Class 12th History ( कक्षा-12 इतिहास दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 6

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Q.1. संविधान सभा ने भाषा के विवाद को हल करने के लिए क्या रास्ता निकाला?

उत्तर – भाषा के विवाद को हल करने के उपाय

भारत एक बहुभाषी देश है, जहां विभिन्न प्रांतों और क्षेत्रों में लोग विभिन्न भाषाओं का प्रयोग करते हैं। जब संविधान सभा के समक्ष राष्ट्र की भाषा का सवाल आया, तो इस पर कई महीनों तक गरमा-गरम बहस हुई, और कई बार तनाव की स्थिति उत्पन्न हुई।

  1. हिंदुस्तानी का प्रस्ताव
    आज़ादी से पूर्व, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने यह स्वीकार किया था कि हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाए। महात्मा गांधी का मानना था कि प्रत्येक भारतीय को एक ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जिसे लोग आसानी से समझ सकें। हिंदी और उर्दू के मिश्रण से बनी हिंदुस्तानी एक साझा भाषा थी, जिसे भारतीय समाज के बड़े हिस्से ने अपनाया था और कई संस्कृतियों का आदान-प्रदान हुआ था। गांधीजी के अनुसार, हिंदुस्तानी को देश के विभिन्न समुदायों के बीच संवाद का माध्यम बनाया जा सकता था और यह हिन्दू-मुसलमानों को एकजुट कर सकता था।

  2. साम्प्रदायिक तनाव का असर
    हालांकि, समय के साथ हिंदुस्तानी भाषा पर साम्प्रदायिकता का असर बढ़ने लगा। हिंदी और उर्दू एक दूसरे से अलग होने लगे। मुसलमानों ने उर्दू और फारसी के शब्दों का अधिक इस्तेमाल करना शुरू किया, जबकि हिंदू भी संस्कृतनिष्ठ शब्दों की ओर झुकने लगे। इसके परिणामस्वरूप, यह भाषा धार्मिक पहचान और राजनीति का हिस्सा बन गई। फिर भी महात्मा गांधी का विश्वास हिंदुस्तानी की साझी भूमिका में बना रहा।

  3. संविधान सभा में बहस
    संविधान सभा में हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपनाने का मामला एक बार फिर उठा। आर.वी. धुलेकर ने यह सुझाव दिया कि संविधान निर्माण में शामिल सभी सदस्य हिंदुस्तानी भाषा को समझते हों, अन्यथा उन्हें संविधान सभा से बाहर कर दिया जाना चाहिए। इस पर संविधान सभा में हंगामा मच गया, और अंततः जवाहरलाल नेहरू के हस्तक्षेप से शांति स्थापित हुई।

  4. संविधान समिति का समाधान
    संविधान समिति ने सुझाव दिया कि देवनागरी लिपि में लिखी हिंदी को भारत की राजकीय भाषा बनाना चाहिए। लेकिन समिति ने इसे अंतिम रूप से घोषित नहीं किया और इसके बजाय यह निर्णय लिया कि हम धीरे-धीरे हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की प्रक्रिया शुरू करेंगे।

  5. अंग्रेजी का निरंतर उपयोग
    कुछ लोगों का यह भी विचार था कि संविधान लागू होने के बाद कुछ समय तक अंग्रेजी को सरकारी कामकाज की भाषा बनाए रखा जाए और प्रत्येक प्रांत को अपनी क्षेत्रीय भाषा को अपनाने का अधिकार दिया जाए। समिति ने हिंदी को राष्ट्रीय भाषा की बजाय राज भाषा कहकर एक समग्र समाधान पेश किया।

  6. दक्षिण भारत से विरोध
    दक्षिण भारत के कुछ सदस्य, जैसे मद्रास और महाराष्ट्र के प्रतिनिधियों ने यह मुद्दा उठाया कि हिंदी के प्रचार के प्रयास अन्य भाषाओं के स्वाभाविक प्रभाव को रोक सकते हैं। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि हिंदी के प्रचार के साथ-साथ, प्रांतीय भाषाओं को भी सम्मान मिलना चाहिए और उनका अधिकार सुरक्षित रहना चाहिए।

  7. अंतिम समाधान
    इस प्रकार, हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया, लेकिन इसका प्रचार-प्रसार बहुत ही सावधानी से किया गया। इसके साथ ही अंग्रेजी को वर्षों तक सरकारी कामकाज की भाषा बनाए रखा गया। हिंदी को प्रचारित करने के लिए विभिन्न माध्यमों जैसे जनसंचार, रेडियो, फिल्में, साहित्य और प्रेस का सहयोग लिया गया।

निष्कर्ष
भारत में भाषा का विवाद एक जटिल मामला था, जिसमें विभिन्न प्रांतीय भाषाओं, सांस्कृतिक पहचान और साम्प्रदायिक मुद्दों का प्रभाव था। हालांकि, समय के साथ इस विवाद का समाधान निकल आया, और हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया गया। इसके प्रचार-प्रसार में विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक माध्यमों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, और अब हिंदी भारतीय समाज की प्रमुख भाषा के रूप में अपना स्थान बना चुकी है।

Q.2. संविधान सभा का गठन कैसे हुआ? संविधान सभा में उठाये गये महत्वपूर्ण मुद्दों का उल्लेख करें।

उत्तर – भारतीय संविधान (Indian Constitution)

भारतीय संविधान का निर्माण 26 नवम्बर 1949 को हुआ था, और इसे 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया। संविधान का निर्माण एक संविधान सभा ने किया था, जिसका निर्वाचन 1946 में कैबिनेट मिशन योजना के तहत हुआ था। संविधान सभा के कुल 296 सदस्य थे, जिनमें से 211 सदस्य भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के थे, जबकि 73 मुस्लिम लीग के थे। संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसम्बर 1946 को डॉ. सच्चिदानन्द सिन्हा की अध्यक्षता में हुई। इसके बाद 11 दिसम्बर 1946 को संविधान सभा का स्थायी अध्यक्ष चुना गया और एक संविधान प्रारूप समिति का गठन किया गया, जिसकी अध्यक्षता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने की। लगभग 2 वर्ष, 11 माह, और 18 दिन के बाद, 26 नवम्बर 1949 को संविधान तैयार हुआ और इसे 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया।

