Q.01. एकलव्य कौन था ? विस्तार से लिखिए !
उत्तर – एकलव्य एक निषाद जाति का युवक था, जो एक वन में रहता था। महाभारत में उसका नाम द्रोणाचार्य से संबंधित होने के कारण प्रसिद्ध हुआ। एकलव्य को धनुष बाण चलाने की कला में विशेष रुचि थी। वह गुरु द्रोणाचार्य से शिक्षा प्राप्त करना चाहता था, लेकिन द्रोणाचार्य ने उसे शिक्षा देने से मना कर दिया, क्योंकि वे केवल कौरव-पाण्डव परिवार के प्रति समर्पित थे। एकलव्य, हालांकि, दिल से द्रोणाचार्य को अपना गुरु मान चुका था। उसने द्रोणाचार्य के बिना उनकी प्रतीक मृदु प्रतिभा को स्वीकार किया और उनकी आदर-भावनाओं के साथ रोजाना अभ्यास करता रहा। एक दिन, उसने पाण्डवों के कुत्ते को चुप कराने के लिए उसके मुँह में तीर मारे, ताकि उसकी आवाज़ बंद हो जाए। जब अर्जुन ने देखा कि एकलव्य ने एक ही साथ कई तीर मारे और कुत्ते की आवाज़ को बंद कर दिया, तो वह आश्चर्यचकित हो गया। अर्जुन ने इस बारे में द्रोणाचार्य को बताया, और वे दोनों एकलव्य के पास गए। एकलव्य ने उन्हें अपने गुरु के रूप में सम्मानित किया और द्रोणाचार्य के आदेश पर सहर्ष अपना दाहिना अंगूठा काटकर दे दिया। इस घटना के बाद, एकलव्य धनुष-बाण की कला में पहले जैसी कुशलता नहीं दिखा सका, क्योंकि उसने अपनी दाहिनी अंगूठी का बलिदान दिया था। इस काव्यात्मक घटना ने यह सिद्ध किया कि एकलव्य की गुरुभक्ति और समर्पण अत्यधिक था, लेकिन साथ ही यह भी दिखाया कि गुरु-शिष्य के संबंध में एक व्यक्ति की महत्ता और समर्पण की सीमाएं होती हैं।
Q.2. अश्वमेघ का क्या अर्थ है ?
उतर- ‘अश्वमेघ’ का शाब्दिक अर्थ है – अश्व = घोड़ा, और मेघ = बादल, अर्थात् “बादल रूपी घोड़ा”। जैसे बादल वायुमंडल में स्वेच्छा से विचरण करता रहता है, वैसे ही ‘अश्वमेघ’ यज्ञ के घोड़े को भी अपनी इच्छा से कहीं भी घूमने (दौड़ने) की स्वतंत्रता होती थी। ‘अश्वमेघ’ प्राचीन काल में एक महत्वपूर्ण यज्ञ था, जिसे शक्तिशाली और प्रतापी राजाओं द्वारा संपन्न किया जाता था। इस यज्ञ में एक घोड़े के माथे पर एक जयपत्र (विजय का प्रतीक) बांधा जाता था और उसे मुक्त छोड़ दिया जाता था। घोड़ा स्वेच्छा से इधर-उधर दौड़ता रहता था। इस घोड़े का दौड़ना और फिर वापस लौटना, यह संकेत करता था कि राजा का शासक के रूप में निर्विरोध शासन स्थापित हो गया है। अगर किसी अन्य राजा या व्यक्ति ने इस घोड़े को पकड़ लिया, तो उसे घोड़े के स्वामी (राजा) से युद्ध करना पड़ता था, जिससे यह यज्ञ और भी महत्वपूर्ण हो जाता था। अश्वमेघ यज्ञ का उद्देश्य केवल विजय का प्रतीक नहीं था, बल्कि यह राजा की शक्ति, प्रतिष्ठा और साम्राज्य की विस्तार के संकेत के रूप में भी देखा जाता था।
Q.3. प्राचीन शहर राजगीर के बारे में कुछ तथ्यों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर – राजगीर, जो पहले ‘राजगृह’ के नाम से जाना जाता था, मगध राज्य की एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक राजधानी रही है। यह नगर वर्तमान बिहार राज्य के नालंदा जिले में स्थित है और प्राचीन भारतीय इतिहास में इसका विशेष स्थान है। शाब्दिक रूप से ‘राजगृह’ का अर्थ होता है ‘राजा का घर’, जो इस स्थान की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्ता को दर्शाता है। राजगीर एक किलाबद्ध नगर था, जो प्राकृतिक सौंदर्य और सुरक्षा दोनों