Class 12th History  ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 2

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Q.1. चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन प्रबन्ध विस्तार से लिखें। अथवा, मौर्य साम्राज्य की शासन पद्धति का वर्णन करें। अथवा, मौर्यों के नागरिक प्रबन्ध के विषय में आप क्या जानते है ।

उत्तर – चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन प्रबन्ध का विवरण

चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन एक केंद्रीकृत और सुव्यवस्थित प्रशासनिक ढांचे पर आधारित था। इस शासन के प्रबन्ध का वर्णन हमें कौटिल्य के अर्थशास्त्र और मेगास्थनीज की इण्डिका में मिलता है। ब्रिटिश इतिहासकार वी. ए. स्मिथ के अनुसार, “मौर्य राज्य एक संगठित और सावधानीपूर्वक ग्रेडेड अधिकारियों के माध्यम से कार्य करता था जिनके कार्यक्षेत्र स्पष्ट रूप से निर्धारित थे।”चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन प्रबन्ध को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है:

1. केंद्रीय शासन (Central Administration)

चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन एकतंत्रात्मक था। सम्राट स्वयं राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था और उसके हाथ में शासन की पूरी शक्ति थी। सम्राट के प्रमुख कार्य निम्नलिखित थे:

  • अधिकारियों की नियुक्ति: सम्राट स्वयं सभी अधिकारियों की नियुक्ति करता था और उनके कार्यों की निगरानी करता था।
  • विदेशी मामलों का प्रबंधन: सम्राट ने विदेशी नीति का निर्धारण किया और बाहरी आक्रमणों से रक्षा की।
  • आंतरिक सुरक्षा: सम्राट गुप्तचर प्रणाली के माध्यम से देश की आंतरिक स्थिति पर निगरानी रखता था और शांति व्यवस्था बनाए रखता था।
  • न्यायिक कार्य: सम्राट स्वयं न्यायाधीश के रूप में कार्य करता था और प्रजा की शिकायतों का निवारण करता था।
  • सेनापति के रूप में कार्य: सम्राट ने अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए सैन्य संगठन का प्रबंधन किया।

केन्द्रीय प्रशासन में प्रमुख विभागाध्यक्ष

S.Noविभागाध्यक्षसंबंधित विभाग
1लक्षणाध्यक्षमुद्रा और टकसाल
2पौतवाध्यक्षमाप-तौल
3शुक्लाध्यक्षराजकीय अर्थ-दण्ड कार्य
4सीताध्यक्षकृषि विभाग
5आकराध्यक्षखनिज विभाग
6विविताध्यक्षचरागाहों का प्रबंधन
7पण्याध्यक्षव्यापार-वाणिज्य
8नवाध्यक्षनौ-सेना
9सूनाध्यक्षबूचड़खाने का प्रबंधन
10संस्थाध्यक्षव्यापारिक मार्गों का प्रबंधन
11गणिकाध्यक्षवेश्याओं की व्यवस्था
12लवणाध्यक्षनमक विभाग
13मुद्राध्यक्षपासपोर्ट विभाग
14महामात्रापसरणगुप्तचर व्यवस्था-सूचना विभाग
15सूत्राध्यक्षकपास और वस्त्र उद्योग

2. मन्त्रिपरिषद् (Council of Ministers)

चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक मंत्री परिषद का गठन किया था, जिसमें विभिन्न मंत्री सम्राट को शासन कार्यों में सलाह देते थे। हालांकि, सम्राट उनके आदेशों के पालन के लिए बाध्य नहीं था, लेकिन व्यवहार में वह उनकी सलाह मानता था। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में लिखा है कि राज्य सत्ता बिना मंत्री परिषद के संभव नहीं होती।

3. प्रान्तीय शासन (Provincial Administration)

चन्द्रगुप्त मौर्य ने साम्राज्य की विशालता को ध्यान में रखते हुए उसे प्रान्तों में बाँट दिया था। प्रत्येक प्रान्त का शासन राजपरिवार के सदस्य (कुमार) के अधीन होता था। कुमार को शासन कार्य में मदद करने के लिए एक महामात्र नियुक्त किया जाता था।

4. स्थानीय शासन (Local Administration)

  • नगर प्रशासन: पाटलिपुत्र (पटना) जैसे बड़े नगरों का प्रबंधन 30 सदस्यीय एक आयोग द्वारा किया जाता था, जिसमें छह समितियाँ होती थीं। प्रत्येक समिति का अपना विशिष्ट कार्य था, जैसे कला और कौशल की देखभाल, विदेशी निवासियों का प्रबंध, जन्म-मृत्यु का लेखा-जोखा, माप-तौल संबंधित कारोबार, वस्तुओं के निर्माण की गुणवत्ता जाँच आदि।
  • ग्राम प्रशासन: ग्राम की प्रशासनिक इकाई ‘ग्रामिणी’ थी, जो ग्राम कार्यों का प्रबंधन करती थी। ग्रामिणी के साथ एक सभा होती थी, जो सड़कें, पुल, तालाब और अन्य सुविधाओं का प्रबंधन करती थी। ग्राम कार्यों में गोप और स्थानिक अधिकारी भी शामिल होते थे।

5. सेना का प्रबन्ध (Military Administration)

चन्द्रगुप्त मौर्य के पास एक विशाल और सुदृढ़ सेना थी, जिसमें 6 लाख पैदल सैनिक, 30 हजार घुड़सवार, 9 हजार हाथी और 8 हजार रथ थे। सेना का प्रबंधन 30 सदस्यीय एक समिति करती थी, जो विभिन्न समितियों में विभाजित थी। सेना के विभिन्न विभागों में पैदल, घुड़सवार, रथ, हाथी, अस्त्र-शस्त्र, रसद आदि शामिल थे।

6. न्याय व्यवस्था (Justice System)

चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन में न्याय का सर्वोच्च अधिकारी सम्राट स्वयं था। छोटे नगरों और गाँवों में न्याय का कार्य महामात्र करते थे। दंड व्यवस्था कठोर थी और कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार 18 प्रकार के दंड दिए जाते थे, जिनके कारण अपराध दर बहुत कम थी। यदि छोटे न्यायालयों के निर्णय में कोई कमी होती थी, तो सम्राट स्वयं निर्णय करता था।

7. भूमिकर (Land Revenue)

कृषकों से उनकी पैदावार का 1/6 हिस्सा भूमि कर (भूमिकर) के रूप में लिया जाता था। आपातकालीन स्थितियों में इसे बढ़ा भी दिया जाता था। राज्य का अधिकार भूमि, वन और खानों पर था, और उपज से प्राप्त धन का उपयोग राज्य की भलाई और सैन्य संगठन में किया जाता था।

8. सिंचाई (Irrigation)

सिंचाई के लिए नहरों, कुओं और तालाबों का उपयोग किया जाता था। सिंचाई विभाग में विभिन्न अधिकारी होते थे जो नहरों से प्राप्त जल के बदले में किसानों से कर वसूलते थे।

9. सड़कें (Roads)

सड़क निर्माण और प्रबंधन के लिए एक अलग विभाग था। तक्षशिला से पाटलिपुत्र तक एक प्रमुख सड़क थी, और अन्य सड़कें भी थीं जो प्रमुख नगरों को जोड़ती थीं। सड़क किनारे कुएँ, धर्मशालाएँ और वृक्ष लगाए गए थे, जिससे व्यापार को बढ़ावा मिलता था।

10. गुप्तचर विभाग (Intelligence Department)

चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन में गुप्तचर विभाग बहुत सुदृढ़ था। साधु, भिक्षु, और अन्य गुप्तचर राजा को मंत्री, सैनिकों, अधिकारियों और सरकारी कर्मचारियों की गतिविधियों की सूचना देते थे। यह विभाग सम्राट को अपने साम्राज्य में किसी भी षडयंत्र या विद्रोह की पूर्व सूचना देता था।

11. अन्य हितकारी कार्य (Other Welfare Works)

चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने प्रजाजनों के स्वास्थ्य के लिए औषधालय स्थापित किए, नगरों और गाँवों की सफाई का प्रबंध किया, शिक्षा का ध्यान रखा, मन्दिरों के निर्माण के लिए दान दिया और प्राकृतिक आपदाओं के दौरान कृषकों के साथ उदार व्यवहार किया।

निष्कर्ष
चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन एक अत्यंत संगठित और प्रभावी प्रशासन था। V.A. Smith के अनुसार, “मौर्य सरकार संक्षेप में अत्यधिक संगठित और पूरी तरह से सक्षम थी, जो सम्राट अकबर से भी बड़ा साम्राज्य नियंत्रित करने में सक्षम थी। यह आधुनिक संस्थाओं की कई विशेषताओं का पूर्वानुमान करती थी।”

Q.2.  चन्दगप्त मौर्य की जीवनी एवं उपलब्धियों का वर्णन करें।

उत्तर – चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म 345 ई. पू. में हुआ था, और उनका परिवार सूर्यवंशी शाल्यों की एक शाखा था, जो नेपाल की तराई में पिप्पलिबिन के प्रजातंत्र राज्य में शासन करते थे। चन्द्रगुप्त के पिता भोरियों के प्रधान थे, लेकिन एक शक्तिशाली राजा ने उनकी हत्या करवा दी और राज्य को छीन लिया। चन्द्रगुप्त की माता उस समय गर्भवती थीं, और राज्य संकट में आने के कारण वह अपने परिवार के साथ भागकर पाटलिपुत्र (पटना) में बस गईं, जहाँ उन्होंने मयूरपालकों के बीच अपनी जीविका चलाना शुरू किया। चन्द्रगुप्त जब बड़े हुए, तो उन्होंने मगध के राजा के यहाँ नौकरी शुरू की और सेना में भर्ती हो गए। चन्द्रगुप्त में असाधारण योग्यता और नेतृत्व क्षमता थी, और जल्दी ही वह मगध की सेना के सेनापति बन गए। हालांकि, किसी कारणवश मगध के राजा ने चन्द्रगुप्त को अप्रसन्न होकर मृत्यु दंड देने का आदेश दिया। इस समय मगध में नन्द वंश का शासन था, और चन्द्रगुप्त अपनी जान बचाने के लिए मगध से भाग गए और नन्द वंश को समाप्त करने का संकल्प लिया। अपने इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए, चन्द्रगुप्त ने पंजाब की ओर रुख किया, जहां उनकी मुलाकात विष्णुशुद्र (जो चाणक्य के नाम से प्रसिद्ध थे) से हुई। चाणक्य एक महान विद्वान और कूटनीतिक रणनीतिकार थे, जिन्होंने न केवल चन्द्रगुप्त की सहायता की, बल्कि दोनों ने मिलकर नन्द वंश के विरुद्ध एक गठबंधन किया। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को सेना तैयार करने के लिए धन दिया, और चन्द्रगुप्त ने उस धन से सेना बनाई और मगध पर आक्रमण किया। चन्द्रगुप्त और चाणक्य की यह योजना सफल रही। चन्द्रगुप्त ने मगध की सेना को परास्त किया और नन्द वंश के राजा घनानंद को हराकर पाटलिपुत्र (पटना) में सिंहासन पर बैठे। 302 ई. पू. में चाणक्य ने उनका राज्याभिषेक किया, और इस प्रकार मौर्य साम्राज्य की नींव रखी गई।

चन्द्रगुप्त ने न केवल उत्तर भारत पर विजय प्राप्त की, बल्कि दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उसने सौराष्ट्र और मालवा पर भी विजय प्राप्त की और पुष्यगुप्त वंश को मालवा का प्रबंध करने के लिए नियुक्त किया। इसके बाद, चन्द्रगुप्त का साम्राज्य दक्षिण में कर्नाटका क्षेत्र तक फैल गया। चन्द्रगुप्त का अंतिम संघर्ष सेल्यूकस निकेटर, सिकंदर के सेनापति, से हुआ। सिकंदर की मृत्यु के बाद, सेल्यूकस ने भारत पर आक्रमण किया, लेकिन चन्द्रगुप्त की सेना ने उसे पराजित कर दिया। इसके परिणामस्वरूप, चन्द्रगुप्त और सेल्यूकस के बीच सन्धि हुई, और सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त को अफगानिस्तान और अन्य क्षेत्रों का अधिकार दिया। इसके बदले में, चन्द्रगुप्त ने उसे 500 हाथी भेंट किए। चन्द्रगुप्त का साम्राज्य पश्चिम में हिन्दुकुश पर्वत से लेकर बंगाल तक, उत्तर में हिमालय पर्वत से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक फैला हुआ था। हालांकि, कलिंग और कुछ अन्य दक्षिणी भागों को छोड़कर यह साम्राज्य बहुत विस्तृत था। चन्द्रगुप्त न केवल एक महान विजेता थे, बल्कि एक सक्षम और कुशल शासक भी थे। उनके शासन ने भारतीय राजनीति में एकता और समृद्धि की मिसाल प्रस्तुत की। चन्द्रगुप्त ने जो शासन व्यवस्था स्थापित की, वह इतनी उत्तम थी कि भविष्य के शासकों के लिए आदर्श बन गई, और उसे आवश्यकतानुसार थोड़ा-बहुत बदलते हुए जारी रखा गया। उनके शासन के दौरान प्रशासनिक दक्षता, आर्थिक प्रगति और शांति व्यवस्था में अभूतपूर्व सुधार हुए, जो आज भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माने जाते हैं।

Q.3. मगध साम्राज्य के उत्थान के क्या कारण थे ?

उत्तर – छठी शताब्दी ई. पूर्व में मगध एक शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में उभरा। विम्बिसार, अजातशत्रु और महापद्मनंद जैसे महान और साहसी राजाओं के नेतृत्व में मगध ने एक विशाल साम्राज्य का रूप लिया। 321 ई. पूर्व तक यह साम्राज्य अपनी उत्कर्ष की ऊंचाइयों तक पहुंच चुका था। मगध के साम्राज्य के उत्थान में कई महत्वपूर्ण कारण थे, जिनका उल्लेख निम्नलिखित है:

(i) लोहे का भंडार:
मगध की आरंभिक राजधानी राजगृह के पास लोहे का भंडार था। इस भंडार से प्राप्त लोहा मगध के लोगों के लिए अत्यधिक लाभकारी सिद्ध हुआ। लोहे के औजारों का प्रयोग कर उन्होंने जंगलों को साफ किया, जिससे कृषि का विकास हुआ। कृषि के क्षेत्र में सुधार से मगध की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई और इसके साथ ही इसके राजनीतिक उत्कर्ष में भी सहायक साबित हुआ। लोहे से बने शस्त्रास्त्रों का निर्माण भी हुआ, जिसने युद्धों में मगध को अन्य जनपदों पर विजय प्राप्त करने में सहायता दी। इस प्रकार लोहे के भंडार ने मगध को एक दोहरे लाभ का स्रोत प्रदान किया – एक ओर यह आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ हुआ, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक ताकत भी मिली।