संविधान का स्वरूप तैयार करने वाली ऐतिहासिक ताकतें

  1. भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस
    भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस वह पहली ऐतिहासिक ताकत थी जिसने देश के संविधान का स्वरूप तय करने में प्रमुख भूमिका निभाई। कांग्रेस ने लोकतांत्रिक गणराज्य और धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसका उद्देश्य भारतीय समाज में समानता, स्वतंत्रता, और बंधुत्व की भावना को बढ़ावा देना था।

  2. मुस्लिम लीग और उदारवादी मुसलमान
    मुस्लिम लीग ने देश के विभाजन की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया, लेकिन विभाजन के बाद भी कई उदारवादी मुसलमानों और उन मुसलमानों ने जो विभाजन के विरोधी थे, भारत को धर्मनिरपेक्ष बनाए रखने के लिए संविधान के माध्यम से प्रयास किए। इन लोगों ने संविधान में सभी नागरिकों को अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने का आश्वासन दिया और यह सुनिश्चित किया कि धार्मिक भेदभाव न हो।

  3. दलित और हरिजनों के समर्थक नेता
    दलितों, हरिजनों और अन्य पिछड़े वर्गों के अधिकारों के लिए काम करने वाले नेताओं ने संविधान में उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था, सामाजिक और राजनीतिक समानता, तथा छुआछूत के उन्मूलन की प्रक्रिया को शामिल करने में योगदान दिया। इन नेताओं का उद्देश्य संविधान को सामाजिक न्याय देने वाला बनाना था ताकि समाज के कमजोर वर्गों को समान अवसर मिल सकें।

  4. समाजवादी और वामपंथी विचारधारा
    समाजवादी और वामपंथी विचारधारा वाले नेताओं ने भारतीय संविधान को समाजवादी ढाँचे की सरकार बनाने के लिए प्रभावित किया। उन्होंने भारतीय समाज में समानता लाने के लिए संवैधानिक व्यवस्थाओं का समर्थन किया, जिसमें कल्याणकारी राज्य की स्थापना, समान काम के लिए समान वेतन, बंधुआ मजदूरी का उन्मूलन, और जमींदारी उन्मूलन जैसी योजनाओं को संविधान में शामिल करने का प्रयास किया।

निष्कर्ष
भारतीय संविधान का निर्माण विभिन्न विचारधाराओं, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक समूहों के प्रभाव से हुआ था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष राज्य का आदर्श प्रस्तुत किया, जबकि मुस्लिम लीग और अन्य दलित-समूहों ने सांस्कृतिक विविधता और समानता को संविधान में सुनिश्चित करने का प्रयास किया। समाजवादी नेताओं ने संविधान को सामाजिक न्याय और समानता प्रदान करने वाली व्यवस्था के रूप में स्थापित किया। इस प्रकार भारतीय संविधान एक संतुलित और समावेशी दस्तावेज़ है, जो भारतीय समाज की विविधता और विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए तैयार किया गया।

Q.3. आधुनिक भारत के निर्माण में डॉ बी० आर० अम्बेडकर की देनों का मूल्यांकन कीजिए।

उत्तर – डॉ. भीमराव अंबेडकर: एक महान समाज सुधारक और दलितों के मसीहा

डॉ. भीमराव अंबेडकर का नाम भारतीय समाज के उन महान व्यक्तित्वों में लिया जाता है, जिन्होंने समाज की गहरी विसंगतियों और भेदभाव के खिलाफ संघर्ष किया। वे उस तेजपुंज की तरह थे जो प्रकाश तो देता है, लेकिन जलाता नहीं। अपने जीवन को समरसता से अपनाते हुए और विसंगतियों से संघर्ष करते हुए, उन्होंने समाज में परिवर्तन की अलख जगाई। बाबा साहब का जन्म 14 अप्रैल 1891 ई. को महाराष्ट्र के महू गाँव में हुआ। उनके पिता का नाम रामजी सकपाल और माता का नाम भीमाबाई था। वे अपने माता-पिता के चौदहवें संतान थे और महार जाति से संबंधित थे, जिसे उस समय अछूत माना जाता था। बचपन में ही अछूत होने की पीड़ा को महसूस करते हुए, उनका बालमन इस सामाजिक व्यवस्था से आक्रांत था और उन्होंने इसे बदलने का संकल्प लिया।

शिक्षा और संघर्ष
बचपन से ही अंबेडकर मेधावी छात्र थे। उन्होंने अपने जीवन में कई बार कठिनाइयों का सामना किया, लेकिन कभी भी अपने लक्ष्य से भटके नहीं। वे गहन चिंतन करने वाले छात्र थे और छोटी उम्र में ही उन्होंने समाज के शोषित वर्ग के लिए आवाज उठाना शुरू कर दिया था। 14 वर्ष की उम्र में उनका विवाह रामाबाई से हुआ था। इसके बाद वे अपने पिता के साथ 1905 में मुंबई आ गए और 1907 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। 1912 में उन्होंने बी.ए. की डिग्री प्राप्त की, लेकिन उच्च शिक्षा की राह में आर्थिक कठिनाइयाँ आड़े आईं। बडौदा नरेश ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें आर्थिक सहायता दी। इसके बाद 1913 में अंबेडकर अमेरिका गए, जहाँ उन्होंने 1915 में एम.ए. की डिग्री प्राप्त की और 1916 में पी-एच.डी. की डिग्री से सम्मानित हुए। इसके बाद उन्होंने इंग्लैंड और जर्मनी में भी अध्ययन किया और वहां ‘बार्र एट लॉ’ की डिग्री प्राप्त की। इस दौरान उन्होंने संसदात्मक प्रजातंत्र और उदारवादी प्रजातंत्र पर गहन अध्ययन किया।

