Q 1. अलबरूनी द्वारा दिए गए उसके तत्कालीन भारत के विवरण को अपने शब्दों में संक्षेप में दीजिए।
उत्तर – अलबरूनी द्वारा दिए गए भारत के बारे में विवरण का सारांश: अलबरूनी, जो महमूद गजनवी के आक्रमण के समय भारत में आए थे, ने भारतीय समाज, संस्कृति और राजनीतिक स्थिति के बारे में विस्तृत जानकारी दी। उनके वर्णन से तत्कालीन भारत की सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, न्यायिक और सांस्कृतिक स्थिति का स्पष्ट चित्र मिलता है।
सामाजिक स्थिति (Social Condition): अलबरूनी ने लिखा कि भारतीय समाज जाति प्रथा के कठोर बंधनों में बंधा हुआ था। उस समय बाल-विवाह और सती प्रथा जैसी कुप्रथाएँ प्रचलित थीं। विधवाओं को पुनः विवाह करने की अनुमति नहीं थी, जिससे सामाजिक जीवन में असमानताएँ बढ़ रही थीं।
धार्मिक स्थिति (Religious Condition): उनके अनुसार, भारत में मूर्ति पूजा का प्रचलन था और लोग मंदिरों में दान देते थे। मंदिरों में बहुत अधिक धन जमा था। साधारण लोग अनेक देवी-देवताओं में विश्वास रखते थे, जबकि कुछ शिक्षित और विद्वान लोग केवल एक ईश्वर में विश्वास करते थे।
राजनीतिक दशा (Political Condition): अलबरूनी ने यह बताया कि भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित था। कन्नौज, मालवा, गुजरात, सिंध, कश्मीर और बंगाल प्रमुख राज्य थे, लेकिन इनमें राष्ट्रीय एकता की कमी थी। ये राज्य आपस में झगड़े और ईर्ष्या के कारण लगातार युद्ध करते रहते थे।
न्याय व्यवस्था (Judiciary): भारत की न्याय व्यवस्था के बारे में अलबरूनी ने कहा कि फौजदारी कानून अपेक्षाकृत नरम थे। ब्राह्मणों को मृत्यु दंड नहीं दिया जाता था। बार-बार अपराध करने वाले अपराधियों के हाथ-पैर काट दिए जाते थे।
भारतीय दर्शन (Indian Philosophy): अलबरूनी भारतीय दर्शन से बहुत प्रभावित था। उसने भगवद्गीता और उपनिषदों के उच्च दार्शनिक विचारों की सराहना की, जो उसे गहरे धार्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोण प्रदान करते थे।
ऐतिहासिक ज्ञान (Historical Knowledge): अलबरूनी ने भारतीयों की ऐतिहासिक ज्ञान के बारे में यह टिप्पणी की कि भारतीयों को घटनाओं के तिथि अनुसार लेखन का ज्ञान कम था। वे घटनाओं को कथा-कहानी के रूप में अधिक प्रस्तुत करते थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि उस समय भारतीयों के पास इतिहास लेखन की वैज्ञानिक पद्धति का अभाव था।
सामान्य स्वभाव (General Nature): अलबरूनी ने भारतीयों के सामान्य स्वभाव के बारे में कहा कि वे अत्यधिक अभिमानी होते हैं और अपने ज्ञान को दूसरों के साथ साझा करने में संकोच करते हैं। उन्होंने लिखा कि हिंदू अपनी जाति के लोगों को भी ज्ञान देने में कंजूसी करते हैं और विदेशी लोगों को तो बिल्कुल भी नहीं। वे यह मानते थे कि उनका धर्म और ज्ञान सबसे श्रेष्ठ है, और उनका देश अन्य देशों से सर्वोत्तम है।
सारांश: अलबरूनी के इस वर्णन से हमें तत्कालीन भारत के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है। उन्होंने भारतीय समाज की विविधताएँ, धार्मिक विश्वास, राजनीतिक अस्थिरता, न्यायिक प्रक्रिया, दार्शनिक विचारों, ऐतिहासिक ज्ञान और सामान्य स्वभाव के बारे में स्पष्टता से बताया है। उनका विवरण भारतीय इतिहास, संस्कृति और समाज की एक महत्वपूर्ण दृष्टि प्रस्तुत करता है।
Q.2. गुप्त साम्राज्य के पतन के कारणों की चर्चा करें। अथवा गुप्त साम्राज्य के पतन के क्या कारण थे ?