की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण था। यह नगर चारों ओर पहाड़ों से घिरा हुआ था और इसकी सीमाओं के भीतर एक सुरम्य नदी भी बहती थी, जो नगर के लिए जल स्रोत और प्राकृतिक सुरक्षा का कार्य करती थी। राजगीर का ऐतिहासिक महत्व केवल इसके भूगोल में ही नहीं था, बल्कि यह नगर प्राचीन भारत के प्रमुख राजनीतिक और धार्मिक केंद्रों में से एक था। महाभारत और जैन धर्म के इतिहास में भी इस नगर का उल्लेख मिलता है। यह नगर मगध राज्य के शासकों के लिए एक प्रमुख प्रशासनिक और सैन्य केंद्र था, और यहां पर कई महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाएँ घटीं। राजगीर के किलों और पहाड़ी किलों ने इस नगर को बाहरी आक्रमणों से बचाया, जिससे यह शहर मगध राज्य के लिए एक मजबूत और सुरक्षित केंद्र बन गया था। राजगीर को भारतीय उपमहाद्वीप में बौद्ध धर्म के इतिहास में भी एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। भगवान बुद्ध ने यहां कई बार उपदेश दिए और राजगीर के निकट वेलुवन वने में एक समय तक निवास भी किया था। बौद्ध धर्म के अनुयायी इस स्थान को पवित्र मानते हैं और इसे एक तीर्थ स्थल के रूप में पूजा करते हैं। इसके अलावा, जैन धर्म के पंच तीर्थंकरों में से एक, महावीर स्वामी ने भी अपनी कई महत्वपूर्ण उपदेशों की शुरुआत यहां की थी। राजगीर का ऐतिहासिक महत्व केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि राजनीतिक और सैन्य दृष्टि से भी था। जब तक पाटलिपुत्र (अब पटना) मगध राज्य की नई राजधानी नहीं बन गई, तब तक राजगीर ही पूर्वी भारत में राजनीतिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था। मगध के शक्तिशाली राजा, जैसे बिम्बिसार और अजातशत्रु, ने राजगीर को अपनी राजधानी के रूप में चुना था। बिम्बिसार ने इसे एक समृद्ध और सुरक्षित नगर के रूप में विकसित किया था, जहाँ से उन्होंने अपने साम्राज्य का कुशलतापूर्वक संचालन किया। अजातशत्रु, बिम्बिसार का पुत्र, ने भी इस नगर में कई महत्वपूर्ण सुधार किए और इसे राजनीतिक और सैन्य दृष्टि से और भी सशक्त किया। राजगीर का महत्व केवल इसके शासकों द्वारा की गई गतिविधियों तक सीमित नहीं था। यहां की प्राकृतिक स्थिति और सुरक्षा ने इसे एक आदर्श स्थान बना दिया था जहाँ से मगध के शासक अपनी सामरिक रणनीतियों को प्रभावी रूप से लागू कर सकते थे। यहां की पहाड़ियाँ और किलों ने इसे बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा प्रदान की और यह स्थान कई वर्षों तक मगध राज्य का प्रमुख केंद्र बना रहा। हालाँकि, बाद में पाटलिपुत्र को मगध राज्य की नई राजधानी चुने जाने के बाद, राजगीर का महत्व कम हो गया। फिर भी, आज भी यह नगर अपने ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के कारण एक प्रमुख पर्यटन स्थल बना हुआ है। राजगीर के आसपास के क्षेत्र में कई पुरानी गुफाएँ, मठ और स्तूप स्थित हैं, जो बौद्ध और जैन धर्म के अनुयायियों के लिए विशेष महत्व रखते हैं। अंततः, राजगीर, जो कभी मगध राज्य की राजनीतिक और धार्मिक राजधानी था, प्राचीन भारतीय इतिहास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और आज भी यह इतिहास, धर्म और संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा है।
