Q.21. संक्षेप में गैर-सरकारी संगठनों की मजदूर कल्याण स्वास्थ शिक्षा नागरिक अधिकार, नारी उत्पीड़न तथा पर्यावरण से संबंधित उनके पहलुओं की भूमिका का उल्लेख कीजिए।
उत्तर – भारत में गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका और योगदान
मानवाधिकार संरक्षण
NGOs ने मानव जाति के अधिकारों की रक्षा के लिए काम किया है। ये संगठन विभिन्न देशों में सक्रिय हैं और सरकारों को मानव अधिकारों के उल्लंघन से बचाने में मदद करते हैं।पर्यावरण संरक्षण (वृक्षारोपण)
पर्यावरण संरक्षण के लिए वृक्षारोपण और जागरूकता अभियानों में NGOs ने सहयोग दिया है। इससे पर्यावरण की स्थिति सुधारने में मदद मिली है।मजदूरों का प्रशिक्षण एवं रोजगार
रोजगारोन्मुख योजनाएं चलाकर मजदूरों को कौशल प्रशिक्षण प्रदान किया गया है, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति सुधरी और वे स्वावलंबी बने।स्वास्थ्य सेवाएं
टीकाकरण, दवाओं का वितरण, और बीमारियों की रोकथाम में NGOs ने सक्रिय भूमिका निभाई है, जिससे जनस्वास्थ्य में सुधार हुआ है।कृषि विकास
कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए सरकारों को सुझाव देकर खाद, बीज, और तकनीकी सहायता के वितरण में मदद की है, जिससे किसानों की उत्पादकता बढ़ी।शिक्षा का प्रसार
बच्चों को शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए शिक्षण कार्य, सामग्री वितरण और जागरूकता अभियान चलाए गए हैं, जिससे शिक्षा का स्तर बढ़ा है।
प्रमुख गैर-सरकारी संगठन (NGOs) के उदाहरण
अंतर्राष्ट्रीय चेंबर ऑफ कॉमर्स (ICC)
रेडक्रॉस सोसाइटी (Red Cross)
एमनेस्टी इंटरनेशनल (Amnesty International)
मानवाधिकार आयोग (Human Rights Commission)
ये संगठन विश्व स्तर पर कार्यरत हैं और विभिन्न देशों में सामाजिक कल्याण के लिए सक्रिय भूमिका निभाते हैं।
संक्षेप में, भारत में गैर-सरकारी संगठन समाज के विभिन्न तबकों की समस्याओं को समझकर उन्हें सुलझाने, विकास करने, और लोगों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
Q.22. अन्य पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए सरकार ने क्या कदम उठाए हैं ?
उत्तर – ✦ अनुच्छेद 340 और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए सरकारी प्रयास ✦
🔷 अनुच्छेद 340 का प्रावधान
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत केंद्र सरकार को यह अधिकार प्राप्त है कि वह अन्य पिछड़ी जातियों (OBC) की सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए एक आयोग नियुक्त कर सके और इस आधार पर उचित सिफारिशें प्राप्त कर सके।
🔷 OBC आयोगों का गठन और उनकी सिफारिशें
✅ 1. काका कालेलकर आयोग (1953)
अध्यक्ष: काका कालेलकर
प्रमुख कार्य:
देशभर में 2399 जातियों को पिछड़ी जातियों में शामिल किया गया।
सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने के उपाय सुझाए गए।
हालांकि, रिपोर्ट को सरकार द्वारा स्वीकार नहीं किया गया।
✅ 2. मंडल आयोग (1978)
अध्यक्ष: बी. पी. मंडल
उद्देश्य: सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान करना।
सिफारिशें:
कुल 3743 जातियों को OBC वर्ग में शामिल किया गया।
सरकारी नौकरियों और शिक्षा में 27% आरक्षण की सिफारिश की गई।
यह आरक्षण 1990 में लागू किया गया।
🔷 1998-99 से शुरू की गई OBC कल्याण योजनाएँ
सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग के सशक्तिकरण और सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने हेतु कई कल्याणकारी कार्यक्रम शुरू किए:
✅ परीक्षा पूर्व कोचिंग योजना
उन OBC विद्यार्थियों के लिए जो एक लाख रुपये से कम आय वाले परिवार से आते हैं।