उत्तर – गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण:
गुप्त साम्राज्य, जो भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग माना जाता है, विभिन्न कारणों से कमजोर हुआ और इसका पतन हुआ। निम्नलिखित कारण इसके पतन के प्रमुख कारण थे:
अयोग्य उत्तराधिकारी (Weak successors):
समुद्रगुप्त के बाद गुप्त साम्राज्य को संभालने वाला कोई सक्षम और सबल शासक नहीं था। इसके परिणामस्वरूप, केंद्रीय सत्ता कमजोर हुई और कई राज्यों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी।उत्तराधिकारी के नियम का अभाव (Lack of the law of succession):
गुप्त साम्राज्य में उत्तराधिकार के नियमों का अभाव था। सम्राट की मृत्यु के बाद अक्सर गृह युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती थी। यह स्थिति उत्तराधिकारी के चयन में अनिश्चितता उत्पन्न करती थी, और परिणामस्वरूप, जो व्यक्ति शक्तिशाली होता था, वही राजगद्दी पर आ जाता था।सीमावर्ती क्षेत्रों की अवहेलना (Negligence of the frontiers):
चंद्रगुप्त द्वितीय के बाद, गुप्त शासकों ने सीमावर्ती क्षेत्रों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। इसके कारण, विदेशी आक्रमणकारी बिना किसी रुकावट के भारत में प्रवेश करने में सक्षम हो गए।बौद्ध धर्म का प्रभाव (Effect of Buddhism):
बौद्ध धर्म का प्रभाव गुप्त शासकों पर भी पड़ा, जिसने उन्हें अहिंसावादी बना दिया। बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण गुप्त शासकों की सेना कमजोर हो गई। सैनिकों में शत्रुओं से मुकाबला करने की इच्छाशक्ति की कमी आ गई, और इस प्रकार साम्राज्य की रक्षा में कमजोरी उत्पन्न हुई।विशाल साम्राज्य (Vast Empire):
गुप्त साम्राज्य अत्यधिक विशाल था, और उस समय यातायात के साधन सीमित थे। इसके परिणामस्वरूप, विशाल साम्राज्य पर नियंत्रण बनाए रखना कठिन हो गया। प्रशासनिक और सैन्य दृष्टिकोण से यह साम्राज्य अपनी विशालता के कारण कमजोर हो गया।सैन्य दुर्बलता (Military weakness):
गुप्त काल में सुख-समृद्धि का वातावरण था, लेकिन लंबे समय तक युद्ध न होने के कारण सेना में आलस्य और विलासिता आ गई। परिणामस्वरूप, सेना शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर हो गई, और साम्राज्य की रक्षा के लिए आवश्यक सैन्य शक्ति में कमी आ गई।आंतरिक विद्रोह (Internal Revolts):
जब गुप्त साम्राज्य शक्तिशाली था, तो अन्य भारतीय राजाओं ने उनकी अधीनता स्वीकार की थी। लेकिन गुप्त शासकों की सैनिक शक्ति कमजोर होते ही, ये शासक विद्रोह करने लगे। उदाहरण स्वरूप, मालवा के राजा यशोधवर्मन और वाकाटक के राजा नरेंद्रसेन ने विद्रोह कर अपनी स्वतंत्रता घोषित की।हूणों के आक्रमण (Attack of Hunas):
गुप्त साम्राज्य के पतन का सबसे प्रमुख कारण हूण जाति के आक्रमण थे। यह आक्रमण चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की मृत्यु के बाद प्रारंभ हो गए थे। डॉ. वीसेट स्मिथ के अनुसार, पाँचवीं और छठी शताब्दी में हूणों के आक्रमणों ने गुप्त साम्राज्य को तोड़ दिया और नए राज्यों के जन्म के लिए क्षेत्र तैयार कर दिया।आर्थिक संकट (Economic Crisis):