Q.4. ‘नालन्दा’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर – नालंदा, बौद्ध धर्म का एक प्रसिद्ध और ऐतिहासिक विश्वविद्यालय था, जो प्राचीन भारत के मगध क्षेत्र (वर्तमान बिहार) में स्थित था। यह विश्वविद्यालय 5वीं से 12वीं शताब्दी तक अपनी पूरी महिमा पर था। नालंदा विश्वविद्यालय बौद्ध शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र था, जहाँ दुनिया भर से छात्र शिक्षा प्राप्त करने आते थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग (Xuanzang) ने नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में लिखा था कि इसमें लगभग दस हजार विद्यार्थी पढ़ाई करते थे, जिनको करीब 1500 शिक्षक शिक्षा देते थे। यह विश्वविद्यालय अपनी उच्च शिक्षा और गुणवत्तापूर्ण पाठ्यक्रम के लिए प्रसिद्ध था। छात्र इस विश्वविद्यालय में छात्रावासों में रहते थे, और उनके खाने-पीने और अन्य खर्चों के लिए राज्य ने 200 गाँव दिए थे, जिनके राजस्व से विश्वविद्यालय का खर्च चलता था। नालंदा में अध्ययन करना आसान नहीं था। यहां प्रवेश पाने के लिए विद्यार्थियों को कड़ी चयन प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। नालंदा विश्वविद्यालय का प्रमुख उद्देश्य बौद्ध धर्म की शिक्षा देना था, लेकिन यहाँ पर अन्य विषयों जैसे तर्कशास्त्र, गणित, विज्ञान, आयुर्वेद, दर्शन और साहित्य की भी शिक्षा दी जाती थी। इसके अलावा, इस विश्वविद्यालय में पढ़े हुए छात्र समाज में और राजदरबारों में सम्मानित होते थे, क्योंकि यह विश्वविद्यालय अपनी शैक्षिक गुणवत्ता के कारण अत्यधिक प्रतिष्ठित था। नालंदा का पतन 12वीं शताब्दी में हुआ, जब दिल्ली के सुलतान बख्तियार खिलजी ने इसे नष्ट कर दिया। फिर भी, नालंदा विश्वविद्यालय का ऐतिहासिक और शैक्षिक योगदान भारतीय शिक्षा प्रणाली के इतिहास में अनमोल रहेगा।
Q.5. मौर्यकालीन इतिहास के प्रमुख स्रोतों का संक्षिप्त विवरण दें।
उत्तर – मौर्यकालीन इतिहास के प्रमुख स्रोतों का विवरण इस प्रकार है:
(i) मेगास्थनीज की ‘इंडिका’ (Indica of Megasthenes):
मौर्यकालीन भारत के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करने के लिए मेगास्थनीज द्वारा रचित ‘इंडिका’ एक प्रमुख स्रोत है। मेगास्थनीज, जो सिकंदर के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में आए ग्रीक राजदूत थे, उन्होंने इस ग्रंथ में मौर्य साम्राज्य की शासन व्यवस्था, सामाजिक संरचना, राजनैतिक और आर्थिक स्थिति पर विस्तृत विवरण दिया। ‘इंडिका’ से हमें उस समय के भारत की प्रशासनिक व्यवस्था, जनजीवन, न्याय प्रणाली और व्यापारिक गतिविधियों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
(ii) कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ (Kautilya’s Arthshastra):
कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ मौर्यकालीन भारत का एक और अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो न केवल आर्थिक बल्कि शासन व्यवस्था और राजनीति के विभिन्न पहलुओं पर भी प्रकाश डालता है। इसमें राज्य की प्रशासनिक कार्यप्रणाली, कर प्रणाली, न्याय व्यवस्था, रक्षा नीति और राजकोषीय प्रबंधन के बारे में गहरी जानकारी मिलती है। कौटिल्य ने मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के शासन के लिए कई राजनीतिक और आर्थिक रणनीतियाँ दीं। यह ग्रंथ मौर्यकालीन समाज और शासन के बारे में सटीक विवरण प्रदान करता है।
