है:
1. प्रारंभिक अधिकार-क्षेत्र (Original Jurisdiction):
संविधान लागू होने से पूर्व यह अधिकार केवल कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास के उच्च न्यायालयों को प्राप्त था। अब सभी उच्च न्यायालयों को प्रारंभिक क्षेत्राधिकार प्राप्त हो गया है। वर्तमान में ₹2000 या उससे अधिक मूल्य के मुकदमे सीधे उच्च न्यायालय में दाखिल किए जा सकते हैं।
इसके अतिरिक्त निम्नलिखित मामलों में भी उच्च न्यायालय को प्रारंभिक क्षेत्राधिकार प्राप्त है:
नौकाधिकारण से संबंधित विवाद
वसीयत और उत्तराधिकार के मामले
विवाह एवं विवाह-विच्छेद से जुड़े मामले
कंपनी कानून
न्यायालय की अवमानना
राजस्व संबंधित विषय
उच्च न्यायालय को यह अधिकार भी है कि वह किसी कानून को असंवैधानिक मानने पर उसे निरस्त कर सकता है।
2. अपील अधिकार-क्षेत्र (Appellate Jurisdiction):
उच्च न्यायालयों को दीवानी (Civil) और आपराधिक (Criminal) मामलों में अपीलीय अधिकार प्राप्त है। कोई भी पक्ष, यदि वह किसी दीवानी मामले में निचली अदालत के फैसले से असहमत है, तो उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है। इसी प्रकार, आपराधिक मामलों में भी सजा या निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। इसके अतिरिक्त, यदि कोई निचली अदालत किसी अपील पर निर्णय देती है और उसमें त्रुटि पाई जाती है, तो उस निर्णय को भी उच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।
भारत में उच्च न्यायालयों की संख्या
वर्तमान में भारत में 25 उच्च न्यायालय कार्यरत हैं, जबकि देश में 28 राज्य और 8 केंद्र शासित प्रदेश हैं। कुछ उच्च न्यायालय एक से अधिक राज्यों अथवा केंद्र शासित प्रदेशों के लिए कार्य करते हैं, जैसे कि बॉम्बे उच्च न्यायालय, जो महाराष्ट्र, गोवा, दादरा और नगर हवेली तथा दमन और दीव के लिए कार्य करता है।
Q.42. 1975 के आपातकालीन घोषणा और क्रियान्वयन के देश के राजनैतिक, माहौल, प्रेस, नागरिक अधिकारों, न्यायपालिका के निर्णयों और संविधान पर क्या प्रभाव पड़े अथवा उनके इन क्षेत्रों में क्या परिणाम हए?
उत्तर – आपातकाल (1975) के विविध प्रभाव
भारत में 25 जून 1975 को घोषित आपातकाल ने भारतीय लोकतंत्र, संवैधानिक व्यवस्थाओं, नागरिक अधिकारों और मीडिया की स्वतंत्रता पर गहरा प्रभाव डाला। इंदिरा गांधी सरकार द्वारा लिए गए इस निर्णय ने भारत के राजनीतिक, सामाजिक और संवैधानिक ढांचे को झकझोर कर रख दिया। इस समय के प्रभावों को विभिन्न बिंदुओं में इस प्रकार समझा जा सकता है:
(i) राजनीतिक वातावरण पर प्रभाव
आपातकाल लागू होते ही देश की राजनीतिक गतिविधियाँ लगभग ठप हो गईं। विरोध-प्रदर्शन, हड़तालें और आंदोलन पूरी तरह रोक दिए गए। प्रमुख विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर जेलों में डाल दिया गया, जिससे राजनीतिक माहौल में एक गहरा सन्नाटा और भय व्याप्त हो गया। लोकतंत्र की आवाज़ को दबा दिया गया और सत्ता की आलोचना करना लगभग असंभव हो गया।
(ii) प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रभाव
आपातकाल के तहत प्रेस पर सख्त सेंसरशिप थोप दी गई। सभी समाचार पत्रों को निर्देश दिया गया कि कोई भी समाचार छापने से पहले सरकारी अनुमति लेना आवश्यक होगा। इस व्यवस्था को “प्रेस सेंसरशिप” कहा गया। परिणामस्वरूप, पत्रकारिता की स्वतंत्रता समाप्त हो गई और मीडिया सरकार का प्रवक्ता मात्र बनकर रह गया।
(iii) RSS और जमात-ए-इस्लामी पर प्रभाव
सरकार ने सामाजिक और साम्प्रदायिक अशांति की आशंका का हवाला देते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया। इनके हजारों कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। धरना, प्रदर्शन, रैली, या किसी भी प्रकार की सार्वजनिक सभा की अनुमति नहीं थी।
(iv) मौलिक अधिकारों का हनन
आपातकाल का सबसे गंभीर प्रभाव नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर पड़ा। सरकार ने इन अधिकारों को निष्क्रिय कर दिया। यहाँ तक कि नागरिकों को अपने अधिकारों की बहाली के लिए अदालत में याचिका दायर करने का भी अधिकार नहीं था। निवारक नजरबंदी के अंतर्गत लोगों को केवल इस आशंका पर गिरफ्तार किया गया कि वे भविष्य में कोई अपराध कर सकते हैं, चाहे उन्होंने कोई अपराध किया भी न हो।