आर्थिक संकट भी गुप्त साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण था। स्कंदगुप्त को शुंग जाति और हूणों के साथ कई युद्ध लड़ने पड़े, जिनसे सरकारी खजाना खाली हो गया। इन युद्धों ने राज्य की आर्थिक स्थिति को कमजोर किया, और इसके परिणामस्वरूप गुप्त साम्राज्य को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
निष्कर्ष: गुप्त साम्राज्य के पतन का कारण केवल एक नहीं था, बल्कि इसके पतन में कई कारक योगदान करते हैं, जैसे अयोग्य उत्तराधिकारी, सीमावर्ती क्षेत्रों की अवहेलना, आंतरिक विद्रोह, और हूणों के आक्रमण। इन कारणों ने मिलकर गुप्त साम्राज्य को कमजोर किया और अंततः इसके पतन की प्रक्रिया को तेज किया।
Q.3. गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग क्यों कहा जाता है ?अथवा गुप्तों के अधीन भारत की सांस्कृतिक प्रगति की विवेचना करें।
उत्तर – गुप्तकाल: भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग
गुप्तकाल प्राचीन भारतीय इतिहास का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण युग माना जाता है। यह युग सिर्फ राजनीतिक एकता और प्रशासन के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं था, बल्कि सांस्कृतिक विकास के दृष्टिकोण से भी अत्यधिक महत्वपूर्ण था। इस समय कला, साहित्य, विज्ञान, और धर्म में अभूतपूर्व प्रगति हुई, जिससे इसे प्राचीनकाल का स्वर्णिम युग (The Golden Age) कहा गया। अनेक विद्वानों ने गुप्तकाल की तुलना यूनान के पेरिक्लीज युग और रोम के ऑगस्टस युग से की है। इसे अभिजात्य युग (Classical Age) भी कहा जाता है। हालांकि, यह सत्य है कि इस युग में सांस्कृतिक प्रगति अधिक हुई, परंतु यह प्रगति विशेष वर्ग के लिए ही थी। जनसाधारण के लिए यह काल सांस्कृतिक विकास का युग नहीं था, क्योंकि आम जनता को इस प्रगति का कोई विशेष लाभ नहीं था। फिर भी, यह स्वीकार करना होगा कि गुप्तकाल सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध था, भले ही इसका लाभ कुछ विशेष वर्गों तक सीमित था।
राजनीतिक एकता और प्रशासन
गुप्तकाल में चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ जैसे महान गुप्त शासकों ने लगभग सम्पूर्ण भारत में एकछत्र राज्य कायम किया। इन शासकों ने देश के विभिन्न हिस्सों में समान प्रशासनिक व्यवस्था लागू की, जिससे राजनीतिक अस्थिरता समाप्त हो गई और सुख-शांति का वातावरण स्थापित हुआ। इस राजनीतिक स्थिरता ने सांस्कृतिक विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ तैयार कीं। यही कारण है कि गुप्तकाल को प्राचीन भारत का स्वर्णिम युग माना जाता है।
धार्मिक पुनरुत्थान
गुप्तकाल धार्मिक पुनरुत्थान का काल था। इस समय वैदिक धर्म (ब्राह्मण धर्म) अपने उत्कर्ष पर था और मूर्ति पूजा तथा मंदिरों का निर्माण प्रारंभ हुआ। इसके साथ ही जैन और बौद्ध मतावलम्बियों का भी इस काल में महत्त्व था। धार्मिक जीवन की प्रमुख विशेषता थी विभिन्न समुदायों के बीच सहअस्तित्व की भावना। भारत में यूरोपीय देशों की तरह धर्मयुद्ध नहीं हुए, बल्कि सभी धर्मों के अनुयायी आपसी सौहार्द्र के साथ रहते थे। एक प्रसिद्ध विद्वान ने इसे “The Gupta period was an age of catholicity, toleration and goodwill” के रूप में व्यक्त किया है।
शिक्षा और साहित्य का विकास