सामाजिक आंदोलन और दलितों के उत्थान के लिए कार्य
अंबेडकर ने 1920 में कोल्हापुर के महाराजा की सहायता से ‘मूक नन्ह’ पत्रिका का संपादन शुरू किया, जो सामाजिक विकृतियों पर करारा प्रहार करती थी। 1923 से 1931 तक का समय उनके लिए संघर्ष और अभ्युदय का था। इस दौरान वे दलितों के नेता के रूप में उभरकर सामने आए और अंग्रेजों से दलितों के अधिकारों की मांग की। उनका प्रसिद्ध नारा था – “शिक्षित बनो, संघर्ष करो, संगठित रहो”। 1935 में उनकी पत्नी का निधन हो गया और उसी वर्ष उन्होंने धर्म परिवर्तन की घोषणा की। इसके बाद उन्होंने बहिष्कृत हितकारी सभा, सिद्धांत महाविद्यालय और स्वतंत्र मजदूर संघ की स्थापना की। उनके द्वारा किए गए कार्यों ने समाज में गहरी छाप छोड़ी और वे दलितों और शोषित वर्ग के मसीहा के रूप में प्रसिद्ध हुए।

संविधान निर्माण और अंतिम समय
1947 में उन्हें नेहरू जी के मंत्रिमंडल में कानून मंत्री नियुक्त किया गया। 21 अगस्त 1950 को उन्होंने भारतीय संविधान को राष्ट्र को समर्पित किया। संविधान निर्माण में उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता, क्योंकि यह संविधान सभी नागरिकों को समान अधिकार देने की बात करता है और उनके लिए सामाजिक न्याय का मार्ग प्रशस्त करता है। 1956 में उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया और 6 दिसम्बर 1956 को उनका महापरिनिर्वाण हुआ। उनका यह कदम समाज में बौद्ध धर्म के प्रति जागरूकता और समानता की भावना को बढ़ाने वाला था।

श्रद्धांजलि और उत्तराधिकार
डॉ. भीमराव अंबेडकर की 1990-91 में जन्म शताब्दी धूमधाम से मनाई गई और उनके योगदान को याद किया गया। उन्होंने दलितों के अधिकारों के लिए जो संघर्ष किया, वह आज भी प्रेरणा का स्रोत है। उनकी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम दलितों को समान अधिकार दें और उनके यथोचित उत्थान के लिए काम करें। अंबेडकर का जीवन और उनका दिया हुआ संदेश – “उठकर आगे बढ़ो” – आज भी लोगों के हृदयों में गूंजता है। उनका संघर्ष और दृष्टिकोण समाज में बदलाव का प्रतीक बना है, और उनके विचार आज भी लोगों को प्रेरित करते हैं।

Q.4. भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में महात्मा गाँधी के योगदान का वर्णन करें। –

उत्तर – महात्मा गांधी और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी भूमिका

महात्मा गांधी का भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान था। वे स्वतंत्रता संग्राम के नायक थे, जिनकी प्रेरणा से भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई। उनका योगदान इतना गहरा और व्यापक था कि उन्हें “राष्ट्रपिता” के सम्मान से नवाजा गया। गांधीजी का जीवन शांति, सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित था, और यही उनके संघर्ष का आधार बने। उन्होंने भारतीय राजनीति में एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया और देश की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने अपने प्रबल नेतृत्व से एक नई दिशा दी। महात्मा गांधी ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में 1914 ई. में कदम रखा था, लेकिन 1919 ई. के बाद उन्होंने इसे प्रभावित करना शुरू किया और 1920 से 1947 तक आंदोलन के केंद्र में रहे। इस समय को ‘गांधी युग’ के रूप में जाना जाता है, क्योंकि इस दौरान उन्होंने राष्ट्रीय संघर्ष को एक नई दिशा दी, उसे जन आंदोलन में तब्दील किया, और उसे सक्रिय रूप से आगे बढ़ाया।

असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन
महात्मा गांधी ने 1919 में रॉलेट एक्ट के खिलाफ व्यापक आंदोलन की शुरुआत की। इसके विरोध में उन्होंने देशभर में जागरूकता फैलायी और जालियाँवाला बाग हत्याकांड के बाद आंदोलन को और भी तीव्र किया। इसके पश्चात, 1 अगस्त 1920 को उन्होंने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की। इस आंदोलन के तहत छात्रों ने स्कूल-कॉलेज छोड़ दिए, वकीलों ने अदालतों का बहिष्कार किया, और आम लोग ब्रिटिश शासन के खिलाफ उठ खड़े हुए। गांधीजी का मानना था कि सत्य और अहिंसा के रास्ते से ही स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है। हालांकि, 1922 में चौरा-चौरी कांड के बाद गांधीजी ने असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया, क्योंकि उन्हें अहिंसा के सिद्धांत का उल्लंघन होते दिखा। इसके बाद, उन्हें जेल भेजा गया, लेकिन 1924 में अस्वस्थता के आधार पर उन्हें रिहा किया गया।

साइमन कमीशन और दांडी यात्रा
1927 में जब ब्रिटिश सरकार ने साइमन कमीशन भेजा, तो गांधीजी के नेतृत्व में पूरे देश में इसका विरोध किया गया। 1930 में ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ की शुरुआत हुई, जिसमें गांधीजी ने दांडी यात्रा निकाली और नमक कानून का उल्लंघन किया। इस यात्रा से ब्रिटिश शासन की नीतियों का पर्दाफाश हुआ और भारत में स्वतंत्रता की लहर और तेज हुई।

अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, 1942 में गांधीजी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन के तहत, उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ जोरदार संघर्ष किया और भारतीयों को स्वतंत्रता के लिए एकजुट किया। गांधीजी सहित कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन उनका आंदोलन जारी रहा।