(ii) सामरिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण स्थान:
मगध की दोनों प्रमुख राजधानियाँ सामरिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण स्थानों पर स्थित थीं। राजगृह पाँच पहाड़ियों से घिरा हुआ था, जिससे यह एक स्वाभाविक किलाबंदी की तरह था। वहीं, पाटलिपुत्र (पटना) गंगा, गंडक और सोन नदियों के संगम पर स्थित था, जो इसे जलदुर्ग जैसा बना देता था। पाटलिपुत्र का स्थान चारों ओर से नदियों से घिरा हुआ था, जिससे संचार में सुविधा थी और बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा भी थी। इस सामरिक दृष्टिकोण ने मगध को अपनी सीमाओं का विस्तार करने और साम्राज्य को मजबूत बनाने में मदद की।

(iii) हाथियों का उपयोग:
मगध ने अपनी सेना में हाथियों का विशेष रूप से उपयोग किया, जो अन्य राज्यों की सेनाओं से एक अलग और मजबूत पहलू था। भारत के पूर्वी भाग से हाथियों की आपूर्ति होती थी, और उनका इस्तेमाल दुर्गों को भेदने और शत्रु क्षेत्रों तक पहुँचने के लिए किया जाता था। हाथियों का यह विशेष उपयोग मगध को अन्य राज्यों से अधिक सामरिक बल प्रदान करता था। भारत के अधिकांश राज्य घोड़े और रथ का उपयोग करते थे, लेकिन मगध पहला राज्य था जिसने बड़े पैमाने पर हाथियों का उपयोग किया, जिससे उसकी सामरिक ताकत और भी अधिक प्रभावी हो गई।

(iv) व्यापारिक मार्ग से जुड़ा होना:
मगध व्यापारिक मार्ग पर स्थित था और यह जलमार्ग से अन्य भागों से जुड़ा हुआ था। इससे यहाँ व्यापार और वाणिज्य को विशेष बढ़ावा मिला। व्यापार के माध्यम से कर के रूप में प्राप्त होनेवाली आमदनी से मगध की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिली। इस आर्थिक सुदृढ़ता ने राजनीतिक ताकत में भी वृद्धि की, और मगध को अपने साम्राज्य का विस्तार करने में मदद मिली।

(v) प्रतापी राजाओं का योगदान:
मगध के उत्थान में वहाँ के साहसी और दूरदर्शी राजाओं का भी महत्वपूर्ण योगदान था। विम्बिसार, अजातशत्रु और महापद्मनंद जैसे राजाओं ने अपनी नीतियों, नेतृत्व और सैन्य शक्ति के बल पर मगध साम्राज्य को बहुत बढ़ावा दिया। इन राजाओं ने अपने राज्य का विस्तार ईमानदारी से ही नहीं, बल्कि कभी-कभी बेईमानी से भी किया। उनका नेतृत्व और दूरदृष्टि मगध के उत्कर्ष का मुख्य कारण बनी। अगर ये महान राजा नहीं होते, तो मगध का साम्राज्य इतना प्रबल नहीं बन पाता।

इन सभी कारणों से मगध ने एक शक्तिशाली साम्राज्य का रूप लिया और भारतीय उपमहाद्वीप में प्रमुख राजनीतिक ताकत के रूप में स्थापित हुआ।

Q.4. छठी शताब्दी ई० पू० में भारत की राजनीतिक दशा का वर्णन करें। अथवा बुद्धकालीन सोलह महाजनपदों का परिचय दें।

उत्तर – छठी शताब्दी ई. पू. में उत्तरी भारत की राजनीतिक स्थिति में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो रहे थे। वैदिककाल में जहाँ कबीलों और जनपदों का शासन था, वहीं उत्तर वैदिककाल में प्रादेशिक राज्यों की स्थापना का कार्य हुआ और छठी शताब्दी के अंत तक कई महाजनपदों की सत्ता स्थापित हो चुकी थी। बौद्ध और जैन धर्मग्रंथों में इन महाजनपदों का विस्तृत विवरण मिलता है। बौद्ध धर्म के अंगुत्तर निकाय में अंग, मगध, काशी, कोशल, बज्जि, मल्ल, चेदि, वत्स, कुरु, पांचाल, मत्स्य, शूरसेन, अस्मक, अति, गांधार और कंबोज का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार जैन धर्म के भगवती सूत्र में भी कई महाजनपदों का उल्लेख किया गया है। इन दोनों सूची में कुछ महाजनपद जैसे अंग, मगध, वत्स, बज्जि, काशी और कोशल समान रूप से उल्लिखित हैं, और बौद्ध साहित्य में दस गणराज्यों का भी उल्लेख मिलता है, जो उस समय की राजनीतिक स्थिति को स्पष्ट करते हैं।

सोलह महाजनपदों का विवरण:

  1. अंग:
    अंग, मगध के पूर्व में स्थित था, जिसकी राजधानी चंपानगरी थी। यह एक प्रमुख व्यापारिक नगर था और यहाँ की सभ्यता एवं संस्कृति अत्यधिक समृद्ध थी। मगध के साम्राज्यवादी विस्तार के कारण अंग की स्वतंत्रता समाप्त हो गई।

  2. मगध:
    मगध एक शक्तिशाली राज्य था जिसकी राजधानी राजगृह थी। इसके प्रमुख शासक वृहद्रथ और जरासंध थे। मगध साम्राज्यवादी नीति अपनाता था और इसने अंग को जीतकर अपनी सत्ता को और मजबूत किया।

  3. काशी:
    काशी की राजधानी वाराणसी थी, जो वरुणा और असी नदियों के संगम पर स्थित थी। यह नगर भारत के प्रमुख धार्मिक और व्यापारिक केंद्रों में से एक था। काशी और कोशल के बीच निरंतर संघर्ष चलता था।

  4. कोशल:
    कोशल राज्य की राजधानी श्रावस्ती थी और इसका विस्तार उत्तर प्रदेश के मध्य भाग तक था। काशी के साथ इसके कई युद्ध हुए, और बाद में मगध के शासक अजातशत्रु ने इसे जीत लिया।

  5. बृज्जि:
    बृज्जि आठ राज्यों का संघ था जिसमें लिच्छवि, विदेह, और ज्ञात्रिक प्रमुख थे। इसकी राजधानी वैशाली थी, और यहाँ गणराज्य की पद्धति थी। मगध ने इस संघ की स्वतंत्रता को समाप्त किया।

  6. मल्ल:
    मल्ल दो शाखाओं में विभक्त था – एक पावा के मल्ल, और दूसरा कुशीनगर के मल्ल। यह राज्य महत्वपूर्ण था और इसका उल्लेख महाभारत में भी मिलता है।

  7. चेदि:
    चेदि राज्य यमुना के दक्षिण में स्थित था, और इसकी राजधानी शक्तिमती थी। शिशुपाल चेदि का प्रमुख राजा था, जो प्रसिद्ध था।

  8. वत्स:
    वत्स राज्य की राजधानी कौशाम्बी थी और यह व्यापारिक मार्ग पर स्थित था, जिससे इसे महत्वपूर्ण व्यापारिक स्थिति प्राप्त थी।