प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए नि:शुल्क कोचिंग प्रदान की जाती है।
✅ OBC छात्रावास योजना
OBC वर्ग के लड़के-लड़कियों को रहने के लिए आवासीय सुविधा उपलब्ध कराना।
✅ प्री-मैट्रिक छात्रवृत्ति
कक्षा 1 से 10 तक पढ़ने वाले OBC छात्रों को आर्थिक सहायता देना।
✅ पोस्ट-मैट्रिक छात्रवृत्ति
कक्षा 11 से लेकर उच्च शिक्षा तक OBC छात्रों को छात्रवृत्ति प्रदान करना।
✅ स्वैच्छिक संगठनों को सहायता
जो संगठन OBC वर्ग के शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए कार्य करते हैं, उन्हें सरकारी अनुदान और सहयोग देना।
🔚 निष्कर्ष
अनुच्छेद 340 के अंतर्गत गठित आयोगों ने भारत में सामाजिक न्याय की नींव मजबूत की। मंडल आयोग की सिफारिशों और सरकारी योजनाओं के ज़रिए OBC समुदाय को शिक्षा, रोजगार और सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने में नई दिशा मिली। आज ये प्रयास देश के समावेशी विकास की बुनियाद हैं।
Q.23. भारत में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के लिए सरकार द्वारा चलाए जा रही विभिन्न योजनाओं का परीक्षण कीजिए।
उत्तर – ✦ भारत में अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) के लिए विशेष योजनाएँ ✦
भारत सरकार ने सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सशक्तिकरण और समावेशी विकास के लिए कई योजनाएँ चलाई हैं। इनका उद्देश्य शिक्षा, रोजगार, आर्थिक उन्नयन और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है।
🔷 (i) शिक्षा के क्षेत्र में सुविधाएँ
प्राथमिक से उच्च शिक्षा तक नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था की गई है।
विश्वविद्यालयों, विद्यालयों और व्यावसायिक संस्थानों में आरक्षित सीटें सुनिश्चित की गई हैं।
विशेष छात्रवृत्तियाँ, पुस्तक सहायता और गणवेश आदि की सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं।
🔷 (ii) छात्रावास एवं प्रशिक्षण योजनाएँ
तृतीय पंचवर्षीय योजना में अनुसूचित जाति/जनजाति की छात्राओं के लिए छात्रावास योजना प्रारंभ की गई।
नौकरियों में आरक्षण के साथ-साथ उन्हें रोजगार योग्य बनाने हेतु:
कौशल विकास कार्यक्रम
प्री-एंप्लॉयमेंट ट्रेनिंग सेंटर
निपुणता प्रशिक्षण योजनाएँ चलाई गईं।
🔷 (iii) व्यावसायिक एवं आर्थिक सशक्तिकरण
1987: भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास संघ (TRIFED) की स्थापना – जनजातीय उत्पादों के व्यापार को बढ़ावा देने हेतु।
1992-93: जनजातीय क्षेत्रों में व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना।
1997-2002 (नौवीं पंचवर्षीय योजना):
अत्यंत पिछड़ी जनजातियों (Primitive Tribal Groups) के लिए विशेष कार्य योजना लागू की गई।
🔷 (iv) संस्थान एवं अनुसंधान
मार्च 1992: बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर संस्था की स्थापना – अनुसूचित जाति/जनजातियों के उत्थान हेतु कार्यरत।
इस समय देशभर में लगभग 194 जनजातीय विकास योजनाएँ क्रियान्वित हैं।
कई राज्यों द्वारा:
शोध संस्थानों की स्थापना
जनजातीय साहित्य का प्रकाशन
शैक्षणिक कार्यशालाएँ, गोष्ठियाँ, प्रशिक्षण कार्यक्रम आदि आयोजित किए जा रहे हैं।
🔚 निष्कर्ष
इन योजनाओं का उद्देश्य अनुसूचित जातियों और जनजातियों को शिक्षा, रोजगार, सामाजिक सुरक्षा और आर्थिक स्वावलंबन की मुख्यधारा से जोड़ना है। भारत सरकार द्वारा संचालित ये योजनाएँ सामाजिक न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं।
Q.24. भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने के लिए नेहरू ने किन लर्कों का इस्तेमाल किया। क्या आपको लगता है कि ये केवल भावनात्मक और नैतिक तर्क हैं अथवा इनमें कोई तर्क युक्तिपरक भी है ?