साम्प्रदायिक एकता और विभाजन
1946 में जब पाकिस्तान की मांग को लेकर मुस्लिम लीग ने आंदोलन तेज किया, तो कई जगह साम्प्रदायिक दंगे हुए। गांधीजी ने अपनी कोशिशों से बंगाल और बिहार में साम्प्रदायिक सद्भावना बनाए रखने के प्रयास किए। उन्होंने कई बार असहमति के बावजूद अपनी अहिंसा और शांति की नीति से दंगों को शांत किया और एकता बनाए रखने की अपील की।

स्वतंत्रता प्राप्ति और गांधीजी का योगदान
15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता मिली, लेकिन यह गांधीजी के लिए केवल विजय का दिन नहीं था। वे हमेशा शांति, सत्य और अहिंसा के पक्षधर रहे और विभाजन के समय उन्होंने साम्प्रदायिक एकता बनाए रखने की भरसक कोशिश की।

गांधीजी का जीवन शांति, अहिंसा और सत्य के सिद्धांतों से भरा था। 30 जनवरी 1948 को उनका नाथूराम गोडसे द्वारा निधन हो गया, और यह घटना समूचे विश्व को गहरे शोक में डुबो गई।

महात्मा गांधी की अमूल्य देन
महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय आंदोलन को एक नया रूप दिया, जिसमें जनता का सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की गई। उन्होंने असहमति और संघर्ष के बावजूद हमेशा शांति, सत्य और अहिंसा का पालन किया। उन्होंने भारतीय समाज को यह सिखाया कि स्वतंत्रता का संघर्ष केवल हिंसा से नहीं, बल्कि सत्य और अहिंसा के साथ किया जा सकता है। उनका योगदान सिर्फ भारत तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने दुनिया को यह दिखाया कि शांति और अहिंसा से बड़े से बड़े संकट का समाधान किया जा सकता है।

इस प्रकार, गांधीजी की भूमिका भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में सर्वोपरि रही, और उनकी देन अमूल्य है। माउंटबेटन ने सही कहा था, “जिस कार्य को पचास हजार हथियारबंद सिपाही नहीं कर सके, उसे गांधीजी ने शांति से कर दिखाया।”

Q.5. भारत का विभाजन क्यों हुआ ? अथवा, 1947 में भारत के विभाजन के कारणों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर – भारत विभाजन के कारण

भारत का विभाजन एक गहरी और जटिल प्रक्रिया का परिणाम था, जिसमें कई कारक जिम्मेदार थे। यह विभाजन, जिनका प्रभाव न केवल भारतीय समाज बल्कि सम्पूर्ण उपमहाद्वीप पर पड़ा, कई ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों का परिणाम था। अनेक नेताओं के विरोध के बावजूद इसे रोकने में सफलता नहीं मिल सकी। इसके लिए निम्नलिखित प्रमुख कारण उत्तरदायी थे:

  1. 1909 के कानून और अंग्रेजों की ‘फूट डालो और शासन करो’ नीति:
    सन् 1909 में अंग्रेजों ने मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन का अधिकार देकर उन्हें हिन्दुओं से अलग करने की योजना बनाई। अंग्रेजों की “फूट डालो और शासन करो” की नीति ने मुस्लिम समुदाय को हिन्दू समाज से पृथक करने के विचार को बढ़ावा दिया। इस नीति के कारण मुस्लिम लीग को यह उम्मीद बढ़ गई कि वे अपनी मांग पर अड़े रहकर पाकिस्तान के निर्माण की दिशा में कामयाब हो सकते हैं।

  2. काँग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच समझौता नीति:
    भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने हमेशा मुस्लिम लीग के साथ समझौता करने की नीति अपनाई, जिससे मुस्लिम लीग को यह विश्वास हो गया कि यदि वे अपनी मांग पर डटे रहे, तो एक न एक दिन पाकिस्तान की मांग पूरी हो जाएगी। कांग्रेस की यह नीति मुस्लिम लीग की ताकत को बढ़ावा देने में सहायक साबित हुई, और उनकी माँग को और मजबूती मिली।

  3. मोहम्मद अली जिन्ना की हठधर्मिता:
    मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान की मांग को लेकर अपनी हठधर्मिता जारी रखी। उनके निरंतर प्रयासों और हिन्दू-मुस्लिम दंगों के कारण स्थिति और बिगड़ गई। इस स्थिति ने अंततः भारतीय नेताओं को विभाजन की स्वीकार्यता के लिए विवश कर दिया, ताकि साम्प्रदायिक हिंसा और संघर्ष से बचा जा सके।

  4. साम्प्रदायिक दंगे और उनके प्रभाव:
    विभिन्न स्थानों पर हुए साम्प्रदायिक दंगों ने नेताओं और जनता को एकता के बजाय विभाजन की ओर अग्रसर किया। ये दंगे इतने भीषण थे कि उन्हें रोकने के लिए नेताओं को कई बार अत्याचार बंद करने के उपायों पर विचार करना पड़ा। अगर इन दंगों का त्वरित समाधान नहीं होता, तो सम्पूर्ण देश रक्त के सागर में डूब सकता था, इस डर ने विभाजन को स्वीकार करने के लिए माहौल तैयार किया।

  5. मुस्लिम लीग का विरोध और काँग्रेस में असहमति:
    सन् 1946 में जब मुस्लिम लीग ने अंतरिम सरकार में भाग लिया, तो उन्होंने कांग्रेस की योजनाओं में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। काँग्रेस के नेताओं को महसूस हुआ कि वे मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार नहीं चला पाएंगे। इससे दोनों दलों के बीच मतभेद बढ़े, और विभाजन की संभावना और बढ़ गई।