  9. कुरु:
    कुरु राज्य का स्थान वर्तमान दिल्ली और मेरठ के आस-पास था। इसका प्रारंभ में राजतंत्र था, लेकिन बाद में यहाँ गणराज्य की स्थापना हुई। यहाँ के प्रमुख शासकों में सुतसोम, कौरव और धनंजय का नाम उल्लेखनीय है।

  10. पांचाल:
    पांचाल राज्य कुरु के पूर्व और दक्षिण में स्थित था। गंगा नदी द्वारा यह दो भागों में बँट गया था – उत्तरी पांचाल और दक्षिणी पांचाल, जिनकी राजधानियाँ क्रमशः अहिछत्र और काम्पिल्य थीं।

  11. मत्स्य:
    मत्स्य राज्य द्विषद्वती नदी के दक्षिण में स्थित था, और इसकी राजधानी विगटनगरी थी। इस पर चेदियों और बाद में मगध का अधिकार हो गया।

  12. शुरसेन:
    शुरसेन का राज्य यमुना के किनारे स्थित था और इसकी राजधानी मथुरा थी। यहाँ पहले गणराज्य था, बाद में राजतंत्र की स्थापना हुई।

  13. अस्मक:
    अस्मक राज्य गोदावरी नदी के दक्षिण में स्थित था, और इसकी राजधानी इक्ष्वाकु वंश के राजाओं के शासन में थी।

  14. अवन्ती:
    अवन्ती राज्य विन्ध्य पर्वत के उत्तर में स्थित था, और इसके दो भाग थे – उत्तरी अवन्ती (राजधानी उज्जयनी) और दक्षिणी अवन्ती (राजधानी महिष्मती)। यह राज्य उत्तर और मध्य भारत के बीच एक महत्वपूर्ण संपर्क स्थान था।

  15. गांधार:
    गांधार राज्य अफगानिस्तान के पास स्थित था, और इसकी राजधानी तक्षशिला थी। यह व्यापारिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था। यहाँ के विश्वविद्यालय ने प्रसिद्ध विद्वान पैदा किए।

  16. कंबोज:
    कंबोज राज्य गांधार के उत्तर-पश्चिम में स्थित था और इसकी राजधानी हाटक या राजपुर थी।

दस गणराज्य:

इसके अलावा बौद्ध ग्रंथों में दस गणराज्यों का भी उल्लेख मिलता है, जिनमें शासन का तरीका वंशवाद के बजाय चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा होता था। ये गणराज्य थे:

  1. कपिलवस्तु के शाक्य
  2. रामग्राम के कोलिय
  3. पावा के मल्ल
  4. कुशीनारा के मल्ल
  5. मिथिला के विदेह
  6. पिप्पलीवन के मोरिय
  7. सुमेर पर्वत के भग्ग
  8. अलकप्प के बुलि
  9. केसपुत्र के कलाम
  10. वैशाली के लिच्छवि

राजनीतिक प्रवृत्तियाँ:

इस काल में राजनीतिक दृष्टिकोण से कुछ प्रमुख प्रवृत्तियाँ देखने को मिलती हैं:

  1. विकेन्द्रीकरण:
    भारत कई छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था, जिससे विकेन्द्रीकरण की भावना स्पष्ट थी। सोलह महाजनपदों के अलावा कई छोटे राज्य भी थे, जैसे केकय, मुद्रक, त्रिगर्त आदि।

  2. शासन पद्धतियाँ:
    इस समय दो प्रमुख शासन पद्धतियाँ प्रचलित थीं – राजतंत्र और गणराज्य। कुछ राज्यों में राजतंत्र था, जैसे कोशल, मगध और अवन्ती, जबकि अन्य में गणतंत्रीय व्यवस्था थी, जैसे बज्जि, मल्ल, कपिलवस्तु आदि।

  3. परिवर्तनशील शासन:
    कुछ राज्यों में समय के साथ शासन पद्धतियों में बदलाव हुआ। उदाहरण के लिए, कुरु और पांचाल में राजतंत्र के बाद गणराज्य की स्थापना हुई, जबकि शूरसेन में गणराज्य के बाद राजतंत्र आया।

  4. साम्राज्यवादी भावना:
    महाजनपदों के बीच संघर्ष और विस्तार की चाह ने साम्राज्यवाद की भावना को जन्म दिया। हर राज्य दूसरे राज्यों पर विजय प्राप्त करने की कोशिश करता था, जिससे राजनीतिक उथल-पुथल का माहौल बना रहता था।

निष्कर्ष:

छठी शताब्दी ई. पू. में भारत कई महाजनपदों में बंटा हुआ था, जहाँ अलग-अलग शासन पद्धतियाँ प्रचलित थीं। इन राज्यों के बीच राजनीतिक संघर्ष और विस्तार की भावना महत्वपूर्ण थी, और यही कारण था कि इस काल को राजनीतिक दृष्टि से उथल-पुथल का समय कहा जा सकता है।

Q.5. बौद्ध धर्म के पतन के कारणों को लिखिए।

उत्तर – बौद्ध धर्म के पतन के निम्नलिखित कारण थे:

  1. हिन्दू धर्म में सुधार (Reforms in Hinduism) हिन्दू धर्म में कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती थी, और इसने गौतम बुद्ध को भी एक अवतार मानकर उनकी पूजा करना शुरू कर दिया। इसके अलावा, हिन्दू धर्म में कुछ ऐसे सिद्धांतों को भी समाहित किया गया जैसे सत्य और अहिंसा, जो बौद्ध धर्म के मुख्य सिद्धांत थे। ब्राह्मणों और हिन्दू विद्वानों ने समय रहते हुए हिन्दू धर्म का विघटन रोकने का प्रयास किया, जिससे जो लोग हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म में शामिल हो गए थे, वे पुनः हिन्दू धर्म में वापस लौटने लगे।

  2. बौद्ध धर्म का विभाजन (Split in Buddhism) कनिष्क के काल में बौद्ध धर्म का विभाजन दो शाखाओं में हो गया: हीनयान और महायान। महायान शाखा में मूर्तिपूजा की अनुमति दी गई, जिससे कई लोग फिर से इस धर्म में शामिल हो गए, जो पहले इसे छोड़ चुके थे। इससे बौद्ध धर्म की पहचान में एक जटिलता और द्वंद्व पैदा हुआ।

  3. बौद्ध मठों में भ्रष्टाचार (Corruption in the Buddhist Sanghas) बौद्ध मठों में ऐश्वर्य और सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के कारण भ्रष्टाचार फैल गया। मठों में भिक्षुणियों को भी स्वीकार कर लिया गया, और धार्मिक कार्यों के बहाने भिक्षु और भिक्षुणियाँ वासनाओं में लिप्त हो गए। उनके आदर्श और त्याग मिट्टी में मिल गए, जिससे समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। गौतम बुद्ध के उपदेशों को छोड़कर वे वासनाओं में लगे रहे, और इससे बौद्ध धर्म की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचा।

  4. राजकीय सहायता का न मिलना (Loss of Royal Patronage) कनिष्क की मृत्यु के बाद बौद्धों को राजकीय सहायता मिलना बंद हो गया। गुप्त साम्राज्य के उदय के साथ हिन्दू धर्म को फिर से बढ़ावा मिला। इसके परिणामस्वरूप, बौद्ध धर्म के पास धन की कमी हो गई और वह लंबे समय तक टिक नहीं सका।

