Q.1. भारत-पाकिस्तान के संबंधों की मुख्य समस्यायें क्या हैं ?
उत्तर – भारत और उसके पड़ोसी देशों के संबंध
भारत एक शांतिप्रिय देश है जो अपने पड़ोसी देशों के साथ शांति, मित्रता और सहयोग के सिद्धांतों पर आधारित संबंध बनाए रखना चाहता है। भारत का यह दृष्टिकोण केवल एक नीति नहीं, बल्कि उसकी संस्कृति और परंपरा का हिस्सा है। स्वतंत्रता के साथ ही भारत को पाकिस्तान जैसे नए पड़ोसी का सामना करना पड़ा, जिससे शुरू से ही संबंध जटिल और तनावपूर्ण रहे। भारत मानता है कि पड़ोसी देशों के साथ मधुर संबंध बनाए रखे जाएं तो राष्ट्र मानसिक तनाव और सुरक्षा संबंधी चिंताओं से मुक्त होकर अपने संसाधनों का उपयोग आर्थिक, सामाजिक और वैज्ञानिक विकास में कर सकता है। अधिकांश पड़ोसी देशों के साथ भारत के संबंध संतुलित और सौहार्दपूर्ण हैं, किंतु चीन और पाकिस्तान के साथ कुछ जटिलताएँ बनी हुई हैं। चीन के साथ सीमा विवाद अभी तक पूरी तरह से हल नहीं हो पाया है, वहीं पाकिस्तान के साथ भारत के संबंध समय-समय पर बनते-बिगड़ते रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि भारत अपने सभी पड़ोसियों के साथ शांति और सहयोग की भावना से संबंध बनाना चाहता है। वह आकार और जनसंख्या में बड़ा होने के बावजूद, छोटे देशों के साथ समानता के आधार पर व्यवहार करने में विश्वास रखता है।
भारत-पाकिस्तान संबंधों की जटिलताएँ
भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों में कटुता के कई कारण हैं, जिनमें प्रमुख हैं:
कश्मीर विवाद – दोनों देशों के बीच सबसे बड़ा और जटिल मुद्दा।
शरणार्थियों का प्रश्न – विभाजन के समय विस्थापित लोगों से जुड़ी समस्याएँ अब भी पूरी तरह सुलझी नहीं हैं।
आतंकवाद – पाकिस्तान से संचालित आतंकवादी गतिविधियाँ भारत की सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौती बनी हुई हैं।
नहर-पानी विवाद – जल बंटवारे को लेकर समय-समय पर मतभेद उत्पन्न होते रहे हैं।
ऋण की अदायगी का प्रश्न – विभाजन के समय की वित्तीय व्यवस्थाओं से जुड़ा एक अन्य लंबित मामला।
इन समस्याओं के कारण दोनों देशों के बीच कई बार गंभीर तनाव उत्पन्न हुआ है। पाकिस्तान की ओर से तोड़फोड़, जासूसी, सीमा उल्लंघन जैसी गतिविधियों के अलावा, 1947, 1965 और 1971 में भारत पर खुले युद्ध भी थोपे गए।
निष्कर्ष
भारत सदैव अपने पड़ोसियों से शांतिपूर्ण और मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखने का इच्छुक रहा है। हालांकि, यह तभी संभव है जब सभी देश पारस्परिक सम्मान, विश्वास और सहयोग की भावना से कार्य करें। भारत का प्रयास रहेगा कि वह क्षेत्र में शांति स्थापित करते हुए विकास और समृद्धि की दिशा में आगे बढ़े।
Q.2.क्या आप मानते हैं कि 1971 की भारत सोवियत संधि से गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन हुआ? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए।
उत्तर – भारत-सोवियत मैत्री संधि (1971) और गुट-निरपेक्षता का सिद्धांत
1971 का वर्ष भारत की विदेश नीति के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण रहा। उस समय भारत को पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में उत्पन्न मानवीय संकट, शरणार्थियों की भारी संख्या, और पाकिस्तान के साथ संभावित युद्ध जैसी गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा। इस पृष्ठभूमि में अमेरिका और चीन द्वारा पाकिस्तान को दी जा रही सैनिक सहायता और समर्थन की स्थिति को देखते हुए भारत को अपनी सुरक्षा एवं रणनीतिक हितों की रक्षा के लिए ठोस कदम उठाना आवश्यक हो गया। इसी संदर्भ में अगस्त 1971 में भारत और तत्कालीन सोवियत संघ के बीच मैत्री और सहयोग संधि पर हस्ताक्षर किए गए। यह संधि भारत द्वारा किसी महाशक्ति के साथ की गई पहली महत्वपूर्ण राजनीतिक-सैन्य संधि थी, जो 20 