Class 12th History ( कक्षा-12 इतिहास दीर्घ उत्तरीय प्रश्न ) PART- 4

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Q.1. दीन-ए-इलाही से आप क्या समझते हैं ?

उत्तर – अकबर इतिहास में ‘महान्’ की उपाधि से विभूषित हैं, और यह उपाधि उन्हें उनके विराट व्यक्तित्व, दूरदर्शिता और उत्कृष्ट शासन के कारण मिली। अकबर का साम्राज्य न केवल व्यापक था, बल्कि उसमें शांति, समृद्धि और सामाजिक सामंजस्य की भी स्थापना की गई थी। उनका शासन एक आदर्श उदाहरण था, जिसमें उन्होंने साम्राज्य की सुदृढ़ता को प्राथमिकता दी और समाज में हर वर्ग के प्रति समान दृष्टिकोण अपनाया। अकबर ने अपने शासनकाल में गैर-मुसलमानों के प्रति सहिष्णुता का दृष्टिकोण अपनाया और राजपूतों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित करके सामाजिक एकता को बढ़ावा दिया। इसने साम्राज्य की राजनीति को मजबूती प्रदान की और एकता के सूत्र को मज़बूत किया। उनका ‘दीन-ए-इलाही’ एक नया धार्मिक और सामाजिक दृष्टिकोण था, जिसमें उन्होंने सर्व-धर्म-समभाव की भावना को प्रोत्साहित किया। इस विचारधारा के माध्यम से अकबर ने धर्म, संस्कृति और सामाजिक सौहार्द्र के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया, जो आज भी प्रशंसा का पात्र है।अकबर के प्रशासनिक कौशल, उनके दृष्टिकोण में मानवता और धर्मनिरपेक्षता की विशेषता, उन्हें भारतीय इतिहास के महान सम्राटों में एक अद्वितीय स्थान दिलाती है।

Q.2. अकबर की धार्मिक नीति की विवेचना करें।

उत्तर – अकबर का जीवन और शासन काल धर्मनिरपेक्षता और उदारता का प्रतीक बन गया। आरंभ में वह एक कट्टरपंथी मुसलमान था, लेकिन अपने शासनकाल के दौरान उसने कई धार्मिक और सांस्कृतिक बदलावों को अपनाया। यह बदलाव मुख्यतः उसके आसपास के उदार विचारों वाले व्यक्तित्वों, जैसे बैरम खाँ, अब्दुल रहीम खानखाना, फैजी, अबुल फजल, और बीरबल के प्रभाव से हुआ। इसके अलावा, हिंदू रानियों का भी उस पर गहरा प्रभाव पड़ा, जिससे उसकी दृष्टि में परिवर्तन आया और वह अन्य धर्मों के प्रति अधिक उदार हुआ। 1575 ई. में अकबर ने इबादतखाना की स्थापना की, जिसमें विभिन्न धर्मों के विद्वानों को अपने-अपने विचार व्यक्त करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। यह धार्मिक बहसों का एक मंच था, जहां अक्सर मौलवी आपस में गाली-गलौच करते थे, जिससे अकबर की इस्लाम धर्म में रुचि कम होने लगी। इसने उसे धार्मिक सहिष्णुता की दिशा में और भी अधिक प्रेरित किया। अकबर ने स्वयं तिलक लगाने और गौ पूजा करने जैसी प्रथाएँ अपनाईं, जिसके कारण कट्टरपंथी मुसलमानों ने उसे काफिर कहकर आलोचना की। लेकिन इससे उसकी धार्मिक दृष्टिकोण में और बदलाव आया, और वह सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण रखने लगा। 1579 ई. में अकबर ने खुतबा (धार्मिक उपदेश) अपने नाम से पढ़वाकर खुद को धर्म का प्रमुख घोषित कर दिया, जिससे उलेमाओं का प्रभाव कमजोर पड़ा और उसने अपनी राजनीतिक शक्ति को धार्मिक मामलों से अलग कर दिया। अंततः, अकबर ने सभी धर्मों का सार लेकर दीन-ए-इलाही नामक एक नया धर्म स्थापित किया, जिसे उसने किसी पर थोपने का प्रयास नहीं किया। यह धर्म सर्व-धर्म-समभाव की भावना पर आधारित था और उसने इसे केवल एक विचारधारा के रूप में प्रस्तुत किया, न कि एक बलपूर्वक पालन कराने वाली प्रणाली के रूप में। अकबर ने रामायण और महाभारत जैसे हिंदू ग्रंथों का फारसी में अनुवाद भी करवाया, जिससे उसने भारतीय संस्कृति और धर्म को सम्मान दिया। वह धर्म को हमेशा राजनीति से अलग रखना चाहता था, ताकि उसका शासन सभी जातियों और धर्मों के लोगों के लिए न्यायपूर्ण हो। फतेहपुर सीकरी में स्थित जोधाबाई का महल, भारतीय संस्कृति की स्पष्ट झलक प्रस्तुत करता है, जो अकबर की धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता के प्रति उसके आदर्शों को दर्शाता है। अकबर का शासन, उसकी धार्मिक सहिष्णुता और उसकी उदार विचारधारा के कारण भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण और अनूठा स्थान रखता है।

Q.3. भक्ति आन्दोलन से आप क्या समझते हैं ? इस आन्दोलन का क्षेत्र एवं इससे जुड़े प्रमुख सन्तों के नाम बताइए।

उत्तर – (i) भक्ति आन्दोलन का अर्थ (Meaning of Bhakti Movement)

भक्ति आन्दोलन वह आंदोलन था, जो तुर्कों के आगमन (बारहवीं सदी से पूर्व) से बहुत पहले भारत में शुरू हुआ और अकबर के काल तक (1605 ई.) चला। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य मानव और ईश्वर के बीच एक व्यक्तिगत, रहस्यवादी संबंध स्थापित करना था। कुछ विद्वानों का मानना है कि भक्ति भावना का आरंभ उतना ही पुराना है जितना कि आर्य-समाज और वेदों का काल। हालांकि, इस आंदोलन की जड़ें सातवीं शताब्दी में उभरने लगीं।

