Q.1. ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा की गई भू-राजस्व व्यवस्थाओं और सर्वेक्षण पर लेख लिखिए।
उत्तर – भू-राजस्व व्यवस्था तथा सर्वेक्षण (Land Revenue Systems and Surveys)
भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान विभिन्न प्रकार की भू-राजस्व व्यवस्थाएँ लागू की गईं, जिनका उद्देश्य राज्य को राजस्व प्राप्त करना था। इन व्यवस्थाओं के विभिन्न प्रभाव और त्रुटियाँ थीं, जो किसानों और समाज पर गहरा असर डालती थीं। प्रमुख भू-राजस्व व्यवस्थाओं में स्थायी बंदोबस्त, रैयतवाड़ी व्यवस्था, और महलवाड़ी प्रथा शामिल हैं।
(a) स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement)
प्रारंभ – स्थायी बंदोबस्त 1793 में बंगाल में लागू किया गया। इस व्यवस्था के तहत, जमींदारों को भूमि का मालिकाना अधिकार स्थायी रूप से दिया गया था और वे एक निश्चित राशि को सरकार को अदा करने के लिए बाध्य थे।
कानूनी अधिकार – जमींदारों को कानूनी रूप से अपनी ज़मीन का मालिक बना दिया गया। अब वे किसानों से मनमाना लगान ले सकते थे, जिससे किसानों पर अत्यधिक आर्थिक बोझ पड़ा।
सरकारी कोष में धनराशि – इस व्यवस्था का एक प्रमुख लाभ यह था कि सरकार को एक निश्चित और सुनिश्चित धनराशि प्राप्त होती थी, क्योंकि जमींदारों को तयशुदा धनराशि अदा करनी पड़ती थी।
सामाजिक प्रभाव – इस व्यवस्था के परिणामस्वरूप, नए जमींदारों का उदय हुआ। ये जमींदार शहरों में ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीते थे, जबकि गाँव में उनके प्रतिनिधि (कारिन्दे) किसानों पर अत्याचार करते थे और उनके शोषण के लिए बल प्रयोग करते थे। जमींदारों को किसानों के दुःख-सुख से कोई सरोकार नहीं था।
किसान समस्याएँ – किसानों को बदले में न तो सिंचाई की सुविधा प्राप्त थी और न ही ऋण की सहायता मिलती थी, जिससे उनकी स्थिति दयनीय हो गई।
(b) रैयतवाड़ी व्यवस्था (Raiyatwari System)
प्रारंभ – यह व्यवस्था दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम भारत में लागू की गई। इस व्यवस्था के तहत, किसान को भूमि का मालिक माना जाता था, बशर्ते वह नियमित रूप से भू-राजस्व का भुगतान करता रहे।
व्यवस्था की विशेषताएँ – रैयतवाड़ी व्यवस्था के समर्थक इसे भारत की पारंपरिक व्यवस्था मानते थे, लेकिन इसमें कई खामियाँ थीं। यह व्यवस्था बाद में मद्रास और बंबई प्रेसिडेंसियों में भी लागू की गई।
त्रुटियाँ –
- उच्च भू-राजस्व – इस व्यवस्था में भू-राजस्व दर 45 से 55 प्रतिशत के बीच थी, जो अत्यधिक थी।
- राजस्व वृद्धि का अधिकार – सरकार के पास यह अधिकार था कि वह राजस्व की दर को बढ़ा सकती थी, जिससे किसानों पर अतिरिक्त दबाव पड़ता था।
- प्राकृतिक आपदाओं का असर – सूखा या बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में भी किसानों को पूरा राजस्व अदा करना पड़ता था, जिससे उनका आर्थिक शोषण बढ़ जाता था।
प्रभाव –
- इस व्यवस्था के कारण आर्थिक विषमता और सामाजिक असंतोष बढ़ा।
- किसानों का शोषण – सरकारी कर्मचारियों द्वारा किसानों पर अत्याचार जारी रहे, और उनका शोषण पहले की तरह ही होता रहा।
(c) महालवाड़ी प्रथा (Mahalwari System)
प्रारंभ – महालवाड़ी प्रथा में भूमि कर का बंदोबस्त अलग-अलग गाँवों या जागीरों के आधार पर किया जाता था। यह बंदोबस्त जमींदारों या उस क्षेत्र के मुखियाओं के साथ किया जाता था, जो भूमि कर के स्वामी होने का दावा करते थे।
किसानों का अधिकार – इस व्यवस्था में किसानों को अपनी भूमि बेचने की स्वतंत्रता थी, लेकिन यदि वे समय पर भू-राजस्व का भुगतान नहीं करते थे, तो सरकार उनकी भूमि नीलाम कर सकती थी।
भूमि कर का भुगतान – किसानों को भूमि पर अपना मालिकाना हक मिलने के बावजूद, उन्हें लगातार भू-राजस्व का भुगतान करना पड़ता था, और समय पर भुगतान न करने पर भूमि की नीलामी हो जाती थी।
निष्कर्ष
इन तीन प्रमुख भू-राजस्व व्यवस्थाओं का भारतीय किसानों पर गहरा प्रभाव पड़ा। जहाँ स्थायी बंदोबस्त ने जमींदारों के अधिकारों को स्थायी रूप से सुनिश्चित किया, वहीं रैयतवाड़ी व्यवस्था ने किसानों को भूमि का मालिक तो माना, लेकिन उच्च भू-राजस्व और प्राकृतिक आपदाओं के कारण उनकी स्थिति कठिन हो गई। महलवाड़ी प्रथा ने भी किसानों को सीमित अधिकार दिए, और राजस्व भुगतान में कठिनाइयाँ पैदा कीं। इन व्यवस्थाओं से किसानों का शोषण और असंतोष बढ़ा, और इनकी कमीों के कारण कृषि व्यवस्था में कई समस्याएँ उत्पन्न हुईं।
Q.2. “ईस्ट इंडिया कम्पनी काल में जोतदारों का उदय” विषय पर एक लेख लिखिए।
उत्तर – जोतदारों का उदय (The Rise of the Jotedars)
उदय और स्थिति – जोतदार वे धनी किसान थे जिन्होंने 18वीं शताब्दी में कुछ गाँवों और समूहों में अपनी स्थिति मजबूत कर ली थी। उन्होंने धीरे-धीरे अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाया और 19वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक आते-आते, जोतदारों के पास बड़े-बड़े जमीन के रकबे (भूखंड) हो गए थे, जो कभी-कभी कई हजार एकड़ में फैले होते थे।
सामाजिक और व्यापारिक प्रभाव – जोतदारों का स्थानीय ग्रामीण व्यापार और साहूकारों के कारोबार पर भी कब्जा था। वे अपने क्षेत्र के गरीब काश्तकारों पर अत्यधिक शक्ति का प्रयोग करते थे और उनका शोषण करते थे।
बटाईदारी व्यवस्था – जोतदारों की अधिकांश ज़मीन बटाईदारों द्वारा जोती जाती थी। बटाईदार अपने हल से जोतते थे और जोतदारों के खेतों में काम करते थे। बटाईदार फसल की उपज का लगभग 50 प्रतिशत जोतदारों को दे देते थे, जिससे जोतदारों की शक्ति और संपत्ति में वृद्धि होती थी।