वर्षों के लिए प्रभावी रही। कुछ विशेषज्ञों ने इस संधि को भारत के गुट-निरपेक्ष आंदोलन से विचलन या उसका उल्लंघन बताया। उनका तर्क था कि किसी एक महाशक्ति के साथ इस प्रकार का समझौता गुट-निरपेक्षता की भावना के विरुद्ध है। परंतु मेरा मत है कि यह संधि गुट-निरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं है। भारत का गुट-निरपेक्षता सिद्धांत यह नहीं कहता कि किसी देश के साथ रणनीतिक या द्विपक्षीय सहयोग नहीं किया जा सकता, बल्कि इसका उद्देश्य यह है कि भारत किसी भी महाशक्ति के सैन्य गुट का सदस्य न बने और अपनी स्वतंत्र विदेश नीति बनाए रखे। भारत-सोवियत मैत्री संधि एक रणनीतिक रक्षा उपाय थी, जो उस समय के अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में उत्पन्न खतरों के मद्देनजर आवश्यक हो गई थी।
यह संधि तीन प्रमुख आधारों पर आधारित थी:
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में बदलाव के प्रति सजगता,
पारस्परिक हित और लाभ, तथा
शांति, सुरक्षा और सहयोग को बढ़ावा देना।
निष्कर्षतः, यह स्पष्ट है कि भारत ने इस संधि के माध्यम से न केवल अपनी सुरक्षा सुनिश्चित की, बल्कि वैश्विक मंच पर शांति, सहयोग और संप्रभुता के सिद्धांतों को भी सुदृढ़ किया। यह संधि भारत की व्यावहारिक और दूरदर्शी विदेश नीति का प्रतीक थी, न कि गुट-निरपेक्षता से विचलन।
Q.3. वर्ष 2000 से भारत-अमेरिका संबंधों का परीक्षण कीजिए।
उत्तर – भारत-अमेरिका संबंध: एक जटिल लेकिन संभावनाओं से भरा रिश्ता
हाल के वर्षों में भारत-अमेरिका संबंधों में कई नए आयाम जुड़े हैं। इनमें दो प्रमुख बातें उभरकर सामने आई हैं – प्रौद्योगिकी का क्षेत्र और अमेरिका में बसे अनिवासी भारतीयों (NRI) की बढ़ती भूमिका। ये दोनों पहलू न केवल आपस में जुड़े हुए हैं, बल्कि उन्होंने भारत-अमेरिका संबंधों को नई दिशा देने में भी योगदान दिया है। आज भारत से सॉफ़्टवेयर क्षेत्र का लगभग 65% निर्यात अमेरिका को होता है। बोइंग जैसी कंपनियों में 35% तकनीकी कर्मचारी भारतीय मूल के हैं, और सिलिकन वैली में लगभग तीन लाख भारतीय कार्यरत हैं। इतना ही नहीं, उच्च प्रौद्योगिकी क्षेत्र की लगभग 15% कंपनियों की स्थापना अमेरिका में बसे भारतीयों ने की है। ये आँकड़े इस बात का प्रमाण हैं कि भारत और अमेरिका के संबंध केवल कूटनीतिक नहीं, बल्कि तकनीकी, आर्थिक और मानवीय स्तर पर भी गहराते जा रहे हैं।
भारत के सामने रणनीतिक विकल्प
यह दौर अमेरिका के विश्वव्यापी वर्चस्व का है, और भारत के सामने यह तय करने की चुनौती है कि वह इस महाशक्ति से किस प्रकार के संबंध बनाना चाहता है। भारत में इस पर तीन प्रमुख दृष्टिकोण उभरकर सामने आए हैं:
स्वायत्तता और सैन्य शक्ति पर बल देने वाले विद्वानों का दृष्टिकोण
ये विद्वान मानते हैं कि अमेरिका की निकटता भारत की स्वायत्त विदेश नीति और सुरक्षा के लिए खतरा बन सकती है। वे चाहते हैं कि भारत वाशिंगटन से एक सुरक्षित दूरी बनाए रखे और अपने संसाधनों का प्रयोग राष्ट्रीय शक्ति और आत्मनिर्भरता को बढ़ाने में करे।सहयोग और अवसरवादिता का दृष्टिकोण
कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत और अमेरिका के हितों में लगातार सामंजस्य बढ़ रहा है। उनके अनुसार, यह भारत के लिए एक ऐतिहासिक अवसर है, जिससे वह अमेरिकी ताकत का रणनीतिक लाभ उठाकर अपने वैश्विक कद को बढ़ा सकता है। उनका तर्क है कि अमेरिका का विरोध अब व्यावहारिक नीति नहीं रही और इससे भारत को नुकसान ही होगा।ग्लोबल दक्षिण (Global South) का नेतृत्व करने की नीति
एक और विचारधारा यह कहती है कि भारत को अमेरिका के वर्चस्व का प्रतिकार करने के लिए विकासशील देशों का एक स्वतंत्र गठबंधन बनाना चाहिए, जिसकी अगुआई भारत करे। आने वाले समय में यह गठबंधन वैश्विक संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