गुप्तकाल में शिक्षा और साहित्य में अभूतपूर्व प्रगति हुई। इस समय तक अधिकांश शिक्षण संस्थान मौखिक थे, और विद्यार्थियों को वेद, वेदांत, पुराण, मीमांसा, न्याय और धर्म की शिक्षा दी जाती थी। गुप्तकालीन अभिलेखों में 14 प्रकार की विद्या का उल्लेख किया गया है। इस समय के प्रमुख शैक्षणिक केंद्रों में पाटलिपुत्र, बल्लभी, उज्जयिनी, पद्मावती, काशी, मथुरा, और नालन्दा विश्वविद्यालय शामिल थे। गुप्त शासकों द्वारा इन संस्थानों को अनुदान दिया गया, जिससे शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ। साहित्यिक दृष्टिकोण से, गुप्तकाल संस्कृत साहित्य का स्वर्णिम युग था। इस काल में संस्कृत का समुचित विकास हुआ और यह राजकीय भाषा बन गई। इस समय के प्रमुख ग्रंथों में रामायण, महाभारत, पुराणों का संकलन, पंचतंत्र, कामसूत्र, आर्यभट्टीय, वृहज्जातक, और कई अन्य काव्य और धार्मिक रचनाएँ शामिल हैं। इस समय के प्रमुख कवि और लेखक कालिदास, शूद्रक, विशाखदत्त, और बोधिधर्म थे।
काव्य और नाटक
गुप्तकाल संस्कृत काव्य और नाटक के लिए प्रसिद्ध था। महाकवि कालिदास ने इस समय की सांस्कृतिक समृद्धि को अपने काव्य में उजागर किया। उनकी प्रसिद्ध काव्यरचनाएँ मेघदूत, रघुवंश, ऋतुसंहार, और अभिज्ञानशाकुन्तलम् हैं, जो आज भी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियाँ मानी जाती हैं। इसके अतिरिक्त, शूद्रक और विशाखदत्त भी इस युग के प्रसिद्ध नाटककार थे। शूद्रक की मच्छकटिक और विशाखदत्त की मुद्राराक्षस जैसे नाटक इस काल की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा हैं।
दार्शनिक विचारधारा
गुप्तकाल भारतीय दर्शन के प्रसार का भी महत्वपूर्ण समय था। इस काल में षडदर्शन (सांख्य, योग, न्याय, वैषेषिक, मीमांसा, वेदांत) का व्यापक प्रचार हुआ। इस समय कई दार्शनिक ग्रंथों की रचना हुई, जिनमें सांख्यशास्त्र, न्यायवर्तिका, परमार्थ सप्तशती और पदर्थसंग्रह जैसे ग्रंथ शामिल हैं। जैमिनी और अन्य दार्शनिकों ने इस समय भारतीय दार्शनिक विचारधारा को नया दिशा दी।
विज्ञान और गणित में प्रगति
गुप्तकाल विज्ञान और गणित के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय प्रगति का समय था। आर्यभट्टीय के लेखक आर्यभट्ट ने गणित, ज्योतिष, और त्रिकोणमिति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किए। उन्होंने पृथ्वी के सूर्य के चारों ओर परिक्रमण को प्रमाणित किया और ग्रहण के कारणों को भी समझाया। इसके अलावा, बाराहमिहिर, जिनकी प्रसिद्ध कृति वृहदसंहिता है, इस युग के महान ज्योतिषी थे। नागार्जुन ने रसायन शास्त्र के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया और आयुर्वेद में नये आयाम जोड़े।
कला और वास्तुकला
गुप्तकाल में कला और वास्तुकला में भी महत्वपूर्ण प्रगति हुई। इस समय मूर्तिकला, चित्रकला, और वास्तुकला में उत्कृष्ट कृतियाँ रची गईं। गुप्तकाल में मंदिरों, स्तूपों, और गुफाओं का निर्माण हुआ। इस काल के प्रमुख मंदिरों में देवगढ़ का विष्णु मंदिर, भुमरा का मंदिर और अजन्ता की गुफाएँ प्रसिद्ध हैं। गुप्तकाल की मूर्तिकला में देवी-देवताओं की मूर्तियाँ प्रमुख थीं, जिनमें विष्णु के विभिन्न अवतारों और शिव के रूपों की मूर्तियाँ विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। चित्रकला में भी गुप्तकाल ने अपूर्व प्रगति की। अजन्ता और ग्वालियर की गुफाओं में गुप्तकालीन चित्रकला के उत्कृष्ट उदाहरण मिलते हैं। इन चित्रों में धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को बखूबी चित्रित किया गया है।