उत्तर – भारत के धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने पर नेहरू जी के विचार
(i) ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से धर्मनिरपेक्षता:
पंडित जवाहरलाल नेहरू का मानना था कि भारत का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप कोई नया विचार नहीं है, बल्कि यह देश की ऐतिहासिक विरासत और सांस्कृतिक परंपरा का एक स्वाभाविक परिणाम है। उन्होंने तर्क दिया कि भारत महज एक भौगोलिक अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा मस्तिष्क और चेतना है जो समय-समय पर बाहर से आए प्रभावों को आत्मसात करता रहा है और उन्हें एक समृद्ध, मिश्रित सांस्कृतिक विरासत में ढालता रहा है।
नेहरू जी के अनुसार, भारत में विविधता में एकता का सिद्धांत हजारों वर्षों से न केवल एक सांस्कृतिक आदर्श रहा है, बल्कि यह भारतीय राष्ट्रवाद का आधार भी है। वे मानते थे कि इस विविधता के प्रति भारतवासियों की अडिग निष्ठा को अगर हटा दिया जाए, तो भारत की आत्मा ही समाप्त हो जाएगी।
उन्होंने यह भी कहा कि स्वतंत्रता संग्राम महज़ राजनीतिक मुक्ति की प्रक्रिया नहीं थी, बल्कि यह भारतीय सभ्यता के मूल सिद्धांतों को राष्ट्र की व्यावहारिक राजनीति में रूपांतरित करने का भी एक प्रयास था।
(ii) अल्पसंख्यकों के अधिकार और राष्ट्रीय एकता:
नेहरू जी ने संविधान निर्माण से पहले और उसके दौरान भी बार-बार यह बात दोहराई कि भारत की एकता और अखंडता तब तक स्थाई नहीं रह सकती जब तक देश में रहने वाले अल्पसंख्यकों को समान नागरिक अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता, सांस्कृतिक संरक्षण और धर्मनिरपेक्ष वातावरण प्राप्त न हो।
उनका मानना था कि भारत एक ऐसा राष्ट्र है जहाँ लोगों की धार्मिक और भाषाई पहचान को स्वीकार किया जाता है, और उन पर कभी एकरूपता थोपने का प्रयास नहीं किया गया। भारतीय समाज की यह विशेषता कि वह विविधता को अपनाकर भी एकता बनाए रखता है, यही उसकी सबसे बड़ी ताकत है।
नेहरू ने यह बात बड़े गर्व से कही थी कि भारतवासी हर आस्था का दिल से सम्मान करते हैं। वे यह भी कहते थे कि—
“जब तक हमारी विविधता सुरक्षित है, हमारी एकता भी सुरक्षित है।”
(iii) 15 अक्तूबर 1947 को मुख्यमंत्रियों को लिखा गया पत्र:
स्वतंत्रता के बाद, जब देश में साम्प्रदायिक तनाव चरम पर था, नेहरू जी ने 15 अक्टूबर 1947 को भारत के विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों को एक पत्र लिखा। इसमें उन्होंने भारत में रहने वाले मुसलमानों की स्थिति पर संवेदनशील और युक्तिपूर्ण ढंग से विचार रखे।
उनका कहना था कि—
“भारत में मुसलमानों की संख्या इतनी अधिक है कि वे चाहें तो भी यहाँ से कहीं और नहीं जा सकते। यह एक बुनियादी सच्चाई है।”
इस कथन में उनकी भावनात्मक गहराई, नैतिक दायित्व और राजनीतिक दूरदर्शिता तीनों झलकती हैं। उनका यह भी स्पष्ट मत था कि पाकिस्तान भले ही अल्पसंख्यकों के प्रति दुर्व्यवहार करे, लेकिन भारत को अपने अल्पसंख्यकों के साथ सभ्य और गरिमापूर्ण व्यवहार करना होगा।
नेहरू ने चेतावनी भी दी थी कि—
“अगर हम उन्हें नागरिक अधिकार देने और उनकी रक्षा करने में असफल रहते हैं, तो यह समस्या पूरे राष्ट्र के लिए एक नासूर बन जाएगी जो शासन व्यवस्था को भीतर से खोखला कर सकती है।”
निष्कर्ष:
नेहरू जी की दृष्टि में भारत की धर्मनिरपेक्षता कोई वैकल्पिक नीति नहीं, बल्कि उसकी आत्मा, उसकी संविधानिक नींव, और उसकी सांस्कृतिक विरासत का अनिवार्य अंग है। वे मानते थे कि विविधता में एकता ही भारत की सबसे बड़ी ताकत है और इसे सुरक्षित रखना हम सबका कर्तव्य है।
Q.25. महिला सशक्तिकरण के साधन के रूप में संसद और राज्य विधान सभाओं में सीटें आरक्षित करने की मांग का परीक्षण कीजिए।
उत्तर – महिलाओं की भागीदारी: समग्र विकास की अनिवार्यता
1. समावेशी विकास के लिए पुरुषों और महिलाओं की समान भागीदारी आवश्यक:
किसी भी राष्ट्र के समग्र सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास के लिए यह अनिवार्य है कि स्त्रियाँ और पुरुष दोनों कंधे से कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में समान रूप से भाग लें। न केवल निजी जीवन बल्कि सार्वजनिक और राजनीतिक क्षेत्र में भी समान भागीदारी एक सुव्यवस्थित और प्रगतिशील समाज की नींव रखती है।
भारत जैसे देश में, जहाँ महिलाएँ जनसंख्या का लगभग आधा हिस्सा हैं, उनकी क्षमता का पूरी तरह उपयोग न हो पाना न केवल अवसरों की बर्बादी है, बल्कि यह राष्ट्रीय विकास में एक गंभीर अवरोध भी है।
2. राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी: स्थिति और संघर्ष
हालाँकि भारत में लोकतंत्र की नींव काफी मज़बूत है, फिर भी 1952 से लेकर 1999 तक संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बेहद सीमित रहा है। इसका सीधा अर्थ यह है कि नीति निर्माण में महिलाओं की दृष्टि और आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम हो पाया है।
इस असमानता के खिलाफ महिला आंदोलन ने लंबे समय से संघर्ष किया है, विशेष रूप से राजनीतिक संस्थाओं में आरक्षण की माँग को लेकर।
महिला आंदोलन की एक बड़ी सफलता के रूप में, 73वें और 74वें संविधान संशोधन के तहत पंचायती राज संस्थाओं और नगरपालिकाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दिया गया।
हालाँकि यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी, फिर भी इसे आंशिक सफलता ही कहा जा सकता है क्योंकि अब भी संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण का कानून लंबित है।
3. संसद में आरक्षण विधेयक और राजनीतिक दुविधा:
यद्यपि लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दल सार्वजनिक रूप से संसद और विधानसभाओं में महिला आरक्षण का समर्थन करते हैं, पर जब भी यह विधेयक संसद में प्रस्तुत होता है, किसी न किसी बहाने से इसे पारित नहीं होने दिया जाता। इससे यह स्पष्ट होता है कि इस विषय पर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी अब भी एक बड़ी चुनौती है।
निष्कर्ष:
महिलाओं की समान और सक्रिय भागीदारी के बिना भारत जैसे लोकतांत्रिक देश का पूर्ण विकास संभव नहीं है। समाज के आधे हिस्से की क्षमता को नजरअंदाज़ करना, केवल न्याय और समानता के सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं है, बल्कि यह राष्ट्र की प्रगति में भी बाधा है।
महिला आरक्षण विधेयक को जल्द से जल्द कानूनी रूप में लागू करना और उसे संसद तथा विधानसभाओं में स्थान दिलाना, वास्तविक लोकतंत्र की दिशा में एक निर्णायक कदम होगा।
Q.26. नक्सलवादी आंदोलन पर एक निबंध लिखिए।
उत्तर – नक्सलवादी आंदोलन: एक ऐतिहासिक और समसामयिक विश्लेषण
1. नक्सलवादी आंदोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी थाने के अंतर्गत एक किसान विद्रोह से हुई। इस विद्रोह का नेतृत्व मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई-एम) के स्थानीय कार्यकर्ताओं ने किया। उन्होंने जमींदारों से जबरन जमीन लेकर गरीब और भूमिहीन किसानों में बाँटना शुरू किया। यह आंदोलन धीरे-धीरे देश के कई राज्यों में फैल गया और इसे “नक्सलवादी आंदोलन” के नाम से जाना गया।
2. सीपीआई से अलग होना और गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाना
1969 में नक्सलवादी कार्यकर्ता सीपीआई (एम) से अलग हो गए और उन्होंने चारु मजूमदार के नेतृत्व में एक नई पार्टी सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) (CPI-ML) का गठन किया। इस पार्टी का मानना था कि भारत में लोकतंत्र एक छलावा है और वास्तविक परिवर्तन के लिए सशस्त्र क्रांति आवश्यक है। इस लक्ष्य को पाने के लिए उन्होंने गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई, जो सत्ता के खिलाफ हथियारबंद संघर्ष पर आधारित थी।
