Q.1. दिगम्बर एवं श्वेताम्बर कौन थे ?
उतर – जैन धर्म समय के साथ दो प्रमुख सम्प्रदायों में विभक्त हो गया: दिगम्बर और श्वेताम्बर। इन दोनों सम्प्रदायों के बीच कुछ महत्वपूर्ण मतभेद हैं, जो उनके आचार-व्यवहार, धर्मग्रंथों और धार्मिक विश्वासों में स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी वस्त्र नहीं पहनते हैं, जो उनकी कठोर तपस्विता और आचरण पालन की पहचान है। उनका मानना है कि स्त्री शरीर से कैवल्य ज्ञान (पूर्ण ज्ञान) प्राप्त करना संभव नहीं है, और इस सम्प्रदाय के अनुसार साधकों को कैवल्य ज्ञान प्राप्त होने पर भोजन की आवश्यकता नहीं होती। दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी अपने 24 पुराणों को प्रमुख धर्मग्रंथ मानते हैं और उनका आचार बहुत ही कठोर होता है। वहीं श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी उजले वस्त्र पहनते हैं और उनके आचार में उदारता देखी जाती है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार, महावीर का निर्वाण के 609 वर्ष बाद (ई. सन् 83) रथविलुर में भवभूति द्वारा बौद्धिक मत दिगम्बर की स्थापना हुई थी। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी 11 अंगों को प्रमुख धर्म मानते हैं और उनका विश्वास है कि स्त्री शरीर से भी कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, साथ ही कैवल्य ज्ञान प्राप्त होने पर साधकों को भोजन की आवश्यकता नहीं होती, जैसा कि दिगम्बर सम्प्रदाय मानता है। इस प्रकार, दिगम्बर और श्वेताम्बर के बीच मुख्य अंतर उनके आचार-व्यवहार, वस्त्र पहनने की परंपरा और धार्मिक विश्वासों में देखा जाता है।
Q.2. इलाहाबाद स्तंभ के ऐतिहासिक महत्त्व का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर – इलाहाबाद का स्तंभ गुप्त काल के महत्वपूर्ण अभिलेखों में से एक है, जो इलाहाबाद (वर्तमान में प्रयागराज) में स्थित है। इस स्तंभ पर अंकित लेख से गुप्त साम्राज्य के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इस लेख को संस्कृत के प्रसिद्ध कवि हरिषेणं ने लिखा था, जो उस समय के प्रमुख साहित्यकारों में से एक थे। इस स्तंभ लेख में सम्राट समुद्रगुप्त की विजयगाथाएँ, उसकी शाही उपलब्धियाँ और चरित्र का विवरण मिलता है। लेख में गुप्त साम्राज्य के दौरान राजनैतिक, सामाजिक, और आर्थिक स्थिति का उल्लेख किया गया है। इसके साथ ही, इस समय की भाषा और साहित्य की उन्नति का भी उल्लेख है, जो उस समय के सांस्कृतिक विकास को दर्शाता है। समुद्रगुप्त की नौ प्रमुख विजयओं का वर्णन किया गया है, जिनमें उसकी सैन्य शक्ति और साम्राज्य के विस्तार की कहानी सामने आती है। यह लेख न केवल गुप्त साम्राज्य की शक्ति और वैभव का प्रमाण है, बल्कि उस समय की राजनीतिक सोच, प्रशासनिक व्यवस्था, और सामाजिक संरचना की जानकारी भी प्रदान करता है। इलाहाबाद का स्तंभ गुप्त काल की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर के रूप में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
Q.3. दिल्ली के लौह स्तंभ अभिलेख का क्या महत्व है ?
Q.4. सातवाहन कौन थे ?