  6. लॉर्ड माउंटबेटन का प्रभाव:
    जब ब्रिटिश वायसराय लार्ड माउंटबेटन भारत में राजनैतिक समस्याओं को सुलझाने के लिए आये, तो उन्होंने अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए कांग्रेस पार्टी को विभाजन के लिए तैयार कर लिया। माउंटबेटन ने महसूस किया कि देश में शांति बनाए रखने और ब्रिटिश साम्राज्य की बेजोड़ स्थिति को सुनिश्चित करने के लिए विभाजन एक अनिवार्य कदम था। उनका प्रभाव और ब्रिटिश सरकार की रणनीति ने विभाजन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया।

इन सब कारणों ने मिलकर भारत के विभाजन की स्थिति को जन्म दिया। विभिन्न राजनीतिक दबावों, साम्प्रदायिक तनावों और विभाजन के पक्षधर नेताओं के प्रभाव के कारण अंततः भारतीय उपमहाद्वीप को दो भागों में विभाजित कर दिया गया। इस विभाजन ने लाखों लोगों को अपना घर छोड़ने और हिंसा का शिकार होने के लिए मजबूर किया, और इसके परिणामस्वरूप उपमहाद्वीप में एक नई राजनीति और समाज की शुरुआत हुई।

Q.6. 1947 के भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम की मुख्य विशेषताओं पर विचार प्रकट कीजिए।

उत्तर – भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 (India Independence Act, 1947)

18 जुलाई, 1947 को ब्रिटिश सम्राट ने माउंटबेटन योजना को विधिवत् स्वीकृति दी, और उसी दिन भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 पारित हुआ। इस अधिनियम ने भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन और स्वतंत्रता की प्रक्रिया को कानूनी रूप से मान्यता दी। इस अधिनियम में कुल 20 धाराएं थीं, जिनमें से कुछ प्रमुख धाराएं निम्नलिखित हैं:

  1. भारत और पाकिस्तान का विभाजन:
    15 अगस्त, 1947 को भारत और पाकिस्तान दो अलग-अलग हिस्सों में विभाजित किए जाएंगे और ब्रिटिश सरकार इन दोनों को स्वतंत्रता की सत्ता सौंपेगी।

  2. बंगाल और पंजाब का विभाजन:
    बंगाल और पंजाब के विभाजन रेखा को निर्धारित करने के लिए एक सीमा आयोग का गठन किया जाएगा, जो इन प्रांतों की सीमा तय करेगा।

  3. संविधान सभा का अधिकार:
    दोनों अधिराज्यों की संविधान सभाओं को शासन की सत्ता सौंप दी जाएगी। इन संविधान सभाओं को अपने संविधान बनाने का पूर्ण अधिकार होगा।

  4. ब्रिटिश राष्ट्रमंडल का सदस्यता:
    इन दोनों देशों को यह अधिकार होगा कि वे ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के सदस्य बने रहें या इसे त्याग दें, यह उनके निर्णय पर निर्भर करेगा।

  5. गवर्नर जनरल की नियुक्ति:
    भारत और पाकिस्तान के लिए अलग-अलग गवर्नर जनरल नियुक्त किए जाएंगे, जिनकी नियुक्ति उनके मंत्रिमंडल की सलाह पर की जाएगी।

  6. विधानमंडल को कानून बनाने का अधिकार:
    दोनों अधिराज्यों के विधानमंडलों को कानून बनाने का अधिकार होगा। 15 अगस्त, 1947 के बाद ब्रिटिश सरकार का इन पर कोई अधिकार नहीं होगा, और ब्रिटिश कानून इन पर लागू नहीं होगा।

  7. भारत मंत्री का पद समाप्त:
    भारतीय मंत्री का पद समाप्त कर दिया जाएगा, जिससे भारतीय प्रशासन में एक नई व्यवस्था स्थापित होगी।

  8. 1935 के भारत शासन अधिनियम का पालन:
    जब तक दोनों देशों के नए संविधान तैयार नहीं हो जाते, तब तक इन हिस्सों और प्रांतों का शासन 1935 के भारत शासन अधिनियम के अनुसार चलेगा, लेकिन इसमें गवर्नर जनरल और प्रांतीय गवर्नर का कोई विशेषाधिकार नहीं रहेगा।

  9. वर्तमान प्रांतीय विधानमंडल का कार्य:
    जब तक नए चुनाव नहीं होते, तब तक वर्तमान प्रांतीय विधानमंडल ही कार्य करेंगे।

  10. देशी रियासतों का अधिकार:
    15 अगस्त, 1947 से ब्रिटिश सरकार का देशी रियासतों पर सर्वोच्चता समाप्त हो जाएगी। इसके बाद देशी रियासतें स्वतंत्र रूप से भारत और पाकिस्तान में से किसी में भी मिल सकती हैं या स्वतंत्र रह सकती हैं।

  11. भारतीय नागरिक सेवाओं के अधिकार:
    भारतीय नागरिक सेवाओं के सदस्य अपने अधिकारों को बनाए रखेंगे, जिससे प्रशासनिक कार्यों में कोई विघ्न न हो।

इस अधिनियम ने भारतीय स्वतंत्रता की प्रक्रिया को औपचारिक रूप से पूरा किया और भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक परिदृश्य को नया आकार दिया। यह अधिनियम न केवल भारत और पाकिस्तान के विभाजन का कारण बना, बल्कि भारतीय जनता को स्वतंत्रता का अहसास भी कराया, हालांकि इसके परिणामस्वरूप लाखों लोगों को अपने घर छोड़ने और विभाजन के दौरान हिंसा का शिकार भी होना पड़ा।

Q.7. माउंटबेटन योजना क्या थी ? इसके प्रमुख प्रावधान क्या थे ? अथवा, माउंटबेटन योजना क्या थी ? इसके प्रमुख परिणामों पर प्रकाश डालिए।

उत्तर – भारत विभाजन योजना – 3 जून, 1947

3 जून, 1947 को लार्ड माउंटबेटन ने भारत विभाजन की योजना पेश की, जिसे माउंटबेटन योजना के नाम से जाना जाता है। इस योजना में भारत और पाकिस्तान के विभाजन के आधार पर कई महत्वपूर्ण प्रावधान थे। यहाँ इस योजना के मुख्य बिंदु और प्रावधान दिए गए हैं:

मुख्य बिंदु (Key Points):

  1. संविधान सभा का कार्य:
    लार्ड माउंटबेटन ने कहा कि संविधान सभा का कार्य जारी रखा जाएगा, लेकिन यह संविधान उन पर लागू नहीं होगा।

  2. पंजाब और बंगाल का विभाजन:
    पंजाब और बंगाल के विधानमंडल को मुस्लिम और गैर-मुस्लिम जिलों के अनुसार बांटा जाएगा।

  3. ब्लूचिस्तान का आत्म-निर्णय:
    ब्लूचिस्तान के लोगों को आत्म-निर्णय लेने का अधिकार दिया जाएगा।

  4. संविधान सभा में प्रतिनिधित्व:
    पंजाब, बंगाल, और सिलहट में संविधान सभा के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव होगा, और भारतीय राजाओं को संप्रभुसत्ता लौटा दी जाएगी।

प्रावधान (Provisions):

  1. ब्रिटिश सरकार की सत्ता हस्तांतरण:
    ब्रिटिश सरकार 15 अगस्त, 1947 को भारत की सत्ता ऐसी सरकार को सौंपेगी, जिसका निर्माण जनता की इच्छा के अनुसार हुआ हो।

  2. संविधान सभा पर कोई बाधा नहीं:
    वर्तमान संविधान सभा के कार्य में किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं डाली जाएगी।

  3. संविधान के लागू होने का तरीका:
    संविधान को उन हिस्सों में लागू किया जाएगा, जो इसे लागू करना चाहेंगे।

  4. भारत और पाकिस्तान का विभाजन:
    इस योजना के अनुसार, भारत को दो अधिराज्यों – भारत और पाकिस्तान में विभाजित किया जाएगा, और दोनों को 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता दी जाएगी।

  5. बंगाल और पंजाब का विभाजन:
    बंगाल और पंजाब में विधानसभाओं के अधिवेशन दो भागों में किए जाएंगे। एक भाग में मुस्लिम बहुमत वाले जिलों के प्रतिनिधि होंगे, और दूसरे भाग में हिंदू बहुमत वाले जिलों के प्रतिनिधि। प्रत्येक भाग बहुमत के आधार पर तय करेगा कि वह उस हिस्से का विधान चाहता है या नहीं।

  6. सिंध का निर्णय:
    सिंध के विधान सभा को यह तय करना होगा कि वह भारत की संविधान सभा में मिलना चाहता है या नहीं।

  7. सिलहट जिले में जनमत संग्रह:
    असम के मुस्लिम बहुल प्रांत सिलहट जिले में जनमत संग्रह द्वारा यह निर्णय लिया जाएगा कि वहाँ की जनता भारत में रहना चाहती है या पूर्वी बंगाल (अब बांगलादेश) में।

  8. बलूचिस्तान का निर्णय:
    बलूचिस्तान को यह तय करने का अधिकार होगा कि वह भारत में रहेगा या पाकिस्तान में शामिल होगा।

  9. उत्तर-पश्चिम प्रांत में जनमत:
    उत्तर-पश्चिम प्रांत में भी जनमत के आधार पर निर्णय लिया जाएगा।

  10. भारत और पाकिस्तान की सीमाएँ:
    यदि बंगाल, पंजाब और असम के द्वारा भारत का विभाजन मान लिया जाता है, तो भारत और पाकिस्तान की सीमाएँ तय करने के लिए गवर्नर जनरल एक कमीशन बनाएगा।

  11. भारत और पाकिस्तान के बीच समझौता:
    भारत और पाकिस्तान राज्यों के बीच विभाजन के लिए लेन-देन का समझौता किया जाएगा।

  12. देशी रियासतों का निर्णय:
    देशी रियासतों को यह छूट दी जाएगी कि वे अपनी इच्छानुसार भारत या पाकिस्तान में मिल सकती हैं।

  13. राष्ट्रमंडल की सदस्यता:
    भारत और पाकिस्तान को यह अधिकार होगा कि वे ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के सदस्य बने रहें या उसे छोड़ दें।

यह योजना भारत के विभाजन और स्वतंत्रता के लिए एक महत्त्वपूर्ण कदम था, जिससे भारतीय उपमहाद्वीप में नए राष्ट्रों का निर्माण हुआ और साथ ही देश के बंटवारे की प्रक्रिया को कानूनी रूप से लागू किया गया।

Q.8. गोलमेज सम्मेलन क्यों आयोजित किये गये? इनके कार्यों की विवेचना कीजिए।

उत्तर – गोलमेज सम्मेलन और गाँधी-इरविन समझौता

प्रथम गोलमेज सम्मेलन
प्रथम गोलमेज सम्मेलन का आयोजन 12 नवम्बर, 1930 को हुआ था। इस सम्मेलन की अध्यक्षता ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने की थी। इस सम्मेलन में 89 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसमें ब्रिटेन के तीनों दलों का प्रतिनिधिमंडल करने वाले 16 ब्रिटिश संसद सदस्य, ब्रिटिश भारत के 57 प्रतिनिधि (जिन्हें वायसराय ने मनोनीत किया था) और देशी रियासतों के 16 सदस्य सम्मिलित थे। काँग्रेस ने इस सम्मेलन का बहिष्कार किया था। काँग्रेस की अनुपस्थिति पर बेल्सफोर्ड ने कहा, “सेन्ट जेम्स महल में भारतीय नरेश, हरिजन, सिक्ख, मुसलमान, हिन्दू, ईसाई और जमींदारों, मजदूर संघों और वाणिज्य संघों सभी के प्रतिनिधि इसमें सम्मिलित हुए, पर भारत माता वहाँ उपस्थित नहीं थी।” यह सम्मेलन असफल रहा क्योंकि काँग्रेस की अनुपस्थिति में कोई संवैधानिक निर्णय नहीं लिया जा सका। इसने यह स्पष्ट कर दिया कि काँग्रेस के बिना कोई संवैधानिक बदलाव संभव नहीं था।