निष्कर्ष
भारत और अमेरिका के बीच संबंध इतने जटिल और बहुआयामी हैं कि किसी एकमात्र रणनीति पर निर्भर रहना व्यवहारिक नहीं होगा। भारत को एक ऐसी लचीली और संतुलित विदेश नीति अपनानी होगी जो इन सभी दृष्टिकोणों के बीच संतुलन स्थापित कर सके। उसे अमेरिकी सहयोग का लाभ उठाते हुए अपनी स्वतंत्रता, स्वाभिमान और बहुपक्षीय दृष्टिकोण को भी बनाए रखना होगा। यही रणनीति भारत को एक सशक्त, आत्मनिर्भर और वैश्विक नेतृत्व की दिशा में आगे बढ़ा सकती है।
Q.4. भारत के किसी एक सामाजिक आन्दोलन की विवेचना कीजिए और इसके मुख्य उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर – नर्मदा बचाओ आंदोलन: विकास बनाम विस्थापन का संघर्ष
परिचय
नर्मदा बचाओ आंदोलन भारत के प्रमुख जनआंदोलनों में से एक रहा है, जिसने विकास की योजनाओं के सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों को लेकर राष्ट्रीय चेतना को जागरूक किया। इस आंदोलन की अगुवाई सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने की, जिसका मुख्य उद्देश्य गुजरात में नर्मदा नदी पर बनने वाले सरदार सरोवर बांध के निर्माण से प्रभावित लोगों के पुनर्वास और पर्यावरणीय संरक्षण को सुनिश्चित करना था।
आंदोलन की माँगें और उद्देश्य
बाँध के निर्माण से प्रभावित लोगों का उचित पुनर्वास।
बाँध की ऊँचाई सीमित रखने की माँग, ताकि बड़े पैमाने पर जल-भराव और संभावित तबाही से बचा जा सके।
नदियों में कारखानों के गंदे पानी को छोड़े जाने पर रोक।
गंदे नालों की सफाई, मच्छरों से होने वाले रोगों की रोकथाम और पोषणीय (सतत) विकास को बढ़ावा।
आंदोलन की उपलब्धियाँ और संघर्ष
2003 में स्वीकृत राष्ट्रीय पुनर्वास नीति को नर्मदा बचाओ आंदोलन की बड़ी सफलता माना जाता है। यह नीति प्रभावित लोगों के अधिकारों को कानूनी संरक्षण देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम थी।
आंदोलन की वजह से पुनर्वास और पर्यावरणीय मूल्यांकन जैसे मुद्दों को सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बनाया गया।
विरोध और आलोचना
आंदोलन को ‘विकास विरोधी’ और ‘अड़ियल’ रवैया अपनाने का आरोप झेलना पड़ा। आलोचकों का मानना था कि यह आंदोलन पानी और बिजली जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधा बन रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस विवाद पर संतुलित रुख अपनाते हुए सरकार को बाँध का निर्माण जारी रखने की अनुमति दी, लेकिन साथ ही प्रभावित लोगों के समुचित पुनर्वास का आदेश भी दिया।
रणनीति और सीमाएँ
आंदोलन ने अपने विचार रखने के लिए सत्याग्रह, जनसभाएँ, न्यायिक याचिकाएँ और अंतर्राष्ट्रीय मंचों का सहारा लिया। फिर भी, मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों से इसे अपेक्षित समर्थन नहीं मिला।
यह आंदोलन भारतीय राजनीति में सामाजिक आंदोलनों और राजनीतिक दलों के बीच की दूरी को रेखांकित करता है। आंदोलन ने स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर पर कई अन्य परियोजनाविरोधी आंदोलनों को जोड़कर एक व्यापक जनसंघर्ष का रूप ले लिया।
निष्कर्ष
नर्मदा बचाओ आंदोलन ने भारतीय लोकतंत्र को यह सिखाया कि विकास केवल इंफ्रास्ट्रक्चर और आर्थिक वृद्धि नहीं होता, बल्कि उसमें मानवाधिकार, पर्यावरणीय संतुलन और सामाजिक न्याय का समावेश भी आवश्यक है। यह आंदोलन न केवल एक परियोजना के विरोध का प्रतीक है, बल्कि यह उस सोच का प्रतिनिधित्व करता है जो विकास को जन-केन्द्रित और टिकाऊ बनाना चाहती है।
Q.5. नव अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर एक लेख लिखिए।
उत्तर – नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (New International Economic Order – NIEO)
परिचय