(v) न्यायालयों की भूमिका और संवैधानिक उपचार का हनन
गिरफ्तार लोगों ने बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस) याचिकाओं के माध्यम से अपनी गिरफ्तारी को अदालतों में चुनौती दी। कई उच्च न्यायालयों ने नागरिकों के पक्ष में निर्णय दिए। लेकिन अप्रैल 1976 में सुप्रीम कोर्ट ने एक विवादास्पद निर्णय में सरकार का पक्ष लेते हुए कहा कि आपातकाल के दौरान नागरिकों को जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार नहीं रह जाता। यह निर्णय भारतीय न्यायपालिका के इतिहास का एक काला अध्याय माना जाता है।
(vi) प्रतिरोध, प्रेस और लेखकों की प्रतिक्रिया
कुछ राजनीतिक कार्यकर्ता गिरफ्तारी से बचकर भूमिगत आंदोलन चलाते रहे।
‘इंडियन एक्सप्रेस’ और ‘स्टेट्समैन’ जैसे अखबारों ने सेंसरशिप का विरोध करते हुए खाली कॉलम छापे।
‘सेमिनार’ और ‘मेनस्ट्रीम’ जैसी पत्रिकाओं ने सेंसरशिप के विरोध में अपना प्रकाशन बंद कर दिया।
प्रसिद्ध लेखक शिवराम कारंत (पद्मभूषण) और फणीश्वरनाथ रेणु (पद्मश्री) ने लोकतंत्र के दमन के विरोध में अपने सम्मान लौटा दिए।
हालांकि प्रतिरोध के स्वर थे, लेकिन इनकी संख्या सीमित थी और जनता का बड़ा हिस्सा दमन के कारण चुप था।
(vii) संसद और संविधान में संशोधन (42वाँ संशोधन)
इंदिरा गांधी के निर्वाचन को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा रद्द करने के बाद संसद ने संविधान में संशोधन कर प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के निर्वाचन को अदालत में चुनौती देने से रोक दिया।
42वें संविधान संशोधन (1976) के माध्यम से संविधान के अनेक प्रावधानों में व्यापक परिवर्तन किए गए। इसमें संसद और विधानसभा के कार्यकाल को 5 से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दिया गया था। यह संशोधन सत्ता के केंद्रीकरण की दिशा में एक बड़ा कदम था और इसे “मिनी संविधान” भी कहा गया।
निष्कर्ष
1975-77 का आपातकाल भारतीय लोकतंत्र का एक अत्यंत संवेदनशील और शिक्षाप्रद कालखंड रहा है। इसने यह स्पष्ट किया कि यदि लोकतांत्रिक संस्थाएं सजग न रहें तो संविधानिक अधिकारों और स्वतंत्रता को क्षण भर में नष्ट किया जा सकता है। यह घटना न केवल भारत के इतिहास में एक चेतावनी है, बल्कि भविष्य के लिए भी एक सबक है कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए जनता, प्रेस, न्यायपालिका और अन्य संस्थाओं को सजग, स्वतंत्र और सशक्त रहना चाहिए।
Q.43. निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए : (क) भारत की परमाणु नीति । (ख) विदेश नीति के मामलों में सर्व-सहमति
उत्तर – (क) भारत की परमाणु नीति
भारत की परमाणु नीति का मूल आधार शांति, आत्मनिर्भरता और आत्मरक्षा पर आधारित है। इस नीति की नींव भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने रखी थी, जो विश्व शांति के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने परमाणु ऊर्जा को युद्ध के साधन के रूप में प्रयोग करने का विरोध किया और इसे केवल विकास और शांति के लिए उपयोग करने की वकालत की।
मुख्य बिंदु:
शांतिपूर्ण उपयोग की प्राथमिकता: भारत ने परमाणु ऊर्जा के उपयोग को केवल शांति एवं वैज्ञानिक विकास के क्षेत्र तक सीमित रखने की प्रतिबद्धता जताई।
डॉ. होमी जहांगीर भाभा की भूमिका: डॉ. भाभा को भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम का वास्तुकार माना जाता है। उन्होंने शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु अनुसंधान को आगे बढ़ाया।
1974 का पहला परमाणु परीक्षण: भारत ने पोखरण (राजस्थान) में अपना पहला परमाणु परीक्षण सफलतापूर्वक किया। इस परीक्षण को “स्माइलिंग बुद्धा” के नाम से जाना गया। हालांकि, इससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत को आलोचना का सामना करना पड़ा।
सी.टी.बी.टी. (CTBT) पर भारत का रुख: भारत ने 1996 में व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (Comprehensive Test Ban Treaty – CTBT) पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया क्योंकि भारत के अनुसार यह संधि पक्षपातपूर्ण थी और परमाणु शक्ति संपन्न देशों को विशेषाधिकार देती थी।