गाँव में शक्ति का केंद्रीकरण – गाँव में जोतदारों की शक्ति जमींदारों की शक्ति से कहीं ज्यादा प्रभावशाली होती थी। जमींदार अक्सर शहरों में रहते थे, जबकि जोतदार गाँव में ही रहते थे और वे गाँव के गरीब किसानों पर सीधे नियंत्रण रखते थे। उनका प्रभाव ग्रामीण समाज में गहरा था।
जमींदारों से टकराव – जोतदारों का जमींदारों से अक्सर टकराव होता था। इसके कई कारण थे:
- जब जमींदार गाँव का लगान बढ़ाने की कोशिश करते थे, तो जोतदार उसका विरोध करते थे।
- जमींदार अपने अधिकारियों को कर्तव्य का पालन करने से रोकते थे।
- जो रैयत (किसान) जमींदारों पर निर्भर होते थे, उन्हें जोतदार अपने पक्ष में एकजुट रखते थे। इसके लिए वे जानबूझकर रैयतों को राजस्व के भुगतान में देरी करने के लिए उकसाते थे, ताकि जमींदारों से खुन्दक निकाल सकें।
- जब जमींदारी की ज़मीनें नीलाम होती थीं, तो जोतदार उन्हें खरीदकर अपनी स्थिति को और मजबूत कर लेते थे।
अधिकारों का संघर्ष – उत्तरी बंगाल में जोतदार सर्वशक्तिशाली हो गए थे। उनके उदय के साथ ही जमींदारों के अधिकार कमजोर पड़ने लगे थे। कई स्थानों पर जोतदारों को हवलदार, मंडल या गाँटीदार भी कहा जाता था। जमींदार जोतदारों को पसंद नहीं करते थे क्योंकि वे बड़े-बड़े ज़मीनों के मालिक होते थे और अपनी उभरी हुई स्थिति के कारण कठोर और जिद्दी थे।
निष्कर्ष – जोतदारों का उदय एक महत्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन का प्रतीक था। उन्होंने गाँवों में अपनी शक्ति को मजबूत किया और जमींदारों के अधिकारों को कमजोर किया। उनकी उभरी हुई स्थिति ने ग्रामीण समाज में सत्ता का नया संतुलन स्थापित किया, जिससे जमींदारों के साथ उनका संघर्ष और भी गहरा हुआ।
Q.3. 1857 के विद्रोह की प्रमुख उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर – विद्रोह की उपलब्धियाँ (Achievements of the Revolt)
1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भले ही असफल रहा हो, परंतु इसकी अनेक उपलब्धियाँ एवं परिणाम बहुत ही महत्वपूर्ण थे। यह विद्रोह व्यर्थ नहीं गया और इसके कारण ही यह हमारे इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं की श्रेणी में आ सका। इस विद्रोह की प्रमुख उपलब्धियाँ निम्नलिखित थीं:
हिन्दू-मुस्लिम एकता (Hindu-Muslim Unity) – इस आंदोलन और संघर्ष के दौरान हिन्दू और मुस्लिम ने न केवल साम्प्रदायिकता की संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठकर अपने देश के लिए एक सामान्य मंच पर आने की कोशिश की, बल्कि दोनों ही समुदायों ने मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया और एक साथ ही यातनाएँ भी सहीं। अंग्रेजों को यह एकता बहुत चुभी, और इसलिए उन्होंने अपनी ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति को और अधिक तेज़ कर दिया।
राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि (The Background of National Movement) – इस विद्रोह ने राष्ट्रीय आंदोलन और स्वराज्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार की। यह संग्राम स्वतंत्रता के जो बीज बो गया, उसी का फल हमें 15 अगस्त 1947 को प्राप्त हुआ। इसने भारतीय जनता को स्वतंत्रता की महत्वाकांक्षा से जोड़ दिया और भविष्य में होने वाले स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी।
देशभक्ति की भावना का प्रसार (Spread of Patriotic Feelings) – इस संग्राम ने भारतीय जनता के मन में वीरता, त्याग और देशभक्ति के प्रति एक ऐसी भावना पैदा की, जिससे लोग अब अपनी प्रांतीय और जातीय सीमाओं से ऊपर उठकर राष्ट्र के बारे में एक सच्चे नागरिक के रूप में सोचने लगे। विद्रोह के नायक सभी भारतीयों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गए और वे घर-घर में चर्चित हो गए। यह इस आंदोलन की एक महान उपलब्धि थी।
देशी राज्यों को राहत (Relief of the Princely States) – इस विद्रोह के परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने देशी राजाओं को यह आश्वासन दिया कि उनके राज्य ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा नहीं बनाए जाएंगे और उनका अस्तित्व स्वतंत्र रूप से रहेगा। इसलिए अधिकांश देशी राजाओं ने ब्रिटिश शासन का समर्थन करना शुरू कर दिया। इसके अलावा, भारतीय शासकों को दत्तक पुत्र लेने का अधिकार भी दिया गया, जिससे अनेक शासकों ने राहत की साँस ली।
भारतीयों को सरकारी नौकरियों में स्थान (Govt. Service to the Indians) – सरकारी स्तर पर यह घोषणा की गई कि भारतीयों को सर्वोच्च पदों पर प्रगति करने का अवसर मिलेगा और जाति तथा रंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। हालांकि, अंग्रेजों ने यह वादा पूरी तरह से निभाया नहीं, जिससे राष्ट्रीय आंदोलन की गति बढ़ती गई और भारतीयों ने सरकारी पदों में अपनी हिस्सेदारी की मांग को और जोर शोर से उठाया।
धार्मिक हस्तक्षेप समाप्त (The Religious Interference Ended) – सैद्धांतिक रूप से भारतीयों को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता का विश्वास दिलाया गया, लेकिन व्यवहार में हिन्दू और मुसलमानों के बीच धार्मिक घृणा और साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया। यह विद्रोह ही था जिसने भारतीय समाज में धार्मिक समानता और एकता की आवश्यकता को प्रमुख रूप से रेखांकित किया।
