41. सेवा सेक्टर (तृतीयक व्यवसाय) क्या है ?
उत्तर – तृतीयक व्यवसाय (Tertiary Activities)
तृतीयक व्यवसाय ऐसे क्रियाकलाप होते हैं जो किसी भी प्रकार की मूर्त वस्तु (physical goods) का उत्पादन नहीं करते, बल्कि सेवा (services) प्रदान करने का कार्य करते हैं। इन व्यवसायों में व्यक्तियों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहायता और सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं। मिस्त्री, प्लंबर, रसोइया, वकील, शिक्षक आदि इसके सामान्य उदाहरण हैं।
तृतीयक व्यवसायों में व्यापार, परिवहन, संचार और विभिन्न प्रकार की सेवाएँ सम्मिलित होती हैं। वास्तव में, यह व्यवसाय सेवा-आधारित होते हैं जो समाज और अर्थव्यवस्था के सुचारु संचालन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं।
तृतीयक व्यवसायों के प्रमुख वर्ग:
वाणिज्यिक सेवाएँ (Commercial Services):
इनमें विज्ञापन, कानूनी परामर्श, जन-संपर्क, तथा प्रबंधन और सलाहकार सेवाएँ शामिल हैं।वित्तीय एवं अचल संपत्ति सेवाएँ (Finance and Real Estate):
बैंकिंग, बीमा, निवेश, तथा भूमि और भवन की खरीद-फरोख्त से जुड़ी सेवाएँ इस वर्ग में आती हैं।व्यापारिक सेवाएँ (Trade and Consumer Services):
थोक और फुटकर व्यापार, सौंदर्य सेवाएँ, मरम्मत कार्य, रख-रखाव, तथा उपभोक्ताओं को उत्पादों की उपलब्धता सुनिश्चित करने वाली अन्य सेवाएँ।परिवहन और संचार (Transport and Communication):
रेलवे, सड़क परिवहन, जल परिवहन, हवाई सेवाएँ, डाक-तार, टेलीफोन, इंटरनेट आदि संचार साधन इसमें सम्मिलित हैं।मनोरंजन सेवाएँ (Entertainment Services):
रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, साहित्य, कला और सांस्कृतिक गतिविधियाँ इस श्रेणी में आती हैं।प्रशासनिक और जनसेवाएँ (Administrative and Public Services):
विभिन्न सरकारी सेवाएँ जैसे- अधिकारी, पुलिस, सेना, न्यायपालिका एवं अन्य जनकल्याणकारी संस्थान।लाभ-रहित सामाजिक सेवाएँ (Non-profit Social Services):
शिशु कल्याण, पर्यावरण संरक्षण, ग्रामीण विकास, स्वास्थ्य सेवाएँ आदि से जुड़ी स्वयंसेवी संस्थाएँ इस श्रेणी में आती हैं।
निष्कर्षतः, तृतीयक व्यवसाय आधुनिक समाज और अर्थव्यवस्था के लिए रीढ़ के समान हैं। ये न केवल आर्थिक गतिविधियों को सुचारु बनाते हैं बल्कि लोगों के जीवन स्तर को भी बेहतर बनाते हैं।
42. चतुर्थक क्रिया-कलापों का विवरण दें।
उत्तर – चतुर्थक क्रियाकलाप (Quaternary Activities)
चतुर्थक क्रियाकलाप वे विशेष प्रकार की सेवाएँ हैं जो ज्ञान, सूचना, अनुसंधान और विकास (R&D) से जुड़ी होती हैं। यह सेवा क्षेत्र का उन्नत रूप है, जो बौद्धिक श्रम पर आधारित होता है। इन क्रियाकलापों का मुख्य उद्देश्य समाज, अर्थव्यवस्था और विज्ञान के लिए नए विचारों और समाधानों का सृजन करना होता है।
विशेषताएँ:
यह उच्च बौद्धिक स्तर के व्यवसायों का समूह है।
इन कार्यों में चिंतन, विश्लेषण, नवाचार और शोध शामिल होता है।