उत्तर – मौर्य साम्राज्य के बिखराव के बाद, सातवाहन वंश ने दक्कन में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की। इस वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक खुद को दोनों सर्वोच्च वंशों का दावा करता था। एक ओर, वह स्वयं को ब्राह्मण वर्ण का व्यक्ति मानता था, जबकि दूसरी ओर, वह स्वयं को क्षत्रिय वर्ग का नाश करने वाला बताता था। इसके अलावा, वह यह भी दावा करता था कि चारों वर्णों के बीच आपसी विवाह नहीं होते थे। हालांकि, कुछ समय बाद इस बात का प्रमाण मिलता है कि सातवाहनों ने शक राजा रुद्रदमन से वैवाहिक संबंध स्थापित किए थे, जो उनके दावे के विपरीत था। सातवाहन समाज में संभवतः मातृगोत्र का अधिक सम्मान था, और समाज में स्त्रियों को पिता के गोत्र के बजाय पति के गोत्र को माना जाता था। सातवाहनों के कई अभिलेख इतिहासकारों को प्राप्त हुए हैं, जिन पर उनके पारिवारिक और वैवाहिक रिश्तों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी अंकित है। इन अभिलेखों से सातवाहन साम्राज्य के सामाजिक ढांचे, परिवारों और उनके रिश्तों की संरचना का खाका तैयार किया गया है, जो उस समय के समाज के बारे में गहरी जानकारी प्रदान करता है।
Q.5. बौद्ध संगीतियाँ क्यों बुलाई गई ? चतुर्थ बौद्ध संगति का क्या महत्त्व है ?
Q.6. शक कौन थे ?
उत्तर – शक मध्य एशिया के मूल निवासी थे, जो सबसे पहले उत्तर पश्चिमी भारतीय उपमहाद्वीप में आए और धीरे-धीरे यहाँ स्थायी रूप से बस गए। प्रारंभ में, इन लोगों को ब्राह्मणों द्वारा म्लेच्छ (असभ्य या विदेशी आक्रमणकारी) माना गया। समय के साथ, इन शकों ने भारत में उत्पन्न हुए धर्मों जैसे बौद्ध धर्म और वैष्णव मत को अपनाया। इसके अतिरिक्त, उन्होंने स्थानीय लोगों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए और उत्तर पश्चिमी भारत के साथ-साथ पश्चिमी भारत के कुछ क्षेत्रों में शासन भी किया।
Q.7. जैनधर्म के प्रमुख सिद्धान्त कौन-से हैं ?
उत्तर – जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर, वर्धमान महावीर (540 ई. पू. – 468 ई. पू.) के समय इस धर्म के सिद्धांतों को पूर्णता प्राप्त हुई। जैन धर्म का मूल आधार यह मानता है कि संसार की सभी वस्तुओं में जीवन होता है और अहिंसा का सिद्धांत इस धर्म का मुख्य तत्व है। इसके अनुसार, मनुष्य अपने कर्मों के कारण जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र में बंधा होता है। संन्यास और तपस्या के माध्यम से मनुष्य कर्म के चक्र से मुक्ति प्राप्त करता है। जैनियों का विश्वास है कि शरीर को कष्ट पहुँचाकर ही निर्वाण की प्राप्ति संभव है। इस धर्म के पाँच प्रमुख सिद्धांत हैं—अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), असंग्रह (सम्पत्ति का संग्रह न करना) और ब्रह्मचर्य। इन पाँचों सिद्धांतों को पंच महाव्रत कहा जाता है।
Q.8. पिटक कितने हैं ? उनके नाम और विशेषताएँ लिखें।
उत्तर – पिटक तीन प्रकार के होते हैं—सुत्तपिटक, विनयपिटक और अभिधम्मपिटक। इन्हें त्रिपिटक के नाम से भी जाना जाता है। गौतम बुद्ध के निर्वाण के बाद इन पिटकों की रचना की गई।