  5. बौद्ध धर्म में जटिलता आना (Arrival of Complexity in Buddhism) बौद्ध धर्म में हिन्दू धर्म के सिद्धांतों को अपनाने के बाद बौद्धों ने संस्कृत में साहित्य रचना करना शुरू कर दिया, जबकि पहले वे जनसाधारण की भाषा का उपयोग करते थे। इसके परिणामस्वरूप, बौद्ध धर्म आम जनता की समझ से बाहर होने लगा और धीरे-धीरे यह धर्म जनता से कटता गया।

  6. हिन्दू उपदेशकों का आना (Coming of Hindu Missionaries) कुमरिल भट्ट और शंकराचार्य जैसे हिन्दू विद्वानों के प्रभाव के कारण बौद्ध विद्वानों की स्थिति कमजोर हो गई। हिन्दू धर्म के तर्क और सिद्धांत बौद्ध धर्म के तर्कों से अधिक प्रभावी सिद्ध हुए, जिससे बौद्ध धर्म के अनुयायी कम होते गए।

  7. राजपूत शक्ति का विस्तार (Rise of Rajput Power) सातवीं से ग्यारहवीं शताब्दी तक उत्तरी भारत में राजपूतों की शक्ति बढ़ी। राजपूत अहिंसा को कायरता मानते थे और वे बौद्ध धर्म के अहिंसा जैसे सिद्धांतों के खिलाफ थे। इसके कारण बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में रुकावट आई और धीरे-धीरे बौद्ध धर्म की स्थिति कमजोर हो गई।

  8. मुसलमानों के आक्रमण (The Muslim Invasions) बारहवीं शताब्दी में महमूद गजनवी और अन्य मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत पर आक्रमण किया। बौद्धों के पास इन आक्रमणों का सामना करने की शक्ति नहीं थी, और वे या तो मारे गए या नेपाल, तिब्बत, बर्मा, श्रीलंका जैसे देशों में भाग गए।

  9. हूणों का आक्रमण (Invasions of the Hunas) हूणों के आक्रमण ने बौद्ध धर्म को भारी क्षति पहुँचाई। उन्होंने हजारों भिक्षुओं को मारा और बौद्ध मठों को नष्ट कर दिया। तक्षशिला जैसे महत्वपूर्ण बौद्ध विश्वविद्यालयों को आग के हवाले कर दिया और बौद्ध साहित्य को जला दिया। इससे पंजाब, राजपूताना और उत्तर-पश्चिमी सीमा क्षेत्रों में बौद्ध धर्म का अस्तित्व समाप्त हो गया।

इस प्रकार, बौद्ध धर्म के पतन के अनेक कारण थे, जिनमें धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और बाहरी आक्रमणों का योगदान था। इन कारणों के मिलाजुले प्रभाव से बौद्ध धर्म का पतन हुआ और धीरे-धीरे यह भारत से लुप्त हो गया।

Q. 6.गौतम बुद्ध के जीवन और उपदेशों का वर्णन करें।

उत्तर – गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे। उनका जन्म 563 ई० पू० में शाक्य नामक क्षत्रिय कुल में कपिलवस्तु के निकट, नेपाल की तराई स्थित लुम्बिनी में हुआ था। उनके पिता शुद्धोदन कपिलवस्तु के निर्वाचित राजा और गणतांत्रिक शाक्य समुदाय के प्रमुख थे। बचपन में उनका नाम सिद्धार्थ था। गौतम बचपन से ही एक चिन्तनशील व्यक्ति थे। उनका मन सांसारिक भोग-विलास में कम और आत्मिक उन्नति में अधिक लगता था। उनका विवाह यशोधरा से हुआ था और उनसे एक पुत्र हुआ, जिसका नाम राहुल था। एक दिन उन्होंने एक वृद्ध, एक रोगी, और एक मृत व्यक्ति को देखा। इन दृश्यों ने उनके मन में संसार की अस्थिरता और दुःख की वास्तविकता को लेकर गहरे विचार उत्पन्न किए। 29 वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़ दिया, जिसे महाभिनिष्क्रमण कहा जाता है। ज्ञान की प्राप्ति की दिशा में वे जगह-जगह भटकते रहे। अन्ततः 35 वर्ष की आयु में बोधगया में एक पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें सत्य का ज्ञान प्राप्त हुआ। इसके बाद वे “बुद्ध” अर्थात “प्राज्ञावान” कहलाए। गौतम बुद्ध ने अपना पहला धार्मिक प्रवचन वाराणसी के निकट सारनाथ में दिया, जिसे धर्मचक्र प्रवर्त्तन कहा जाता है। लगभग 45 वर्षों तक उन्होंने अपने धर्म का प्रचार किया और विभिन्न वर्गों के लोग उनके शिष्य बने। 483 ई० पू० में पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में उनकी मृत्यु हुई, जिसे महापरिनिर्वाण कहा जाता है। गौतम बुद्ध एक व्यावहारिक सुधारक थे। वे आत्मा और परमात्मा से संबंधित निरर्थक तर्क-वितर्कों से दूर रहे और इन दोनों के अस्तित्व से इनकार किया। उनका मत था कि संसार दुःखमय है और इस दुःख का कारण तृष्णा (इच्छा) है। यदि किसी व्यक्ति ने काम, लालसा और तृष्णा पर विजय प्राप्त कर ली तो वह निर्वाण (मुक्ति) प्राप्त कर सकता है, जो जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति का मार्ग है।

बुद्ध ने निर्वाण प्राप्ति के लिए आठfold मार्ग (अष्टांगिक मार्ग) का पालन करने की सलाह दी। ये आठ साधन थे:

  1. सम्यक् दृष्टि
  2. सम्यक् संकल्प
  3. सम्यक् वाक्
  4. सम्यक् कर्म
  5. सम्यक् आजीव
  6. सम्यक् व्यायाम
  7. सम्यक् स्मृति
  8. सम्यक् समाधि

उन्होंने कहा कि जीवन में न तो अत्यधिक विलाप करना चाहिए और न ही अत्यधिक संयम रखना चाहिए, बल्कि मध्य मार्ग अपनाना चाहिए। उन्होंने कुछ सामाजिक आचरण के नियम भी निर्धारित किए, जिनमें प्रमुख थे:

  1. पराये धन का लोभ नहीं करना चाहिए
  2. हिंसा नहीं करनी चाहिए
  3. नशे का सेवन नहीं करना चाहिए
  4. झूठ नहीं बोलना चाहिए
  5. दुराचार से दूर रहना चाहिए

गौतम बुद्ध का जीवन और शिक्षाएँ आज भी पूरी दुनिया में प्रेरणा का स्रोत बनी हुई हैं।

Q.7. जैनधर्म के पतन के कारणों को बतावें।

उत्तर – जैनधर्म, बौद्धधर्म की तरह व्यापक लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सका। इसके पीछे कई कारण थे, जिनका उल्लेख नीचे किया गया है:

  1. ब्राह्मणधर्म से सम्बन्ध बनाए रखना जैनधर्म की असफलता का एक मुख्य कारण यह था कि यह अपने-आपको पूर्णतः ब्राह्मणधर्म से अलग नहीं कर सका। महावीर ने वैदिक दर्शन का पूरी तरह परित्याग नहीं किया, बल्कि उसे एक दार्शनिक दृष्टिकोण से स्वीकार किया। जैनधर्म के सामाजिक और धार्मिक उपदेश भी वैदिक धर्म से मिलते-जुलते थे। जैनों के पारिवारिक संस्कार और पूजा पद्धतियां भी वैदिक धर्म के समान थीं। इस प्रकार, जैनधर्म ने ब्राह्मणधर्म से खुद को अलग करने का कोई विशेष प्रयास नहीं किया। इसके परिणामस्वरूप, जनता को इस धर्म में कोई ऐसी नई बात नहीं मिली जिससे वे प्रभावित होते और इसे अपनाते।