1998 के परीक्षण: भारत ने मई 1998 में पोखरण में फिर पाँच और परमाणु परीक्षण किए। इसके बाद भारत ने स्पष्ट कर दिया कि उसका उद्देश्य आत्मरक्षा हेतु परमाणु क्षमता बनाए रखना है, लेकिन उसका मुख्य दृष्टिकोण अब भी शांतिपूर्ण प्रयोग और ‘नो फर्स्ट यूज़’ (पहले प्रयोग न करने) की नीति पर आधारित है।
वर्तमान नीति: भारत की परमाणु नीति यह स्पष्ट करती है कि भारत किसी देश पर पहले परमाणु हमला नहीं करेगा, लेकिन यदि उस पर हमला होता है तो वह माकूल जवाब देने की क्षमता रखता है।
(ख) विदेश नीति के मामले पर सर्वसहमति
भारत की विदेश नीति की एक प्रमुख विशेषता यह रही है कि इसके मूल सिद्धांतों को लेकर सरकार और विपक्ष दोनों में आम सहमति रही है। यह सर्वसम्मति भारत की विदेश नीति को स्थायित्व और विश्वसनीयता प्रदान करती है।
मुख्य बिंदु:
विदेश नीति के मूल तत्वों पर सहमति: पंचशील, गुट निरपेक्षता, पड़ोसी देशों के साथ शांतिपूर्ण संबंध और प्रमुख शक्तियों के साथ संतुलित संबंध जैसे बिंदुओं पर सरकार और विरोधी दलों में व्यापक सहमति रही है।
परमाणु नीति पर भी एकता: परमाणु शक्ति के उपयोग और परीक्षणों के संबंध में भी विभिन्न राजनीतिक दलों ने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दी और एकजुट होकर फैसले लिए।
नीति में परिवर्तन पर आम राय: जब विदेश नीति में कोई बदलाव आवश्यक हुआ, तब भी पहले सभी पक्षों से चर्चा कर सर्वसम्मति बनाने की परंपरा रही है।
लोकमत का समर्थन: विदेश नीति के मुख्य मुद्दों पर केवल राजनीतिक दलों में ही नहीं, बल्कि जनमत निर्माण करने वाले वर्गों जैसे मीडिया, बुद्धिजीवी, कूटनीतिज्ञ और नागरिक समाज में भी एकरूपता देखी गई है।
निष्कर्ष:
भारत की परमाणु नीति और विदेश नीति दोनों में संतुलन, जिम्मेदारी और राष्ट्रीय हित को प्राथमिकता दी गई है। शांतिपूर्ण परमाणु उपयोग और आत्मरक्षा की नीति भारत की नैतिक प्रतिबद्धताओं को दर्शाती है। साथ ही, विदेश नीति पर बनी सर्वदलीय सहमति भारत के लोकतांत्रिक ढांचे की मजबूती और परिपक्वता का प्रतीक है।
Q.44. भारत की विदेश नीति का निर्माण और शांति और सहयोग के सिद्धांतों को आधार मानकर हुआ। लेकिन, 1962-1972 की अवधि यानी महज दस सालों में भारत को तीन युद्धों का सामना करना पड़ा, क्या आपको लगता है कि यह भारत की विदेश नीति की असफलता है अथवा आप इसे अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का परिणाम मानेंगे ? अपने मंतव्य के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर – भारत की विदेश नीति: आदर्शवाद बनाम यथार्थवाद
भारत की विदेश नीति का आधार शांति, सहयोग और विकास रहा है। आज़ादी के बाद भारत ने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर नैतिक मूल्यों और आदर्शों को प्राथमिकता दी, जिसका नेतृत्व पंडित नेहरू ने किया। लेकिन समय-समय पर हुई घटनाओं से यह स्पष्ट हुआ कि केवल आदर्शों पर आधारित नीति हमेशा व्यावहारिक नहीं होती।
1. 1962 का चीन-भारत युद्ध: विदेश नीति की असफलता
भारत ने पंचशील और “हिंदी-चीनी भाई-भाई” जैसे नारों पर विश्वास करते हुए चीन के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों की कल्पना की थी। परंतु 1962 में चीन ने अचानक आक्रमण कर दिया और यह सिद्ध हो गया कि हमारी विदेश नीति में कूटनीतिक यथार्थ का अभाव था। यदि भारत ने कूटनीतिक चतुराई दिखाते हुए किसी परमाणु शक्ति के साथ गुप्त रक्षा समझौता किया होता, तो शायद इस हमले का उत्तर अधिक सशक्त रूप से दिया जा सकता था। यह घटना बताती है कि केवल नैतिकता और छवि के भरोसे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति नहीं चलती। राष्ट्रहित को प्राथमिकता देना ही विदेश नीति की सफलता की कुंजी होती है।
2. 1965 का भारत-पाक युद्ध: मजबूत नेतृत्व की मिसाल
1965 में पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया, लेकिन उस समय लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व में भारत ने न केवल सैन्य रूप से बल्कि कूटनीतिक रूप से भी सशक्त प्रतिक्रिया दी। उनकी “जय जवान, जय किसान” नीति ने भारत को आंतरिक और बाह्य मोर्चे पर मजबूत बनाया। यह विदेश नीति के यथार्थवादी रुख की मिसाल है, जहां आदर्शों के साथ-साथ व्यावहारिक निर्णय भी लिए गए।