इस आन्दोलन के दौरान शैव नयनार और वैष्णव अलवार ने धर्म के अपरिग्रह सिद्धांत को नकारा और यह माना कि ईश्वर की भक्ति और प्रेम के माध्यम से ही मोक्ष प्राप्ति संभव है। उन्होंने जाति और वर्ण व्यवस्था को अस्वीकार करते हुए प्रेम और व्यक्तिगत भक्ति का संदेश दिया।

उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन का प्रसार मुख्य रूप से दक्षिण भारत से हुआ, यद्यपि इस प्रक्रिया में अधिक समय नहीं लगा। भक्ति आन्दोलन का उद्देश्य समाज में समानता लाना और ईश्वर के प्रति एक सरल और व्यक्तिगत भावनात्मक जुड़ाव को प्रोत्साहित करना था। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. युसूफ हुसैन के अनुसार, भक्ति आन्दोलन “रूढ़िवादी, सामाजिक और धार्मिक विचारों के खिलाफ हृदय की प्रतिक्रिया और भावों का उद्गार था।”

(ii) क्षेत्र तथा संत (Area and Saints)

भक्ति आन्दोलन का प्रसार पूरे भारत में हुआ और यह तेरहवीं शताबदी से सोलहवीं शताबदी तक एक विराट रूप में उभरा। इस आन्दोलन ने न केवल हिन्दू धर्म को प्रभावित किया, बल्कि इस्लाम के प्रभाव और चुनौतियों को भी स्वीकार किया। भक्ति आन्दोलन ने शंकराचार्य के अद्वैतवाद और ज्ञान मार्ग के बजाय भक्ति मार्ग पर अधिक जोर दिया। इस आन्दोलन में चार प्रमुख संतों ने चार प्रमुख दार्शनिक विचारधाराओं की स्थापना की। ये संत थे:

  • रामानुजाचार्य (12वीं शताबदी) – जिन्होंने विशिष्टद्वैतवाद का सिद्धांत प्रस्तुत किया।
  • मध्वाचार्य (13वीं शताबदी) – जिन्होंने द्वैतवाद की स्थापना की।
  • विष्णुस्वामी (13वीं शताबदी) – जिन्होंने शुद्धसद्वैतवाद का सिद्धांत प्रस्तुत किया।
  • निम्बार्काचार्य (13वीं शताबदी) – जिन्होंने द्वैताद्वैतवाद का सिद्धांत प्रस्तुत किया।

इन चारों दार्शनिकों ने ब्रह्म और जीव की पूर्ण एकता को नकारते हुए सगुण भक्ति की ओर ध्यान केंद्रित किया। हालांकि इन मतों में कुछ अंतर थे, लेकिन इनकी मूल प्रवृत्ति ईश्वर के प्रति भक्ति और प्रेम पर आधारित थी। मध्यकाल में भक्ति आन्दोलन ने समाज में धार्मिक और सामाजिक समानता की भावना को बढ़ावा दिया और यह आन्दोलन सोलहवीं शताबदी तक विस्तृत रूप से फैल गया।

Q.4. भक्ति आंदोलन के परिणामों का वर्णन करें।

उत्तर – भक्ति आंदोलन का प्रभाव (Effect of Bhakti Movement)

भक्ति आंदोलन ने भारतीय समाज, धर्म और संस्कृति में गहरे और सकारात्मक प्रभाव डाले। संतों और सुधारकों के प्रयासों से यह आंदोलन न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में भी परिवर्तन लाया। प्रो. रानाडे के अनुसार, भक्ति आंदोलन के परिणामस्वरूप साहित्य रचना की शुरुआत हुई, इस्लाम के साथ सहिष्णुता की भावना का विकास हुआ, जाति व्यवस्था के बंधनों में शिथिलता आई और समाज में सुधार हुआ।

(i) सामाजिक प्रभाव (Social Impact)

भक्ति आंदोलन का सामाजिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। इस आंदोलन ने जाति प्रथा, अस्पृश्यता और सामाजिक ऊँच-नीच की भावना को चुनौती दी। अधिकतर भक्त संतों ने समाज के विभिन्न वर्गों, विशेषकर निम्न जातियों और अस्पृश्यों को अपनी शिक्षाओं का हिस्सा बनाया। उन्होंने जाति व्यवस्था का तीव्र विरोध किया और सभी जातियों को समान मानते हुए उनका सम्मान किया। हालांकि भक्ति आंदोलन ने जाति प्रथा के दोषों को पूरी तरह समाप्त नहीं किया, लेकिन इसने समाज में जातिवाद के खिलाफ एक जागरूकता और प्रतिकार पैदा किया। भक्त संतों ने नारी को समाज में उच्च और सम्मानित स्थान देने का समर्थन किया। उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के साथ मिलकर सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाने का परामर्श दिया। संत कबीर और गुरु नानक ने स्त्रियों को समान अधिकार देने की बात की और सती प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों का विरोध किया। इसके अलावा, भक्ति आंदोलन ने समाज सेवा की भावना को भी प्रोत्साहित किया। संतों ने लोगों को निर्धन, अनाथ, बेसहारा आदि की सेवा करने का उपदेश दिया और सामाजिक सेवा को धर्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना।

(ii) धार्मिक प्रभाव (Religious Impact)

भक्ति आंदोलन का सबसे बड़ा प्रभाव धर्म पर पड़ा। इस आंदोलन ने हिन्दू धर्म और इस्लाम दोनों के अनुयायियों में कर्मकांडों और अंधविश्वासों के खिलाफ एक वातावरण तैयार किया। हिन्दू समाज में मूर्तिपूजा की लोकप्रियता में कमी आई और भक्ति का प्रचार हुआ। इस आंदोलन ने हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के बीच धार्मिक समन्वय और एकता की भावना को प्रोत्साहित किया। भक्ति आंदोलन के कारण सिख धर्म का उदय हुआ। गुरु नानक देव ने सिखों के पहले गुरु के रूप में धर्म का प्रचार किया। गुरु ग्रंथ साहिब, जो सिखों के लिए बाइबल के समान है, में अधिकांश भक्ति संतों की वाणी संकलित है। इसने धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दिया और हिन्दू-मुस्लिम के बीच जो कटुता थी, उसे कम किया। भक्ति आंदोलन ने धार्मिक कट्टरता को कम किया और धर्म के प्रति सहनशीलता और सम्मान को बढ़ावा दिया।