- सुत्तपिटक में बुद्ध के उपदेशों का संकलन किया गया है।
- विनयपिटक में बौद्ध संघ के नियमों और आचारधर्म का उल्लेख किया गया है।
- अभिधम्मपिटक में बौद्ध दर्शन और उसकी गहरी व्याख्या की गई है।
इन तीन पिटकों के माध्यम से बौद्ध धर्म के सिद्धांत और आचार्य की पूरी प्रणाली को संरक्षित किया गया।
Q.9. कृष्ण देवराय की मुख्य उपलब्धियों के बारे में बताएँ।
उत्तर –
कृष्ण देवराय बीजापुर और गोलकुंडा के शासकों को पराजित करने में सफल रहे।
उन्होंने उड़ीसा पर भी आक्रमण किया और वहाँ के शासक को पराजित किया।
उन्होंने न केवल रायचूर दोआब पर विजय प्राप्त की, बल्कि अपनी सेनाओं के साथ बहमनी राज्य के अंदर भी प्रवेश किया।
पश्चिमी समुद्र तट पर सभी स्थानीय राज्यों के साथ उनका व्यवहार अत्यंत मैत्रीपूर्ण था। उन्होंने इन स्थानीय राज्यों के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित कर अपने राज्य की समृद्धि बढ़ाई।
वह एक कुशल प्रशासक भी थे। राज्य के उत्थान के लिए उन्होंने सिंचाई व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए बाँधों का निर्माण कराया, जिससे राज्य की कृषि दशा में सुधार हुआ।
उन्होंने नए मंदिरों का निर्माण कराया और पुराने मंदिरों की मरम्मत भी करवाई। उनके दरबार में विद्वानों और गुणी व्यक्तियों को सम्मान दिया जाता था।
Q.10. आयंगर व्यवस्था के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर – विजयनगर राज्य ने प्रचलित स्थानीय प्रशासन में सुधार करते हुए आयंगर व्यवस्था को लागू किया। इसके अंतर्गत प्रत्येक ग्राम को एक स्वतंत्र प्रशासनिक इकाई के रूप में गठित किया गया और प्रशासन 12 व्यक्तियों के एक समूह को सौंपा गया, जिसे आयगार कहा जाता था। यह समूह राजकीय अधिकारी था और उनका पद आनुवंशिक था। आयगारों को वेतन के रूप में लगान और कर मुक्त भूमि दी जाती थी। वे ग्राम प्रशासन की देखभाल करते थे और शांति-व्यवस्था बनाए रखने का कार्य करते थे।
Q.11. पानीपत की पहली लड़ाई (1526) भारत के इतिहास में एक निर्णायक लडाई समझी जाती है, विवेचन कीजिए।
उत्तर –
इस लड़ाई में लोदियों की कमर टूट गई और दिल्ली तथा आगरा तक का सारा प्रदेश बाबर के अधीन हो गया।
इब्राहीम लोदी द्वारा आगरा में एकत्रित खजाना बाबर के अधिकार में आ जाने से बाहर की सारी आर्थिक कठिनाइयाँ दूर हो गईं।
जौनपुर तक का समृद्ध क्षेत्र भी बाबर के सामने प्रशस्त हो गया।
पानीपत की लड़ाई ने उत्तर भारत में आधिपत्य के लिए संघर्ष के एक नए युग की शुरुआत की।
Q.12. बाबर के बाबरनामा पर नोट लिखें।
उत्तर – बाबर एक महान योद्धा ही नहीं, बल्कि एक विद्वान साहित्यकार भी था। उसकी रचनाओं में सबसे उत्तम उसकी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ या ‘तुज्क-ए-बाबरी’ मानी जाती है। श्रीमती बैबरिज के अनुसार, “बाबर की आत्मकथा एक अमूल्य भंडार है, जिसे सेंट अगस्टॉइ और रूसो के स्वीकृति वचन तथा गिब्बन और न्यूटन की आत्मकथाओं के समकक्ष रखा जा सकता है।” बाबर ने अपनी आत्मकथा अपनी मातृ-भाषा तुर्की में लिखी थी, जिसका फारसी में अनुवाद गुलबदन ने किया। अंग्रेजी में इसका अनुवाद श्रीमती बैबरिज और हिंदी में केशव कुमार ठाकुर ने किया, जो बहुत प्रसिद्ध हैं।