3. 1971 का बांग्लादेश युद्ध: सफल कूटनीति का प्रतीक
1971 में बांग्लादेश की स्वतंत्रता के लिए भारत ने निर्णायक भूमिका निभाई। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक दूरदर्शी कूटनीतिज्ञ की तरह कार्य किया। पाकिस्तान की आक्रामकता का मुंहतोड़ जवाब देते हुए उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि “आदर्शवादी नारों” की सीमा होती है, और समय आने पर यथार्थवादी निर्णय लेने पड़ते हैं। इस युद्ध में भारत की रणनीति, सैन्य ताकत और कूटनीति का संगम दिखा, जिससे न केवल एक नया राष्ट्र अस्तित्व में आया, बल्कि भारत की विदेश नीति की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा भी बढ़ी।
4. विदेश नीति: आदर्श और यथार्थ का संतुलन आवश्यक
तीनों घटनाएं स्पष्ट करती हैं कि:
राजनीति में कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता, केवल राष्ट्रहित स्थायी होता है।
विदेश नीति में आदर्श और नैतिकता महत्वपूर्ण हैं, लेकिन यथार्थवादी दृष्टिकोण और दूरदर्शिता अनिवार्य है।
भारत को अपनी सामरिक क्षमता, आर्थिक शक्ति और कूटनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल करके अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बराबरी से बात करनी चाहिए।
परमाणु शक्ति से संपन्न भारत का लक्ष्य संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता और वैश्विक सम्मान प्राप्त करना है।
हमें आत्मरक्षा के लिए पूरी तरह तैयार रहना चाहिए, लेकिन साथ ही अंतरराष्ट्रीय शांति, सहयोग और भाईचारे को बनाए रखने के लिए भी प्रयासरत रहना चाहिए।
निष्कर्ष
भारत की विदेश नीति को संतुलन की नीति कहा जा सकता है – जहाँ एक ओर गुटनिरपेक्षता, शांति और आदर्शवाद है, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय सुरक्षा, रणनीतिक हित और यथार्थवादी निर्णय भी हैं। भारत को अपनी विदेश नीति में इसी संतुलन को बनाए रखना चाहिए ताकि वह विश्व पटल पर एक मजबूत, जिम्मेदार और सम्मानित राष्ट्र के रूप में स्थापित हो सके।
Q.45. क्या भारत की विदेश नीति से यह झलकता है कि भारत क्षेत्रीय स्तर की महाशक्ति बनना चाहता है ? 1971 के बांग्लादेश युद्ध के सन्दर्भ में इस प्रश्न पर विचार करें।
उत्तर – भारत की विदेश नीति: शक्ति नहीं, शांति का मार्ग
भारत की विदेश नीति का मूल आधार शांति, सहयोग, गुटनिरपेक्षता, और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व रहा है। भारत ने कभी भी क्षेत्रीय या वैश्विक स्तर पर सैन्य वर्चस्व या आक्रामक शक्ति बनने की आकांक्षा नहीं जताई। इसके विपरीत, भारत ने अपने पड़ोसी देशों के साथ मित्रवत संबंध बनाए रखने की सदैव कोशिश की है।
बांग्लादेश का निर्माण: भारत की दूरदर्शिता, न कि विस्तारवाद
1971 में बांग्लादेश का निर्माण भारत की क्षेत्रीय शक्ति बनने की चाह का परिणाम नहीं था। यह घटना पाकिस्तान की आंतरिक विफलताओं, पूर्वी पाकिस्तान की उपेक्षा, और बंगाली जनता के आत्मसम्मान और सांस्कृतिक स्वाभिमान की लड़ाई का नतीजा थी। भारत ने मानवीय और नैतिक आधार पर शरणार्थियों की सहायता की, बांग्लादेश की जनता के संघर्ष का समर्थन किया और अंततः एक निर्णायक युद्ध में हस्तक्षेप कर मानवता की रक्षा की। भारत ने बांग्लादेश पर न कभी आक्रमण किया, न ही उसकी संप्रभुता को चुनौती दी। इसके विपरीत, बांग्लादेश के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखे, जो आज भी कायम हैं।
भारत की विदेश नीति की मूल विशेषताएँ
शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व: भारत सदैव पंचशील सिद्धांत – एक-दूसरे की संप्रभुता का सम्मान, आक्रामकता का त्याग, समानता और पारस्परिक लाभ – में विश्वास करता आया है।
गुटनिरपेक्षता: शीतयुद्ध के समय भारत ने न तो अमेरिका का साथ लिया, न ही सोवियत संघ का। उसने स्वतंत्र और निष्पक्ष नीति अपनाई।
निशस्त्रीकरण और परमाणु नीति: भारत ने विश्व को निशस्त्रीकरण की ओर प्रेरित किया। उसने स्पष्ट किया कि उसकी परमाणु नीति ‘पहले प्रयोग नहीं’ (No First Use) के सिद्धांत पर आधारित है।
सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण: भारत की नीति महावीर स्वामी के सिद्धांत ‘जियो और जीने दो’ पर आधारित है, जो अहिंसा और सह-अस्तित्व का प्रतीक है।
आज का भारत: सशक्त, लेकिन संयमित
चीन और पाकिस्तान जैसे देश अब मानते हैं कि भारत अब 1962 का भारत नहीं है। उसकी सैन्य शक्ति, तकनीकी विकास, रणनीतिक समझ और अंतरराष्ट्रीय प्रभाव बढ़ चुका है।
भारत की बढ़ती ताकत उसके प्राकृतिक संसाधनों, जनशक्ति, आत्मनिर्भरता, और नैतिक विदेश नीति का परिणाम है, न कि साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा का।
वीरता और नीति का संगम
भारत कभी भी कायरता का पर्याय नहीं रहा। यह देश वीरों और वीरांगनाओं की भूमि है। राजस्थान के राणा प्रताप, मराठों के शिवाजी, 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आज तक का इतिहास इस बात की गवाही देता है कि भारत ने हमेशा सम्मानपूर्वक जीने, साहसपूर्वक लड़ने, और शांति से दुनिया का मार्गदर्शन करने में विश्वास रखा है।
निष्कर्ष
भारत की विदेश नीति का लक्ष्य क्षेत्रीय वर्चस्व नहीं, बल्कि विश्व शांति, समानता, और सहयोग है। भारत न किसी पर हमला करता है, न किसी की स्वतंत्रता छीनना चाहता है। उसकी शक्ति उसकी संयमित नीति, आंतरिक स्थिरता, और नैतिक मूल्यों में है। आज का भारत यह भलीभांति जानता है कि सच्ची महाशक्ति वह नहीं जो दूसरों को झुकाए, बल्कि वह जो सबको साथ लेकर चले।
Q.46. किसी राष्ट्र का राजनीतिक नेतृत्व किस तरह राष्ट्र की विदेश नीति पर असर डालता है ? भारत की विदेश नीति के उदाहरण देते हुए इस प्रश्न पर विचार कीजिए।
उत्तर – राजनैतिक नेतृत्व और भारत की विदेश नीति
भारत की विदेश नीति के मूल सिद्धांत जैसे गुटनिरपेक्षता, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, सार्वभौमिकता का सम्मान और विश्व शांति के प्रति प्रतिबद्धता स्थायी रहे हैं। लेकिन समय-समय पर विभिन्न प्रधानमंत्रियों और सरकारों के नेतृत्व में इन सिद्धांतों की व्याख्या और अनुप्रयोग में विविधता रही है।
1. पं. जवाहरलाल नेहरू (1947–1964): आदर्शवादी विदेश नीति के शिल्पकार
गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) के संस्थापक नेताओं में से एक।
भारत को दो ध्रुवीय (अमेरिका-सोवियत) विश्व में निष्पक्ष बनाए रखा।
पंचशील सिद्धांतों की नींव रखी।
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर शांति, सह-अस्तित्व, उपनिवेशवाद-विरोध और परमाणु निशस्त्रीकरण के पक्षधर रहे।
“भारत की विदेश नीति नैतिक मूल्यों पर आधारित होनी चाहिए” – नेहरू का मूल संदेश था।
2. लाल बहादुर शास्त्री (1964–1966): यथार्थवादी नेतृत्व का परिचायक
1965 के भारत-पाक युद्ध में भारत ने सफल प्रतिरोध किया।
‘जय जवान, जय किसान’ का नारा देकर राष्ट्रीय स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता को बल दिया।
ताशकंद समझौता कर कूटनीति से युद्ध का शांतिपूर्ण समाधान निकाला, फिर भी गुटनिरपेक्ष नीति को जारी रखा।
नेहरू की नीति को संतुलित करते हुए, आत्मरक्षा और यथार्थवाद का संगम प्रस्तुत किया।
3. इंदिरा गांधी (1966–1977, 1980–1984): निर्णायक और शक्तिशाली विदेश नीति की पक्षधर
1971 में बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में निर्णायक भूमिका।
सोवियत संघ से 20 वर्षीय मैत्री संधि (1971) से भारत को कूटनीतिक बल मिला।
परमाणु परीक्षण (1974) कर भारत को विश्व में रणनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित किया।
देशी रियासतों के प्रिवीपर्स समाप्त, बैंकों का राष्ट्रीयकरण जैसे आंतरिक कदम भी विदेशी दृष्टिकोण से संदेशवाहक बने।
इंदिरा गांधी ने भारत की विदेश नीति को शक्ति और आत्मनिर्भरता के साथ जोड़ा।
4. राजीव गांधी (1984–1989): तकनीकी युग की विदेश नीति
तकनीक, दूरसंचार और वैश्वीकरण की दिशा में प्रयास।
श्रीलंका में IPKF (Indian Peace Keeping Force) भेजकर पड़ोसी देशों की अखंडता का सम्मान किया।
चीन, पाकिस्तान सहित कई देशों से संबंधों में सुधार की कोशिशें कीं।
उनकी विदेश नीति आधुनिक भारत की नींव थी – तकनीक, सहयोग और कूटनीति।
5. अटल बिहारी वाजपेयी (1998–2004): रणनीतिक संतुलन और राष्ट्रहित की स्पष्टता