3. कार्यक्रम और उद्देश्य
नक्सलवादियों का मुख्य उद्देश्य था –
भूमि सुधार को बलपूर्वक लागू करना,
धनी जमींदारों से जमीन छीनकर गरीब किसानों को देना,
राज्य सत्ता को पूंजीवादी और शोषणकारी मानकर उसका विरोध करना।
वे मानते थे कि हिंसात्मक साधन ही सामाजिक न्याय और समानता लाने में सक्षम हैं।
4. नक्सलवाद का प्रसार और प्रभाव
1970 के दशक में नक्सलवाद भारत के लगभग 9 राज्यों के 75 जिलों में फैल चुका था।
इनमें से अधिकांश क्षेत्र आदिवासी बहुल, सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े और वनवासी इलाके थे।
इन इलाकों में राज्य की उपस्थिति बहुत कमजोर थी, जिससे वहाँ नक्सलियों को समर्थन मिला।
‘हजार चौरासी की माँ’ जैसे उपन्यास और फ़िल्मों ने भी नक्सलवाद की पृष्ठभूमि और सामाजिक सच्चाइयों को दर्शाया।
5. नक्सलवादी आंदोलन और कांग्रेस सरकार की प्रतिक्रिया
(क) प्रारंभिक प्रयास:
1969 में पश्चिम बंगाल की कांग्रेस सरकार ने नक्सलवाद को रोकने के लिए कई कड़े कदम, जैसे कि निरोधक नजरबंदी, उठाए। बावजूद इसके आंदोलन और अधिक उग्र और व्यापक होता गया। समय के साथ आंदोलन विभिन्न समूहों और दलों में विभाजित हो गया। इनमें से कुछ दल, जैसे कि सीपीआई (एमएल) लिबरेशन, अब लोकतांत्रिक राजनीति में भी भाग लेने लगे हैं।
(ख) वर्तमान स्थिति और आलोचना:
सरकार ने नक्सलवाद से निपटने के लिए कई बार सुरक्षा-प्रधान और कठोर उपाय अपनाए हैं। परंतु, कई मानवाधिकार संगठनों ने इन उपायों की आलोचना करते हुए कहा है कि सरकार द्वारा की जा रही कार्रवाई में संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है।
नक्सली हिंसा और सरकारी प्रतिक्रिया में अब तक हज़ारों लोगों की जान जा चुकी है।
निष्कर्ष:
नक्सलवादी आंदोलन भारत के सामाजिक और आर्थिक विषमताओं, गरीबी, भूमिहीनता और शोषण से उपजा एक गंभीर आंदोलन रहा है। यद्यपि इसके कुछ उद्देश्यों में सामाजिक न्याय की भावना दिखती है, लेकिन इसका हिंसात्मक रूप लोकतंत्र और कानून व्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती है।
इस समस्या का समाधान केवल सैन्य कार्रवाई से नहीं, बल्कि विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, और सामाजिक न्याय की व्यापक नीति अपनाकर ही संभव है।
Q.27. गुजरात आंदोलन से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर विचार करते हुए एक संक्षिप्त सार लिखिए।
उत्तर – 1974 का गुजरात छात्र आंदोलन: एक ऐतिहासिक समीक्षा
प्रस्तावना
जनवरी 1974 में शुरू हुआ गुजरात छात्र आंदोलन उस समय की भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। इस आंदोलन की शुरुआत महंगाई, खाद्यान्न संकट, और भ्रष्टाचार के विरोध में हुई थी, किंतु इसकी गूँज न केवल गुजरात बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में भी दूरगामी रूप से सुनाई दी। उस समय राज्य में कांग्रेस की सरकार थी, परंतु आंदोलन ने उसकी राजनीतिक नींव को बुरी तरह हिला दिया।
आंदोलन की प्रगति
इस छात्र आंदोलन को जल्दी ही राजनीतिक समर्थन मिलने लगा। विभिन्न विपक्षी दलों ने इसे समर्थन दिया, और आंदोलन ने विकराल रूप धारण कर लिया। हालात इस हद तक बिगड़ गए कि गुजरात में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। कांग्रेस (ओ) के वरिष्ठ नेता मोरारजी देसाई ने स्पष्ट रूप से चेतावनी दी कि यदि विधानसभा के नए चुनाव नहीं करवाए गए, तो वे अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल करेंगे। इस दबाव में सरकार को अंततः जून 1975 में चुनाव कराने पड़े, जिनमें कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा।
आंदोलन के राजनीतिक परिणाम