(iii) सांस्कृतिक प्रभाव (Cultural Effects)

भक्ति आंदोलन ने भारतीय भाषाओं और साहित्य को भी महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया। इस आंदोलन के कारण आम जनता की बोलचाल की भाषाएं और बोलियाँ अधिक लोकप्रिय हुईं। अनेक भक्त संतों ने अपनी रचनाएं क्षेत्रीय भाषाओं में कीं, जिससे भारतीय भाषाओं का साहित्य समृद्ध हुआ। कबीर की भाषा, जिसे “खिचड़ी भाषा” कहा जाता है, विभिन्न भाषाओं का सम्मिलन थी, जो एक अद्भुत उदाहरण है। मलिक महम्मद जायसी और तुलसीदास ने अपनी रचनाएँ अवधी में कीं, जबकि सूरदास ने ब्रज भाषा में अपनी कविताएँ लिखीं। गुरु नानक ने पंजाबी और हिंदी को अपनी वाणी का माध्यम बनाया। चैतन्य महाप्रभु ने बंगला में अपनी रचनाएँ कीं, और कई भक्त संतों ने उर्दू में भी साहित्य रचा। इन सभी रचनाओं ने भारतीय भाषाओं को समृद्ध किया और समय के साथ वे भारतीय साहित्य का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गईं।

इस प्रकार, भक्ति आंदोलन ने न केवल धार्मिक और सामाजिक बदलाव लाए, बल्कि सांस्कृतिक स्तर पर भी एक नया युग शुरू किया, जहां भाषा, साहित्य और समाज में एकता और समानता की भावना को बढ़ावा मिला।

Q.5.विजयनगर साम्राज्य के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं कलात्मक स्थिति का वर्णन करें।

उत्तर – विजयनगर साम्राज्य का महत्त्व

विजयनगर साम्राज्य दक्षिण भारत के इतिहास में न केवल एक विशाल और सुदृढ़ राज्य के रूप में महत्वपूर्ण है, बल्कि यह ‘हिन्दू पुनरुत्थान’ का केंद्र भी था। इस साम्राज्य का गठन और उसकी आंतरिक व्यवस्था को लेकर अनेक अभिलेखों, साहित्यिक ग्रंथों और यूरोपीय, मध्य एशियाई तथा पुर्तगाली यात्रियों के विवरणों से पर्याप्त जानकारी मिलती है, जो हमें इस साम्राज्य की सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक व्यवस्था को समझने में मदद करते हैं।

प्रशासनिक व्यवस्था

विजयनगर साम्राज्य में प्रशासनिक ढांचा सुसंगत और सुव्यवस्थित था। राजा शासन का प्रमुख होता था और वह राज्य के समस्त कार्यों में गहरी रुचि रखता था। राजा को ‘राय’ कहा जाता था और वह राज्य में न्याय, शांति, सुरक्षा और धर्मनिरपेक्षता की व्यवस्था करता था। राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था में युवराज को भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। कभी-कभी दो राजा साथ-साथ शासन करते थे, जैसे हरिहर और बुक्का, या विजयराय और देवराय। नाबालिग राजाओं के लिए संरक्षक नियुक्त किए जाते थे। राजपरिषद राजा की सलाहकार समिति थी, जिसमें प्रांतीय शासक, सामंत और व्यापारिक निगमों के प्रतिनिधि शामिल होते थे। इस समिति का कार्य राज्य की नीति निर्धारण करना था। मंत्रिपरिषद का प्रमुख महापधानी (प्रधानमंत्री) होता था। इस परिषद में लगभग 20 सदस्य होते थे। राज्य में दंडनायक (अधिकारियों की विशिष्ट श्रेणी) और कार्यकर्ताओं (अधिकारियों के अन्य वर्ग) की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी। न्याय व्यवस्था में भी राजा का सर्वोच्च अधिकार था, हालांकि केन्द्रीय और स्थानीय स्तर पर विभिन्न न्यायालय भी थे। राज्य की सेना विशाल और स्थायी थी, जिसमें पैदल सेना, घुड़सवार, हाथी और तोपखाने की टुकड़ियाँ शामिल थीं। सेना में मुसलमानों और तुर्की अश्वाराहियों और धनुर्धरों की भी भर्ती की जाती थी। इसके अलावा, राज्य में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस व्यवस्था का भी प्रबंध था।

सामाजिक जीवन

विजयनगर साम्राज्य में सामाजिक जीवन वर्ण व्यवस्था पर आधारित था। समाज में ब्राह्मणों को प्रमुख स्थान प्राप्त था और वे शासन में उच्च पदों पर नियुक्त होते थे। इसके बाद शेट्टी या चेट्टी वर्ग था, जिसमें व्यापारी, दस्तकार और विभिन्न कारीगर शामिल थे। इसके अलावा, डोंबर (बाजीगर), जोगी, मछुआरे आदि निम्न वर्ग में आते थे। विजयनगर में दास प्रथा प्रचलित थी, जिसमें पुरुष और महिलाएं दोनों दास बन सकते थे। समाज में महिलाओं की स्थिति सामान्यतः भोग्या के रूप में थी, हालांकि उच्च वर्ग की महिलाओं को नृत्य, संगीत और साहित्य की शिक्षा दी जाती थी। राजपरिवार और सामंत वर्ग में बहुपत्नीत्व प्रथा प्रचलित थी, और देवदासियों का सम्मान भी होता था। विजयनगर के राजाओं ने सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने के लिए कई कदम उठाए। उदाहरणस्वरूप, 1424-25 ई. के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि राज्य ने दहेज-प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया था।