निष्कर्ष: 1857 का विद्रोह भले ही असफल रहा हो, लेकिन इसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दिशा और धार को स्पष्ट किया। इसके परिणामस्वरूप भारतीय जनता में जागरूकता, एकता और देशभक्ति की भावना का प्रसार हुआ, जो आगे चलकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आधार बन गई।
Q.4. प्लासी युद्ध के कारणों एवं परिणामों का वर्णन करें।
उत्तर – प्लासी युद्ध का भारतीय इतिहास में विशेषतः राजनैतिक महत्व :
प्लासी युद्ध (23 जून 1757) ने भारतीय राजनीति में ऐतिहासिक परिवर्तन किए और यह युद्ध भारत में अंग्रेजों के साम्राज्य की नींव रखने का प्रारंभिक कदम साबित हुआ। इस युद्ध के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे:
भारत में अंग्रेजों का राज्य स्थापित करने का विचार – अंग्रेज शुरुआत में भारत में व्यापार करने के लिए आए थे, लेकिन भारत की राजनीतिक स्थिति को देखकर उनके विचारों में परिवर्तन हुआ। उन्होंने भारतीय शासकों को पराजित करने का निर्णय लिया और बंगाल से अपने साम्राज्य की स्थापना की योजना बनाई।
सिराजुद्दौला से अंग्रेजों का आतंकित होना – प्लासी युद्ध के समय बंगाल का शासक सिराजुद्दौला था, जो अंग्रेजों को भारत के लिए खतरनाक मानता था। अंग्रेज भी उससे घबराए हुए थे। अलीवर्दी खाँ, सिराजुद्दौला के नाना, ने एक बार कहा था कि यूरोपीय शक्तियों पर नजर रखना चाहिए। जब सिराजुद्दौला ने अंग्रेजों की बढ़ती ताकत को महसूस किया, तो वह उन्हें अपनी सत्ता के लिए खतरा मानने लगे। इस स्थिति में अंग्रेजों ने युद्ध की योजना बनाई।
बंगाल को प्राप्त करना – अंग्रेज बंगाल को राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मानते थे। उन्होंने किसी बहाने से बंगाल पर अधिकार जमाने की योजना बनाई, जो उन्हें प्लासी युद्ध के रूप में मिल गया।
किलेबंदी – सिराजुद्दौला के नाना अलीवर्दी खाँ ने अंग्रेजों और फ्रांसीसियों को किलेबंदी न करने की चेतावनी दी थी, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद यह किलेबंदी शुरू हो गई। सिराजुद्दौला ने भी किलेबंदी को रोकने का आदेश दिया, लेकिन अंग्रेजों ने इस पर ध्यान नहीं दिया। इस वजह से उनके बीच तनाव बढ़ा और युद्ध अनिवार्य हो गया।
अंग्रेजों द्वारा विरोधियों को सहायता देना – अंग्रेज सिराजुद्दौला के विरोधियों को शरण देने लगे, जिससे उनकी स्थिति कमजोर हो गई। अंग्रेज असंतुष्ट दरबारियों और अन्य शत्रुओं की सहायता कर रहे थे, जिससे सिराजुद्दौला और अंग्रेजों के बीच विवाद बढ़ गया।
सुविधाओं का अनुचित उपयोग – मुग़ल शासकों ने अंग्रेजों को व्यापार की सुविधाएँ दी थीं, लेकिन अंग्रेज इनका दुरुपयोग कर रहे थे। भारतीय व्यापारियों के साथ अनुचित व्यवहार और चुंगी की चोरी से संबंधों में खटास आई, जो युद्ध की स्थिति को और प्रबल कर दिया।
उत्तराधिकार के मामलों में हस्तक्षेप – अंग्रेज सिराजुद्दौला के विरोधियों के पक्ष में झुक गए थे, जैसे ढाका के शासक की विधवा और उसके पुत्र शौकत जंग के मामले में। इसने सिराजुद्दौला को और भी रुष्ट किया और युद्ध को टालना मुश्किल हो गया।
युद्ध की घटनाएँ:
सिराजुद्दौला ने जनवरी 1756 में कासिम बाजार में स्थित अंग्रेजी कारखाने पर कब्जा कर लिया और 18 जून, 1756 को कलकत्ता पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के बाद ‘ब्लैक हॉल’ की घटना घटी, जिसमें 146 अंग्रेजों को एक कोठरी में बंद करके मार डाला गया। 2 जनवरी, 1757 को अंग्रेजों ने कलकत्ता पर पुनः कब्जा किया। इसके बाद अंग्रेजों ने मीरजाफर और सेठ अमीचन्द को अपनी ओर मिलाकर सिराजुद्दौला के खिलाफ साजिश की। 22 जून 1757 को अंग्रेजी सेना के कमांडर रॉबर्ट क्लाइव ने सिराजुद्दौला के खिलाफ प्लासी के मैदान में युद्ध शुरू किया। सिराजुद्दौला के विश्वासपात्र मीरजाफर और राय दुर्लभ ने विश्वासघात किया और अंग्रेजों से मिल गए। सिराजुद्दौला की 50,000 सैनिकों से युक्त सेना हार गई और सिराजुद्दौला भागकर पकड़ा गया। अंततः उसे मीरजाफर के बेटे मीर द्वारा हत्या कर दी गई।
युद्ध के परिणाम:
- बंगाल की नवाबी मीरजाफर को मिली – प्लासी युद्ध के परिणामस्वरूप बंगाल का नवाब मीरजाफर बना, जिसने अंग्रेजों की मदद से सिराजुद्दौला को हराया।
- 24 परगनों की जमींदारी कंपनी को प्राप्त हुई – अंग्रेजों ने 24 परगनों की जमींदारी पर अधिकार किया, जिससे उन्हें बंगाल में राजस्व का बड़ा हिस्सा मिला।
- अमीचन्द को इस युद्ध में निराश रहना पड़ा – सेठ अमीचन्द, जो अंग्रेजों का सहायक था, इस युद्ध में हार गया और उसका प्रभाव कम हो गया।
- बंगाल में अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया – प्लासी युद्ध के बाद बंगाल में अंग्रेजों का शासन स्थापित हो गया और वे एक शक्तिशाली शक्ति बन गए।
- अंग्रेज अब केवल व्यापारी नहीं, बल्कि शासक बन गए – यह युद्ध अंग्रेजों को केवल व्यापार में नहीं, बल्कि शासक के रूप में भी स्थापित कर गया।
- कंपनी का व्यापार पूरे बंगाल में फैल गया – अंग्रेजों ने बंगाल में अपने व्यापार को और अधिक विस्तृत किया।
- अलीवर्दी खाँ के वंश का अंत हो गया – इस युद्ध ने अलीवर्दी खाँ के परिवार का अंत कर दिया और बंगाल के इतिहास में नया मोड़ आ गया।
निष्कर्ष: प्लासी युद्ध ने अंग्रेजों को भारत में एक मजबूत और स्थिर साम्राज्य स्थापित करने का अवसर दिया। यह युद्ध भारतीय राजनीति और समाज में महत्वपूर्ण बदलाव लाया और अंग्रेजों के लिए भारत में सत्ता कायम करने का मार्ग प्रशस्त किया।
Q.5. अठारहवीं सदी में शहरी केंद्रों का रूपांतरण किस तरह हुआ ?