विषय – बाबरनामा में बाबर के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन किया गया है। इसमें फरगान, समरकंद, बाबर की काबुल विजय, भारत के उत्तर-पश्चिमी प्रदेश, पानीपत, खनवाह, चन्देरी और घाघरा जैसे प्रसिद्ध भारतीय युद्धों का भी उल्लेख है। बाबर के जीवन में स्थिरता का अभाव था, इसलिए उसकी आत्मकथा में केवल 18 वर्षों की घटनाएँ मिलती हैं।
भाषा-शैली – बाबरनामा की भाषा तुर्की है, जिसमें अरबी और फारसी के शब्दों की अधिकता है। बाबर की भाषा सरल, स्वाभाविक और प्रवाहमयी है। उसकी वर्णन-शैली साधारण और स्पष्ट है। उसे जब अधिक समय मिलता, तो उसने विस्तार से लिखा और जब कम समय मिलता, तो संक्षेप में वर्णन किया।
विशेषताएँ –
- बाबर ने सरल और स्पष्ट तरीके से घटनाओं का वर्णन किया है, और अपनी भूलों तथा कमजोरियों को भी नहीं छुपाया।
- बाबर को प्रकृति से बड़ा अनुराग था, और बाबरनामा में प्राकृतिक दृश्यों का सुंदर वर्णन किया गया है।
- बाबरनामा के वर्णन सजीव और रोचक हैं, जो पाठकों को आकर्षित करते हैं।
- बाबरनामा में तत्कालीन भारत का प्रामाणिक इतिहास मिलता है।
महत्त्व – बाबरनामा साहित्यिक और ऐतिहासिक दोनों दृष्टियों से एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इस ग्रंथ में मध्य एशियाई राजनीति, तैमूरों का इतिहास, मंगोलों और चुगताइयों के आपसी संबंध, बाबर की तत्कालीन कठिनाइयाँ, ईरानी और उजबेग शक्ति का उत्थान और संघर्ष, तथा बाबर के संघर्षमय जीवन की जानकारी मिलती है। इसी प्रकार, यह ग्रंथ तत्कालीन भारत और मध्य एशिया की सांस्कृतिक और राजनैतिक जानकारी के लिए एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
Q.13. अकबर की धार्मिक नीति की समीक्षा करें।
उत्तर – अकबर की धार्मिक नीति की विवेचना निम्नलिखित है:
(i) आरंभ में अकबर एक कट्टरपंथी मुसलमान था, लेकिन बैरम खाँ, अब्दुल रहीम खानखाना, फैजी, अबुल फजल, बीरबल जैसे उदार विचारों वाले व्यक्तियों के संपर्क में आने से उसका दृष्टिकोण बदल गया। इसके अतिरिक्त, हिंदू रानियों का भी उस पर गहरा प्रभाव पड़ा। इसके परिणामस्वरूप, वह अन्य धर्मों के प्रति अधिक उदार हो गया था।
(ii) 1575 ई. में अकबर ने इबादतखाना बनवाया, जिसमें विभिन्न धर्मों के विद्वानों को अपने-अपने विचार प्रकट करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी गई। यहां अक्सर धार्मिक बहसें होती थीं, लेकिन जब मौलवी गाली-गलौच पर उतरने लगे, तो अकबर की इस्लाम धर्म में रुचि कम होने लगी।
(iii) अकबर स्वयं तिलक लगाने लगा और गौ की पूजा करने लगा, जिसके कारण कट्टरपंथी मुसलमान उसे काफिर कहने लगे थे।
(iv) 1579 ई. में अकबर ने अपने नाम का खतवा पढ़वा कर खुद को धर्म का प्रमुख घोषित कर दिया। इस कदम से उलेमाओं का प्रभाव कम हो गया और अकबर ने धार्मिक मामलों में अपनी स्वतंत्रता को प्रकट किया।