  2. नियमों की कठोरता जैनधर्म ने कठिन तपस्या और आत्मपीड़न पर अत्यधिक बल दिया। संघ और धर्म के नियम इतने कठोर थे कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए उनका पालन संभव नहीं था। उदाहरण स्वरूप, जैन अनुयायी वस्त्र न पहनना, भूखा रहना, धूप में तपस्या करना, बाल उखाड़ना आदि कठोर नियमों का पालन करते थे। ऐसे नियमों का पालन करना सामान्य जनमानस के लिए संभव नहीं था, जिसके कारण यह धर्म लोकप्रिय नहीं हो सका।

  3. अहिंसा पर अत्यधिक बल जैनधर्म ने अहिंसा की नीति को इतना महत्त्वपूर्ण बना दिया कि यह अव्यावहारिक प्रतीत होने लगा। आरंभ में क्षत्रिय और कृषक भी इस धर्म की ओर आकर्षित हुए, लेकिन बाद में वे इससे विमुख होने लगे। कारण यह था कि क्षत्रिय के लिए युद्ध करना और कृषक के लिए खेती करना इस धर्म के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं था। इसी प्रकार, जनसाधारण के लिए यह संभव नहीं था कि वे हमेशा रास्ता साफ करते हुए चलें, जल छानकर पीएं या मुख पर वस्त्र डालकर श्वास लें ताकि किसी भी जीव का वध न हो। इस तरह, जैनधर्म का अहिंसा दर्शन अव्यावहारिक सिद्ध हुआ और अपनी महत्ता खो बैठा।

  4. जातिप्रथा के दर्शन को बनाए रखना जैनधर्म ने जातिवाद को पूरी तरह नकारा नहीं किया। महावीर का मानना था कि कर्मफल के आधार पर मनुष्य का जन्म उच्च या निम्न जाति में होता है। संघ में प्रायः उच्चवर्ण के लोग ही शामिल होते थे। इस प्रकार, जातिवाद की कमजोरियाँ जैनधर्म के विकास में बाधक बनीं और यह धर्म सार्वभौमिक रूप से स्वीकार्य नहीं हो सका।

  5. उचित राज्याश्रय का अभाव जैनधर्म को पर्याप्त राज्याश्रय नहीं मिला, जो इसके प्रसार के लिए महत्वपूर्ण था। हालांकि लिच्छवियों, मगध के शासक बिम्बिसार और अजातशत्रु ने इस धर्म को स्वीकार किया था, लेकिन उनका समर्थन सीमित था। बाद में उन्होंने बौद्धधर्म को ज्यादा महत्व दिया। चंद्रगुप्त मौर्य और खारवेल जैसे कुछ शासकों ने जैनधर्म को समर्थन दिया, लेकिन बौद्धधर्म की तरह जैनधर्म को कोई अशोक या कनिष्क जैसे धर्मप्रेमी शासक का समर्थन नहीं मिला। इसके कारण, जैनधर्म कभी भी राज्यधर्म के रूप में स्थापित नहीं हो सका, और जनसमुदाय का पर्याप्त समर्थन नहीं मिल सका।

  6. अन्य कारण जैनधर्म के प्रचार में कई अन्य कारण भी बाधक बने। बौद्धधर्म का उदय, जो जैनधर्म से अधिक सरल और ग्राह्य था, ने जैनधर्म की लोकप्रियता को और भी कम कर दिया। इसके अतिरिक्त, ब्राह्मणधर्म के पुनरुत्थान ने भी जैनधर्म के प्रसार को नुकसान पहुँचाया। जैनधर्म का विभाजन भी इसकी प्रगति में रुकावट डालने वाला कारक था। जैनों के संगठन और प्रचार के साधन कमजोर थे, और संघात्मक संगठन की कमी के कारण धर्म प्रचारकों की भी कमी रही। इस प्रकार, जैनधर्म बौद्धधर्म जैसी सफलता प्राप्त नहीं कर सका।

इन सभी कारणों ने मिलकर जैनधर्म को बौद्धधर्म के समान लोकप्रियता और समाज में व्यापक स्वीकार्यता प्राप्त करने से रोका।

Q.8. जैनधर्म की सफलता के कारणों को दर्शायें।

उत्तर – महावीर के जीवनकाल में ही और उनकी मृत्यु के पश्चात् जैनधर्म का प्रचार-प्रसार हुआ। इसके विकास में कई कारणों ने योगदान दिया, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं:

  1. तत्कालीन राजवंशों का समर्थन जैनधर्म की सफलता के लिए महावीर का राजपरिवार से सम्बद्ध होना महत्वपूर्ण था। महावीर के उपदेशों से प्रभावित होकर कई क्षत्रिय-राजाओं ने उनके धर्म को अपनाया और उनके समर्थक बने। जैनग्रंथ ‘आवश्यकचूर्णि’ से ज्ञात होता है कि वज्जिसंघ के चेटक और अवन्ती के राजा प्रद्योत, मगध के शासक बिम्बिसार और अजातशत्रु, कौशाम्बी नरेश की रानी मुगावती, सिन्धु-सौवीर राजा उदयन, और पावा के मल्ल जैसे शक्तिशाली शासकों ने जैनधर्म को स्वीकार किया। इसके अलावा, बाद में चंद्रगुप्त मौर्य ने दक्षिण भारत में और चेदिवंशीय शासक खारवेल ने उड़ीसा में इस धर्म का प्रचार किया। इन शासकों द्वारा जैनधर्म को मान्यता देने के कारण उनके राज्यों की जनता और उच्चवर्ग के लोग इस धर्म की ओर आकर्षित हुए, जिससे जैनधर्म की लोकप्रियता बढ़ी।

  2. वैश्यों का समर्थन जैनधर्म को लोकप्रिय और सफल बनाने में वैश्य वर्ग का भी बड़ा योगदान था। जैनधर्म ने अपनी शिक्षाओं को एक नई आर्थिक व्यवस्था के अनुरूप ढाला था। हिंसा पर प्रतिबंध लगाने से कृषि प्रणाली को लाभ हुआ, पशुधन की हानि रुक गई, और कृषि उत्पादन बढ़ा। इसके परिणामस्वरूप व्यापार, वाणिज्य, नगरों का उदय, सिक्कों का प्रचलन और नागरीय जीवन का विकास हुआ। इन आर्थिक परिवर्तनों से सबसे अधिक लाभ कृषकों, कारीगरों और व्यापारियों (वैश्यों) को हुआ, और इस वर्ग ने जैनधर्म के प्रचार में गहरी रुचि ली तथा आर्थिक सहायता भी प्रदान की। यह प्रवृत्ति बौद्धधर्म में भी देखी गई।

  3. सरल प्रचार माध्यम जैनधर्म की सफलता का एक कारण यह था कि महावीर और अन्य जैन उपदेशकों ने अपने विचारों को जनता के सामने सरल और सुबोध भाषा में रखा। संस्कृत जैसी गूढ़ और कठिन भाषा के बजाय, उन्होंने प्राकृत भाषा का प्रयोग किया, जो जनसाधारण की भाषा थी। जैनग्रंथ पहले अर्द्धमागधी में लिखे गए थे और बाद में संस्कृत में भी कुछ ग्रंथ लिखे गए। इसके कारण, आम लोगों को इस धर्म से जुड़ने में आसानी हुई और उनकी रुचि जैनधर्म में बढ़ी।