गुजरात आंदोलन ने राज्य की राजनीति में गंभीर उथल-पुथल मचाई। मोरारजी देसाई का राज्य में पहले से ही गहरा प्रभाव था, और इस आंदोलन ने उनके नेतृत्व को और मज़बूत किया। गुजरात में पहले से ही क्षेत्रवाद और प्रांतीय असंतोष की भावना थी, जो कांग्रेस के खिलाफ एक प्रतिकूल वातावरण बनाने में सहायक रही। कई गुजराती लोगों का यह मानना था कि कांग्रेस ने स्वतंत्रता के बाद गुजरात की उपेक्षा की, और सरदार पटेल को प्रधानमंत्री न बनने देना भी कांग्रेस नेतृत्व की एक ऐतिहासिक गलती थी। इसके अतिरिक्त, कांग्रेस में विभाजन से पहले मोरारजी देसाई जैसे दिग्गज नेता को प्रधानमंत्री बनने से रोकने में इंदिरा गांधी की भूमिका को लेकर भी असंतोष था। ये सारे कारक मिलकर इंदिरा गांधी के खिलाफ जन असंतोष की पृष्ठभूमि बनाते गए। इस आंदोलन की परिणति में, कांग्रेस को सत्ता से बाहर होना पड़ा और कांग्रेस (ओ), बाद में जनता दल, और फिर भारतीय जनता पार्टी (भा.ज.पा.) को राज्य की सत्ता में आने का अवसर मिला। यह आंदोलन एक तरह से गुजरात की राजनीतिक पुनर्संरचना का आधार बन गया।
टिप्पणी
गुजरात आंदोलन की आलोचना भी कम नहीं हुई।
इंदिरा गांधी के समर्थकों, प्रेस और कुछ राष्ट्रीय नेताओं ने इसे केवल एक सामाजिक-आर्थिक आंदोलन नहीं, बल्कि इंदिरा गांधी के व्यक्तिगत नेतृत्व के खिलाफ एक राजनीतिक षड्यंत्र बताया। उनका कहना था कि इस आंदोलन के पीछे मोरारजी देसाई और अन्य दक्षिणपंथी नेताओं की साजिश थी, जो कांग्रेस को कमजोर कर इंदिरा विरोधी राजनीति को आगे बढ़ाना चाहते थे।
निष्कर्ष
गुजरात का 1974 छात्र आंदोलन केवल मूल्य वृद्धि और भ्रष्टाचार के खिलाफ जन आंदोलन नहीं था, बल्कि यह भारत में एक बड़े राजनीतिक परिवर्तन का संकेतक बन गया। इसने यह दिखाया कि छात्र शक्ति और जन समर्थन अगर संगठित हो जाए, तो वे सत्ता की चूलें भी हिला सकते हैं। यह आंदोलन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक ऐतिहासिक मोड़ था जिसने न केवल गुजरात बल्कि देश भर में राजनीतिक जागरूकता और सत्ता संतुलन को गहराई से प्रभावित किया।
Q.28. सुरक्षा के पारंपरिक तरीके कौन-कौन से हैं ? इनमें से प्रत्येक की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
उत्तर – सुरक्षा की परंपरागत धारणा और शांति की दिशा में प्रयास
प्रस्तावना
सुरक्षा की पारंपरिक धारणा यह मानती है कि युद्ध और हिंसा का प्रयोग अंतिम विकल्प होना चाहिए और उसे सीमित रूप में, केवल आत्मरक्षा अथवा निर्दोषों की रक्षा के लिए ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए। यह विचारधारा “न्याय युद्ध” (Just War) की यूरोपीय परंपरा से निकली है, जो युद्ध के कारण और साधनों दोनों की नैतिकता पर बल देती है।
इस दृष्टिकोण के अनुसार:
संघर्ष में भाग न ले रहे व्यक्तियों (नागरिकों, आत्मसमर्पण करने वालों आदि) की रक्षा की जानी चाहिए।
सेना को केवल आवश्यक मात्रा में बल प्रयोग की अनुमति है।
जब तक सभी शांतिपूर्ण उपाय विफल न हो जाएँ, तब तक हिंसा का सहारा नहीं लेना चाहिए।
सुरक्षा के परंपरागत उपाय एवं विधियाँ
1. निरस्त्रीकरण (Disarmament)
निरस्त्रीकरण का अर्थ है कि सभी देश कुछ खतरनाक या अमानवीय हथियारों के उत्पादन और संग्रहण से दूर रहें। इसके उदाहरण हैं:
1972 की जैविक हथियार संधि (Biological Weapons Convention – BWC):
इस संधि में जैविक हथियारों के निर्माण और भंडारण को प्रतिबंधित किया गया।1992 की रासायनिक हथियार संधि (Chemical Weapons Convention – CWC):
इसके अंतर्गत रासायनिक हथियारों पर रोक लगाई गई।
इन संधियों पर अधिकांश देशों ने हस्ताक्षर किए, जिनमें अमेरिका और सोवियत संघ जैसी महाशक्तियाँ भी शामिल थीं, हालाँकि उन्होंने परमाणु हथियारों से पीछे हटने के बजाय अस्त्र नियंत्रण का रास्ता चुना।
2. अस्त्र नियंत्रण (Arms Control)
अस्त्र नियंत्रण का उद्देश्य है कि हथियारों के निर्माण, तैनाती और प्रयोग पर नियम बनाए जाएँ, ताकि हथियारों की दौड़ सीमित हो।
1972 की ABM संधि (Anti-Ballistic Missile Treaty):