उत्तर – अठारहवीं सदी में शहरी केंद्रों का रूपांतरण
अठारहवीं सदी में भारतीय शहरी केंद्रों में बड़े पैमाने पर बदलाव आया। इस समय यूरोपीय शक्तियाँ अपने-अपने देशों से भारत में व्यापार के लिए आईं, लेकिन धीरे-धीरे इनका उद्देश्य भारतीय भूमि पर साम्राज्य स्थापित करना बन गया। औपनिवेशिक काल में यूरोपीय शक्तियों ने विभिन्न शहरों का विकास किया। पुर्तगालियों ने 1510 में पणजी, डचों ने 1605 में मछलीपटनम, अंग्रेजों ने 1639 में मद्रास (चेन्नई), 1661 में मुम्बई और 1690 में कलकत्ता (कोलकाता) बसाए, जबकि फ्रांसीसियों ने 1673 में पांडिचेरी में एक नया शहर बसाया। इनमें से कई शहर समुद्र के किनारे स्थित थे और व्यापारिक गतिविधियों के साथ-साथ प्रशासनिक कार्यकलापों का भी केंद्र बन गए।
शहरी जीवन में बदलाव
इन शहरों के विकास के साथ-साथ आसपास के गाँवों में भी एक बड़ा बदलाव देखने को मिला। गाँवों के मजदूर, कारीगर, छोटे व्यापारी, बुनकर, रंगरेज, धातु कार्य करने वाले लोग इन शहरों में बसने लगे। इसके अलावा, ईसाई मिशनरियों ने भी इन शहरों में सक्रिय रूप से काम किया। शहरी क्षेत्रों में पश्चिमी शैली की इमारतें, चर्च, और सार्वजनिक इमारतें बनाई गईं, जिनमें पत्थर, ईंट, लकड़ी और प्लास्टर का उपयोग किया गया। इन शहरों में व्यापार के कारण नए बाजार विकसित हुए और लोग यहाँ रोजगार की तलाश में आने लगे। इस समय के दौरान, छोटे गाँवों और कस्बों का रूपांतरण भी हुआ। यह कस्बे और गाँव बड़े शहरों में बदल गए, और यहाँ के लोग व्यापार के लिए शहरों का रुख करने लगे। अकाल के दौरान प्रभावित लोग भी इन कस्बों और शहरों में शरण लेने के लिए इकट्ठा होते थे, जबकि युद्धों या हमलों के दौरान लोग शहरों से बाहर ग्रामीण इलाकों में भाग जाते थे। व्यापारियों और फेरी वालों ने कस्बों से गाँवों में जाकर कृषि उत्पादों और अन्य कुटीर उद्योगों का माल बेचने के लिए शहरों और कस्बों का रुख किया, जिससे बाजारों का विस्तार हुआ।
शहरी जीवन का विस्तार
18वीं सदी में शहरी जीवन में बहुत बदलाव आया। पुराने मुग़ल केंद्रों जैसे आगरा, लाहौर और दिल्ली में पतन हुआ, जबकि नए शहर जैसे मद्रास (चेन्नई), मुम्बई, और कलकत्ता (कोलकाता) ने शिक्षा, व्यापार, प्रशासन और वाणिज्य के महत्त्वपूर्ण केंद्रों के रूप में पहचान बनाई। इसके अलावा, नए राज्य और क्षेत्रीय ताकतों के उभार के कारण लखनऊ, तंजौर, पूना, श्रीरंगपट्टनम, नागपुर और बड़ौदा जैसी नगरियों का महत्त्व भी बढ़ा। इन नगरों में नए लोग, विभिन्न जातियाँ, व्यवसाय और समुदाय रहने आने लगे, जिससे सामाजिक संरचना में भी बदलाव आया।
राजनीतिक विकेंद्रीकरण और इसके प्रभाव
राजनैतिक विकेंद्रीकरण के कारण कुछ स्थानों पर नई आर्थिक गतिविधियाँ तेज हुईं, जबकि कुछ स्थानों पर लूटपाट और राजनीतिक अनिश्चितता ने आर्थिक पतन का रूप लिया। जो शहर व्यापारिक तंत्रों से जुड़े थे, उनमें बदलाव आया, और यूरोपीय कंपनियों ने अनेक स्थानों पर अपने आर्थिक आधार और फैक्ट्रियाँ स्थापित कीं। मुग़ल काल में जो प्रमुख व्यापारिक शहर जैसे सूरत, मछलीपटनम और ढाका थे, उनका लगातार पतन हुआ।
अंग्रेजों का प्रभुत्व और औपनिवेशिक शहरों का उभार
1757 में प्लासी युद्ध, 1767 में बक्सर युद्ध और 1765 में इलाहाबाद की संधि के बाद अंग्रेजों ने बंगाल में अपनी सत्ता स्थापित कर ली। इसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना व्यापार फैलाया, और मद्रास (चेन्नई), मुम्बई और कलकत्ता (कोलकाता) जैसे औपनिवेशिक शहर न केवल बंदरगाह के रूप में बल्कि नए आर्थिक और प्रशासनिक केंद्रों के रूप में भी उभरे। ये तीनों औपनिवेशिक शहर अब अंग्रेजों की साम्राज्यवादी सत्ता और प्रशासन के केंद्र बन गए।
शहरी संरचनाओं में बदलाव
इन नए औपनिवेशिक शहरों में नए भवनों, संस्थाओं और सार्वजनिक स्थानों का निर्माण हुआ। पश्चिमी शिक्षा केंद्र, अस्पताल, रेलवे दफ्तर, व्यापारिक गोदाम, सरकारी कार्यालय जैसी नई संस्थाएँ विकसित हुईं, जिससे नए रोजगार अवसर पैदा हुए। दूर-दराज के गाँवों और क्षेत्रों से लोग इन शहरों की ओर रोजगार की तलाश में आने लगे, जिससे इन शहरों की जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हुई। 1800 तक ये औपनिवेशिक शहर जनसंख्या के हिसाब से देश के सबसे बड़े शहरों में शुमार होने लगे।