(iii) विशाखदत्त का ‘मुद्राराक्षस’ (Vishakhadatta’s Mudraraksha):
‘मुद्राराक्षस’ एक प्रमुख संस्कृत नाटक है जिसे विशाखदत्त ने रचा था। इस ग्रंथ में नंद वंश के पतन और चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा मौर्य साम्राज्य की स्थापना का वर्णन किया गया है। यह नाटक मौर्यकालीन राजनीति, कूटनीति और सत्ता संघर्ष को उजागर करता है और उस समय के समाज और राजनीति की गहरी समझ प्रदान करता है।
(iv) जैन और बौद्ध साहित्य (Jain and Buddhist Literature):
जैन और बौद्ध दोनों धर्मों के साहित्य में मौर्यकालीन भारत की समाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थिति का महत्वपूर्ण विवरण मिलता है। बौद्ध ग्रंथों में विशेष रूप से सम्राट अशोक के शासनकाल और उनके द्वारा किए गए धार्मिक और सामाजिक सुधारों का वर्णन मिलता है। जैन साहित्य भी उस समय की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों पर प्रकाश डालता है। ये स्रोत मौर्यकालीन समाज की संरचना, धर्म, और संस्कृति को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
(v) अशोक के शिलालेख (Inscription of Ashoka):
सम्राट अशोक ने अपने शासनकाल में विभिन्न शिलालेखों का निर्माण करवाया, जो पूरे साम्राज्य में विभिन्न स्थानों पर लगाए गए थे। इन शिलालेखों में अशोक के धर्म, समाज, प्रशासन और उनके शासन की नीति पर विस्तृत जानकारी मिलती है। अशोक के शिलालेखों में उनके द्वारा धर्म प्रचार, अहिंसा और सामाजिक कल्याण की दिशा में किए गए कार्यों का उल्लेख है। ये शिलालेख मौर्यकालीन प्रशासन, धर्म, समाज और अर्थव्यवस्था की स्थिति को समझने के लिए एक अमूल्य स्रोत हैं। इन सभी स्रोतों से मौर्यकालीन भारत की प्रशासनिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक स्थिति का गहराई से अध्ययन किया जा सकता है।
Q. 6. गांधार कला की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर – महायान बौद्ध धर्म के उदय के साथ गांधार कला का भी विकास हुआ, जो मुख्य रूप से अविभाजित भारत के पश्चिमोत्तर क्षेत्र, अर्थात् गांधार क्षेत्र में विकसित हुई। यह कला शैली यूनानी कला से प्रभावित थी, क्योंकि इस समय गांधार क्षेत्र यूनानी साम्राज्य का हिस्सा था। गांधार कला की सबसे प्रमुख विशेषता यह थी कि इसमें पहली बार बुद्ध और बोधिसत्व की मूर्तियाँ मानवाकार रूप में बनाई गईं। इससे पहले, बौद्ध धर्म में बुद्ध का चित्रण केवल प्रतीकों के माध्यम से किया जाता था, जैसे पद्म, छाया या चिह्नों द्वारा। गांधार कला में बुद्ध और बोधिसत्व को विभिन्न मुद्राओं में दर्शाया गया, जैसे अभय मुद्रा (निर्भयता का प्रतीक) और वरद मुद्रा (आशीर्वाद देने वाली मुद्रा)। मूर्तियों में बालों के अलंकरण पर विशेष ध्यान दिया गया, जिसमें बालों को तराशा और व्यवस्थित किया गया, जो यूनानी कला की प्रभावशाली शैली को दर्शाता है। गांधार कला में बुद्ध की मूर्तियाँ न केवल धार्मिक महत्व की थीं, बल्कि यह कला और सांस्कृतिक मिश्रण का भी प्रतीक थी, जिसमें भारतीय और ग्रीको-रोमन शैली का समावेश था। इस कला ने बौद्ध धर्म के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और यह आज भी विश्व धरोहर के रूप में महत्वपूर्ण मानी जाती है।
Q.7. गुप्त कौन थे ? गुप्त वंश का संस्थापक कौन था ?