पोखरण-2 (1998) के परमाणु परीक्षण से भारत को औपचारिक रूप से परमाणु शक्ति घोषित किया।
‘जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान‘ का नारा देकर विज्ञान और तकनीक को विदेश नीति से जोड़ा।
लाहौर बस सेवा और अगरा सम्मेलन के माध्यम से पाकिस्तान से संबंध सुधारने का प्रयास, परंतु कारगिल युद्ध में सख्त जवाब।
अमेरिका, रूस, चीन और यूरोपीय देशों से व्यापारिक और कूटनीतिक संबंधों का विस्तार।
वाजपेयी की नीति व्यावहारिक, प्रभावी और संतुलित मानी जाती है – राष्ट्रवाद और विश्वबोध का अद्भुत समन्वय।
6. समकालीन एन.डी.ए./बी.जे.पी. सरकारें: राष्ट्रहित सर्वोपरि
विदेश नीति का आधार राष्ट्रहित है, न कि कोई धार्मिक या वैचारिक पूर्वग्रह।
वैश्वीकरण, आतंकवाद-विरोध, व्यापारिक समझौते, रक्षा संधियाँ – सभी क्षेत्रों में भारत की भूमिका मजबूत।
चीन, अमेरिका, रूस, यूरोप, पड़ोसी देशों के साथ संवाद और सहयोग के माध्यम से भारत को वैश्विक मंच पर सक्रिय रूप से प्रस्तुत किया गया।
निष्कर्ष:
भारत की विदेश नीति का मूल स्वरूप स्थायी है, लेकिन हर प्रधानमंत्री ने अपने युग की ज़रूरतों के अनुसार उसमें दिशा और स्वर जोड़ा।
नेहरू ने उसे आदर्शवाद दिया,
शास्त्री ने आत्मसम्मान,
इंदिरा ने शक्ति,
राजीव ने तकनीक और आधुनिकता,
वाजपेयी ने विज्ञान, राष्ट्रवाद और कूटनीति,
और समकालीन नेतृत्व ने वैश्वीकरण और सुरक्षा के साथ उसे आगे बढ़ाया।
👉 इसलिए यह कहा जा सकता है कि भारत की विदेश नीति भले ही सिद्धांतों पर आधारित हो, लेकिन उसकी गति, दिशा और प्रभाव राजनैतिक नेतृत्व पर निर्भर करता है।
Q.47. यूरोपीय संघ की सैनिक ताकत का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर – यूरोपीय संघ की सैनिक ताकत का मूल्यांकन
यूरोपीय संघ (EU) केवल एक आर्थिक और राजनीतिक संगठन नहीं है, बल्कि यह विश्व की एक प्रभावशाली सामरिक शक्ति भी बन चुका है। यद्यपि इसकी कोई संयुक्त सेना नहीं है, फिर भी इसके सदस्य देशों की सामूहिक सैनिक क्षमता अत्यंत मजबूत और उन्नत मानी जाती है।
(i) विश्व की एक बड़ी सामूहिक सैन्य शक्ति
यूरोपीय संघ के अधिकांश सदस्य नाटो (NATO) के सदस्य हैं, जो कि विश्व का सबसे शक्तिशाली सैन्य गठबंधन है। यदि सभी सदस्य देशों की सेनाओं को सामूहिक रूप से देखा जाए, तो यह विश्व की सबसे बड़ी संगठित सैनिक शक्ति बनती है।
EU के पास लगभग 18 लाख से अधिक सक्रिय सैनिक हैं।
इसमें जर्मनी, फ्रांस, इटली, पोलैंड जैसे देशों की शक्तिशाली सेनाएँ शामिल हैं।
(ii) रक्षा बजट – अमेरिका के बाद दूसरा स्थान
यूरोपीय संघ का सामूहिक रक्षा बजट लगभग 230–250 अरब यूरो (2024) के आसपास है।
यह संयुक्त रूप से अमेरिका के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा रक्षा खर्च है।
फ्रांस, जर्मनी और इटली प्रमुख रक्षा खर्च करने वाले EU देश हैं।
(iii) परमाणु हथियारों से सुसज्जित
फ्रांस और ब्रिटेन यूरोपीय संघ के दो ऐसे देश रहे हैं (ब्रिटेन अब EU से अलग हो चुका है लेकिन ऐतिहासिक संदर्भ में उल्लेखनीय है) जिनके पास परमाणु हथियार हैं।
अनुमानतः इनके पास 550 से अधिक परमाणु बम हैं।
फ्रांस अब EU में एकमात्र परमाणु शक्ति है, और वह अपनी स्वतंत्र परमाणु नीति पर कार्य करता है।
(iv) अंतरिक्ष और संचार प्रौद्योगिकी में अग्रणी
यूरोपीय संघ का ESA (European Space Agency) विश्व की अग्रणी अंतरिक्ष एजेंसियों में से एक है।
संचार, सैटेलाइट तकनीक, और साइबर सुरक्षा के क्षेत्र में EU अत्यंत विकसित है।
Galileo Project जैसे उपग्रह-नेविगेशन सिस्टम में भी EU की अग्रणी भूमिका है।
निष्कर्ष:
यूरोपीय संघ की सामूहिक सैन्य क्षमता अत्यंत प्रभावशाली है।
यह अमेरिका के बाद विश्व की दूसरी सबसे बड़ी सामरिक और तकनीकी शक्ति है।
इसके पास परमाणु हथियार, अत्याधुनिक तकनीक, विकसित रक्षा बजट, और नाटो जैसे सामूहिक सुरक्षा संगठन की सदस्यता है, जो इसे एक प्रभावी वैश्विक शक्ति बनाती है।
👉 हालांकि यूरोपीय संघ की संयुक्त सेना अभी तक औपचारिक रूप से अस्तित्व में नहीं है, लेकिन सदस्य देशों की एकता और समन्वय इसे एक जबरदस्त सामरिक गठबंधन बनाता है।
Q.48. यूरोपीय संघ के सदस्य राष्ट्रों में किन बातों को लेकर मतभेद है ?