अमेरिका और सोवियत संघ को अपने यहाँ सीमित बैलिस्टिक रक्षा प्रणालियाँ रखने की अनुमति दी गई, जिससे दोनों देश आक्रामक प्रणाली के व्यापक विकास से बचें।SALT (Strategic Arms Limitation Treaty):
परमाणु हथियारों की संख्या पर सीमा लगाने की दिशा में एक कदम।START (Strategic Arms Reduction Treaty):
सामरिक हथियारों में कटौती लाने की संधि।NPT (Nuclear Non-Proliferation Treaty), 1968:
इस संधि ने परमाणु हथियारों की नई देशों में फैलाव को रोकने की कोशिश की।
केवल उन्हीं देशों को हथियार रखने की अनुमति दी गई जो 1967 से पहले परमाणु शक्ति बन चुके थे।
3. विश्वास की बहाली (Confidence-Building Measures)
विश्वास बहाली का उद्देश्य यह है कि देश आपसी संदेह और भय को कम करें ताकि अनावश्यक युद्ध और टकराव की संभावनाएँ कम हो सकें।
देश एक-दूसरे के सैन्य उद्देश्यों, युद्धाभ्यास और बलों की तैनाती की जानकारी साझा करते हैं।
सूचना और संवाद के माध्यम से पारदर्शिता बढ़ाई जाती है।
ऐसा माहौल बनाया जाता है जिसमें कोई देश दूसरे पर औचक हमले का संदेह न करे।
इस प्रक्रिया से शत्रुता में कमी आती है और सहयोग के द्वार खुलते हैं।
निष्कर्ष
सुरक्षा की परंपरागत धारणा एक नैतिक और व्यवहारिक दृष्टिकोण है, जो यह मानती है कि युद्ध, हिंसा और हथियारों की दौड़ को संयम, सहयोग और पारदर्शिता के माध्यम से सीमित किया जा सकता है। निरस्त्रीकरण, अस्त्र नियंत्रण और विश्वास बहाली जैसे उपाय आज भी वैश्विक शांति और स्थिरता के लिए आवश्यक औज़ार हैं। यह दृष्टिकोण हमें यह भी सिखाता है कि वास्तविक सुरक्षा केवल शक्ति से नहीं, बल्कि सहयोग और समझ से आती है।
Q.29. भारतीय किसान यूनियन, किसानों की दुर्घटना की तरफ ध्यान आकर्षित करने वाला अग्रणी संगठन है। नब्बे के दशक में इसने किन मुद्दों को उठाया और इसे कहाँ तक सफलता मिली ?
उत्तर – भारतीय किसान यूनियन (BKU) द्वारा उठाए गए मुद्दे और उनकी सफलताएँ
🌾 परिचय
भारतीय किसान यूनियन (BKU) भारत के प्रमुख किसान संगठनों में से एक है, जिसकी स्थापना किसानों के आर्थिक, सामाजिक और कृषि संबंधी हितों की रक्षा के लिए की गई थी। विशेषकर 1980 के दशक में इस संगठन ने कई सशक्त आंदोलनों के माध्यम से किसानों की आवाज को राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचाया।
🧭 BKU द्वारा उठाए गए प्रमुख मुद्दे
⚡ बिजली दरों में बढ़ोतरी का विरोध
BKU ने किसानों के लिए बिजली की दरों में हो रही अनियंत्रित बढ़ोतरी के खिलाफ कड़ा विरोध जताया और समुचित दर पर गारंटीशुदा बिजली आपूर्ति की माँग की।🌾 नगदी फसलों के संकट पर चिंता
1980 के दशक के उत्तरार्ध में उदारीकरण की नीतियों के चलते नगदी फसलों के बाजार में संकट उत्पन्न हुआ। BKU ने:गन्ना और गेहूँ की सरकारी खरीद मूल्य में वृद्धि की माँग की।
🚛 अंतर्राज्यीय कृषि उत्पादों की आवाजाही पर लगी पाबंदियाँ हटाने की माँग
किसानों को अपने उत्पाद खुले बाजार में बेचने की आज़ादी मिले — इस उद्देश्य से BKU ने इन प्रतिबंधों को हटाने की माँग की।👵 किसानों के लिए पेंशन योजना
BKU ने किसानों की आर्थिक सुरक्षा के लिए पेंशन की सुविधा देने की भी माँग रखी।
✅ BKU की प्रमुख सफलताएँ
⛺ धरना और अनुशासित आंदोलन का प्रभाव
मेरठ में जिला समाहर्ता के दफ्तर के बाहर तीन सप्ताह का धरना दिया गया।
आंदोलन शांतिपूर्ण और अनुशासित था।
आस-पास के गाँवों से नियमित राशन-पानी की आपूर्ति की गई।
अंततः आंदोलन की माँगें स्वीकार कर ली गईं, और यह ग्रामीण शक्ति का प्रतीक बन गया।
🌍 देशव्यापी प्रभाव
BKU के मुद्दों को देश के अन्य किसान संगठनों ने भी उठाया।
महाराष्ट्र के शेतकारी संगठन ने इसे ‘भारत बनाम इंडिया’ (ग्रामीण बनाम शहरी संघर्ष) की तरह चित्रित किया।
🏛️ राजनीति से दूरी, पर प्रभावशाली दबाव समूह
1990 तक BKU ने राजनीतिक दलों से दूरी बनाए रखी।
संगठन ने खुद को दबाव समूह के रूप में स्थापित किया और अपनी माँगें मनवाने में सक्षम रहा।