निष्कर्ष
गुप्तकाल भारतीय इतिहास का स्वर्णिम युग था, जिसमें राजनीति, धर्म, शिक्षा, साहित्य, कला, विज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में अद्वितीय प्रगति हुई। हालांकि यह प्रगति विशेष वर्गों तक सीमित थी, फिर भी इस युग ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को एक नया आयाम दिया। गुप्तकाल को स्वर्णिम युग कहना निश्चित रूप से उचित है, क्योंकि इसने भारतीय इतिहास को सांस्कृतिक, धार्मिक और वैज्ञानिक दृष्टि से समृद्ध किया।
Q.4. समुद्रगुप्त की जीवनी और उपलब्धियों का वर्णन करें।
उत्तर – समुद्रगुप्त भारतीय इतिहास के एक महान सम्राट थे, जिनका नाम विशेष रूप से उनके पराक्रम और विजय अभियानों के लिए प्रसिद्ध है। उनके जीवन और उपलब्धियों के बारे में बहुत से स्रोत उपलब्ध हैं, जिनमें सबसे प्रमुख हैं कौशाम्बी का अशोक प्रशस्ति और हरिषेण रचित प्रयाग प्रशस्ति। इन प्रशस्तियों के माध्यम से समुद्रगुप्त के अद्वितीय विजय अभियानों की जानकारी मिलती है।
समुद्रगुप्त की प्रमुख उपलब्धियाँ:
1. दिग्विजय और राजनीतिक एकता:
समुद्रगुप्त का सबसे बड़ा उद्देश्य दिग्विजय (विजय की यात्रा) और भारतीय उपमहाद्वीप में राजनीतिक एकता स्थापित करना था। इसके लिए उन्होंने उत्तर भारत और दक्षिण भारत के विभिन्न राज्यों को परास्त कर अपना साम्राज्य विस्तृत किया। उन्होंने आर्यावर्त (उत्तर भारत), दक्षिण भारत, आटविक नरेशों और सीमावर्ती क्षेत्रों के नरेशों को पराजित किया।
2. आर्यावर्त की विजय:
समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त (विंध्य और हिमालय के बीच का क्षेत्र) के सभी प्रमुख राज्यों को परास्त किया और अपने साम्राज्य में सम्मिलित किया। प्रयाग-प्रशस्ति में नौ प्रमुख राजाओं का उल्लेख किया गया है, जिनमें रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चन्द्रवर्मन, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युत, नन्दि और बलवर्मा शामिल थे। उन्होंने इन राज्यों को जीतने के लिए कई अभियानों का संचालन किया और अंततः इनका समावेश गुप्त साम्राज्य में कर लिया।
3. आटविक-नरेशों की विजय:
समुद्रगुप्त ने मध्य भारत के आटविक नरेशों को पराजित किया। इन नरेशों का साम्राज्य गाजीपुर से लेकर जबलपुर तक विस्तृत था। यह क्षेत्र महाकान्तार या मध्यभारत का जंगल क्षेत्र माना जाता था। समुद्रगुप्त ने इन नरेशों को पराजित किया और गुप्त साम्राज्य में शामिल किया।
4. दक्षिण भारत की विजय:
दक्षिण भारत में समुद्रगुप्त ने कई राजाओं को पराजित किया, लेकिन उन्होंने इन राज्यों को अपने साम्राज्य में शामिल नहीं किया। इसके बजाय, उन्होंने इन क्षेत्रों के शासकों को स्वतंत्र रहने दिया, लेकिन वे समुद्रगुप्त के अधीन रहकर कर और आज्ञाकारिता स्वीकार करते थे। समुद्रगुप्त ने अपने विजय अभियानों के दौरान केरल, कांची, महाकोशल, और अन्य दक्षिणी क्षेत्रों के शासकों को पराजित किया और उनके साथ मित्रतापूर्वक संबंध बनाए रखे।