उत्तर – यूरोपीय संघ के सदस्य राष्ट्रों में मतभेद
यूरोपीय संघ (European Union) एक अधिराष्ट्रीय संगठन है जो आर्थिक, सामाजिक, और राजनीतिक मामलों में सदस्य देशों के बीच एकता और सहयोग को बढ़ावा देने का प्रयास करता है। परंतु व्यवहार में इसके सदस्य राष्ट्रों के बीच वैचारिक, आर्थिक और रणनीतिक मतभेद अक्सर सामने आते हैं। ये मतभेद यूरोपीय संघ की संयुक्त विदेश और रक्षा नीति को लागू करने में कई बार बाधक बनते हैं।
(i) विदेश और रक्षा नीति में स्वतंत्रता और टकराव
यूरोपीय संघ का उद्देश्य एक साझी विदेश और सुरक्षा नीति विकसित करना है, लेकिन अधिकांश सदस्य देश अपनी स्वतंत्र नीति पर कायम रहते हैं।
कई बार उनकी विदेश नीति एक-दूसरे के खिलाफ होती है, जिससे संघ के निर्णयों में एकरूपता नहीं रह पाती।
(ii) इराक युद्ध (2003) पर मतभेद
अमेरिका द्वारा इराक पर किए गए हमले में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने अमेरिका का समर्थन किया।
वहीं जर्मनी और फ्रांस इस युद्ध के खिलाफ थे और उन्होंने इसका विरोध किया।
यह मतभेद यूरोपीय संघ की साझा विदेश नीति के कमजोर होने का प्रतीक बना।
(iii) नए सदस्य देशों की अमेरिकी झुकाव वाली नीति
यूरोपीय संघ में शामिल हुए पूर्वी यूरोप के कई नए सदस्य देश जैसे पोलैंड, हंगरी, चेक गणराज्य आदि ने इराक युद्ध में अमेरिका का समर्थन किया।
इससे पुराने और नए सदस्य देशों के बीच नीति विभाजन और गहरा हो गया।
(iv) साझा मुद्रा यूरो को लेकर असहमति
यूरोपीय संघ ने “यूरो” को एक साझा मुद्रा के रूप में अपनाया है, लेकिन सभी सदस्य देशों ने इसे स्वीकार नहीं किया।
ब्रिटेन ने यूरो को अपनाने से साफ इनकार किया। पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ने इसे ब्रिटेन की आर्थिक स्वतंत्रता के विरुद्ध माना।
(v) मास्ट्रिख्ट संधि और मुद्रा एकीकरण पर विरोध
डेनमार्क और स्वीडन जैसे देशों ने मास्ट्रिख्ट संधि के तहत यूरो को अपनाने और यूरोपीय संघ की गहरी आर्थिक एकीकरण योजना का प्रतिरोध किया।
इससे यूरोपीय संघ की आर्थिक और राजनीतिक एकता की योजना बाधित हुई।
निष्कर्ष:
यूरोपीय संघ एक अद्वितीय क्षेत्रीय संगठन है जो एकता की भावना पर टिका है, लेकिन उसके सदस्य देशों के बीच मतभेद उसकी कार्यक्षमता को सीमित कर देते हैं।
विदेश नीति, रक्षा नीति और आर्थिक मामलों में यह मतभेद कई बार संघ के साझा निर्णयों को प्रभावित करते हैं।
यदि यूरोपीय संघ को एक प्रभावशाली वैश्विक शक्ति बनना है, तो उसे भीतर की नीति असमानताओं को सुलझाना होगा और साझा दृष्टिकोण विकसित करना होगा।