🧠 राजनीतिक मोल-भाव की समझ और रणनीति
आंदोलन के पीछे संगठन की रणनीतिक समझ और राजनीतिक दबाव बनाने की क्षमता थी।
BKU के सदस्य मुख्य रूप से ऐसे समृद्ध किसान समुदायों से थे जो नगदी फसलें उगाते थे और जिनकी चुनावी राजनीति में पहुँच थी।
🤝 अन्य किसान संगठनों से सहयोग
जैसे महाराष्ट्र का शेतकारी संगठन और कर्नाटक का रैयत संघ — ये सभी संगठन BKU की तर्ज पर काम कर रहे थे।
इस आपसी सहयोग ने आंदोलन को सशक्त और सफल सामाजिक आंदोलन बना दिया।
📝 निष्कर्ष
भारतीय किसान यूनियन ने 1980 और 1990 के दशक में किसान आंदोलनों को नई दिशा दी। यह न केवल एक आर्थिक आंदोलन था, बल्कि यह सामाजिक न्याय, नीतिगत बदलाव, और ग्राम्य भारत की आवाज़ को मंच प्रदान करने वाला आंदोलन भी था।
BKU की रणनीति, नेतृत्व और किसानों की एकजुटता ने इसे भारत के सबसे प्रभावशाली किसान आंदोलनों में स्थान दिलाया।
Q. 30. ‘भारत में सिक्किम विलय’ विषय पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर – 🇮🇳 भारत में सिक्किम का विलय (Annexation of Sikkim in India)
🧭 1. पृष्ठभूमि (Background)
स्वतंत्र भारत के शुरुआती दशकों में सिक्किम एक स्वतंत्र राष्ट्र नहीं था, लेकिन वह पूरी तरह भारत का अंग भी नहीं था।
भारत सरकार सिक्किम की विदेश नीति और रक्षा के मामलों को सँभालती थी।
जबकि सिक्किम का आंतरिक प्रशासन राजा चोग्याल के नियंत्रण में था।
यह व्यवस्था समय के साथ अप्रभावी साबित हुई क्योंकि चोग्याल लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सके।
सिक्किम की जनता — विशेष रूप से नेपाली मूल की बहुसंख्यक आबादी — यह महसूस करने लगी कि अल्पसंख्यक लेपचा-भूटिया समुदाय से आने वाले शासकों का उन पर जबरन शासन थोपा जा रहा है।
🗳️ 2. सिक्किम में लोकतंत्र की स्थापना और भारत से जुड़ने का प्रयास
चोग्याल के विरोध में उठने वाली आवाजें तेज़ होने लगीं और कई स्थानीय नेताओं ने भारत सरकार से समर्थन माँगा।
1974 में सिक्किम में पहला लोकतांत्रिक चुनाव हुआ, जिसमें सिक्किम काँग्रेस को भारी जीत मिली।
यह पार्टी सिक्किम को भारत के साथ पूर्ण विलय के पक्ष में थी।
🏛️ 3. सिक्किम भारत का 22वाँ राज्य बना
सिक्किम विधानसभा ने पहले भारत का “सह-प्रांत” (associated state) बनने का प्रस्ताव पारित किया।
फिर, अप्रैल 1975 में एक नया प्रस्ताव पारित कर भारत में पूर्ण विलय की माँग की गई।
इसके बाद जनमत-संग्रह (referendum) कराया गया जिसमें जनता ने भारी बहुमत से विलय का समर्थन किया।
भारत सरकार ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और सिक्किम को भारत का 22वाँ राज्य घोषित किया गया।
⚠️ 4. विरोध और विवाद
सिक्किम के राजा चोग्याल ने इस विलय को स्वीकार नहीं किया।
उन्होंने भारत पर बल-प्रयोग और राजनीतिक साजिश का आरोप लगाया।
हालांकि, चोग्याल का विरोध जनता के समर्थन के अभाव के कारण टिक नहीं सका और यह मुद्दा सिक्किम की राजनीति में कोई बड़ा विवाद नहीं बना।
✅ निष्कर्ष (Conclusion)
सिक्किम का भारत में विलय एक ऐसा ऐतिहासिक घटनाक्रम था जिसमें राजनीतिक सूझबूझ, जन समर्थन और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की प्रमुख भूमिका रही।
हालाँकि इसमें कुछ विरोध की आवाज़ें थीं, फिर भी सिक्किम की जनता की लोकतांत्रिक इच्छा और भारत सरकार के सहयोग ने इसे शांति पूर्ण और वैध प्रक्रिया बना दिया।
1975 में सिक्किम का भारत में 22वाँ राज्य के रूप में समावेश न केवल क्षेत्रीय एकीकरण का प्रतीक था, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र की शक्ति का भी उदाहरण बना।

SANTU KUMAR
I am a passionate Teacher of Class 8th to 12th and cover all the Subjects of JAC and Bihar Board. I love creating content that helps all the Students. Follow me for more insights and knowledge.
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