निष्कर्ष
18वीं सदी में भारतीय शहरी जीवन में आए इन बदलावों ने न केवल भारतीय समाज के सामाजिक और आर्थिक ढाँचे को परिवर्तित किया, बल्कि भारतीय राजनीति और प्रशासन में भी गहरे बदलाव लाए। यूरोपीय ताकतों के प्रभाव से भारतीय शहरी जीवन में जो नए रूपांतरण हुए, उनका असर 19वीं सदी के अंत तक देखा गया, जब औपनिवेशिक साम्राज्य का चरम अपने शिखर पर था।
Q.6. मुगल काल मैं जमींदारों की स्थिति का वर्णन कीजिए।
उत्तर – मुगल काल में जमींदारों की स्थिति
मुगल काल में जमींदारों की भूमिका और स्थिति समाज और अर्थव्यवस्था के संदर्भ में महत्वपूर्ण थी। जमींदारों की स्थिति को समझने के लिए हमें उनकी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति का अध्ययन करना आवश्यक है। निम्नलिखित बिंदुओं में मुगल काल में जमींदारों की स्थिति को स्पष्ट किया गया है:
कृषि उत्पादन में अप्रत्यक्ष भागीदारी
जमींदार सीधे तौर पर कृषि उत्पादन में भाग नहीं लेते थे, बल्कि वे अपनी जमीन के मालिक होते थे और ग्रामीण समाज में ऊँची हैसियत रखते थे। इन्हें सामाजिक और आर्थिक सुविधाएँ प्राप्त थीं, जिनमें जाति और राज्य को दी गई सेवाएँ शामिल थीं। यह उच्च सामाजिक स्थान उनके राजस्व भुगतान, नजराना देने और प्रशासनिक कार्यों में भागीदारी के कारण था।विस्तृत निजी जमीन और संपत्ति
जमींदारों की समृद्धि का मुख्य कारण उनकी बड़ी भूमि संपत्ति थी। इन जमींदारों की जमीनों को ‘मिल्कियत’ कहा जाता था, जो निजी इस्तेमाल के लिए होती थी। इस भूमि पर दिहाड़ी मजदूर या पराधीन मजदूर काम करते थे। जमींदार अपनी इच्छा से इन ज़मीनों को बेच सकते थे, गिरवी रख सकते थे या किसी और के नाम कर सकते थे।राज्य से कर वसूली और सैनिक संसाधन
जमींदारों की ताकत इस तथ्य में निहित थी कि वे अक्सर राज्य की ओर से कर वसूलने का कार्य करते थे। इसके बदले, उन्हें वित्तीय मुआवजा मिलता था। इसके अलावा, जमींदारों के पास अक्सर अपनी निजी सैन्य टुकड़ियाँ होती थीं, जिसमें घुड़सवार, पैदल सिपाही और तोपखाने होते थे। उनके पास किले भी होते थे, जो उनके सामर्थ्य और प्रभाव का प्रतीक थे।सामाजिक पिरामिड में स्थान
यदि हम मुग़लकालीन गाँवों में सामाजिक संबंधों की कल्पना करें, तो जमींदार इसके शीर्ष पर होते थे। उनका सामाजिक स्थान पिरामिड के संकरे शीर्ष की तरह था, जहाँ वे समाज के प्रभावशाली और ताकतवर वर्ग के सदस्य होते थे।जंग और जमींदारी का विस्तार
समकालीन दस्तावेजों से यह प्रतीत होता है कि जमींदारी की उत्पत्ति का एक संभावित स्रोत जंग में जीत था। जमींदारी का विस्तार अक्सर ताकतवर सैनिक सरदारों द्वारा कमजोर लोगों को बेदखल करके किया जाता था, लेकिन यह संभावना कम थी कि राज्य बिना किसी आधिकारिक आदेश के इसे अनुमति देता। जमींदारी के विस्तार के लिए राज्य से आधिकारिक संज्ञान (सनद) प्राप्त करना आवश्यक था।जमींदारी की पुष्टि और विस्तार
जमींदारी की पुष्टि की प्रक्रिया धीमी और विस्तृत थी। यह कई तरीके से की जाती थी, जैसे नई ज़मीनों को बसाना (जंगल-बारी), अधिकारों के हस्तांतरण से, राज्य के आदेश से, या खरीदकर। इन प्रक्रियाओं के द्वारा जमींदारों ने अपना प्रभाव और अधिकार बढ़ाया।निचली जातियों के लोग जमींदारों में शामिल होना
इस समय के दौरान, जमींदारी खरीदी और बेची जाती थी, जिससे अपेक्षाकृत “निचली” जातियों के लोग भी जमींदारी की स्थिति में शामिल हो सकते थे। यह प्रक्रिया जमींदारी के सामाजिक दृष्टिकोण को लोकतांत्रिक बनाने का एक साधन बन गई थी।खेती और व्यापार में जमींदारों की भूमिका
जमींदारों ने खेती लायक ज़मीनों को बसाने में अगुआई की और खेतिहरों को खेती के उपकरणों और उधारी पर सामग्री देकर उन्हें वहाँ बसने में मदद की। इसके परिणामस्वरूप, गाँवों में मौद्रीकरण की प्रक्रिया तेज हुई। जमींदार अपने मिल्कियत की ज़मीनों से उपज की फसल बेचते थे, और कई जगहों पर जमींदारों ने बाजारों (हाट) का आयोजन किया था, जहाँ किसान अपनी उपज बेचने आते थे।किसानों से संबंध