उत्तर – गुप्त वंश के बारे में इतिहासकारों में विभिन्न मत हैं। डॉ. हेमचंद्र राय चौधरी उन्हें ब्राह्मण मानते हैं, जबकि पं. गौरी शंकर बिहारी प्रसाद शास्त्री उन्हें क्षत्रिय बताते हैं। आल्तेकर जैसे कुछ इतिहासकार उन्हें वैश्य मानते हैं, जबकि कुछ अन्य इतिहासकार उन्हें शूद्र तक कहने से नहीं चूकते। इस पर कोई ठोस और सर्वमान्य प्रमाण नहीं मिले हैं, जिससे गुप्त वंश के मूल के बारे में स्पष्टता हो सके। गुप्त वंश का संस्थापक चन्द्रगुप्त प्रथम था, जिसने 230 ई. से 336 ई. तक शासन किया। चन्द्रगुप्त प्रथम ने गुप्त साम्राज्य की नींव रखी और इसे एक शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में स्थापित किया। उनके शासनकाल में भारतीय उपमहाद्वीप में सांस्कृतिक और राजनीतिक स्थिरता आई, जिससे गुप्त काल को भारतीय इतिहास का “स्वर्णिम काल” कहा जाता है। चन्द्रगुप्त प्रथम का साम्राज्य धीरे-धीरे विस्तार करता गया, और उन्होंने गंगा घाटी से लेकर मध्य भारत तक अपने प्रभाव का प्रसार किया। उनके शासन में भारतीय कला, विज्ञान, गणित और साहित्य में महत्वपूर्ण उन्नति हुई। उनके पश्चात उनके पुत्र सम्राट समुद्रगुप्त ने साम्राज्य को और विस्तारित किया।
Q.8. गुप्त वंश का प्रथम प्रसिद्ध राजा कौन था ? उसने अपनी स्थिति को कैसे दृढ़ किया ?
उत्तर – चंद्रगुप्त प्रथम गुप्त वंश का पहला प्रमुख और प्रसिद्ध राजा था, जिसने इस वंश को शक्तिशाली बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसने अपनी पत्नी के रूप में लिच्छवी राजकुमारी से विवाह किया, जिससे उसे राजनीतिक गठबंधन का लाभ मिला और उसका प्रभाव और प्रतिष्ठा बढ़ी। लिच्छवी राजकुमारी से विवाह ने उसे उत्तरी भारत के शक्तिशाली क्षेत्रों में अपनी स्थिति को मजबूत करने में मदद की। चंद्रगुप्त प्रथम ने सैन्य संगठन को सुदृढ़ किया और विजय अभियान छेड़कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उसने गंगा घाटी और आसपास के क्षेत्रों में अपने प्रभाव को फैलाया, जिससे गुप्त साम्राज्य का क्षेत्रफल बड़ा और साम्राज्य की शक्ति में वृद्धि हुई। चंद्रगुप्त प्रथम ने गुप्त संवत् की शुरुआत की, जो भारतीय कालगणना का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया। गुप्त संवत् का उपयोग भारतीय इतिहास में समय की माप के लिए किया जाता है, और यह चंद्रगुप्त प्रथम के शासन की प्रमुख उपलब्धियों में से एक मानी जाती है। इस प्रकार, चंद्रगुप्त प्रथम ने गुप्त वंश को एक स्थिर और शक्तिशाली साम्राज्य में परिवर्तित किया, जिससे भारतीय इतिहास में उसका नाम सदियों तक याद किया गया।
Q.9 . चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की उपलब्धियों का वर्णन करें।
उत्तर – चंद्रगुप्त विक्रमादित्य (चंद्रगुप्त द्वितीय), समुद्रगुप्त का पुत्र था और उसने 380 ई. से 410 ई. तक शासन किया। वह गुप्त वंश का एक महान और प्रसिद्ध सम्राट था, जिसकी नीति, युद्धकला और सांस्कृतिक प्रगति के कारण उसे भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने सबसे पहले बंगाल पर विजय प्राप्त की और अपनी शक्ति का विस्तार करना शुरू किया। इसके बाद उसने वल्कीक जाति और अति गणराज्य पर भी विजय प्राप्त की। उसकी सबसे महत्वपूर्ण सफलताएँ थीं मालवा, काठियावाड़ और गुजरात पर विजय प्राप्त करना। विशेष रूप से शकों को हराकर उसने ‘विक्रमादित्य’ की पदवी धारण की, जो उसे महान शासक के रूप में प्रतिष्ठित करने वाली थी। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार में संस्कृत के महान कवि कालिदास रहते थे, जिनकी काव्य रचनाएँ आज भी भारतीय साहित्य का अभिन्न हिस्सा हैं। इसके अलावा, विक्रमादित्य के शासन काल में प्रजा सुखी और समृद्ध थी। उसने एक सुव्यवस्थित प्रशासन स्थापित किया, जिससे साम्राज्य में शांति और समृद्धि बनी रही। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन काल गुप्त साम्राज्य का “स्वर्णिम युग” था, जब भारतीय कला, संस्कृति और विज्ञान में महत्वपूर्ण विकास हुआ।
Q.11. अशोक के अभिलेखों का संक्षेप में महत्त्व बताइए।
उत्तर – यद्यपि मौर्यकालीन इतिहास को जानने के लिए विभिन्न स्रोतों जैसे मौर्यकालीन पुरातात्विक प्रमाण, मूर्तिकला, चाणक्य का अर्थशास्त्र, मेगास्थनीज की इंडिका, जैन और बौद्ध साहित्य, तथा पौराणिक ग्रंथ बड़े उपयोगी हैं, लेकिन अशोक के अभिलेख पत्थरों और स्तंभों पर पाए जाने वाले अभिलेख सबसे मूल्यवान और प्रमुख स्रोत माने जाते हैं। सम्राट अशोक वह पहले शासक थे, जिन्होंने अपने शासन के महत्वपूर्ण संदेशों को प्राकृतिक पत्थरों और पॉलिश किए हुए स्तंभों पर खुदवाया। अशोक ने इन अभिलेखों के माध्यम से धम्म का प्रचार किया, जिसे उन्होंने अपनी शाही नीति और जीवनदृष्टि के रूप में अपनाया था। इन अभिलेखों में सम्राट ने बड़ों के प्रति आदर, संन्यासियों और ब्राह्मणों के प्रति उदारता, सेवकों और दासों के साथ दयालु व्यवहार, तथा अन्य धर्मों और परंपराओं का सम्मान करने की बात की थी। अशोक के अभिलेखों में उनके शासन की नीति, प्रशासन, धर्म, समाज और उनके व्यक्तिगत आदर्शों के बारे में गहरी जानकारी मिलती है। ये अभिलेख मौर्यकालीन भारत की सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियों को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और भारतीय इतिहास में उनका अत्यधिक मूल्य है।
Q.11.मौर्य साम्राज्य का उदय कब और किसके द्वारा हुआ ? इसमें एक पम किसके द्वारा जोड़ा गया ?
उत्तर – मगध के विकास के साथ-साथ मौर्य साम्राज्य का उदय हुआ, जो भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। मौर्य साम्राज्य का संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य था, जिसने लगभग 321 ई. पू. में मौर्य साम्राज्य की नींव रखी। उसका साम्राज्य पश्चिमोत्तर में अफगानिस्तान और बलूचिस्तान तक फैला हुआ था। चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने शासनकाल में मौर्य साम्राज्य को एक शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में स्थापित किया और अपनी कूटनीतिक नीतियों तथा सैन्य अभियान के माध्यम से साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। चंद्रगुप्त मौर्य के पोत्र, सम्राट अशोक, जिसे आरंभिक भारत का सर्वप्रसिद्ध शासक माना जाता है, ने मौर्य साम्राज्य को अपने शिखर पर पहुंचाया। अशोक ने कलिंग (आधुनिक उड़ीसा) पर विजय प्राप्त की, जो एक ऐतिहासिक घटना थी। कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने युद्ध की विनाशकारीता को महसूस किया और बौद्ध धर्म को अपनाया। उसने धम्म के प्रचार के लिए अपने शिलालेखों के माध्यम से सामाजिक सुधारों और अहिंसा की नीति का अनुसरण किया, जिससे उसे इतिहास में एक आदर्श शासक के रूप में स्थान प्राप्त हुआ।