शीतयुद्ध के दौर में गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) सिर्फ राजनीतिक संतुलन बनाए रखने की कोशिश नहीं था, बल्कि यह आंदोलन आर्थिक न्याय और स्वतंत्रता की भी आवाज था। इस आंदोलन में शामिल अधिकांश देश अल्प-विकसित (Underdeveloped) थे, जिनकी प्रमुख चिंता थी: आर्थिक विकास, गरीबी से मुक्ति, और सच्चे अर्थों में स्वतंत्रता प्राप्त करना। इन देशों ने यह महसूस किया कि जब तक वे आर्थिक रूप से सशक्त नहीं होंगे, तब तक उनकी राजनीतिक स्वतंत्रता अधूरी रहेगी।
नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की उत्पत्ति
इसी सोच ने 1970 के दशक की शुरुआत में “नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था” (NIEO) की अवधारणा को जन्म दिया। यह पहल विशेष रूप से 1972 में यूनाइटेड नेशंस कॉन्फ्रेंस ऑन ट्रेड एंड डेवलपमेंट (UNCTAD) की रिपोर्ट “Towards a New Trade Policy for Development” से सामने आई।
इस रिपोर्ट में वैश्विक आर्थिक और व्यापार प्रणाली में निम्नलिखित सुधारों की मांग की गई:
प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण:
गरीब देशों को उनके संसाधनों पर आर्थिक नियंत्रण मिलना चाहिए, ताकि पश्चिमी देशों द्वारा उनका शोषण रोका जा सके।पश्चिमी बाजारों तक पहुँच:
गरीब देशों को विकसित देशों के बाजारों में निष्पक्ष पहुँच दी जाए ताकि वे अपने उत्पाद बेच सकें और अपने व्यापार को लाभकारी बना सकें।प्रौद्योगिकी की लागत में कमी:
पश्चिम से मँगाई जा रही तकनीक की कीमत घटाई जाए, जिससे विकासशील देश भी उन्नत तकनीकों का लाभ उठा सकें।अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों में भूमिका:
IMF, विश्व बैंक जैसे वैश्विक आर्थिक संस्थानों में अल्प-विकसित देशों की भागीदारी और प्रभाव को बढ़ाया जाए।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन और NIEO
गुटनिरपेक्ष आंदोलन की शुरुआत 1961 में बेलग्रेड सम्मेलन से हुई थी। प्रारंभिक चरणों में यह आंदोलन अधिकतर राजनीतिक मुद्दों पर केंद्रित था, लेकिन समय के साथ आर्थिक मुद्दे केंद्र में आ गए। 1970 के दशक तक गुटनिरपेक्ष देश यह समझ चुके थे कि आर्थिक असमानता ही वैश्विक अन्याय की जड़ है।
निष्कर्ष
नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (NIEO) एक ऐसी वैश्विक मांग थी, जिसमें विकासशील देशों ने समानता, स्वावलंबन और आर्थिक न्याय की बात की। यह केवल एक आर्थिक कार्यक्रम नहीं था, बल्कि वैश्विक शक्ति-संतुलन को अधिक न्यायपूर्ण बनाने का एक प्रयास था। आज भी वैश्वि
Q.6. नेहरू विदेश नीति के संचालन को स्वतंत्रता का एक अनिवार्य संकेतक क्यों मानते थे ? अपने उत्तर में दो कारण बताएँ और उनके पक्ष में उदाहरण भी दें।
उत्तर – भारत की विदेश नीति के संचालन के संदर्भ में नेहरू का दृष्टिकोण
परिचय
भारत की स्वतंत्रता के पश्चात देश की विदेश नीति को दिशा देने में पंडित जवाहरलाल नेहरू की केंद्रीय भूमिका रही। वे केवल देश के पहले प्रधानमंत्री ही नहीं, बल्कि विदेश मंत्री के रूप में भी 1946 से 1964 तक कार्यरत रहे। इस दौरान भारत की विदेश नीति की संरचना और क्रियान्वयन में उनका गहरा प्रभाव पड़ा।
नेहरू की विदेश नीति के प्रमुख उद्देश्य:
संप्रभुता की रक्षा – भारत ने कठिन संघर्षों के बाद स्वतंत्रता प्राप्त की थी, अतः उसे बनाए रखना सर्वोपरि था।
क्षेत्रीय अखंडता की सुरक्षा – भारत की सीमाओं को सुरक्षित रखना उनकी विदेश नीति की प्राथमिकता रही।
तेज आर्थिक विकास – भारत को गरीबी, अशिक्षा और पिछड़ेपन से उबारने के लिए आर्थिक विकास अनिवार्य था।
इन उद्देश्यों को नेहरू गुटनिरपेक्षता की नीति के माध्यम से प्राप्त करना चाहते थे। वे मानते थे कि भारत को किसी भी महाशक्ति के खेमे में शामिल हुए बिना स्वतंत्र और संतुलित विदेश नीति अपनानी चाहिए।
विदेश नीति पर मेनन का उद्धरण (नेहरू के दृष्टिकोण का सार)