आर्थिक स्थिति

विजयनगर साम्राज्य आर्थिक रूप से समृद्ध और वैभवपूर्ण था। राज्य की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि था। बंजर और जंगली भूमि को कृषि योग्य बना दिया गया और सिंचाई के लिए नहरें और तालाब खुदवाए गए। भूमि व्यवस्था में कई प्रकार के स्वामित्व थे, जैसे ‘भंडारवाद ग्राम’, ‘उबलि’ और ‘कटगि’ भूमि। हालांकि, इस व्यवस्था के कारण बड़े भू-स्वामियों की संख्या बढ़ गई और छोटे किसानों की स्थिति बिगड़ी। राज्य में उपजाए जाने वाले प्रमुख कृषि उत्पादों में चावल, जौ, दलहन, तिलहन, नील, कपास, काली मिर्च, अदरक, इलायची और नारियल शामिल थे। विभिन्न उद्योगों और व्यवसायों का भी विकास हुआ, विशेषकर धातुकर्म उद्योग में। देशी और विदेशी व्यापार दोनों ही समृद्ध थे। विजयनगर के व्यापारी पुर्तगाल, मध्य एशिया और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ व्यापार करते थे। विजयनगर से विभिन्न वस्त्र, शक्कर, शोरा, इस्पात और अन्य उत्पादों का निर्यात होता था।

धार्मिक व्यवस्था

विजयनगर साम्राज्य के राजाओं ने हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान के लिए कई प्रयास किए। दक्षिण भारत में इस्लामी राजाओं के बढ़ते प्रभाव के बावजूद, विजयनगर के शासकों ने हिन्दू धर्म की रक्षा की। वैष्णव और शैव धर्म प्रमुख थे, और यज्ञ, आहुति और बलि की प्रथाएँ प्रचलित थीं। राजा ने सभी धर्मों के अनुयायियों के साथ उदारतापूर्वक व्यवहार किया, और हिन्दू धर्म के साथ-साथ इस्लाम, जैन और ईसाई धर्म के अनुयायी भी शांतिपूर्वक रहते थे।

शैक्षणिक एवं साहित्यिक प्रगति

विजयनगर साम्राज्य के राजाओं ने शिक्षा के विकास में भी योगदान दिया। हालांकि राज्य ने राजकीय विद्यालयों की स्थापना नहीं की, लेकिन मठों, मंदिरों और अग्रहारों ने शिक्षा का प्रचार किया। इस युग में संस्कृत, तेलुगु, तमिल और कन्नड़ भाषाओं का महत्वपूर्ण विकास हुआ। कृष्णदेवराय के शासनकाल में साहित्यिक प्रगति अपने चरम पर पहुँची, और उसने तेलुगु और संस्कृत में कई ग्रंथों की रचना की।

कलात्मक विकास

विजयनगर साम्राज्य के दौरान स्थापत्य कला का महत्वपूर्ण विकास हुआ। राजाओं ने भव्य महल, झीलें, नहरें और पुल बनवाए। विजयनगर के मंदिर भी वास्तुकला के दृष्टिकोण से बहुत भव्य थे। कृष्णदेवराय द्वारा निर्मित हजार खंभों वाला मंदिर और विट्ठलस्वामी का मंदिर विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। इस युग में नृत्य, संगीत, अभिनय, चित्रकला और मूर्तिकला में भी उन्नति हुई।

निष्कर्ष

विजयनगर साम्राज्य दक्षिण भारत के मध्यकालीन इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसके प्रशासनिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक योगदानों ने न केवल दक्षिण भारत बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर गहरा प्रभाव डाला। यह साम्राज्य न केवल एक शक्तिशाली राजनीतिक इकाई था, बल्कि संस्कृति, कला, और धर्म के क्षेत्र में भी एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया।

Q.6. विजयनगर राज्य का ‘चरमोत्कर्ष और पतन’ नामक विषय पर एक निबंध लिखिए।

उत्तर – विजयनगर साम्राज्य का चरमोत्कर्ष और पतन

विजयनगर साम्राज्य का इतिहास न केवल दक्षिण भारत की राजनीतिक और सांस्कृतिक धारा को प्रभावित करने वाला है, बल्कि इसके उत्थान और पतन ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की राजनीति को भी प्रभावित किया। विजयनगर साम्राज्य का चरमोत्कर्ष कृष्णदेव राय के शासनकाल में था, जिन्होंने साम्राज्य का विस्तार किया और इसे एक सशक्त राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र बना दिया।

विजयनगर साम्राज्य का विस्तार और समृद्धि

विजयनगर साम्राज्य का पहला राजवंश, संगम वंश, 1485 ई. तक शासन करता रहा। इसके बाद सुलुव वंश ने सत्ता में प्रवेश किया, जिन्होंने 1503 तक साम्राज्य पर कब्जा जमाए रखा। इसके बाद तुलव वंश का शासन आया, जो कृष्णदेव राय के तहत उच्चतम शिखर पर पहुंचा। कृष्णदेव राय के शासनकाल को विजयनगर साम्राज्य के स्वर्णिम काल के रूप में जाना जाता है। कृष्णदेव राय के काल में साम्राज्य ने महत्वपूर्ण सैन्य विजय प्राप्त की। 1512 में तुंगभद्रा और कृष्णा नदियों के बीच के क्षेत्र (रायचूर दोआब) पर विजय प्राप्त की गई, साथ ही 1514 में उड़ीसा के शासकों को पराजित किया गया और 1520 में बीजापुर के सुलतान को भी बुरी तरह हराया गया। इसके अतिरिक्त, कृष्णदेव राय ने दक्षिण भारत में कई महत्वपूर्ण मंदिरों का निर्माण कराया, जिनमें भव्य गोपुरमों को जोड़ने का कार्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है। कृष्णदेव ने अपनी माँ के नाम पर नगलपुरम् उपनगर की स्थापना भी की। इन कार्यों से न केवल साम्राज्य का विस्तार हुआ, बल्कि सांस्कृतिक और धार्मिक धारा भी मजबूत हुई।

विजयनगर के बाद का काल और संघर्ष

कृष्णदेव राय की मृत्यु 1529 में हुई, जिसके बाद साम्राज्य में राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न हुई। उनके उत्तराधिकारियों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिसमें विद्रोही नायक और सेनापति प्रमुख थे। 1542 तक साम्राज्य का नियंत्रण अराविदु वंश के हाथों में चला गया। इस वंश ने सातवीं शताबदी के अंत तक सत्ता पर काबिज रहने का प्रयास किया। इस समय के दौरान, दक्कन की सल्तनतों और विजयनगर के शासकों के बीच लगातार संघर्ष होते रहे, जो कभी सामरिक महत्त्वाकांक्षाओं की वजह से और कभी क्षेत्रीय प्रभाव को लेकर होते थे। इन संघर्षों ने साम्राज्य को कमजोर किया और अंततः इसका पतन हुआ।

विजयनगर का पतन (1565 ई.)