Q.12. मौर्य साम्राज्य के विस्तार का विवेचन कीजिए।
उत्तर – मौर्य साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा और शक्तिशाली साम्राज्य था, जिसका विस्तार मध्य एशिया के लाघमन (Laghman) से लेकर दक्षिण में चोल और चेर साम्राज्य की सीमाओं (केरल और तमिलनाडु क्षेत्र) तक फैला हुआ था। पश्चिम में इसका विस्तार स्वात और अफगानिस्तान तक था, जबकि उत्तर-पूर्व में इसका साम्राज्य बंगाल और बिहार तक फैलता था। मौर्य साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) थी, जो उस समय का सबसे महत्वपूर्ण और विकसित नगर था। मौर्य साम्राज्य के संबंध विभिन्न महत्वपूर्ण राज्यों से थे, जैसे तक्षशिला, टोपरा, इंद्रप्रस्थ और कलिंग (जो आज उड़ीसा में स्थित है)। तक्षशिला, जो आधुनिक पाकिस्तान में स्थित है, एक प्रमुख शिक्षा और व्यापारिक केंद्र था, जबकि इंद्रप्रस्थ (वर्तमान दिल्ली) पांडवों की राजधानी थी। कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक ने इस राज्य को अपने साम्राज्य में समाहित किया। मौर्य साम्राज्य का विशाल विस्तार और इसके विभिन्न राज्यों से संबंध इसे एक अत्यंत प्रभावशाली और विविधतापूर्ण साम्राज्य बनाते हैं। इस साम्राज्य के शासक, विशेष रूप से अशोक, ने प्रशासन, समाज, और धर्म में कई महत्वपूर्ण सुधार किए।
Q.13.अशोक के अभिलेख किन-किन भाषाओं व लिपियों में लिखे जाते थे ? उनके विषय क्या थे ?
उत्तर – अशोक के अभिलेख मौर्य साम्राज्य के सबसे महत्वपूर्ण स्रोतों में से एक माने जाते हैं। ये अभिलेख मुख्य रूप से जनता की भाषा, पालि और प्राकृत में लिखे जाते थे, ताकि आम जनता तक सम्राट के आदेश और संदेश पहुंच सकें। इन अभिलेखों में ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का प्रयोग हुआ था, जो उस समय की प्रमुख लिपियाँ थीं। अशोक के अभिलेखों में सम्राट का जीवनवृत्त, उसकी आंतरिक और बाहरी नीतियाँ, और उसके राज्य के विस्तार की जानकारी मिलती है। इन अभिलेखों में अशोक के शासनकाल के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है, जैसे उसने युद्धों से लेकर सामाजिक सुधारों तक किस प्रकार के कदम उठाए। विशेष रूप से, कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने अहिंसा, धर्म, और समाज सुधार की नीति अपनाई और उसे अपने अभिलेखों के माध्यम से प्रचारित किया। इन अभिलेखों में सम्राट अशोक के आदेश भी अंकित होते थे, जैसे कि अपने कर्मचारियों और प्रजा से उनके कर्तव्यों के बारे में निर्देश देना, धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देना, और नागरिकों के भले के लिए कानून बनाना। अशोक के ये अभिलेख उसकी शासन नीति, उसके आदर्शों और उसके शासन के दृष्टिकोण को समझने का एक प्रमुख साधन हैं।