“आमतौर पर हमारी नीति ताकत की राजनीति से अपने को अलग रखने और महाशक्तियों के एक खेमे के विरुद्ध दूसरे खेमें में शामिल न होने की है… रूस और अमरीका एक-दूसरे को लेकर बहुत शंकित हैं… हमारा रास्ता कठिन है…”
— यह उद्धरण नेहरू की नीति की जटिलताओं और संतुलन साधने की रणनीति को दर्शाता है।
दो प्रमुख कारण और उदाहरण:
(i) विकास के लिए संतुलित संबंधों की आवश्यकता:
भारत ने गुटों से अलग रहकर सोवियत संघ और अमेरिका दोनों से सहायता प्राप्त करने की कोशिश की ताकि औद्योगिकरण, तकनीकी सहयोग और संसाधन विकास को गति मिल सके।
✦ उदाहरण: भारत ने एक ओर सोवियत संघ की सहायता से भारी उद्योग स्थापित किए (जैसे भिलाई स्टील प्लांट), तो दूसरी ओर अमेरिका की मदद से हरित क्रांति और खाद्यान्न सुरक्षा को बढ़ावा दिया।
(ii) स्वतंत्र विदेश नीति और वैश्विक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता:
नेहरू मानते थे कि लोकतंत्र, मानव अधिकार और उपनिवेशवाद का विरोध भारत की नैतिक जिम्मेदारी है।
✦ उदाहरण:
एफ्रो-एशियाई सम्मेलन (बांडुंग, 1955) में भाग लेकर उपनिवेशवाद के खिलाफ आवाज उठाई।
इंडोनेशिया की स्वतंत्रता का समर्थन किया।
चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सदस्यता का समर्थन किया और 1949 में साम्यवादी चीन को सबसे पहले मान्यता दी।
सोवियत आक्रमण पर आलोचना कर यह दर्शाया कि भारत नीतिगत रूप से स्वतंत्र है, किसी खेमे का अंधसमर्थक नहीं।
निष्कर्ष
नेहरू की विदेश नीति भारत की संप्रभुता, निष्पक्षता और नैतिकता पर आधारित थी। उन्होंने यह सिद्ध किया कि एक नया स्वतंत्र राष्ट्र भी बिना किसी शक्ति-गुट में शामिल हुए स्वतंत्र और संतुलित वैश्विक दृष्टिकोण अपना सकता है। गुटनिरपेक्षता केवल रणनीतिक नीति नहीं, बल्कि भारत के सांस्कृतिक और राजनीतिक स्वभाव की अभिव्यक्ति थी।
Q.7. अगर आपको भारत की विदेश नीति के बारे में फैसला लेने को कहा जाए तो आप इसकी किन दो बातों को बदलना चाहेंगे। ठीक इसी तरह यह भी बताएं कि भारत की विदेश नीति के किन दो पहलुओं को आप बरकरार रखना चाहेंगे। अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए।
उत्तर – वैसे तो मैं कक्षा बारहवीं का विद्यार्थी हूँ लेकिन एक नागरिक के रूप में और राजनीति विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते मुझे प्रश्न में जो कहा गया उनके अनुसार मैं दो पहलुओं को बरकरार रखना चाहूँगा।
(i) सी०टी०बी०टी० के बारे में वर्तमान दृष्टिकोण को और परमाणु नीति की वर्तमान नीति को जारी रखूगा।
(ii) मैं संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता जारी रखते हुए विश्व बैंक अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से सहयोग जारी रखूगा।
(iii) दो बदलने वाले पहलू निम्नलिखित होंगे।
(a) मैं गुट निरपेक्ष आंदोलन की सदस्यता को त्याग करके संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देशों के साथ अधिक मित्रता बढ़ाना चाहूँगा क्योंकि आज दुनियाँ में पश्चिमी देशों की तूती बोलती है और वे ही सम्पत्ति और शक्ति सम्पन्न हैं। रूस और साम्यवाद निरंतर ढलाने की दिशा में अग्रसर हो रहा है।
(b) मैं पड़ोसी देशों के साथ आक्रामक संधि करूँगा तो जर्मनी के बिस्मार्क की तरह अपने राष्ट्र को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए सोवियत संघ देश के साथ ऐसी संधि करूँगा ताकि चीन 1962 की तरह भारत देश के भू-भाग को अपने कब्जे में न रखें और शीघ्र ही तिब्बत, बारमाँसा, हाँगकाँग को अंतर्राष्ट्रीय समाज में स्वायतपूर्ण स्थान दिलाने का प्रयत्न करूँगा और संभव हुआ तो नेपाल, बर्मा, बांग्लादेश, श्रीलंका के साथ समूहिक प्रतिरक्षा संबंधी व्यापक उत्तरदायित्व और गठजोड़ की संधियाँ/ समझौते करूँगा।
Q.8. वैश्वीकरण ने भारत को कैसे प्रभावित किया है और भारत कैसे वैश्वीकरण प्रभावित कर रहा है ?