इनसे जुड़े लोग प्रायः उच्च वेतनमान और पदोन्नति की दृष्टि से बहुत गतिशील होते हैं।
यह सेवाएँ सूचना-संचालन, ज्ञान-उत्पादन और उसके प्रसार पर केंद्रित होती हैं।
प्रमुख चतुर्थक क्रियाकलाप:
शिक्षा (Education):
विद्यालय, विश्वविद्यालय एवं शोध संस्थानों में अध्यापन और अनुसंधान।सूचना तकनीक और संचार (Information Technology & Communication):
डेटा का संग्रहण, विश्लेषण, प्रसारण और उपयोग।अनुसंधान एवं विकास (Research and Development – R&D):
विज्ञान, चिकित्सा, तकनीक, पर्यावरण आदि क्षेत्रों में नवीन विचारों और तकनीकों का विकास।नीति-निर्माण और परामर्श (Policy Making and Consultancy):
निर्णय-निर्माण, विश्लेषणात्मक सलाह और प्रशासनिक रणनीतियों का विकास।प्रकाशन एवं मीडिया (Publishing and Media):
ज्ञान का संप्रेषण जैसे समाचार, लेख, शोध-पत्र और डिजिटल सामग्री का निर्माण।
अन्य पहलू:
बाह्य स्रोत (Outsourcing):
चतुर्थक क्रियाकलापों को बाह्य स्रोतों (external agencies) के माध्यम से भी अंजाम दिया जा सकता है, जैसे आईटी सेवाएँ, शोध एजेंसियाँ, या स्वतंत्र परामर्शदाता।
निष्कर्ष:
चतुर्थक क्रियाकलाप सेवा क्षेत्र का उच्चतम और उन्नत रूप हैं, जो आधुनिक समाज की जानकारी-आधारित अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। यह क्रियाकलाप केवल सेवा प्रदान नहीं करते, बल्कि नवाचार, नीति, और विकास के लिए आवश्यक बौद्धिक आधार तैयार करते हैं।
43. किसी देश के आर्थिक विकास में सेवा सेक्टर किस प्रकार सहायक है ?
उत्तर – आधुनिक आर्थिक विकास में सेवा क्षेत्र की भूमिका
वर्तमान समय में सेवा क्षेत्र (Service Sector) आधुनिक आर्थिक विकास का एक अनिवार्य और प्रभावशाली अंग बन चुका है। यह न केवल विकसित देशों की अर्थव्यवस्था का प्रमुख स्तंभ है, बल्कि विकासशील देशों में भी तीव्र गति से विस्तार कर रहा है। सेवाओं के बढ़ते महत्त्व ने इसे उत्पादक अर्थव्यवस्था में एक विशिष्ट स्थान दिलाया है।
सेवा क्षेत्र का वैश्विक परिदृश्य:
संयुक्त राज्य अमेरिका में लगभग 75% और यूनाइटेड किंगडम (यू.के.) में 80% श्रमिक सेवा क्षेत्र में कार्यरत हैं।
वर्ष 1950 में यह आँकड़ा यू.के. में 51% और अमेरिका में लगभग 40% था।
इसके विपरीत, अल्पविकसित देशों में आज भी 10% से भी कम लोग सेवा क्षेत्र में कार्यरत हैं।
यह अंतर स्पष्ट करता है कि सेवा क्षेत्र का विकास, किसी देश की समग्र आर्थिक प्रगति का संकेतक बन गया है।
विकासशील देशों में सेवा क्षेत्र की स्थिति:
विकासशील देशों में भी सेवा क्षेत्र का विस्तार हो रहा है और यह द्वितीयक क्षेत्र (उद्योग) की तुलना में कहीं अधिक तेज़ी से बढ़ रहा है। हालांकि, इन देशों में असंगठित क्षेत्र (Unorganized Sector) में कार्यरत कर्मियों की अधिकता के कारण सेवा क्षेत्र से संबंधित आँकड़ों को सटीक रूप से एकत्र करना और विश्लेषण करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य बना हुआ है।
सेवा क्षेत्र में वृद्धि के प्रमुख कारण:
तकनीकी प्रगति: सूचना और संचार तकनीक के विकास से सेवा आधारित उद्योगों का विस्तार हुआ है।