गाँधी-इरविन समझौता
प्रथम गोलमेज सम्मेलन की असफलता के बाद, 19 जनवरी, 1931 को यह सम्मेलन बिना किसी ठोस निर्णय के समाप्त कर दिया गया। यह स्पष्ट हो गया कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड और वायसराय इरविन को यह समझ में आ गया कि काँग्रेस के बिना भारत के संवैधानिक निर्माण में कोई सफलता नहीं मिल सकती। देश में स्थिति को सामान्य बनाने के लिए, इरविन ने काँग्रेस से प्रतिबंध हटा लिया और गाँधीजी तथा अन्य नेताओं को छोड़ दिया। इस समझौते के परिणामस्वरूप, 5 मार्च, 1931 को गाँधीजी और इरविन के बीच समझौता हुआ। इस समझौते के तहत सविनय अवज्ञा आंदोलन को वापस लिया गया और काँग्रेस ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने का निर्णय लिया।

दूसरा गोलमेज सम्मेलन
गाँधी-इरविन समझौता के तहत काँग्रेस को दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेना था। काँग्रेस की ओर से इस सम्मेलन में केवल महात्मा गाँधी ही एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए। मुस्लिम लीग की ओर से मुहम्मद अली जिन्ना ने भाग लिया। यह सम्मेलन 7 सितम्बर, 1931 को लंदन में शुरू हुआ। गाँधीजी 12 सितम्बर को लंदन पहुँचे। इस सम्मेलन में विभिन्न दल और वर्ग अपने-अपने हितों की रक्षा करने के लिए जुटे हुए थे। गाँधीजी ने कहा, “अन्य सभी दल साम्प्रदायिक हैं। काँग्रेस ही केवल सारे भारत और सब हितों के प्रतिनिधित्व का दावा कर सकती है।”

तीसरा गोलमेज सम्मेलन
तीसरा गोलमेज सम्मेलन भारत मंत्री द्वारा बुलाया गया था और यह सम्मेलन 17 नवम्बर, 1932 से 24 दिसम्बर, 1932 तक चला। काँग्रेस ने इस सम्मेलन में भाग नहीं लिया क्योंकि उस समय काँग्रेस के सभी प्रमुख नेता जेल में बंद थे।

इस प्रकार, गोलमेज सम्मेलनों ने भारतीय राजनीति में अहम भूमिका निभाई, लेकिन इनमें से कोई भी सम्मेलन स्वतंत्रता संग्राम की दिशा में कोई ठोस परिणाम नहीं ला सका।

Q.9. सविनय अवज्ञा आंदोलन पर टिप्पणी लिखें।

उत्तर –

सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930-1934)

1929 ई. में काँग्रेस के लाहौर अधिवेशन में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का निर्णय लिया गया। यह आंदोलन ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय जनता को एकजुट करने और स्वतंत्रता की ओर बढ़ने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था।

कार्यक्रम:
सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रमुख कार्यक्रम निम्नलिखित थे:

  1. प्रत्येक गाँव में नमक कानून तोड़कर नमक बनाना।
  2. शराब और विदेशी कपड़ों की दुकानों पर धरने देना, विशेषकर महिलाओं द्वारा।
  3. विदेशी कपड़ों की होली जलाना।
  4. हिन्दू समाज में छुआछूत को पूर्ण रूप से समाप्त करना।
  5. विद्यार्थियों को सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाई बंद कर देनी चाहिए।
  6. सरकारी कर्मचारियों को सरकारी नौकरियाँ छोड़ देनी चाहिए।

(क) आंदोलन का प्रथम चरण

(i) डांडी यात्रा:
12 मार्च, 1930 को महात्मा गाँधी ने साबरमती आश्रम से डांडी की ओर मार्च किया। 24 दिनों की यात्रा के बाद 6 अप्रैल, 1930 को डांडी के समुद्र तट पर पहुँचकर गाँधीजी ने समुद्र के जल से नमक बनाकर नमक कानून का उल्लंघन किया। यह प्रतीकात्मक आंदोलन भारतीय जनता के असंतोष और ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह का प्रतीक बन गया।

(ii) आंदोलन में तीव्रता:
गाँधीजी की डांडी यात्रा के बाद पूरे देश में आंदोलन की लहर दौड़ गई। लोगों ने सरकारी कानूनों का उल्लंघन करना शुरू किया, विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया और नमक बनाने का कार्य शुरू कर दिया। यह आंदोलन तेजी से फैलने लगा और भारत भर में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला जारी रहा।

(iii) सरकार की दमन नीति:
सरकार ने इस आंदोलन को दबाने के लिए दमन नीति अपनाई। गाँधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया और 1931 ई. के आरंभ तक लगभग 90,000 लोग जेलों में थे। पुलिस ने निर्दोष लोगों पर लाठियाँ बरसाईं, लेकिन आंदोलन जारी रहा।

(iv) प्रथम गोलमेज सम्मेलन:
भारतीय सिपाही, जो ब्रिटिश सरकार के लिए कार्यरत थे, ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। इस स्थिति को देखकर लंदन में 1930 में गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया। हालांकि, काँग्रेस ने इस सम्मेलन का बहिष्कार किया और इसके परिणामस्वरूप कोई भी सार्थक परिणाम सामने नहीं आया।

(v) गाँधी-इरविन समझौता:
1931 में गाँधीजी को रिहा कर दिया गया। जनवरी 1931 में गाँधीजी और वायसराय इरविन के बीच गाँधी-इरविन समझौता हुआ। इस समझौते के तहत सभी राजनीतिक बंदियों के मुकदमे वापस लिए गए और गाँधीजी ने आंदोलन को स्थगित कर दिया। इस समझौते के कारण काँग्रेस को द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने का अवसर मिला।