उत्तर – भारत पर वैश्वीकरण का प्रभाव (Impact of Globalisation on India)
1. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और औपनिवेशिक अनुभव
भारत में वस्तुओं, विचारों और लोगों का प्रवाह कोई नया अनुभव नहीं है; यह कई शताब्दियों से चलता आ रहा है।
औपनिवेशिक काल में ब्रिटेन की साम्राज्यवादी नीतियों के कारण भारत एक कच्चा माल निर्यातक और बने-बनाए उत्पादों का आयातक बनकर रह गया था।
स्वतंत्रता के बाद, भारत ने आत्मनिर्भर बनने का संकल्प लिया और संरक्षणवादी नीति अपनाई, जिसके तहत विदेशी व्यापार और निवेश पर कई प्रतिबंध लगाए गए ताकि घरेलू उद्योगों को उभरने का मौका मिले।
हालाँकि, इस नीति के कुछ सीमित लाभ हुए —
कुछ क्षेत्रों में विकास हुआ, लेकिन
स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास जैसे ज़रूरी क्षेत्रों में अपेक्षित प्रगति नहीं हो पाई।
साथ ही, आर्थिक वृद्धि की दर धीमी रही।
2. भारत में वैश्वीकरण को अपनाना (Adoption of Globalisation in India)
1991 में भारत ने नई आर्थिक नीति के अंतर्गत उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण को अपनाया। इस नीति का उद्देश्य था भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था से जोड़ना।
मुख्य परिवर्तन:
औद्योगिक संरक्षण की नीति समाप्त कर दी गई।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का स्वागत किया गया।
विदेशी पूँजी और तकनीक को देश में आने की अनुमति दी गई।
आयात-निर्यात लाइसेंसिंग प्रणाली को आसान किया गया।
परिणाम:
भारत का निर्यात और विदेशी निवेश बढ़ा।
परंतु साथ ही वस्तुओं की कीमतें, आय असमानता और बेरोजगारी की समस्याएँ भी बढ़ीं।
अमीर और अमीर हुए, गरीब और गरीब।
3. भारत में वैश्वीकरण का प्रतिरोध (Resistance to Globalisation in India)
वैश्वीकरण का विरोध भारत में दो वैचारिक धाराओं से हुआ – वामपंथी और दक्षिणपंथी।
(a) वामपंथी दृष्टिकोण:
वैश्वीकरण को एक नई पूँजीवादी व्यवस्था मानते हैं जो धनी देशों और निगमों को और अधिक शक्तिशाली बनाती है।
उनका तर्क है कि राज्य की भूमिका कमजोर पड़ रही है और गरीबों की सुरक्षा घट रही है।
वैश्वीकरण से रोज़गार के अवसर घटे, और आर्थिक विषमता बढ़ी।
✦ उदाहरण:
इंडियन सोशल फोरम जैसे मंचों पर विरोध हुआ।
किसानों और मज़दूर संगठनों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ प्रदर्शन किए।
‘नीम’ और ‘हल्दी’ जैसी भारतीय वनस्पतियों पर पेटेंट के प्रयासों का विरोध हुआ।
(b) दक्षिणपंथी दृष्टिकोण:
वैश्वीकरण से भारतीय संस्कृति पर खतरा बताया गया।
विदेशी टी.वी. चैनल, वैलेण्टाइन डे, और पश्चिमी जीवनशैली को भारतीय मूल्यों के विरुद्ध बताया गया।
✦ उदाहरण:
विदेशी वस्त्रों और रिवाजों को अपनाने के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए।
कुछ संगठनों ने भारतीयता की रक्षा के नाम पर वैश्वीकरण का सांस्कृतिक विरोध किया।
निष्कर्ष (Conclusion)
वैश्वीकरण ने भारत को नई आर्थिक संभावनाएँ दी हैं, लेकिन इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलू हैं। एक ओर यह विदेशी पूँजी, तकनीक और वैश्विक बाज़ार तक पहुँच का अवसर देता है, वहीं दूसरी ओर यह आर्थिक विषमता, सांस्कृतिक क्षरण और बेरोजगारी की चुनौतियाँ भी पैदा करता है।
इसलिए, भारत को एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हुए ऐसा वैश्वीकरण चाहिए जो लोककल्याण, सांस्कृतिक मूल्यों और आत्मनिर्भरता को बनाए रखे।