जमींदारों का संबंध किसानों से हमेशा शोषक नहीं होता था। किसानों के साथ जमींदारों के संबंधों में पारस्परिकता, पैतृकवाद और संरक्षण का पहलू था। यह भी सच है कि भक्त संतों ने जातिगत अत्याचारों की निंदा की, लेकिन उन्होंने जमींदारों को किसान के शोषक के रूप में नहीं चित्रित किया। सत्रहवीं सदी में कृषि विद्रोहों के दौरान, जमींदारों को किसानों का समर्थन मिला था, और ये विद्रोह राज्य के खिलाफ होते थे।
निष्कर्ष
मुगल काल में जमींदारों की स्थिति समाज में एक महत्वपूर्ण और प्रभावशाली स्थिति थी। उनकी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक भूमिका ने उन्हें गाँवों के शिखर पर स्थान दिलाया। हालांकि वे किसानों से शोषण करते थे, लेकिन उनके और किसानों के बीच का संबंध उतना सरल नहीं था। जमींदारी के व्यापार, कड़ी सामाजिक संरचना और सैन्य संसाधनों ने जमींदारों को एक शक्तिशाली वर्ग बना दिया, जिसने मुग़ल प्रशासन और समाज पर गहरा प्रभाव डाला।
Q.7. शाहजहाँ के काल को स्वर्णयुग कहा जाता है। वर्णन करें।
उत्तर – मध्यकालीन भारतीय इतिहास में शाहजहाँ के काल को (1627-1658) ‘स्वर्णयुग’ कहाँ जाता है। जैसाकि शाहजहाँ के समकालीन लेखक राय भारमलं तथा खफी खाँ ने भी उसके . शासनकाल को स्वर्णयुग कहा है क्योंकि वह व्यक्ति और शासक के रूप में महान था। उसका शासनं अत्यंत सफल था। उस समय पूरे राज्य में शांति और व्यवस्था कायम थी, निष्पक्ष न्याय की व्यवस्था थी। उसके समय में कला, शिक्षा एवं साहित्य का भी काफी उत्थान हुआ। आर्थिक क्षेत्र में भी काफी तरक्की हुई। इन्हीं आधारों पर हम कहते हैं कि शाहजहाँ का काल स्वर्णयुग था। इसका विस्तृत वर्णन हम निम्नलिखित रूप में कर सकते हैं।
(i) उत्तम शासक – शाहजहाँ एक उदार एवं प्रगतिशील व्यक्ति था। वह सुशील, दयालु तथा सज्जन प्रकृति का था। वह विद्वान तथा सुरुचि सम्पन्न सम्राट था। उनका स्वभाव मृदुल एवं नम्र था। साहित्य तथा ललित कलाओं में वह विशेषरूप से रुचि लेता था। यद्यपि डा. स्मिथ ने उसे अच्छा व्यक्ति नहीं माना है क्योंकि उसने अपने पिता जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह किया था लेकिन मुगल शाहजादों के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। जहाँगीर ने भी अकबर के विरुद्ध विद्रोह किया था। इसके अलावे शाहजहाँ ने जो भी काम किया वह नूरजहाँ के विरोधी कार्यों के चलते ही किया। डॉ. स्मिथ उसे आदर्श पति भी नहीं मानते हैं क्योंकि मुमताज महल की मृत्यु के बाद भी उसका सम्बन्ध अन्य पत्नियों से रहा। लेकिन यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि मुगल सम्राट बहुपत्नीवादी होते थे। साथ ही शाहजहाँ ने तो कई वर्षों तक मुमताज के प्रति प्रेम को पवित्रतापूर्वक निभाने की हर संभव कोशिश की थी। इस प्रकार एक व्यक्ति के रूप. में वह अच्छा था।
(ii) उत्तम सैनिक-व्यवस्था – शाहजहाँ एक कुशल सेना एवं सेनानायक था। वह वृद्धावस्था में भी स्वयं युद्ध की योजनाएँ बनाता था तथा युद्ध का संचालन करता था। उसने मुगल सेना को पुनर्संगठित कर उसे सशक्त एवं क्रियाशील बनाया। कुशल सेनानायक होने के कारण ही उसने अपने प्रारंभिक वर्षों में हुए विद्रोहों को सफलतापूर्वक दबा सका। उसने पुर्तगालियों को बढ़ती हुई शक्ति को नष्ट किया तथा दक्षिण में अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुंडा आदि राज्यों पर मुगल सत्ता को सुदृढ़ किया।
(iii) उत्तम शांति-व्यवस्था – शाहजहाँ एक कुशल शासक, कुशल प्रबन्धक तथा उच्च कोटि का राजनीतिज्ञ था। उसके शासनकाल में राज्य में पूरी शांति व्यवस्था बनी रही। उसके विशाल साम्राज्य को देखते हुए, जो पश्चिम में सिंध से लेकर पूरब में आसाम तक तथा उत्तर में काश्मीर से लेकर सुदूर दक्षिण तक फैला हुआ था, इस तरह की शासन-व्यवस्था कोई मामूली बात न थी। इतने बड़े साम्राज्य को सुसंगठित और सुव्यवस्थित रखना ही उसके कुशल शासक होने का द्योतक है। यद्यपि मध्ययुग में अशांति रहती थी तथा चोरी, डकैती, हत्या आदि होते रहते थे लेकिन शाहजहाँ ने सामान्य जीवन को सुरक्षित बनाने के उद्देश्य से उचित कदम उठाये। फलस्वरूप इस तरह की बारदातों में काफी कमी आई।