(ख) आंदोलन का दूसरा चरण

(i) द्वितीय गोलमेज सम्मेलन:
गाँधीजी ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया, लेकिन इस सम्मेलन का कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। गाँधीजी को यह महसूस हुआ कि बिना काँग्रेस के कोई संविधान नहीं बन सकता। इस असफलता के बाद गाँधीजी निराश होकर भारत लौट आए।

(ii) पुनः आंदोलन प्रारंभ:
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के असफल होने के बाद गाँधीजी ने पुनः सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया। यह आंदोलन दो वर्षों तक जारी रहा और पहले की तुलना में अधिक तीव्र हुआ।

(iii) दमनचक्र:
सरकार ने इस बार और भी कठोर दमन नीति अपनाई। गाँधीजी सहित लगभग एक लाख बीस हजार लोग जेलों में बंद कर दिए गए। आंदोलन को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने पूरी ताकत झोंक दी, लेकिन भारतीय जनता का संघर्ष जारी रहा।

इस प्रकार, सविनय अवज्ञा आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण स्थान हासिल किया। गाँधीजी के नेतृत्व में यह आंदोलन एकजुटता और अहिंसा के सिद्धांत पर आधारित था, जिससे भारत के लोगों में ब्रिटिश शासन के खिलाफ गहरी नाराजगी और स्वतंत्रता की चेतना जाग्रत हुई।

Q.10. स्थायी बंदोबस्त से आप क्या समझते हैं ? इसके लाभ एवं हानियों का वर्णन करें।

उत्तर – सविनय अवज्ञा आंदोलन पर टिप्पणी

सविनय अवज्ञा आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण और निर्णायक मोड़ था। यह आंदोलन 1929 ई. में काँग्रेस के लाहौर अधिवेशन में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए आरंभ करने का निर्णय लिया गया। इस आंदोलन ने भारतीय जनता को ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एकजुट किया और स्वतंत्रता की ओर बढ़ने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।

आंदोलन का उद्देश्य और कार्यक्रम:

सविनय अवज्ञा आंदोलन का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश शासन के तानाशाही और असमान नीतियों का विरोध करना था। इसके तहत कई महत्वपूर्ण कार्यक्रम निर्धारित किए गए थे, जिनमें प्रमुख थे:

  1. नमक कानून तोड़ना: प्रत्येक गाँव में नमक कानून तोड़कर नमक बनाया जाना था।
  2. विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार: शराब और विदेशी कपड़ों की दुकानों पर धरना दिया जाना था, विशेषकर महिलाओं द्वारा।
  3. विदेशी कपड़ों की होली जलाना: विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करते हुए उनकी होली जलानी थी।
  4. छुआछूत का विरोध: हिन्दू समाज में छुआछूत को समाप्त किया जाना था।
  5. विद्यार्थियों का विरोध: विद्यार्थियों को सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाई बंद करने का आह्वान किया गया था।
  6. सरकारी कर्मचारियों का विरोध: सरकारी कर्मचारियों से अपनी नौकरियाँ छोड़ने का आह्वान किया गया था।

आंदोलन का प्रथम चरण: सविनय अवज्ञा आंदोलन का पहला बड़ा कदम डांडी यात्रा था, जिसे महात्मा गाँधी ने 12 मार्च, 1930 को साबरमती आश्रम से डांडी की ओर शुरू किया। डांडी पहुँचकर गाँधीजी ने समुद्र के जल से नमक बनाकर ब्रिटिश शासन के नमक कानून का उल्लंघन किया। यह कदम भारतीय जनता में साहस और राष्ट्रीयता की भावना को जागृत करने वाला था। इस दौरान आंदोलन ने जोर पकड़ लिया और पूरे देश में सरकारी कानूनों का उल्लंघन करने का सिलसिला शुरू हो गया। लोग कर देना बंद करने लगे, विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया गया, और ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह की लहर तेज हो गई।

सरकार की दमन नीति: ब्रिटिश सरकार ने आंदोलन को दबाने के लिए कड़ी दमन नीति अपनाई। गाँधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया और 1931 के आरंभ तक लगभग 90,000 लोग जेलों में डाल दिए गए। फिर भी भारतीय जनता का उत्साह कमजोर नहीं पड़ा।

प्रथम गोलमेज सम्मेलन और गाँधी-इरविन समझौता: 1930 में लंदन में प्रथम गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया, लेकिन काँग्रेस ने इसका बहिष्कार किया। इसके बाद, 1931 में गाँधीजी और वायसराय इरविन के बीच गाँधी-इरविन समझौता हुआ, जिसके तहत सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया और गाँधीजी ने आंदोलन को स्थगित कर दिया।

आंदोलन का दूसरा चरण: गाँधी-इरविन समझौते के बाद द्वितीय गोलमेज सम्मेलन हुआ, जिसमें गाँधीजी ने भाग लिया। हालांकि, इस सम्मेलन से कोई महत्वपूर्ण परिणाम नहीं निकल पाया। इसके बाद गाँधीजी ने फिर से सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया, जो दो वर्षों तक चला। इस बार सरकार ने पहले से भी कठोर दमन नीति अपनाई, और लगभग एक लाख बीस हजार लोगों को जेलों में डाल दिया गया।

निष्कर्ष:  सविनय अवज्ञा आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण चरण था। इस आंदोलन ने भारतीय जनता को ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संगठित किया और यह सिद्ध कर दिया कि भारतीय जनता अब स्वतंत्रता के लिए हर कीमत चुकाने के लिए तैयार थी। महात्मा गाँधी का नेतृत्व, अहिंसा के सिद्धांत, और भारतीय जनता की दृढ़ता ने इस आंदोलन को सफलता की ओर अग्रसर किया। यह आंदोलन न केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष था, बल्कि भारतीय समाज में सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना।

Author

SANTU KUMAR

I am a passionate Teacher of Class 8th to 12th and cover all the Subjects of JAC and Bihar Board. I love creating content that helps all the Students. Follow me for more insights and knowledge.

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