1565 में विजयनगर के प्रधानमंत्री रामराय के नेतृत्व में साम्राज्य ने तालीकोटा के युद्ध (जिसे राक्षसी-तांगड़ी भी कहा जाता है) में भाग लिया, जहाँ उसे बीजापुर, अहमदनगर और गोलकुंडा की संयुक्त सेनाओं से कड़ी शिकस्त मिली। यह युद्ध विजयनगर साम्राज्य के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ। तालीकोटा की पराजय के बाद विजयनगर के शहर पर हमला कर उसे लूटा गया। इस युद्ध ने साम्राज्य की आंतरिक शक्ति को समाप्त कर दिया। इसके बाद, साम्राज्य का केंद्र पूर्व की ओर स्थानांतरित हो गया, और अराविदु वंश ने पेनकोण्डा और बाद में चंद्रगिरि (तिरुपति के पास) से शासन करना शुरू किया।

निष्कर्ष

विजयनगर साम्राज्य का पतन दक्षिण भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने न केवल राजनीतिक रूप से, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी प्रभाव डाला। हालांकि साम्राज्य का अंत हुआ, लेकिन इसका समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर और स्थापत्य कला आज भी भारतीय इतिहास में एक अमूल्य धरोहर के रूप में जीवित है।

Q.7. कुतुबुद्दीन ऐबक की उपलब्धियों का वर्णन करें।

उत्तर – कुतुबुद्दीन ऐबक का जीवन और उपलब्धियाँ

कुतुबुद्दीन ऐबक का जन्म तुर्किस्तान में हुआ था। बचपन से ही वह कुशाग्र बुद्धि का था और उसे विभिन्न शारीरिक व मानसिक प्रशिक्षणों में विशेष रुचि थी। वह एक गुलाम के रूप में फारस के काजी फखरुद्दीन अब्दुल अजीज के हाथों बेचा गया था, जहाँ उसने काजी के पुत्रों के साथ पढ़ाई-लिखाई के अलावा सैनिक घुड़सवारी का प्रशिक्षण भी लिया। काजी फखरुद्दीन की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों ने ऐबक को फिर से बेच दिया, और अंततः उसे मुहम्मद गोरी ने खरीद लिया। गोरी को ऐबक की प्रतिभा और नेतृत्व क्षमता में अत्यधिक विश्वास हुआ और उसने उसे अपनी सेना की एक टुकड़ी का नायक बना दिया। ऐबक ने अपनी वीरता, कर्तव्यनिष्ठा और स्वामिभक्ति से गोरी का दिल जीता और “अमीर-ए-आखूर” (अस्तबल का अध्यक्ष) जैसे उच्च पद पर नियुक्त हुआ। गोरी के भारत आक्रमण के समय ऐबक ने अपनी भूमिका महत्वपूर्ण ढंग से निभाई और भारत के शासकों के खिलाफ युद्धों में गोरी की सफलता में योगदान दिया। 1192 में हुए तराइन के द्वितीय युद्ध में ऐबक ने अद्वितीय साहस और नेतृत्व का प्रदर्शन किया। युद्ध के बाद उसने गोरी के राज्य को विस्तार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1192 से 1205 तक उसने गोरी के लिए राजपूतों के विद्रोहों का दमन किया और कई क्षेत्रों को जीतकर साम्राज्य के विस्तार में मदद की।

सूबेदार के रूप में ऐबक की उपलब्धियाँ

1192 में जब गोरी ने ऐबक को भारतीय प्रांतों का सूबेदार नियुक्त किया और खुद गजनी लौट गया, तो ऐबक ने विभिन्न विद्रोहों को सफलतापूर्वक दबाया। हरि राय के नेतृत्व में हुआ विद्रोह, जटवन के नेतृत्व में हुए विद्रोह, और अजमेर के आसपास के विद्रोहों को दबाने में ऐबक ने अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया। 1193 में उसने दिल्ली के तोमर राजा को हराकर दिल्ली पर कब्जा किया और इसे अपनी राजधानी बना लिया। 1194 में ऐबक ने अलीगढ़ पर विजय प्राप्त की और उसी वर्ष गोरी के नेतृत्व में कनौज पर आक्रमण कर जयचन्द को पराजित किया। 1195 में उसने पुनः पृथ्वीराज के भाई हरि राय के विद्रोह को दबाया और दिल्ली पर अपनी स्थिति को मजबूत किया। उसने 1197 में गुजरात की राजधानी अन्हिलबाड़ा पर आक्रमण कर वहाँ के चालुक्य राजा भीमदेव द्वितीय को परास्त किया और काफी संपत्ति लूटी। इसके बाद, 1202 तक उसने कोटा, बदायूँ, चन्दवर, सिरोह, उज्जैन और काशी को जीतकर पश्चिमोत्तर भारत में अपनी स्थिति मजबूत की।

शासक के रूप में ऐबक की उपलब्धियाँ

गोरी की मृत्यु के बाद ऐबक ने 1206 में दिल्ली की गद्दी पर कब्जा किया और गुलाम वंश की नींव रखी। हालांकि गोरी का भतीजा ग्यासुद्दीन मोहम्मद गोरी गजनी का शासक था, परंतु वह भारतीय राज्य को संभालने में सक्षम नहीं था, इसलिए ऐबक ने भारत में अपना शासन स्थापित किया। उसने अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए कई रणनीतियाँ अपनाईं। उसने पहले अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए विभिन्न वैवाहिक गठबंधनों का सहारा लिया। उसने इल्तुतमिश और कुबाचा से अपनी बहन की शादी कर ली और अफगानिस्तान के शासक एल्दौज से भी समझौता किया। इसके अलावा, बख्तियार खिलजी के मरने के बाद बंगाल और बिहार का स्वतंत्र शासक बन बैठा अली मर्दान को फिर से समझौते के बाद बंगाल का नवाब बना दिया। ऐबक ने राजपूत शासकों के विद्रोहों को भी दबाया और विभिन्न क्षेत्रों में अपनी स्थिति को मजबूत किया। 1206 में गोरी की मृत्यु के बाद ऐबक ने राज्य की बागडोर अपने हाथों में ली और गुलाम वंश की स्थापना की। उसने भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर क्षेत्रों में काफी विस्तार किया, लेकिन वह समय की कमी के कारण शासन संबंधी सुधारों को लागू नहीं कर सका। फिर भी, उसने राज्य में शांति स्थापित करने में सफलता प्राप्त की और अपनी स्थिति को सुरक्षित किया।