शहरीकरण और जीवनशैली में परिवर्तन: आधुनिक जीवनशैली में स्वास्थ्य, शिक्षा, मनोरंजन, बैंकिंग जैसी सेवाओं की मांग निरंतर बढ़ रही है।
वैश्वीकरण: वैश्विक कंपनियों द्वारा सेवा आधारित कार्यों का आउटसोर्सिंग विकासशील देशों को एक अवसर प्रदान करता है।
शिक्षा और कौशल विकास: शिक्षित और प्रशिक्षित जनसंख्या सेवा क्षेत्र के लिए उपयुक्त कार्यबल उपलब्ध कराती है।
सरकारी एवं निजी निवेश: सेवाओं में बढ़ता निवेश रोजगार के नए अवसर सृजित करता है।
निष्कर्ष:
सेवा क्षेत्र आज के वैश्विक और आधुनिक आर्थिक ढांचे का एक केंद्रीय स्तंभ बन चुका है। न केवल यह रोजगार के व्यापक अवसर उपलब्ध कराता है, बल्कि ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था के निर्माण में भी सहायक है। सेवा क्षेत्र की निरंतर प्रगति भविष्य के आर्थिक परिदृश्य को गहराई से प्रभावित करने वाली है।
44. उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण से आप क्या समझते हैं? इन्होंने भारत के औद्योगिक विकास में किस प्रकार से सहायता की है?
उत्तर – 1991 की नई आर्थिक नीति और इसके तीन मुख्य स्तंभ
वर्ष 1991 में भारत को एक गंभीर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। देश का विदेशी मुद्रा भंडार लगभग समाप्त हो चुका था, नए विदेशी ऋण मिलना बंद हो गए थे और पहले से किए गए विदेशी निवेश भी वापस लिए जाने लगे थे। इस संकट से उबरने के लिए भारत सरकार ने जुलाई 1991 में नई आर्थिक नीति (New Economic Policy) लागू की। इस नीति का उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था को अधिक प्रतिस्पर्धी, कुशल और वैश्विक बाजार के अनुकूल बनाना था।
इस नीति के तीन प्रमुख स्तंभ हैं: उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण।
(i) उदारीकरण (Liberalisation)
अर्थ: उदारीकरण वह प्रक्रिया है जिसके तहत सरकार द्वारा उद्योग, व्यापार और वित्तीय गतिविधियों पर लगाए गए अनावश्यक प्रतिबंधों को हटाया जाता है।
मुख्य विशेषताएँ:
केवल 6 उद्योगों को छोड़कर शेष सभी उद्योगों को लाइसेंस प्रणाली से मुक्त किया गया।
घाटे में चल रहे सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को निजी हाथों में सौंपा गया या उनके शेयर जनता व कर्मचारियों को दिए गए।
विदेशी पूंजी निवेश (FDI) पर से प्रतिबंध हटाए गए।
विदेशी तकनीक के आयात को सरल बनाया गया।
औद्योगिक इकाइयों की स्थापना के स्थान चयन में अधिक स्वतंत्रता दी गई।
परिणाम: इससे देश में औद्योगिक विकास को गति मिली और निजी उद्यमिता को प्रोत्साहन मिला।
(ii) निजीकरण (Privatisation)
अर्थ: निजीकरण का तात्पर्य है कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों का स्वामित्व, प्रबंधन और नियंत्रण निजी क्षेत्र को सौंपा जाए।
मुख्य बिंदु:
सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को सीमित किया गया।
निजी क्षेत्र को उद्योग, व्यापार और सेवाओं में अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया।