Q. 49. आसियान की स्थापना कैसे हुई ? इसके क्या उद्देश्य थे ?
उत्तर – ✅ आसियान (ASEAN) की स्थापना और इसके उद्देश्य
🌏 स्थापना:
आसियान (ASEAN) का पूरा नाम है — Association of Southeast Asian Nations (दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों का संगठन)।
इसकी स्थापना 8 अगस्त 1967 को हुई थी।
पांच संस्थापक देशों — इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर और थाईलैंड — ने “बैंकॉक घोषणा” पर हस्ताक्षर कर इसकी नींव रखी।
🎯 मुख्य उद्देश्य:
(i) आर्थिक विकास को गति देना
संगठन का प्राथमिक उद्देश्य दक्षिण-पूर्व एशिया में आर्थिक वृद्धि, सामाजिक प्रगति और सांस्कृतिक विकास को बढ़ावा देना था।
(ii) क्षेत्रीय शांति और स्थायित्व
कानून के शासन और संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों के आधार पर क्षेत्रीय शांति, स्थायित्व और आपसी सहयोग को बढ़ावा देना आसियान का एक अन्य प्रमुख लक्ष्य था।
(iii) अनौपचारिक और सहयोगात्मक संबंध
आसियान की विशेषता यह रही कि इसने सदस्य देशों के बीच टकराव से रहित, अनौपचारिक, संवादपूर्ण और सहयोगात्मक संबंधों पर बल दिया।
(iv) अधिराष्ट्रीय संगठन बनने की मंशा नहीं
यूरोपीय संघ (EU) की तरह कोई अधिराष्ट्रीय संस्था बनने का इसका इरादा नहीं था।
प्रत्येक देश की राष्ट्रीय संप्रभुता और स्वतंत्र नीति का सम्मान किया गया।
(v) राष्ट्रीय सार्वभौमिकता का सम्मान
आसियान का एक प्रमुख सिद्धांत है कि हर देश की स्वतंत्रता, संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और राष्ट्रीय पहचान का सम्मान किया जाए।
📌 निष्कर्ष:
आसियान की स्थापना का उद्देश्य एक ऐसा क्षेत्रीय मंच बनाना था जो राजनीतिक व कूटनीतिक टकराव से दूर रहकर:
आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास को बढ़ावा दे,
क्षेत्रीय शांति और स्थायित्व बनाए रखे,
और राष्ट्रीय संप्रभुता को प्राथमिकता देते हुए सहयोग पर आधारित संगठन का उदाहरण प्रस्तुत करे।
Q.50. 1970 में चीन ने क्या-क्या आर्थिक सुधार किये ?
उत्तर – 📈 1970 के दशक में चीन के आर्थिक सुधार
🔹 भूमिका:
1970 के दशक की शुरुआत में चीन की आर्थिक स्थिति अत्यंत जर्जर हो चुकी थी।
माओ के “सांस्कृतिक क्रांति” और “महान跃进” (Great Leap Forward) जैसे प्रयोग विफल हो गए थे, जिससे कृषि, उद्योग और शिक्षा क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुए।
चीन को आर्थिक पतन से उबारने और आधुनिक राष्ट्र के रूप में खड़ा करने के लिए व्यापक सुधारों की आवश्यकता थी।
✅ मुख्य आर्थिक सुधार:
(i) संकटपूर्ण आर्थिक स्थिति में नीतिगत परिवर्तन
चीन ने यह महसूस किया कि आर्थिक विकास के लिए नीतिगत लचीलापन जरूरी है।
कठोर समाजवादी नियंत्रणों को ढीला किया गया और नई रणनीति अपनाई गई।
(ii) 1972 – अमेरिका से संबंधों की शुरुआत
राष्ट्रपति निक्सन की चीन यात्रा (1972) के साथ अमेरिका और चीन के संबंधों की शुरुआत हुई।
चीन ने अपनी अंतरराष्ट्रीय अलगाव की नीति को त्याग दिया, जिससे व्यापार और कूटनीतिक द्वार खुले।
(iii) 1973 – चार आधुनिकीकरण का प्रस्ताव
प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने चार क्षेत्रों —
कृषि, उद्योग, सेना और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी — में आधुनिकीकरण की योजना रखी।यह चीन की आर्थिक पुनर्रचना का आधार बना।
(iv) 1978 – देंग श्याओपेंग द्वारा आर्थिक सुधारों की शुरुआत
देंग श्याओपेंग ने “खुले द्वार की नीति” (Open Door Policy) और “समाजवादी बाज़ार अर्थव्यवस्था” की शुरुआत की।
उनका नारा था: “कोई फर्क नहीं पड़ता बिल्ली काली है या सफेद, जब तक वह चूहे पकड़ती है”, जो व्यावहारिक सोच का प्रतीक था।
(v) विदेशी निवेश और तकनीक को प्रोत्साहन
चीन ने विदेशी पूँजी और प्रौद्योगिकी को आमंत्रित किया।
विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZs) बनाए गए जैसे शेन्ज़ेन, जहाँ व्यापार और निवेश को विशेष छूटें दी गईं।
(vi) निजीकरण और उदारीकरण की प्रक्रिया
1982 में खेती का निजीकरण किया गया — किसानों को “घरेलू जिम्मेदारी प्रणाली” के तहत उत्पादन व बिक्री की छूट मिली।
1998 में उद्योगों को भी निजीकरण की दिशा में मोड़ा गया, जिससे बाजार तंत्र को बल मिला।
व्यापारिक अवरोधों को क्रमशः समाप्त किया गया।
🧾 निष्कर्ष:
चीन के 1970 के दशक में शुरू हुए आर्थिक सुधारों ने देश की बंद समाजवादी अर्थव्यवस्था को वैश्विक बाज़ार से जोड़ दिया।
देंग श्याओपेंग की व्यावहारिक सोच,
चार आधुनिकीकरण का कार्यक्रम,
तथा विदेशी निवेश और निजीकरण ने चीन को विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में बदलने की नींव रखी।

SANTU KUMAR
I am a passionate Teacher of Class 8th to 12th and cover all the Subjects of JAC and Bihar Board. I love creating content that helps all the Students. Follow me for more insights and knowledge.
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