5. सीमावर्ती राज्यों से सम्बन्ध:
समुद्रगुप्त ने सीमा क्षेत्रों के शासकों और गणराज्यों से भी अपनी शक्ति का विस्तार किया। उन्होंने पूर्वी बंगाल, कुमायूँ, गढ़वाल, रुहेलखंड जैसे क्षेत्रों के शासकों से भी अपना अधिकार स्थापित किया। इन राज्यों ने समुद्रगुप्त के प्रति आत्म-समर्पण किया और उसकी सत्ता को स्वीकार किया।
6. विदेशी राज्यों से सम्बन्ध:
समुद्रगुप्त ने विदेशों के शासकों से भी मित्रतापूर्वक संबंध स्थापित किए। उन्होंने सिंहल और समुद्रपार के द्वीपों के साथ संधियाँ कीं, जिसमें आत्मनिवेदन, कन्योपायन, दान और स्वायत्तता की गारंटी शामिल थी। इन संधियों ने समुद्रगुप्त के साम्राज्य को विदेशों तक प्रभावशाली बना दिया।
7. अश्वमेघ यज्ञ:
समुद्रगुप्त ने अपनी विजय और साम्राज्य की शक्ति का प्रतीक अश्वमेघ यज्ञ आयोजित किया। इस यज्ञ में दान देने के लिए उन्होंने सोने के सिक्के ढलवाए, जिन पर ‘अश्वमेघ पराक्रम’ लिखा हुआ था। इस यज्ञ का आयोजन उनके अपार विजय और शक्ति को प्रदर्शित करता है।
समुद्रगुप्त का साम्राज्य:
समुद्रगुप्त ने एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की, जो उत्तरी भारत और मध्य भारत तक फैला था। उन्होंने अपने राज्य का विस्तार करने के लिए न केवल सैन्य विजय का सहारा लिया, बल्कि रणनीतिक दृष्टिकोण और कूटनीति का भी इस्तेमाल किया। उनके विजय अभियानों के परिणामस्वरूप उन्हें भारतीय नेपोलियन के नाम से भी सम्मानित किया गया।
समुद्रगुप्त ने न केवल विजय प्राप्त की, बल्कि उन्होंने अपने शासन में शांति और समृद्धि भी सुनिश्चित की। उनके शासन में कला, साहित्य और संस्कृति को बढ़ावा मिला, जो गुप्त काल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग बना गया।
निष्कर्ष:
समुद्रगुप्त का शासन भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उनके विजय अभियानों और राजनीतिक रणनीतियों ने न केवल गुप्त साम्राज्य को स्थापित किया, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप में एकता और समृद्धि भी लायी। उनका साम्राज्य दक्षिण भारत से लेकर उत्तर भारत तक विस्तृत था, और उनके नेतृत्व में भारत ने अपने समय के सबसे प्रभावशाली साम्राज्यों में से एक देखा।
Q.5. कुषाण कौन थे ? कनिष्क प्रथम की उपलब्धियों की विवेचना करें। अथवा, कनिष्क प्रथम की जीवनी एवं उपलब्धियों का विवरण दें।
उत्तर – कनिष्क प्रथम, कुषाण वंश का एक महान शासक था, जिसने 78 ई. में राज्यारोहण किया और 101-102 ई. तक शासन किया। वह एक साम्राज्य निर्माता, महान योद्धा, और बौद्ध धर्म का संरक्षक था। उसकी महानता विशेष रूप से बौद्ध धर्म के प्रचार और कला-संस्कृति के संरक्षण में थी। कनिष्क ने न केवल अपने साम्राज्य का विस्तार किया, बल्कि धार्मिक सहिष्णुता और प्रशासनिक सुधारों के लिए भी जाना जाता है।
कनिष्क का साम्राज्य विस्तार