घाटे में चलने वाले सार्वजनिक उद्योगों को बेचा गया या उनके शेयर बेचे गए।
लक्ष्य: सरकारी बोझ को कम करना, दक्षता बढ़ाना और प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहन देना।
(iii) वैश्वीकरण (Globalisation)
अर्थ: वैश्वीकरण का आशय है देश की अर्थव्यवस्था को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत करना, जिससे व्यापार, पूंजी और श्रमिकों की अंतर्राष्ट्रीय गतिशीलता को प्रोत्साहन मिले।
मुख्य उपाय:
विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) के लिए भारत के दरवाजे खोले गए।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों (MNCs) को भारत में निवेश की अनुमति दी गई।
भारतीय कंपनियों को विदेशी सहयोग से उद्योग स्थापित करने की छूट मिली।
आयात-निर्यात से जुड़े कई प्रतिबंधों को हटाया गया।
परिणाम: इससे औद्योगिक क्षेत्र में आधुनिक तकनीक, पूंजी और वैश्विक प्रतिस्पर्धा का प्रवेश हुआ।
विकास का असमान वितरण: एक चुनौती
हालाँकि इस नई आर्थिक नीति से उद्योगों और सेवाओं में उल्लेखनीय वृद्धि हुई, लेकिन इसका लाभ असमान रूप से वितरित हुआ। विकसित राज्यों को अधिक निवेश प्राप्त हुआ, जबकि पिछड़े और आर्थिक रूप से कमजोर राज्यों को अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाया।
उदाहरण (1991–2000):
महाराष्ट्र: 23% औद्योगिक निवेश
गुजरात: 17%
आंध्रप्रदेश: 7%
तमिलनाडु: 6%
उत्तरप्रदेश (अधिकतम जनसंख्या वाला राज्य): केवल 8%
सात उत्तर-पूर्वी राज्य: मात्र 1%
निष्कर्षतः, आर्थिक रूप से कमजोर राज्य प्रतिस्पर्धात्मक खुले बाजार में उद्योगों को आकर्षित नहीं कर पा रहे हैं, जिससे क्षेत्रीय असंतुलन और सामाजिक-आर्थिक विषमता बढ़ रही है।
45. प्रवास के सामाजिक जनांकिकीय परिणाम क्या-क्या हैं ?
उत्तर – प्रवास और सामाजिक परिवर्तन
प्रवास (Migration) केवल भौगोलिक गतिविधि नहीं, बल्कि यह एक गहरा सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिवर्तनकारी तत्व है। यह व्यक्ति और समाज दोनों को प्रभावित करता है, और सामाजिक संरचना व सोच में व्यापक परिवर्तन लाता है।
सकारात्मक प्रभाव:
सांस्कृतिक अंतर्मिश्रण:
प्रवास के माध्यम से विभिन्न भाषाओं, रीति-रिवाजों और विचारधाराओं का मेल होता है, जिससे मिश्रित संस्कृति का निर्माण होता है। यह विशेष रूप से नगरीय क्षेत्रों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।मानसिक विकास:
जब व्यक्ति विभिन्न पृष्ठभूमियों से आए लोगों के साथ संपर्क में आता है, तो उसकी सोच का दायरा विस्तृत होता है और संकीर्णता, जातिगत भेदभाव, रूढ़िवाद जैसी समस्याओं में कमी आती है।नवाचार और ज्ञान का प्रसार:
प्रवासी अपने साथ नवीन तकनीकों, परिवार नियोजन, बालिका शिक्षा जैसे विचार ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुँचाते हैं, जिससे सामाजिक चेतना का विकास होता है।
नकारात्मक प्रभाव:
सामाजिक विघटन और अकेलापन:
ग्रामीण से नगरीय प्रवास के कारण व्यक्ति अपने परिवार से अलग हो जाता है। स्वतंत्र जीवनशैली अपनाने की प्रक्रिया में वह गुमनामी, खिन्नता, नशा, अपराध जैसी असामाजिक प्रवृत्तियों का शिकार हो सकता है।स्त्रियों पर प्रभाव:
पुरुषों के प्रवास के कारण महिलाएँ गाँवों में अकेली रह जाती हैं। इससे उन पर अधिक शारीरिक और मानसिक बोझ पड़ता है और पारिवारिक संरचना प्रभावित होती है।ग्रामीण सेवाओं की हानि:
उच्च शिक्षित एवं प्रशिक्षित लोगों के प्रवास से गाँवों में योग्य जनशक्ति की कमी हो जाती है, जिससे ग्रामीण विकास बाधित होता है।
जनसंख्या संरचना पर प्रभाव:
जनसंख्या का पुनर्वितरण:
प्रवास से जनसंख्या का वितरण बदल जाता है। ग्रामीण से नगरीय प्रवास के कारण नगरों की जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ती है।लिंग और आयु संरचना में असंतुलन:
नगरों में कार्यशील आयु के पुरुषों की संख्या बढ़ जाती है, जिससे लिंग अनुपात घट जाता है।
गाँवों में महिलाओं और वृद्धों की संख्या अधिक हो जाती है, जिससे वहाँ आश्रित जनसंख्या बढ़ती है।
निष्कर्ष:
प्रवास सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त माध्यम है। यह समाज को अधिक मिश्रित, गतिशील और जागरूक बनाता है, लेकिन इसके साथ कुछ सामाजिक चुनौतियाँ भी आती हैं। अतः आवश्यक है कि प्रवास को संतुलित ढंग से प्रबंधित किया जाए, ताकि इसके लाभों का अधिकतम उपयोग हो और दुष्प्रभावों को न्यूनतम किया जा सके।
46. भारत के 15 प्रमुख राज्यों में मानव विकास के स्तरों में किन कारणों ने भिन्नता उत्पन्न की है ?
उत्तर – भारत में मानव विकास सूचकांक: एक प्रादेशिक विश्लेषण
मानव विकास सूचकांक (HDI) किसी देश या क्षेत्र की जीवन स्तर, शिक्षा और आय के आधार पर सामाजिक-आर्थिक प्रगति को मापने का एक महत्त्वपूर्ण पैमाना है। विश्व के 172 देशों की सूची में भारत का स्थान 127वाँ है और इसे मध्यम मानव विकास वाले देशों की श्रेणी में रखा गया है।
भारत के भीतर भी राज्य-स्तरीय मानव विकास में भारी भिन्नता देखी जाती है। यह अंतर साक्षरता, आर्थिक विकास, सामाजिक विषमता, तथा ऐतिहासिक कारणों से उत्पन्न होता है।
प्रमुख राज्यों का HDI स्थान और मान
राज्य | मानव विकास सूचकांक (HDI) | विशेषताएँ |
---|---|---|
केरल | 0.638 | सर्वोच्च HDI, उच्चतम साक्षरता (90.92%) |
पंजाब | > 0.5 | उच्च साक्षरता (69.68%) और आर्थिक समृद्धि |
तमिलनाडु | > 0.5 | साक्षरता 73.47%, औद्योगिक विकास |
महाराष्ट्र | > 0.5 | साक्षरता 77.27%, आर्थिक रूप से अग्रणी |
हरियाणा | > 0.5 | साक्षरता 68.59%, उच्च आय स्तर |
बिहार | 0.367 (निम्नतम) | सबसे कम साक्षरता (47.53%) और पिछड़ा आर्थिक ढांचा |
उत्तर प्रदेश | 0.386–0.404 | साक्षरता 57.36%, सामाजिक विषमता |
मध्यप्रदेश | 0.386–0.404 | साक्षरता 64.11%, निम्न विकास |
उड़ीसा (ओडिशा) | 0.386–0.404 | साक्षरता 63.61%, पिछड़े इलाके |
असम | 0.386–0.404 | साक्षरता 64.28%, पूर्वोत्तर में विकास की कमी |
प्रादेशिक भिन्नता के मुख्य कारण
साक्षरता का स्तर:
मानव विकास का सीधा संबंध शिक्षा और साक्षरता से है।
केरल जैसे राज्य, जहाँ साक्षरता बहुत ऊँची है (90.92%), वहाँ HDI भी उच्च है।
वहीं बिहार जैसे राज्य, जहाँ साक्षरता बहुत कम है (47.53%), वहाँ HDI सबसे नीचे है।
निम्न HDI वाले राज्यों में स्त्री और पुरुष साक्षरता के बीच अंतर भी बहुत अधिक है।
आर्थिक विकास का स्तर:
आर्थिक रूप से समृद्ध राज्य जैसे महाराष्ट्र, तमिलनाडु, पंजाब और हरियाणा में HDI उच्च है।
इसके विपरीत बिहार, मध्यप्रदेश, असम जैसे राज्यों में औद्योगीकरण और बुनियादी ढाँचे की कमी है।
ऐतिहासिक कारक (उपनिवेशकालीन प्रभाव):
उपनिवेश काल में कुछ क्षेत्रों का विकास योजनाबद्ध ढंग से हुआ जबकि अन्य क्षेत्रों की उपेक्षा की गई।
इस कारण आज भी प्रादेशिक विषमता बनी हुई है।
सामाजिक विषमता:
जाति, लिंग और वर्ग के आधार पर सामाजिक असमानता मानव विकास में बाधा बनती है।
विशेष रूप से स्त्रियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक भागीदारी में पिछड़ापन, HDI को प्रभावित करता है।
निष्कर्ष:
भारत में मानव विकास सूचकांक में राज्यवार असमानता स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। यह अंतर केवल आर्थिक निवेश या संसाधनों की कमी से नहीं, बल्कि शिक्षा, सामाजिक संरचना और ऐतिहासिक नीति प्रभावों का भी परिणाम है।
यदि भारत को समग्र मानव विकास में सुधार लाना है, तो साक्षरता, स्वास्थ्य सेवाएँ, सामाजिक समानता और आर्थिक अवसरों को संतुलित रूप से सभी राज्यों में बढ़ावा देना आवश्यक है।
47. ऊर्जा के अपारंपरिक या गैर-परंपरागत स्त्रोत कौन-से हैं? भारत में इसकी संभावनाओं की चर्चा करें।
उत्तर – 🌱 भारत में ऊर्जा के अपारंपरिक स्रोत: संभावनाएँ और उपयोगिता
अपारंपरिक ऊर्जा स्रोत (Non-Conventional Energy Sources) वे ऊर्जा स्रोत हैं जो नवीकरणीय, पर्यावरण-अनुकूल और अक्षय होते हैं। ये पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों (जैसे कोयला, पेट्रोलियम) का पर्यावरण के लिए सुरक्षित विकल्प हैं। भारत जैसे विशाल और विविध भौगोलिक स्थितियों वाले देश में इन ऊर्जा स्रोतों की विपुल संभावनाएँ मौजूद हैं।
🔋 प्रमुख अपारंपरिक ऊर्जा स्रोत एवं उनकी विशेषताएँ
ऊर्जा स्रोत | प्राप्ति का माध्यम | विशेषताएँ |
---|---|---|
सौर ऊर्जा | सूर्य के प्रकाश से | सतत, व्यापक, गर्म जल, रोशनी, खाना पकाना |
पवन ऊर्जा | हवा की गति से | साफ-सुथरी, विशाल टर्बाइनों से उत्पादन |
ज्वारीय ऊर्जा | समुद्री ज्वार-भाटे | समुद्र तटीय क्षेत्रों में उपयोगी |
तरंग ऊर्जा | समुद्री लहरों की शक्ति से | ऊर्जा उत्पादन की नई तकनीक |
भूतापीय ऊर्जा | पृथ्वी के गर्भ से निकलने वाली गर्मी | गर्म जलस्रोतों से विद्युत उत्पादन |
जैव ऊर्जा | कृषि अपशिष्ट, गोबर, मानव मल आदि | ग्रामीण क्षेत्रों में बायोगैस का स्रोत |
🇮🇳 भारत में अपारंपरिक ऊर्जा स्रोतों की संभावनाएँ
1. ☀️ सौर ऊर्जा (Solar Energy)
भौगोलिक लाभ: भारत ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्र में स्थित है, जहाँ भरपूर धूप मिलती है।