(iv) आर्थिक सम्पन्नता – उसके समय में राज्य की आर्थिक स्थिति भी काफी अच्छी थी। साम्राज्य का राजस्व मंत्री मुर्शीद कुली खाँ बड़ा ही योग्य व्यक्ति था और उसने विभिन्न प्रयत्नों से राज्य की आमदनी को काफी बढ़ाया। उसके पहले राज्य कर के रूप में उपज का 2/3 भाग भूमिकर के रूप में लगता था लेकिन उसने अब उसे बढ़ाकर 9/2 भाग कर दिया जिससे राज्य की आमदनी में काफी वृद्धि हुई और राज्य सम्पन्न हो गया। इसके अलावे उसके समय में शांति-व्यवस्था कायम थी इसलिए देश अधिक समृद्ध एवं सम्पन्न बन गया। प्रजा भी काफी खुशहाल थी।
(v) उत्तम न्याय-व्यवस्था – शाहजहाँ के काल में न्याय की भी उत्तम व्यवस्था थी। वह एक न्यायप्रिय शासक था तथा निष्पक्ष न्याय के लिए प्रसिद्ध था। वह सर्वोच्च न्यायाधीश के रूप में रहता था तथा अपराधियों को कठोर दंड दिया करता था। वह प्रत्येक बुधवार को महल के न्यायालय में बैठकर सभी की शिकायतों को सुनता था तथा अपराधियों को कडा दंड देता था। फलस्वरूप अपराध कम होते थे और लोग शांतिमय जीवन बसर करते थे।
(vi) लोकहितकारी कार्य – शाहजहाँ निरंकुश शासक होते हुए भी बहुत ही लोकप्रिय था। वह बहुत ही परिश्रमी, कर्त्तव्यनिष्ठ तथा सहनशील था और प्रत्येक काम जनता की भलाई को देखकर करता था। उसने जनता की भलाई के लिए कई काम किए, जैसे-कई स्कूल, मस्जिदें, सराय, बगीचे आदि का निर्माण किया तथा सिंचाई के उद्देश्य से यमुना नहर का निर्माण करवाई। 1650 ई० में जब दक्षिण में अकाल पडा तो वहाँ लगान माफ कर तथा अन्य उपायों द्वारा अकाल पीड़ितों की सहायता की थी। 1696 ई० में जब पंजाब में भी अकाल पड़ा तो उस समय भी इसी तरह की व्यवस्था कर लोगों के प्राणों की रक्षा की।
(vii) शिक्षा एव साहित्य का उत्थान – शाहजहाँ के काल में शिक्षा एवं साहित्य का उत्थान हुआ। खासकर संस्कृत, हिन्दी तथा फारसी साहित्य की काफी उन्नति हुई। उसके दरबार में विभिन्न भाषाओं के कई विद्वान रहा करते थे। ‘गंगाधर’ तथा गंगालहरी के प्रसिद्ध लेखक जगन्नाथ पंडित के अलावे हिन्दी और संस्कृत के कई विद्वान (कवीन्द्र आचार्य सरस्वती) उसके दरबार में रहा करते थे। वह इन लोगों को संरक्षण प्रदान करता था। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि सुन्दर दास और चिंतामणि भी इसी के दरबार में रहते थे। फारसी साहित्य की भी काफी उन्नति हुई। अब्दुल हमीद लाहौरी ने कई ग्रंथों की रचना की।
साहित्य के अलावे ज्योतिष विज्ञान की भी काफी उन्नति हुई। शाहजहाँ ज्योतिष में विश्वास करता था अतः उसने जन्मकुण्डलीयाँ बनाने, विवाह हेतु शुभ लग्न निकालने, तथा सैनिक अभियानों के लिए शुभ मुहुर्त बतलाने हेतु कई ज्योतिषियों को भी दरबार में रखता था। इसके अलावे ज्ञान-विज्ञान के दूसरे क्षेत्रों में भी काफी उन्नति हुई।
(viii) कलाओं का विकास – शाहजहाँ के शासन काल में ललित कला, संगीत, चित्रकला, स्थापत्य कला आदि का काफी विकास हुआ। खासकर स्थापत्य कला के क्षेत्र में तो यह मुगल काल में सर्वश्रेष्ठ थी। उसके द्वारा निर्मित भव्य एवं सुरम्य महल तथा अन्य इमारतें, दिल्ली का लाल किला, जामा मस्जिद, आगरा का ताजमहल आदि मुगल वास्तुकला की पराकाष्ठा प्रदर्शित करती हैं। ताजमहल तो विश्व के आश्चर्यजनक चीजों में गिना जाता है। उसने मयूर सिंहासन का भी निर्माण करवाया था। उसके समय में संगीत कला का भी काफी विकास हुआ।
(ix) उद्योग – धंधों तथा व्यापार में प्रगति-शाहजहाँ के शासन काल में उद्योग-धंधों तथा व्यापार में काफी प्रगति हुई क्योंकि उस समय देश में शांति एवं व्यवस्था कायम थी। भारत से सिल्क तथा सूती कपड़े, नमक, लोहा, मोम, अफीम, मसाले, विभिन्न औषधियाँ, शृंगार प्रसाधन आदि पश्चिमी एशिया भेजे जाते थे। इन उद्योगों तथा विदेशी व्यापार से राज्य को काफी आमदनी होती थी।
इस प्रकार शाहजहाँ के शासनकाल में देश की राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, कला खासकर स्थापत्य कला आदि की प्रगति को देखकर हम कह सकते हैं कि उसका शासन काल मध्यकालीन भारत का स्वर्णयुग था।
Q.8. बर्नियर भारतीय नगरों को किस रूप में देखता है ?