कनिष्क एक महान योद्धा था जिसने कुषाण साम्राज्य का भारत में और अधिक विस्तार किया। वह अफगानिस्तान, सिंध, बैक्ट्रिया और पार्थिया तक अपने साम्राज्य का विस्तार करने में सफल हुआ। उसने कश्मीर पर भी विजय प्राप्त की और कनिष्कपुर नगर (जो आजकल श्रीनगर के पास काजीपुर है) की स्थापना की। इसके अलावा, उसने साकेत (अयोध्या) और पाटलिपुत्र पर भी आक्रमण किया। मध्य एशिया में काशगर, यारकंद, और खोतान पर भी उसने विजय प्राप्त की। कनिष्क का साम्राज्य गंगा, सिन्धु, और ऑक्सस की घाटियों तक फैला हुआ था। उसके सिक्कों और अभिलेखों से पता चलता है कि उसका साम्राज्य बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, और कश्मीर तक विस्तृत था। कुछ विद्वानों का मानना है कि उसने दक्षिण भारत और बंगाल पर भी अपने अधिकार की स्थापना की थी, लेकिन इसके लिए स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।
प्रशासनिक व्यवस्था
कनिष्क ने अपने साम्राज्य को सुव्यवस्थित तरीके से चलाने के लिए प्रशासनिक सुधार किए थे। उसने क्षेत्रीय प्रशासन को मजबूत किया और कई उपाधियाँ अपनाईं, जैसे ‘देवपुत्र’ और ‘कसर’। उसकी दो प्रमुख राजधानियाँ थीं—पुरुषपुर (पेशावर) और मथुरा। उसके प्रशासनिक अभिलेखों से यह ज्ञात होता है कि विभिन्न क्षेत्रों में महाक्षत्रप और क्षत्रपों द्वारा शासन किया जाता था।
धार्मिक नीति
कनिष्क के शासनकाल में बौद्ध धर्म को संरक्षण और प्रोत्साहन मिला। उसने महायान बौद्धधर्म को राज्याश्रय प्रदान किया और बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए चीन और मध्य एशिया में धर्म-प्रचारक भेजे। उसके शासनकाल में चौथे बौद्ध महासंगीत का आयोजन हुआ, जिसमें प्रमुख बौद्ध विद्वानों ने भाग लिया। इस महासंगीत में महायान बौद्धधर्म को मान्यता मिली और इसे बौद्ध धर्म की प्रमुख शाखा बना दिया गया। कनिष्क ने पेशावर में एक भव्य बौद्ध स्तूप का निर्माण भी करवाया। कनिष्क स्वयं बौद्ध धर्म को मानता था, लेकिन उसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई। इसके प्रमाण उसके सिक्कों पर विभिन्न देवताओं की आकृतियों के रूप में मिलते हैं, जिनमें सूर्य, शिव, अग्नि, हेराक्लीज, और अन्य देवताओं की मूर्तियाँ थीं। इससे यह स्पष्ट होता है कि उसने सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता दिखाई।
कला और साहित्य का संरक्षण
कनिष्क का शासन कला और साहित्य के लिए भी महत्वपूर्ण था। उसकी उदार नीति के कारण कुषाण काल में मूर्तिकला, स्थापत्य, और साहित्य में प्रगति हुई। उसने पुरुषपुर में एक विशाल बौद्ध स्तूप का निर्माण करवाया, जिसका उल्लेख चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी किया है। मथुरा में कनिष्क के समय का देवकुल और नाम मंदिर, और कश्मीर में कनिष्कपुर नगर की स्थापना ने स्थापत्य कला को नई ऊँचाई दी। बौद्ध धर्म के प्रसार से मथुरा और गांधार शैली में बुद्ध की मूर्तियाँ बनाई गईं, जो कला की उत्कृष्ट कृतियाँ मानी जाती हैं। कनिष्क ने विद्वानों और बौद्ध दार्शनिकों को सम्मान दिया और अपने दरबार में अश्वघोष और नागार्जुन जैसे महान विद्वानों को स्थान दिया।
निष्कर्ष
कनिष्क एक महान शासक था, जिसने न केवल अपने साम्राज्य का विस्तार किया, बल्कि बौद्ध धर्म के प्रसार, कला-संस्कृति के संरक्षण और धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई। उसकी उपलब्धियों के कारण उसे भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है और उसकी महानता आज भी इतिहासकारों द्वारा सराही जाती है।
Q.6. अशोक के ‘धम्म’ से आप क्या समझते हैं ? अशोक के धम्म के प्रमुख सिद्धान्त क्या थे ?