उत्पादन क्षमता: प्रति वर्ग किमी क्षेत्र में 20 मेगावाट/वर्ष तक सौर ऊर्जा।
प्रयोग: सोलर कुकर, सोलर वाटर हीटर, सोलर लाइट्स, सोलर पम्प।
प्रमुख केंद्र:
भुज (गुजरात): भारत का सबसे बड़ा सौर संयंत्र।
थार मरुस्थल (राजस्थान): उच्चतम संभावना वाला क्षेत्र।
2. 🌬️ पवन ऊर्जा (Wind Energy)
उत्पादन क्षमता: लगभग 23,000 मेगावाट।
प्रमुख राज्य:
गुजरात (कच्छ), तमिलनाडु, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, केरल, मध्यप्रदेश, लक्षद्वीप।
प्रमुख केंद्र:
लाम्बा (कच्छ, गुजरात): एशिया का प्रमुख पवन ऊर्जा स्थल।
3. 🌊 ज्वारीय ऊर्जा (Tidal Energy)
प्रयोग क्षेत्र: समुद्र तटीय इलाके, विशेष रूप से ऊँचे ज्वार वाली खाड़ियाँ।
प्रमुख क्षेत्र:
कच्छ और खंभात की खाड़ियाँ (गुजरात)।
4. 🌡️ भूतापीय ऊर्जा (Geothermal Energy)
स्रोत: पृथ्वी के गर्भ से निकलने वाली गर्मी।
प्रयोग: बिजली उत्पादन, फ्रीजर व हीटर संचालन।
प्रमुख क्षेत्र:
मणिकर्ण (हिमाचल प्रदेश) — यहाँ गर्म जलस्रोत से ऊर्जा उत्पादन की पहल।
5. ♻️ जैव ऊर्जा (Bio-Energy)
स्रोत:
गन्ने की खोई, धान की भूसी, कृषि अपशिष्ट, गोबर, मानव और पशु मल।
प्रयोग:
बायोगैस प्लांट, ईंधन के रूप में उपयोग।
उपयोगिता:
ग्रामीण भारत में सस्ती, टिकाऊ और स्वदेशी ऊर्जा।
✅ अपारंपरिक ऊर्जा स्रोतों के लाभ
अक्षय और कभी समाप्त न होने वाले स्रोत।
पर्यावरणीय प्रदूषण नहीं करते।
दीर्घकालिक रूप से सस्ती और सुरक्षित।
स्थानीय रोजगार के अवसर प्रदान करते हैं।
ऊर्जा आत्मनिर्भरता में सहायक।
🔚 निष्कर्ष
भारत में अपारंपरिक ऊर्जा स्रोतों की संभावनाएँ अपार हैं। यदि इनका सुनियोजित और वैज्ञानिक ढंग से दोहन किया जाए, तो यह देश को ऊर्जा संकट से उबारने, पर्यावरण की रक्षा करने और स्थायी विकास प्राप्त करने में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होंगे।
48. भारत में भू-संसाधनों की विभिन्न प्रकार की पर्यावरणीय समस्याएँ कौन-सी हैं ? उनका निदान कैसे किया जाए?
उत्तर – 🇮🇳 भारत में भू-संसाधन की समस्याएँ और उनके समाधान
परिचय
भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहाँ भू-संसाधनों की भूमिका आर्थिक, सामाजिक और खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। परंतु अत्यधिक दोहन, जनसंख्या दबाव और पर्यावरणीय असंतुलन के कारण भारत के भू-संसाधन गंभीर समस्याओं का सामना कर रहे हैं। इन समस्याओं को हल किए बिना कृषि विकास और सतत विकास की कल्पना अधूरी है।
🛑 मुख्य समस्याएँ एवं उनके समाधान
1. कृषियोग्य भूमि का निम्नीकरण (Degradation of Arable Land)
समस्या: भूमि का अत्यधिक उपयोग, रासायनिक उर्वरकों का अंधाधुंध प्रयोग, और फसल चक्र का अभाव।
परिणाम: भूमि की उर्वरता घटती है, और उत्पादन में गिरावट आती है।
समाधान:
फसल चक्र (Crop Rotation) अपनाना
भूमि को कुछ समय के लिए परती छोड़ना
हरित खाद और जैविक खेती को बढ़ावा देना
2. प्राकृतिक आपदाएँ (Natural Calamities)