उत्तर – बर्नियर के अनुसार मुगल काल में अनेक बड़े और समृद्ध नगर थे, जिनकी आबादी यूरोपीय शहरों की तुलना में अधिक घनी थी। इनमें से दिल्ली और आगरा विशेष रूप से महत्वपूर्ण थे, क्योंकि ये दोनों नगर मुगलों की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध थे। बर्नियर ने इन नगरों की भव्यता और समृद्धि का वर्णन करते हुए कहा कि इन नगरों में अमीरों के भव्य मकान, बड़े-बड़े बाजार और अन्य आकर्षक रिहायशी इमारतें थीं। इसके अतिरिक्त, ये नगर दस्तकारी उत्पादों के केन्द्र भी थे, जहाँ विभिन्न प्रकार के सामान बनाए जाते थे। मुगल कालीन नगरों में विभिन्न तरह के पेशेवर लोग रहते थे, जैसे कलाकार, चिकित्सक, अध्यापक, वकील, वास्तुकार, संगीतकार, और सुलेखक, जिनके पास राजकीय और अमीरों का संरक्षण होता था। इन पेशेवरों का योगदान नगरों की समृद्धि और संस्कृति में महत्वपूर्ण था। नगरों में एक प्रभावशाली वर्ग व्यापारी वर्ग था, जो व्यापार में सक्रिय था। पश्चिमी भारत में व्यापारियों को महाजन कहा जाता था और इनमें से सबसे प्रमुख व्यापारी ‘सेठ’ कहलाते थे। हालांकि, बर्नियर मुग़लकालीन नगरों की उत्पादन और व्यापार में भूमिका को स्वीकार करते हैं, फिर भी उन्होंने इन नगरों के वास्तविक स्वरूप को पूरी तरह से नहीं स्वीकारा। बर्नियर मुग़लकालीन नगरों को ‘शिविन नगर’ कहकर इनकी आलोचना करते हैं, जो कि वास्तविकता से काफी हद तक परे है। उनका यह दृष्टिकोण मुग़ल कालीन नगरों की वास्तविक समृद्धि और उनके व्यापारिक महत्व को ठीक से नहीं समझता।
Q.9. अकबर की मनसबदारी व्यवस्था की विवेचना कीजिए।
उत्तर – 1573 ई. में भारत में मुगल सम्राट अकबर ने मंगोलों से प्रेरणा लेकर दशमलव. पद्धति के आधार पर मनसबदारी प्रथा को चलाया।
प्रत्येक मनसबदारी को दो पद ‘जात’ और ‘सवार’ दिये जाते थे। एक मनसबदार के पास जितने सैनिक रखने होते थे, वह ‘जात’ का सूचक था। ‘सवार’ से तात्पर्य मनसबदारों को रखने वाले घुड़सवारों की संख्या से था। जहाँगीर ने खुर्रम (शाहजहाँ) को 1000 और 5000 का मनसब दिया। अर्थात् शाहजहाँ के पास 10000 सैनिक और पाँच हजार घुड़सवार थे। सबसे छोटा मनसब 10 का और बड़ा 60000 तक का था। बडे मनसब राजकमारों तथा राज परिवार के सदस्यों को ही दिये जाते थे। जहाँगीर के काल में मनसबदारी व्यवस्था में दु-अश्वा (सवार पद के दुगने घोड़े) – सि-अश्वा (सवार पद के तिगुने घोड़े) प्रणाली लागू हुई। हिन्दु, मुस्लिम दोनों मनसबदार हो सकते थे और इनकी नियुक्ति, पदोन्नति, पदच्युति सम्राट द्वारा की जाती थी।
Q.10. मुगल शासक अकबर की उपलब्धियों का वर्णन करें।
उत्तर – अकबर की मनसबदारी व्यवस्था एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक सुधार था, जिसे 1573 ई. में स्थापित किया गया। यह व्यवस्था अकबर ने मंगोलों से प्रेरित होकर लागू की थी और यह दशमलव पद्धति पर आधारित थी। मनसबदारी प्रणाली में प्रत्येक व्यक्ति को दो प्रमुख पद दिए जाते थे – ‘जात’ और ‘सवार’।
जात: इसका तात्पर्य उस मनसबदार के पास कितने सैनिक होंगे, यह सूचित करता था। उदाहरण के लिए, अगर किसी को 5000 का मनसब दिया जाता, तो इसका मतलब था कि उसके पास 5000 सैनिक होंगे।
सवार: इसका अर्थ उस मनसबदार द्वारा रखे गए घुड़सवार सैनिकों की संख्या से था। उदाहरण स्वरूप, शाहजहाँ को जहाँगीर के काल में 1000 और 5000 का मनसब दिया गया था, अर्थात् शाहजहाँ के पास 10000 सैनिक और 5000 घुड़सवार थे।
मनसबदारी प्रणाली में प्रत्येक मनसबदार का पद ‘जात’ और ‘सवार’ के आधार पर तय किया जाता था, और यह प्रथा सम्राट की ओर से तय की जाती थी। इसका मतलब यह था कि एक मनसबदार के पास कितने सैनिक होंगे और उनमें से कितने घुड़सवार होंगे, यह सम्राट द्वारा निर्धारित किया जाता था। मनसबदारी का सबसे छोटा पद 10 था, जबकि सबसे बड़ा पद 60000 तक हो सकता था। यह पद राजकुमारों और उच्च रैंक के अधिकारियों को दिए जाते थे। मनसबदारी व्यवस्था ने राज्य के प्रशासनिक ढांचे को मजबूत किया और सेना के समुचित संचालन के लिए एक व्यवस्थित पद्धति विकसित की। जहाँगीर के काल में इस व्यवस्था में एक नई प्रणाली लागू की गई, जिसे दु-अश्वा (दूसरे पद के दुगने घोड़े) और सि-अश्वा (तीसरे पद के तिगुने घोड़े) कहा गया। यह व्यवस्था मनसबदारों के घोड़े रखने की संख्या को निर्धारित करती थी। मनसबदारी प्रणाली में हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही मनसबदार हो सकते थे। इनकी नियुक्ति, पदोन्नति और पदच्यूति सीधे सम्राट द्वारा की जाती थी। यह व्यवस्था प्रशासन की एकरूपता और सैन्य संचालन को सुसंगत बनाने के लिए महत्वपूर्ण साबित हुई। इस प्रकार, अकबर की मनसबदारी व्यवस्था ने मुग़ल साम्राज्य के प्रशासन को व्यवस्थित किया और सम्राट के नियंत्रण में शासन चलाने के लिए एक प्रभावी ढांचा स्थापित किया।

SANTU KUMAR
I am a passionate Teacher of Class 8th to 12th and cover all the Subjects of JAC and Bihar Board. I love creating content that helps all the Students. Follow me for more insights and knowledge.
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