मृत्यु और ऐबक का महत्व

4 नवंबर 1210 को ऐबक पोलो खेलते समय अपने घोड़े से गिर पड़ा और पोलो की छड़ी का नुकीला भाग उसकी छाती और पेट में घुस गया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई। ऐबक का जीवन एक गुलाम से शासक बनने की प्रेरणादायक कहानी है। उसने अपनी प्रतिभा, साहस, दूरदर्शिता और कर्तव्यनिष्ठा से गुलाम वंश की नींव रखी और भारत में पहला मुस्लिम साम्राज्य स्थापित किया। ऐबक ने न केवल युद्धों में विजय प्राप्त की, बल्कि अपनी स्वामिभक्ति, वीरता, और राजनीतिक सूझबूझ के कारण भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान हासिल किया। उसे भारतीय इतिहास में पहला मुस्लिम शासक माना जा सकता है, जो अपनी मेहनत और क्षमता के दम पर एक गुलाम से शासक बना।

Q.8. अलाउद्दीन खिलजी के आर्थिक सुधारों का आलोचनात्मक विश्लेषण करें

उत्तर – अलाउद्दीन खिलजी ने अपने शासनकाल में आर्थिक जीवन के दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों—कृषि और व्यापार—में कई सुधार लागू किए। कृषि-क्षेत्र में सुधार का मुख्य उद्देश्य राज्य की आमदनी में वृद्धि करना और मध्यस्थ भूमिपति वर्ग का दमन करना था, जो राज्य में विद्रोह और उपद्रव का कारण बनते थे।

कृषि सुधार: अलाउद्दीन ने दोआब (गंगा और यमुनाज के बीच का क्षेत्र) में लगान की दर में वृद्धि की, जिससे किसानों को 1/3 के स्थान पर 1/2 यानी 50% लगान चुकाना पड़ता था। इससे राज्य की आमदनी में बढ़ोतरी हुई। इसके साथ ही, उसने दोआब क्षेत्र में कर-मुक्त भूमि पर केन्द्रीय नियंत्रण स्थापित किया और भूमि अनुदान को खालसा भूमि (सुलतान के प्रत्यक्ष शासन के अधीन) में परिवर्तित कर दिया। इस तरह राज्य की आमदनी और बढ़ी।

अलाउद्दीन ने ‘मसाहत’ पद्धति के तहत भूमि के माप के आधार पर लगान निर्धारित किया, जिससे वसूली में भी सुधार हुआ। इसके अतिरिक्त, ‘दीवान मुस्तखरज’ नामक एक नया विभाग स्थापित किया गया, जिसके तहत अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा बकाया राशि की वसूली के लिए कठोर कदम उठाए गए।

भूमिपति वर्ग का दमन: अलाउद्दीन ने मध्यस्थ भूमिपति वर्ग, जैसे ‘खूत मुकद्दम’ और ‘चौधरी’, जो किसानों से अधिक लगान वसूल करते थे, को कमजोर करने के लिए कई कठोर उपाय किए। उसने इन भूमिपतियों से रियायती दर पर लगान वसूली की सुविधा हटा दी और उनके ‘हुक्क’ (स्वतंत्र कर) को अवैध घोषित कर दिया। इसके परिणामस्वरूप इन भूमिपतियों की आर्थिक स्थिति पर बड़ा आघात पड़ा, और उनकी उद्दण्डता समाप्त हो गई।

कर प्रणाली में सुधार: अलाउद्दीन ने खिराज (भूमिकर) की दर में वृद्धि की और खम्स (युद्ध में लूटे गए धन का 1/5 हिस्सा) की दर को 4/5 कर दिया। इसके साथ ही उसने नए कर लगाए, जैसे घरों पर कर और चरागाहों पर कर। जजिया और जकात जैसे प्रचलित कर भी जारी रहे। इन सुधारों से राज्य को अतिरिक्त आय मिली और शासन को मजबूत किया।

बाजार नियंत्रण और मूल्य निर्धारण नीति: अलाउद्दीन की सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि उसकी बाजार नियंत्रण और मूल्य निर्धारण योजना थी। इसके माध्यम से, उसने बाजार में वस्तुओं के मूल्य निर्धारित किए, ताकि सैनिकों और साम्राज्य को सस्ते दरों पर आवश्यक वस्तुएं मिल सकें। उसने अनाज, कपड़े, घोड़े, दासों आदि के लिए मूल्य निर्धारित किए। उदाहरण स्वरूप, गेहूँ का मूल्य 77 जीतल प्रति मन, चावल का 5 जीतल प्रति मन आदि निर्धारित किया गया। इसके अलावा, कपड़ों के व्यापार में मुनाफाखोरी को रोकने के लिए व्यापारियों को विशेष कर्ज दिया गया और केवल निर्धारित कीमतों पर वस्त्र बेचने के लिए कहा गया। अलाउद्दीन ने ‘दीवाने रियासत’ नामक विभाग के माध्यम से बाजार की निगरानी की व्यवस्था की। इसके तहत शहना नामक निरीक्षकों को नियुक्त किया गया और गुप्तचर व्यवस्था भी सक्रिय की गई। व्यापारियों को मूल्य निर्धारण के उल्लंघन पर कठोर दंड का सामना करना पड़ता था।