Q.9. 9/11 और आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी युद्ध पर एक लेख लिखिए।
उत्तर – 9/11 और आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी युद्ध
(9/11 and the Global War on Terror)
(i) पृष्ठभूमि (Background)
11 सितंबर 2001 (9/11) को अमेरिका पर एक अभूतपूर्व आतंकवादी हमला हुआ।
19 अपहरणकर्ताओं ने, जो अरब देशों से थे, चार अमेरिकी वाणिज्यिक विमानों को उड़ान भरने के तुरंत बाद ही कब्जे में ले लिया।
दो विमानों को न्यूयॉर्क स्थित वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के उत्तर और दक्षिण टावर से टकराया गया।
तीसरे विमान ने वर्जीनिया स्थित पेंटागन (अमेरिकी रक्षा विभाग) पर हमला किया।
चौथा विमान अमेरिकी संसद भवन को निशाना बनाकर उड़ाया गया था, लेकिन यात्रियों के संघर्ष के कारण वह पेंसिलवेनिया के खेत में गिर गया।
इस भयावह हमले को इतिहास में “9/11” के नाम से जाना जाता है।
(ii) आतंकवादी हमले के प्रभाव (Consequences of the Attack)
इस हमले में लगभग 3000 लोग मारे गए और अमेरिका में यह अब तक का सबसे घातक हमला साबित हुआ।
अमेरिकी जनता ने इसकी तुलना 1814 में ब्रिटिश हमले और 1941 में जापान के पर्ल हार्बर हमले से की।
यह हमला न केवल अमेरिका की सुरक्षा व्यवस्था की विफलता को उजागर करता था, बल्कि वैश्विक स्तर पर आतंकवाद के बदलते स्वरूप की भी चेतावनी थी।
(iii) अमेरिका की प्रतिक्रिया (Reaction of the United States)
(a) नीति में बदलाव और कड़ी कार्यवाही
9/11 के समय अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश थे। उन्होंने आतंकवाद के खिलाफ एक कड़ा और निर्णायक रुख अपनाया।
उन्होंने इसे केवल एक आतंकी हमला नहीं, बल्कि अमेरिका के खिलाफ युद्ध बताया।
(b) ‘ऑपरेशन एंड्यूरिंग फ्रीडम’ (Operation Enduring Freedom)
यह अभियान तालिबान शासन और अल-कायदा को निशाना बनाकर शुरू किया गया।
अफगानिस्तान में तालिबान सरकार को जल्दी ही हटा दिया गया, लेकिन तालिबान और अल-कायदा की गुप्त गतिविधियाँ अब भी जारी हैं।
9/11 के बाद इन संगठनों ने अमेरिका और पश्चिमी देशों में अनेक हमलों को अंजाम दिया।
(c) वैश्विक गिरफ्तारी अभियान और ग्वांतानामो बे जेल
अमेरिका ने दुनिया भर में आतंकवादियों को पकड़ने और पूछताछ करने के लिए बड़े स्तर पर ऑपरेशन चलाए।
ग्वांतानामो बे (क्यूबा में अमेरिकी नौसेना अड्डा) में गुप्त जेल बनाई गई, जहाँ बंदियों को बिना किसी मुकदमे के रखा गया।
इन बंदियों को अंतर्राष्ट्रीय कानून या अमेरिकी संविधान की सुरक्षा प्राप्त नहीं थी।
संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधियों को भी इनसे मिलने की अनुमति नहीं दी गई, जिससे अमेरिका की मानवाधिकार नीति पर कई सवाल खड़े हुए।
निष्कर्ष (Conclusion)
9/11 की घटना ने न केवल अमेरिका, बल्कि पूरे विश्व को सुरक्षा और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के संदर्भ में एक नई दिशा दी।
अमेरिका ने इसे “आतंकवाद के विरुद्ध वैश्विक युद्ध” (Global War on Terror) का नाम दिया।
परंतु इस युद्ध की आड़ में गुप्त गिरफ्तारियाँ, मानवाधिकारों का उल्लंघन और संप्रभु राष्ट्रों में हस्तक्षेप जैसी घटनाओं ने आलोचना भी उत्पन्न की।
अंततः, 9/11 एक ऐसी घटना रही जिसने विश्व राजनीति, सुरक्षा नीति और वैश्विक रिश्तों की सोच को पूरी तरह बदल कर रख दिया।
Q.10. नेपाल के लोग अपने देश में लोकतंत्र को बहाल करने में कैसे सफल हुए ?