(v) अंत में, अकबर ने सभी धर्मों का सार लेकर एक नया धर्म चलाया, जिसे दीन-ए-इलाही के नाम से जाना जाता है। हालांकि, उसने इसे किसी पर थोपने का प्रयास नहीं किया और यह केवल एक व्यक्तिगत विश्वास के रूप में था।
(vi) अकबर ने रामायण, महाभारत जैसे प्रमुख हिन्दू ग्रंथों का फारसी में अनुवाद करवाया। वह धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहता था और उसे शांति और सहिष्णुता का प्रतीक मानता था।
(vii) फतेहपुर सीकरी में जोधाबाई का महल भारतीय संस्कृति की स्पष्ट झलक दिखाता है, जो अकबर की धार्मिक और सांस्कृतिक सहिष्णुता का प्रतीक है।
Q.14. अकबर को ‘राष्ट्रीय शासक’ क्यों कहा जाता है ?
उत्तर – अनेक विद्वान और इतिहासकार जलालुद्दीन अकबर (1556-1605) को मुगल साम्राज्य के महानतम बादशाहों में से एक मानते हैं, क्योंकि उसने न केवल अपने साम्राज्य का विस्तार किया, बल्कि उसे अपने समय का सबसे विशाल, दृढ़ और समृद्ध राज्य बनाकर सुदृढ़ भी किया। अकबर हिंदुकुश पर्वत तक अपने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार करने में सफल हुआ और उसने ईरान के सफ़ावियों तथा मध्य एशिया के उजबेकों की विस्तारवादी योजनाओं पर काबू पाया। अकबर के बाद उसके शासन के योग्य उत्तराधिकारी रहे, जैसे जहाँगीर (1605-27), शाहजहाँ (1628-58) और औरंगजेब (1658-1707), जिन्होंने अपने-अपने समय में शासन किया। इन तीनों शासकों के तहत क्षेत्रीय विस्तार जारी रहा, हालांकि इसकी गति अपेक्षाकृत धीमी रही। इन शासकों ने शासन के विभिन्न यंत्रों को बनाए रखा और उन्हें सुदृढ़ किया। इसलिए, अकबर को एक राष्ट्रीय शासक के रूप में देखा जाता है, जिसने एक संगठित और शक्तिशाली साम्राज्य की नींव रखी।
Q.15. अकबर के व्यक्तित्व पर टिप्पणी दें।
उत्तर – अकबर को इतिहास में महान की उपाधि से विभूषित किया गया है, और इसकी महानता का मुख्य कारण है उसका विराट व्यक्तित्व। साम्राज्य की सुदृढ़ता, साम्राज्य में शांति की स्थापना, और मानवीय भावनाओं से प्रेरित होकर अकबर ने न केवल गैर-मुसलमानों को राहत प्रदान की, बल्कि राजपूतों के साथ वैवाहिक संबंध भी स्थापित किए। इसके अलावा, उसने एक कुशल प्रशासनिक व्यवस्था भी स्थापित की, जिससे राज्य की समृद्धि में वृद्धि हुई। धार्मिक सामंजस्य के प्रतीक के रूप में अकबर का दीन-ए-इलाही भी प्रशंसा योग्य है, जिसने विभिन्न धर्मों को एक साझा दृष्टिकोण से जोड़ने की कोशिश की। अकबर का यह दृष्टिकोण न केवल धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देता था, बल्कि सामाजिक समरसता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।

SANTU KUMAR
I am a passionate Teacher of Class 8th to 12th and cover all the Subjects of JAC and Bihar Board. I love creating content that helps all the Students. Follow me for more insights and knowledge.
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