सामान्य जनता पर प्रभाव: कई इतिहासकारों के अनुसार, अलाउद्दीन की यह नीति विशेष रूप से सैनिक और सामंती वर्ग के लिए लाभकारी थी, जबकि व्यापारी, शिल्पकार और किसान इससे असंतुष्ट थे। इस नीति का उद्देश्य राज्य के सैनिकों को संतुष्ट रखना और उनके समर्थन से सत्ता को मजबूत करना था। इरफान हबीब के अनुसार, हालांकि अलाउद्दीन के समय में यह नीति सफल रही, लेकिन उसकी मृत्यु के बाद मुबारक खिलजी के शासन में यह नीति स्थगित कर दी गई, क्योंकि अब सैनिक खर्च की आवश्यकता नहीं थी। अलाउद्दीन की यह मूल्य-निर्धारण योजना निश्चित रूप से एक विशिष्ट उपलब्धि थी, जो उसकी प्रशासनिक क्षमता और दूरदर्शिता को प्रमाणित करती है। हालांकि यह योजना एक व्यक्ति के नेतृत्व पर आधारित थी, इसलिए इसके सफल कार्यान्वयन का दारोमदार केवल अलाउद्दीन पर था और उसके बाद इसे बनाए रखना संभव नहीं हो सका।

Q.9. अल्लाउद्दीन खिलजी के शासन की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें। अथवा अल्लाउद्दीन खिलजी के प्रशासनिक एवं सैनिक सुधारों का वर्णन करे। 

उत्तर – अलाउद्दीन ख़िलजी एक महान शासक और कुशल राजनीतिज्ञ थे, जिन्होंने अपने शासनकाल में कई महत्वपूर्ण सुधार और परिवर्तन किए। वह अपने समय के सबसे शक्तिशाली और प्रभावशाली शासकों में से एक थे। उनके द्वारा किए गए सुधारों में प्रशासनिक, सैनिक और आर्थिक व्यवस्था में बदलाव प्रमुख थे, जिनकी वजह से उनके शासन को बहुत मजबूती मिली।

प्रशासनिक सुधार: अलाउद्दीन ख़िलजी का प्रशासन पूर्ण रूप से सुसंगठित और केन्द्रीयकृत था। उन्होंने राज्य की पूरी शक्ति अपने हाथ में रखी थी और हर निर्णय वह खुद लेते थे। उन्होंने अपने शासन को अधिक सशक्त और प्रभावशाली बनाने के लिए गुप्तचर विभाग को मजबूत किया, जिससे वह हर घटना की जानकारी तुरंत प्राप्त कर सकें। इसके अलावा, उन्होंने बलवन के सिद्धांतों को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया और सुलतान को पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि मानते हुए उसके आदेशों को सर्वोपरि माना। अलाउद्दीन ख़िलजी ने यह स्पष्ट किया कि उनका शासन पूरी तरह से राज्य के हित में था और धार्मिक हस्तक्षेप को नकारते हुए उन्होंने राजनीति को धर्म से अलग रखा।

सैनिक सुधार: अलाउद्दीन ने दिल्ली के सुलतान के रूप में अपनी शक्ति को बढ़ाने के लिए एक स्थायी और सुसंगठित सेना का निर्माण किया। उन्होंने 4,75,000 सैनिकों की एक स्थायी सेना बनाई, जो राज्य की सुरक्षा और आंतरिक शांति के लिए बेहद महत्वपूर्ण साबित हुई। उन्होंने सैनिकों को नकद वेतन देने की प्रणाली को लागू किया और यह सुनिश्चित किया कि सभी सैनिकों के पास अच्छे घोड़े और हथियार हों। इसके अलावा, उन्होंने सैनिकों के घोड़ों पर दाग लगाने की व्यवस्था की, ताकि वे अच्छे घोड़े का चुनाव कर सकें और धोखाधड़ी से बच सकें।

राजस्व-व्यवस्था: अलाउद्दीन ने अपने शासन को बनाए रखने और एक स्थिर आर्थिक व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए कृषि करों और भूमि करों में कई परिवर्तन किए। उन्होंने भूमि का सर्वेक्षण कराया और भूमि कर की दरों में बदलाव किया। इस व्यवस्था के तहत, सभी भूमि मालिकों और किसानों से समान रूप से कर लिया जाता था, चाहे वह हिंदू हो या मुस्लिम। हालांकि इस व्यवस्था का प्रभाव मुख्यतः हिंदू किसानों पर पड़ा, जो बड़ी संख्या में भूमि से जुड़े थे। उनकी स्थिति बहुत ही कठिन हो गई थी, क्योंकि उन्हें अपनी उपज का आधा हिस्सा कर के रूप में देना पड़ता था।

न्याय-व्यवस्था: अलाउद्दीन ने न्याय-व्यवस्था को भी धार्मिक हस्तक्षेप से मुक्त किया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि कानून और शासन की व्यवस्था राज्य की भलाई के लिए हो, न कि धर्म के आधार पर। न्यायाधीशों को ईमानदार और निष्पक्ष नियुक्त किया गया और पुलिस तथा गुप्तचर विभाग को अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार दिया गया। दंड-प्रवर्तन कड़ा था और कोई भी अपराधी बख्शा नहीं जाता था।

निष्कर्ष: अलाउद्दीन ख़िलजी का शासन एक सशक्त और क्रांतिकारी शासन था जिसमें प्रशासनिक, सैन्य और आर्थिक सुधारों के माध्यम से उन्होंने दिल्ली सुलतानत को एक शक्तिशाली राज्य बना दिया। उनका शासन पूरी तरह से केंद्रीयकृत और सैनिक आधारित था, जिसने न केवल राज्य को सुरक्षित रखा बल्कि उसकी आंतरिक संरचना को भी मजबूत किया। हालांकि, उनकी नीतियों का जनता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा, खासकर हिंदू किसानों और गरीबों पर, लेकिन उनके द्वारा किए गए सुधारों को दीर्घकालिक दृष्टिकोण से देखा जाए, तो उन्होंने साम्राज्य को एक मजबूत नींव दी।