  4. भेदभाव की नीति का परित्याग जैनधर्म की सफलता का एक प्रमुख कारण यह था कि इसने ब्राह्मणधर्म की विभेदपूर्ण नीति का त्याग किया और सभी वर्गों को समान धरातल पर रखा। महावीर ने यह सिखाया कि सभी व्यक्ति समान हैं और सभी जीवों में एक समान आत्मा का निवास होता है। उन्होंने धर्म के अनुयायी स्त्रियों और पुरुषों के बीच भेदभाव नहीं किया। इस तरह जैनधर्म ने समता का संदेश दिया, जिससे वह ब्राह्मणवाद से त्रस्त जनता के बीच आकर्षण का केंद्र बना।

  5. जैनधर्म का व्यावहारिक स्वरूप महावीर का धर्म ब्राह्मणधर्म (वैदिक धर्म) की तरह आडंबरपूर्ण नहीं था। जैनधर्म में आस्था रखना बहुत सरल था। निर्वाण की प्राप्ति के लिए न तो पुरोहितों की आवश्यकता थी, न ही यज्ञ या बलि की आवश्यकता। केवल पांच महाव्रतों और त्रिरत्नों (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) का पालन कर कोई भी व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता था। हालांकि जैनधर्म के नियम कड़े थे, परंतु यह अन्य धर्मों की अपेक्षा अधिक सरल और व्यावहारिक था, जिससे जनसाधारण ने इसे सहर्ष अपनाया।

  6. जैनसंघ का योगदान जैनधर्म के प्रचार में जैनसंघ का भी महत्वपूर्ण योगदान था। महावीर के पहले भी जैनसंघ की स्थापना हो चुकी थी, लेकिन महावीर ने संघ को प्रचार का एक प्रभावी माध्यम बनाया। संघ के द्वार सभी के लिए खुले थे और इसमें किसी का प्रवेश वर्जित नहीं था। यहां तक कि ब्राह्मणों को भी संघ में शामिल किया गया। इसके सदस्य संयमित और नियमपूर्वक जीवन जीते हुए धर्म का प्रचार करते थे, जिससे धर्म की लोकप्रियता और बढ़ी।

हालांकि जैनधर्म का प्रचार शुरू में तेज़ी से हुआ, लेकिन यह बौद्धधर्म की स्थिति प्राप्त नहीं कर सका। इसके बावजूद, जैनधर्म ने गंगा घाटी में अपनी पहचान बनाई, हालांकि बौद्धधर्म की तुलना में इसका प्रभाव कम रहा। समय के साथ, कई कारणों से जैनधर्म का पतन हुआ और यह कुछ विशेष क्षेत्रों तक ही सीमित रह गया। फिर भी, महावीर का धर्म कुछ हद तक सफल रहा और उसका प्रभाव कुछ क्षेत्रों में आज भी देखा जा सकता है।

इस प्रकार, जैनधर्म का प्रारंभिक प्रचार कई कारणों से सफल रहा, लेकिन कुछ चुनौतियों और समाज के बदलते रुझानों के कारण इसे बौद्धधर्म जैसी व्यापक सफलता नहीं मिल सकी।

Q.9. जैन धर्म के मुख्य उपदेशों ( शिक्षाओं) का वर्णन करें। भारतीय समाज ( जिवन ) पर इसका क्या प्रभाव पड़ा ?

उत्तर – जैन धर्म के संस्थापक वर्द्धमान महावीर थे। महावीर ने जीवन के हर पहलू में आत्मा की शुद्धि, अहिंसा और आत्म-निग्रह पर बल दिया। जैन धर्म की शिक्षाएँ निम्नलिखित थीं:

  1. आत्म-निग्रह से आत्मज्ञान प्राप्ति: जैन धर्म में आत्म-निग्रह को आत्मज्ञान के प्राप्त करने का माध्यम माना गया है। इसके लिए सम्यक् विश्वास, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् कर्म पर जोर दिया गया।

  2. अहिंसा का महत्व: महावीर ने अहिंसा पर बहुत बल दिया। उनका मानना था कि केवल मनुष्य ही नहीं, बल्कि निर्जीव वस्तुओं में भी अनुभूति होती है। इसलिए, हर जीव पर दया और करुणा का भाव रखना आवश्यक था।

  3. पाँच महाव्रत: जैन धर्म का पालन करने के लिए पाँच महाव्रत होते थे, जो जीवन के आदर्श सिद्धांत थे:

    • (i) अहिंसा
    • (ii) सत्य
    • (iii) चोरी न करना
    • (iv) ब्रह्मचर्य
    • (v) अपरिग्रह

भारतीय समाज पर जैन धर्म के प्रभाव:

जैन धर्म का भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा, जो निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से स्पष्ट होता है:

  1. जाति-पाँति का खंडन (Opposition of Caste System):
    जैन धर्म ने जातिवाद और सामाजिक भेदभाव को नकारा। इस धर्म में सभी मनुष्यों को समान अधिकार और सम्मान दिया गया। महावीर ने भ्रातृभाव और सद्भावना की शिक्षा दी, जिससे समाज में दया, ममता और त्याग की भावना को बढ़ावा मिला।

  2. हिंदू धर्म की कट्टरता पर प्रहार (Attack on the Rigidity of Hindu Religion):
    ब्राह्मणों द्वारा किए जाने वाले यज्ञ, बलि और अन्य खर्चीले अनुष्ठानों से आम जनमानस परेशान था। जैन धर्म बिना किसी आडंबर के सरल और सीधा था, जो आम लोगों के लिए अधिक स्वीकार्य था। इसने हिंदू धर्म की कठोरता को चुनौती दी और लोगों के मन पर सकारात्मक प्रभाव डाला।

  3. राजनैतिक दर्बलता (Political Weakness):
    जैन धर्म की अहिंसा परमो धर्म की नीति ने समाज को युद्ध और हिंसा से दूर किया। इससे लोगों में संघर्ष के बजाय शांति की प्रवृत्ति विकसित हुई, जिससे बाहरी आक्रमणकारियों के लिए भारत पर आक्रमण करना आसान हो गया। इस नीति के कारण कालांतर में विदेशी शक्तियों ने भारत पर अपना अधिकार जमाया।

  4. खान-पान में परिवर्तन (Changes in Eating Habits):
    जैन धर्म ने अहिंसा के सिद्धांत पर आधारित भोजन की संस्कृति को बढ़ावा दिया। इसके कारण लोगों ने मांसाहार से परहेज करना शुरू किया, जिससे न केवल जीव हत्या में कमी आई, बल्कि पशु धन में भी वृद्धि हुई।

  5. भारतीय कला, स्थापत्य कला और साहित्य पर प्रभाव (Effects on Indian Art, Architecture, and Literature):
    जैन धर्म का प्रभाव भारतीय कला और स्थापत्य कला पर स्पष्ट रूप से देखा जाता है। दिलवाड़ा के जैन मंदिर, माउंट आबू का जैन मंदिर, खजराओ के जैन मंदिर और अजन्ता-एलोरा की गुफाएँ स्थापत्य कला के बेहतरीन उदाहरण हैं। इसके अलावा, जैन धर्म के ग्रंथ जैसे आचारांग सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र और संस्कृत साहित्य ने भी भारतीय साहित्य को समृद्ध किया।