उत्तर – धम्म का स्वरूप
‘धम्म’ शब्द संस्कृत के ‘धर्म’ शब्द का प्राकृत रूप है, जिसका प्रयोग अशोक ने अपने अभिलेखों में विशेष रूप से किया। इस शब्द का अर्थ केवल बौद्धधर्म तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक सार्वजनिक धर्म को संदर्भित करता है, जिसमें विभिन्न धार्मिक और नैतिक सिद्धांतों का समावेश होता है। हालांकि बौद्धधर्म अशोक का व्यक्तिगत धर्म था, लेकिन उसने अपने धम्म में बौद्धधर्म की कुछ विशेषताओं को भी समाहित किया था। इसके बावजूद, अशोक के धम्म को बौद्धधर्म के रूप में नहीं समझा जा सकता, क्योंकि इसमें बौद्धधर्म के मूल सिद्धांतों, जैसे चार आर्य सत्य, अष्टांगिक मार्ग और निर्वाण की चर्चा नहीं की गई है। अशोक के धर्म का उद्देश्य सामाजिक और नैतिक सुधार लाना था, और उसने अपने शासनकाल में धम्म के सिद्धांतों को लागू करने की कोशिश की। उसके शिलालेखों में धम्म के विभिन्न पहलुओं की व्याख्या की गई है, जो आज भी हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं।
अशोक के धर्म के प्रमुख सिद्धान्त
बड़ों का आदर (Elder’s regards):
अशोक ने अपने शिलालेखों में यह लिखा है कि हमें अपने माता-पिता, अध्यापकों, और उम्र या पद में बड़े व्यक्तियों का सम्मान करना चाहिए और उनके आदेशों का पालन करना चाहिए।छोटों के प्रति उचित व्यवहार (Proper behaviour with youngers):
अशोक का मानना था कि बड़ों को छोटे बच्चों के साथ प्रेम और स्नेहभाव से पेश आना चाहिए, और उन्हें दया और नम्रता से व्यवहार करना चाहिए।सत्य बोलना (Speak truth):
अशोक ने सत्य बोलने पर जोर दिया है। उनके अनुसार, मनुष्य को हमेशा सत्य बोलना चाहिए, और दिखावे की भक्ति से बेहतर सत्य बोलना है।अहिंसा (Non-violence):
अशोक के धम्म में अहिंसा को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। उन्होंने यह निर्देश दिया कि मनुष्य को किसी भी जीव को, चाहे वह मन से हो, वाणी से हो या कर्म से हो, किसी प्रकार का दुख नहीं पहुंचाना चाहिए।दान (Donation):
अशोक के धर्म में दान का बहुत महत्व था। उनके अनुसार, धर्म का दान करना सबसे बड़ा दान है, जो अंधकार में पड़े लोगों को उजाला दिखाता है और उन्हें सही मार्ग पर ले आता है।पवित्र जीवन (Pure Life):
अशोक ने जीवन को पवित्र रखने की सलाह दी। उनके अनुसार, मनुष्य को पाप से बचते हुए पवित्र जीवन जीना चाहिए।शुभ कार्य (Pure Action):
अशोक का यह मानना था कि हर व्यक्ति को अच्छे कर्म करने चाहिए, क्योंकि अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है और बुरे कर्मों का फल बुरा। इसके माध्यम से मनुष्य अपने लोक और परलोक को सुधार सकता है।सच्चे रीति-रिवाज (True Rituals):
अशोक ने झूठे रीति-रिवाजों, जादू-टोना और दिखावटी कर्मकांडों से बचने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि सच्चे रीति-रिवाज वही हैं जो सत्य और पवित्र जीवन के साथ जुड़ते हैं।धार्मिक सहनशीलता (Religious Tolerance):
अशोक ने धार्मिक सहनशीलता को बहुत महत्व दिया। उनके अनुसार, व्यक्ति को अपने धर्म का सम्मान करना चाहिए, लेकिन दूसरे धर्मों की निंदा नहीं करनी चाहिए।
निष्कर्ष
अशोक ने अपने धम्म के सिद्धांतों में विभिन्न धर्मों के मूल नैतिक सिद्धांतों को समाहित किया था, जो न केवल व्यक्तिगत जीवन के सुधार के लिए, बल्कि सामाजिक सुधार के लिए भी महत्वपूर्ण थे। इन सिद्धांतों ने भारतीय समाज में नैतिकता, अहिंसा, सत्य, दान, और धार्मिक सहनशीलता के महत्व को बढ़ाया। अशोक का धम्म आज भी हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत है, और यह हमें जीवन में अच्छाई और सत्य के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है।

SANTU KUMAR
I am a passionate Teacher of Class 8th to 12th and cover all the Subjects of JAC and Bihar Board. I love creating content that helps all the Students. Follow me for more insights and knowledge.
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