Q.10. इल्तुतमिश की जीवनी और उपलब्धियों का वर्णन करें।

उत्तर – इल्तुतमिश का योगदान और उपलब्धियाँ

इल्तुतमिश, जो कि इलबरी जाति से था, दिल्ली सल्तनत के प्रारंभिक तुर्क शासकों में एक महत्वपूर्ण और प्रभावशाली व्यक्तित्व के रूप में उभरकर सामने आया। उसका राजनीतिक जीवन ऐबक के दास के रूप में प्रारंभ हुआ था, लेकिन उसकी योग्यता और नेतृत्व क्षमता के कारण उसने दिल्ली सल्तनत की नींव को सुदृढ़ करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। ऐबक ने उसे दासत्व से मुक्ति दिलाई और अपनी बेटी से विवाह करके उसे उच्च समाज में सम्मानित किया। बाद में, ऐबक ने उसे बदायूँ का प्रशासन सौंपा, जहां उसने अपने विरोधियों को पराजित किया और शक्ति का परिपक्व नेतृत्व दिखाया।

इल्तुतमिश के सामने समस्याएँ और उनका समाधान

इल्तुतमिश के शासनकाल की शुरुआत में उसे कई गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ा। ऐबक द्वारा स्थापित राज्य अभी तक स्थिर नहीं हुआ था और उसे कई आंतरिक तथा बाहरी चुनौतियाँ झेलनी पड़ीं।

  1. विरोधी सामंतों का दमन: इल्तुतमिश के सामने कुत्बी और मुइज्जी जैसे सामंतों की शक्ति को कुचलने की चुनौती थी, जिन्होंने उसकी वैधता को चुनौती दी थी। उसने अपनी विश्वसनीय दासों की एक सेना तैयार की, जिसे ‘चालीसा’ के नाम से जाना जाता था, और इस सेना के माध्यम से उसने अपने विरोधियों को हराया।

  2. यल्दोज और कुबाचा का दमन: यल्दोज, जो गजनी का शासक था, ने दिल्ली सल्तनत पर अधिकार जमाने की कोशिश की। इल्तुतमिश ने उसे 1215-16 में हराकर इस खतरे का सामना किया। उसने कुबाचा को भी पराजित किया और सिन्ध तथा मुल्तान को दिल्ली सल्तनत में शामिल किया।

  3. मंगोल आक्रमण से रक्षा: 1220 में चंगेज खान ने मंगोलों के साथ दिल्ली सल्तनत की सीमा पर हमला किया, लेकिन इल्तुतमिश ने कूटनीति का प्रयोग करते हुए मंगबरनी को सहायता देने से मना कर दिया, जिससे मंगोलों का आक्रमण टल गया।

  4. राजपूताना और बंगाल के विद्रोहों का दमन: राजपूताना में लगातार विद्रोह होते रहे थे, और बंगाल ने ऐबक के शासनकाल में स्वतंत्रता का प्रयास किया था। इल्तुतमिश ने 1227 और 1229 में बंगाल पर अभियान चलाए और उसे दिल्ली सल्तनत में समाहित कर लिया।

इल्तुतमिश की प्रशासनिक उपलब्धियाँ

इल्तुतमिश ने न केवल सैन्य दृष्टि से दिल्ली सल्तनत को सुदृढ़ किया, बल्कि उसने प्रशासनिक सुधारों में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।

  1. इकतादारी व्यवस्था: इल्तुतमिश ने अपनी सत्ता को मजबूत बनाने के लिए इकतादारी व्यवस्था को लागू किया। इसके तहत राज्य को छोटे-छोटे भू-खंडों में बांटा गया, जिन्हें ‘इकता’ कहा गया। इकतादारों को इन भू-खंडों से लगान वसूलने और सैनिक सेवा प्रदान करने का अधिकार दिया गया। इस व्यवस्था ने सामंतवाद को समाप्त करने में मदद की और केंद्रीय प्रशासन को सशक्त किया।

  2. मुद्रासंस्था में सुधार: इल्तुतमिश ने एक नई मुद्रा प्रणाली को लागू किया, जिसमें ताम्बे, पीतल और चाँदी के सिक्कों का प्रचलन हुआ। ये सिक्के दिल्ली सल्तनत की शक्ति और सुदृढ़ता का प्रतीक बन गए।

  3. सैन्य संगठन: इल्तुतमिश ने एक केंद्रीय सेना का गठन किया, जिससे वह इकतादारों पर निर्भर रहने से मुक्त हो गया। इस सैन्य संगठन का आधार शाहा-आगर था, जो युद्ध के समय शाही सेना के रूप में कार्य करता था।

सांस्कृतिक और शैक्षिक योगदान

इल्तुतमिश का योगदान केवल सैन्य और प्रशासनिक क्षेत्र तक सीमित नहीं था, बल्कि उसने कला और संस्कृति को भी प्रोत्साहित किया। उसके शासन में दिल्ली एक प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र बन गया, जहां मध्य एशिया से आए शिल्पकारों, कलाकारों और विद्वानों को संरक्षण मिला। उसके दरबार में प्रसिद्ध इतिहासकार मिनहाज-ए-सिराज और विद्वान जुनैदी जैसे व्यक्ति थे। इल्तुतमिश ने कई भव्य इमारतों का निर्माण कराया, जिनमें कुतुब मीनार, महमूद का मकबरा और इल्तुतमिश का मकबरा शामिल हैं।

निष्कर्ष

इल्तुतमिश ने दिल्ली सल्तनत को एक शक्तिशाली और स्वतंत्र राज्य के रूप में स्थापित किया। उसने आंतरिक और बाहरी चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना किया और दिल्ली सल्तनत की सत्ता को सुदृढ़ किया। उसने न केवल सैन्य दृष्टि से राज्य का विस्तार किया, बल्कि प्रशासनिक सुधारों और सांस्कृतिक प्रोत्साहन के जरिए उसे स्थिर और समृद्ध भी बनाया। अत: यह कहा जा सकता है कि दिल्ली सल्तनत की स्थिरता और सशक्तीकरण में इल्तुतमिश का योगदान अतुलनीय है।

Author

SANTU KUMAR

I am a passionate Teacher of Class 8th to 12th and cover all the Subjects of JAC and Bihar Board. I love creating content that helps all the Students. Follow me for more insights and knowledge.

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