Q.14. अशोक के धम्म पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर – ‘धम्म’ संस्कृत के धर्म शब्द का प्राकृत रूप है, और सम्राट अशोक ने इसे अपने अभिलेखों में विस्तृत अर्थ में प्रयोग किया है। इस विषय पर विद्वानों के बीच मतभेद है। कुछ विद्वान मानते हैं कि धम्म और बौद्ध धर्म में कोई फर्क नहीं है, जबकि अन्य इसे अलग-अलग मानते हैं। यह कहना महत्वपूर्ण है कि धम्म और बौद्ध धर्म दोनों अलग-अलग अवधारणाएँ हैं। बौद्ध धर्म अशोक का व्यक्तिगत धर्म था, लेकिन जिस धम्म की चर्चा अशोक ने अपने अभिलेखों में की है, वह उसका सार्वजनिक धर्म था, जो विभिन्न धर्मों का सार था। अशोक ने अपने अभिलेखों में धम्म शब्द का कई स्थानों पर प्रयोग किया, लेकिन भाबरु अभिलेख को छोड़कर (जहाँ उसने बुद्ध, धम्म और संघ में विश्वास प्रकट किया है), कहीं भी उसने धम्म का प्रयोग केवल बौद्ध धर्म के लिए नहीं किया। बौद्ध धर्म के संदर्भ में अशोक ने ‘सद्धम्म’ या ‘संघ’ शब्द का उपयोग किया है। इसका मतलब यह है कि अशोक का धम्म बौद्ध धर्म नहीं था, क्योंकि इसमें चार आर्य सत्यों, अष्टांगिक मार्ग, और निर्वाण की चर्चा नहीं मिलती है। इसलिए, हम यह कह सकते हैं कि अशोक का धम्म बौद्ध धर्म से भिन्न था, क्योंकि यह एक व्यापक और समग्र धार्मिक दृष्टिकोण था, जिसमें सभी धर्मों का सम्मान और एकता का संदेश था।
Q.15. ‘छठी से चौथी शताब्दी ई० पू० में मगध का एक शक्तिशाली राज्य के रूप विकास हुआ।’ इस कथन को लगभग 100 से 150 शब्दों में व्याख्या कीजिए।
उत्तर – छठी से चौथी शताब्दी ई. पू. में मगध (जो आधुनिक बिहार का हिस्सा है) सबसे शक्तिशाली महाजनपद बन गया था। इसके कई कारण थे, जिन्हें आधुनिक इतिहासकार विभिन्न दृष्टिकोणों से समझाते हैं:
कृषि की उपज: मगध क्षेत्र में खेती की उपज विशेष रूप से अच्छी थी, जो समृद्धि का एक महत्वपूर्ण कारण बनी। कृषि उत्पादकता ने मगध को आर्थिक रूप से मजबूत किया और उसे दूसरे महाजनपदों से अधिक प्रभावशाली बना दिया।
लोहे की खदानें: आधुनिक झारखंड क्षेत्र में लोहे की खदानें उपलब्ध थीं, जिससे हथियार और उपकरण बनाने में सुविधा होती थी। लोहे की उत्कृष्ट गुणवत्ता ने मगध की सैन्य शक्ति को और बढ़ाया, क्योंकि सैनिकों के लिए बेहतर उपकरण और हथियार बनाए जा सकते थे।
हाथियों की उपलब्धता: मगध के जंगली क्षेत्रों में हाथी आसानी से मिलते थे, जो युद्ध में सेना के एक महत्वपूर्ण अंग होते थे। इसके साथ ही गंगा और इसकी उपनदियों से आवागमन सस्ता और सुलभ था, जो व्यापार और सैन्य गतिविधियों में सहायक था।
शासकों की नीतियाँ: आरंभिक जैन और बौद्ध लेखकों के अनुसार, मगध की महत्ता के कारण विभिन्न शासकों की नीतियाँ थीं। विशेष रूप से बिम्बिसार, अजातशत्रु और महापद्म-नंद जैसे शासकों ने अपनी महत्वाकांक्षी नीतियों से मगध को मजबूत किया। इनके मंत्री इन नीतियों को लागू करने में सहायक होते थे।
राजधानी का स्थान: प्रारंभ में, राजगाह (जो आधुनिक राजगीर का प्राकृत नाम है) मगध की राजधानी थी। यह स्थान पहाड़ियों के बीच बसा हुआ था और किलेबंद शहर के रूप में सुरक्षित था। बाद में चौथी शताब्दी ई. पू. में पाटलिपुत्र (अब पटना) को राजधानी बनाया गया, जो गंगा के मार्ग पर स्थित होने के कारण व्यापार और आवागमन के लिए महत्वपूर्ण था।
इन कारणों से मगध को शक्ति और समृद्धि की ऊँचाइयों तक पहुँचने में सफलता मिली, और यह भारतीय इतिहास के सबसे प्रभावशाली महाजनपदों में से एक बन गया।

SANTU KUMAR
I am a passionate Teacher of Class 8th to 12th and cover all the Subjects of JAC and Bihar Board. I love creating content that helps all the Students. Follow me for more insights and knowledge.
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