इस प्रकार, जैन धर्म ने भारतीय समाज को आंतरिक शांति, समानता, और अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित एक नई दिशा प्रदान की। इसके प्रभाव से समाज में व्याप्त कई सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक अडिगताओं में परिवर्तन आया।

Q.10. महाभारत कालीन भारतीय सामाजिक जीवन की प्रमुख विशेषताओं निबंध लिखें।

उत्तर –  भारत का सामाजिक जीवन (Social Life of India) – मोटे तौर पर महाभारत का काल हम उत्तर वैदिक के अंत से लेकर बुद्ध काल के काल को मानते हैं। इस काल में भी समाज का आधार पारिवारिक जीवन था। संयुक्त परिवार (Joint Family) – इस काल में कुल या परिवार में सभी सदस्य एक साथ रहते थे। कल का प्रमुख कुलपति कहलाता था। कुलपति या तो पिता होता था या सबसे बड़ा भाई होता था। महाभारत से संदर्भ मिलते हैं प्रायः परिवार में प्रेम होता था। आयु में छोटे सदस्य बढे परिवारजनों का सम्मान करते थे और कुलपति सभी के कल्याण की चिंता करते हुए उनके साथ व्यवहार करता था। नि:संतान दंपत्ति लड़का या लड़की गोद ले सकते थे। इस काल में प्राय: छोटे भाई बहनों की शादी आयु में बड़े भाई-बहनों से पहले करना बुरा माना जाता था। पिता की मृत्यु के बाद सबसे बड़ा भाई अपने छोटे भाई-बहनों का दायित्व निभाता था।

चार आश्रम (The four Ashrams) – इस काल में प्रत्येक व्यक्ति का जीवन व्यवस्था पर आधारित था। जीवन को चार आश्रमों में बाँटा गया था।

बह्मचय – वह काल जब विद्यार्थी अध्यापन में धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करता था।

गृहस्थ – वह काल जब व्यक्ति विवाहित जीवन बिताता था।

वानप्रस्थ – वह काल जब व्यक्ति त्याग का जीवन बिताता और गृहस्थी के बंधनों से मुक्त होने का प्रयत्न करता था।

सन्यास-वह काल जब मनुष्य अपने परिवार और समाज को छोड़कर तपस्वी के रूप में पूर्ण आत्मसंयम का जीवन बिताता था। पर आश्रम-व्यवस्था निम्न वर्ग पर लागू नहीं की जाती थी क्योंकि उन्हें धार्मिक ग्रंथ पढ़ने का अधिकार न था। अन्य सबके लिए यह जीवन का नियम था किन्तु यह कहना कठिन है कि कितने मनुष्य इस व्यवस्था का पालन करते थे।
यह आश्रम विकसित तो अवश्य हुए थे। परन्तु इसमें जटिलता नहीं थी। इनका प्रभाव जनता के सामाजिक जीवन पर बहुत था। इसके कारण ही लोगों का नैतिक उत्थान हुआ।

जाति प्रथा (Caste System) – जाति प्रथा ने प्राचीन भारतीय समाज को स्थयित्व प्रदान किया। उसने देशी और विदेशी-दोनों तत्वों का समावेश प्राचीन भारतीय समाज में आसानी से कर दिया क्योंकि उनके लिए यहाँ के जाति अधिक्रम में स्थान था। यह उल्लेखनीय है कि अनेक प्राचीन समाजों में जो नग्न शोषण उन दिनों चल रहा था, जैसे कि गुलामी की प्रथा, वह प्राचीन भारत में नहीं था।

स्त्रियों की स्थिति (Position of Women) – स्त्रियाँ पैतृक संपत्ति की स्वामी नहीं हो सकती थीं। वैसे बहुत सी बातों में पूर्ण स्वतंत्रता थी। विधवा को पुनर्विवाह करने का अधिकार था। साधारणतया वह देवर के साथ विवाह कर सकती थी। कुछ बातों में स्त्रियों का स्तर बाद में शुद्रों के सामान हो गया। परिवार में पुत्रियों की अपेक्षा पुत्रों का अधिक मान होने लगा।

विवाह प्रणालियाँ (Types of Marriage) – महाभारत काल में भारत में शादी की अनेक प्रणालियाँ प्रचलित थीं जिनमें प्रमुख थी : ब्रह्म विवाह, प्रजापति विवाह, प्रेम विवाह, असुर विबा, देव विवाह, गंदर्व विवाह, राक्षस विवाह, पिशाच विवाह।

शिक्षा (Education) – महाभारत काल में शिक्षा विकसित हो गई थी। उपनयन संस्कार द्वारा जब बच्चों को ब्रह्मचर्य आश्रम में भेजते थे तो गुरु के आश्रम में रहकर सारी विद्या प्राप्ति करता था। गुरु की सेवा करनी होती थी। हवन के लिए जंगल से लकड़ियाँ तोड़कर लाना , चूल्हा जलाना, भिक्षा माँगना, आदि कार्य विद्यार्थी करते थे। विद्यार्थी बिना कोष शुल्क के पढ़ते थे। भाषा सामान्य गणित के साथ-साथ नैतिक शिक्षा और राज परिवार के सदस्यों को अस्त्र-शस्त्र
की शिक्षा गुरु ही दिया करते थे।

खान-पान (Food and Drink) – गेहूँ, चावल, मक्खन, घी के साथ-साथ फल और माँस-मछली आदि का भी उपभोग करते थे। प्राय: लोग बकरे को काटते थे। गो हत्या को सामाजिक दृष्टि से अच्छा नहीं माना जाता था। घोडे का माँस भी खाते थे जैसा कि अश्व-मेघ की परम्परा में पता चलता है कि मदिरा पान किया जाता था लेकिन अनेक लोग इसे अच्छा नहीं समझते थे ।

मनोरंजन (Enertainment) – घरेलू और मैदानी खेल पाया जा बहत प्रचलित था। मदाना खेलों में रथों की दौड़ बहुत लोकप्रिय था। लोग नत्य और वाद्यवन्द में भी रुचि लेते थे। स्त्रिया पायः नृत्य और गाना सीखती थीं। बाँसूरी, बीणा, ढोल, इत्यादि प्रसिद्ध थे।

चरित्रहीनता (Degeneration of Character) – महाभारत महाकाव्य में अनेक उद्धरण मिलते हैं कि लोगों का जीवन नैतिक दृष्टि से गिर गया था। राजा और धनी लोग एक से ज्यादा स्त्रिया से विवाह करते थे। कहीं-कहीं एक ही महिला से कई भाई शारीरिक संबंध रखते थे। शत्रुओं का धोखे से मारने में कोई बुराई नहीं समझी जाती थी। वैश्या गमन, जूआ खेलना, गाना बजाना और शराब पीना उच्च वर्ग के लोगों में आम बात थी।

वस्र तथा आभूषण (Dress and Ornaments) – इस काल में सूती वस्त्र के साथ-साथ रेशमी और ऊनी वस्त्र भी पहने जाते हैं। पगडी स्त्री तथा पुरुष दोनों ही प्रयोग करते थे कढ़ाई किये वस्त्रो को विशेष रूप से प्रयोग में लाया जाता था। केसरिया रंग विशेष रूप से पुरुषों के लिए पसंद किया जाता था। स्त्री, पुरुष विभिन्न धातुओं के आभूषण पहनते थे।

Author

SANTU KUMAR

I am a passionate Teacher of Class 8th to 12th and cover all the Subjects of JAC and Bihar Board. I love creating content that helps all the Students. Follow me for more insights and knowledge.

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