उत्तर – नेपाल में लोकतंत्र की बहाली
(Establishment of Democracy in Nepal)
1. पृष्ठभूमि (Historical Background)
नेपाल एक समय हिंदू राजशाही वाला देश था।
आधुनिक काल में नेपाल ने संवैधानिक राजतंत्र की ओर कदम बढ़ाया, जिसमें राजा का अस्तित्व बना रहा और राजनीतिक पार्टियाँ शासन में भागीदारी चाहती थीं।
लेकिन, राजा ने सेना की मदद से पूरा शासन अपने हाथ में ले लिया, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया बाधित हो गई।
2. 1990 का लोकतांत्रिक आंदोलन और उसके बाद
1990 में जन दबाव के चलते राजा ने नया लोकतांत्रिक संविधान स्वीकार किया, लेकिन लोकतांत्रिक सरकारें कमजोर और अस्थिर रहीं।
इस दौरान माओवादी आंदोलन का उदय हुआ, जो राजा और शासक वर्ग के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष करना चाहते थे।
माओवादी संघर्ष और सरकारी सेना के बीच गृहयुद्ध जैसे हालात बन गए।
3. लोकतंत्र का हनन (2002 में संसद भंग)
2002 में राजा ने संसद भंग कर दी और सरकार को बर्खास्त कर, सभी अधिकार अपने हाथ में ले लिए।
इसने नेपाल में शेष बचा हुआ लोकतंत्र भी खत्म कर दिया और देश में तीराहे संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हुई — राजा, माओवादी और लोकतंत्र समर्थक दलों के बीच।
4. अप्रैल 2006 का जन आंदोलन
अप्रैल 2006 में नेपाल में देशव्यापी आंदोलन हुआ जिसमें लाखों लोग सड़कों पर उतरे।
इस आंदोलन का नेतृत्व किया –
सात दलों का गठबंधन (Seven Party Alliance)
माओवादी संगठन
सामाजिक कार्यकर्ता और आम जनता
अंततः राजा ज्ञानेन्द्र को संसद की बहाली के लिए मजबूर होना पड़ा (जो 2002 में भंग की गई थी)।
यह आंदोलन मोटे तौर पर अहिंसक रहा और नेपाल में लोकतंत्र की दिशा में एक निर्णायक मोड़ सिद्ध हुआ।
5. आगे की प्रक्रिया: संविधान निर्माण और अस्थिरता
नेपाल में लोकतंत्र अब भी पूरी तरह स्थापित नहीं हो पाया है।
देश अब एक नवसंविधान की दिशा में बढ़ा — संविधान सभा के गठन की प्रक्रिया आरंभ हुई।
माओवादियों ने सशस्त्र संघर्ष छोड़ने की घोषणा की और सामाजिक-आर्थिक बदलावों को संविधान में शामिल करने की माँग रखी।
सात दलों के गठबंधन के भीतर माओवादियों और अन्य दलों में वैचारिक मतभेद दिखाई दिए।
माओवादी और कुछ अन्य समूह भारत की भूमिका को लेकर आशंकित रहे।
6. वर्तमान स्थिति (Post-2017 Developments)
2017 में आम चुनाव के बाद नेपाल में वामपंथी गठबंधन की सरकार बनी, जिसमें माओवादी भी शामिल रहे।
नेपाल अब भी संवैधानिक स्थायित्व, लोकतांत्रिक संस्थाओं की मज़बूती और भारत-नेपाल संबंधों की पुनर्परिभाषा जैसे महत्त्वपूर्ण चरणों से गुजर रहा है।
निष्कर्ष (Conclusion)
नेपाल का लोकतांत्रिक संक्रमण संघर्ष, संवाद और साझेदारी की मिसाल है।
माओवादियों का सशस्त्र आंदोलन से लोकतांत्रिक प्रक्रिया में प्रवेश,
राजशाही के विरुद्ध व्यापक जन-जागरण, और
संविधान सभा द्वारा नया संविधान बनाना —
ये सब नेपाल को लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने की दिशा में बड़े कदम थे। हालांकि चुनौतियाँ अब भी मौजूद हैं, लेकिन नेपाल ने लोकतंत्र की बहाली की दिशा में एक स्थायी ऐतिहासिक पहल की है।

SANTU KUMAR
I am a passionate Teacher of Class 8th to 12th and cover all the Subjects of JAC and Bihar Board. I love creating content that helps all the Students. Follow me for more insights and knowledge.
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