समस्या: भारतीय कृषि क्षेत्र का केवल 1/3 भाग सिंचित है।
परिणाम:
एक ओर सूखा, दूसरी ओर बाढ़ – दोनों कृषि को प्रभावित करते हैं।
समाधान:
संतुलित जल प्रबंधन, नहरों, चेक डैम और नलकूपों का निर्माण
वर्षा जल संचयन (Rainwater Harvesting)
बाढ़ नियंत्रण बाँधों और जल निकासी तंत्र का विकास
3. मिट्टी अपरदन (Soil Erosion)
समस्या:
मैदानी भागों में सतही अपरदन, पर्वतीय क्षेत्रों में अवनालिका अपरदन
उपजाऊ मिट्टी बह जाती है, और भूमि बंजर हो जाती है।
समाधान:
खेतों के किनारे मेढ़बंदी
वृक्षारोपण और घासारोपण
पहाड़ी क्षेत्रों में सीढ़ीनुमा खेती (Terrace Farming)
4. जल-जमाव (Water Logging)
समस्या: खेतों में जल निकासी के अभाव में खड़ा पानी, जिससे लवणता और मृदा क्षारता बढ़ती है।
परिणाम: भूमि बंजर हो जाती है।
समाधान:
जल निकासी का प्रबंध (Drainage System)
उचित सिंचाई पद्धति जैसे बूंद-बूंद सिंचाई (Drip Irrigation)
5. कीटनाशकों का अत्यधिक प्रयोग (Excessive Use of Pesticides)
समस्या: रासायनिक कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग से मृदा विषाक्त हो रही है और उसमें प्राकृतिक उर्वरकता घट रही है।
समाधान:
जैविक खाद और कम्पोस्ट खाद का प्रयोग
समेकित कीट प्रबंधन (Integrated Pest Management)
🧱 अन्य भू-संबंधी समस्याएँ
समस्या | संक्षिप्त विवरण |
---|---|
बंजर भूमि की अधिकता | उपयोग के बाहर की भूमि जो उत्पादन में नहीं आती। |
भूमि स्वामित्व में असमानता | सीमित किसान के पास ही अधिक भूमि – सामाजिक असंतुलन। |
विखंडित जोत और छोटे खेत | मशीन उपयोग में कठिनाई और उत्पादन लागत अधिक। |
वित्तीय सहायता की कमी | किसानों की ऋण पर निर्भरता बढ़ती है। |
वाणिज्यिक कृषि का अभाव | कृषि में बाजार से जुड़ाव की कमी – आय सीमित रहती है। |
बुनियादी ढाँचे की कमी | सड़क, बिजली, भंडारण, सिंचाई जैसे संसाधनों की कमी। |
✅ निष्कर्ष
भारत में भू-संसाधन से जुड़ी समस्याएँ बहुआयामी और जटिल हैं। इनका समाधान केवल तकनीकी उपायों से ही नहीं, बल्कि नीतिगत निर्णय, सामाजिक जागरूकता, और स्थानीय सहभागिता से ही संभव है।
यदि इन समस्याओं का समुचित समाधान किया जाए, तो भारत की कृषि आत्मनिर्भर और टिकाऊ बन सकती है।
49. भारत में जलविद्युत-शक्ति के विकास की आवश्यक दशाओं का वर्णन करें।
उत्तर – ⚡ भारत में जलविद्युत उत्पादन हेतु अनुकूल भौगोलिक दशाएँ
परिचय
जलविद्युत (Hydroelectricity) वह ऊर्जा है जो बहते हुए जल के गतिज ऊर्जा से उत्पन्न की जाती है। भारत जैसे विशाल और विविध भौगोलिक संरचना वाले देश में जलविद्युत उत्पादन की विशाल संभावनाएँ हैं। इसके लिए कुछ विशिष्ट भौगोलिक और आर्थिक दशाओं की आवश्यकता होती है, जो भारत में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं।
✅ जलविद्युत उत्पादन के लिए आवश्यक भौगोलिक दशाएँ
(i) पर्याप्त जल की उपलब्धता
भारत के हिमालयी क्षेत्र, पूर्वोत्तर राज्य तथा पश्चिमी घाट में भरपूर वर्षा होती है।
सदा प्रवाही नदियाँ (जैसे गंगा, ब्रह्मपुत्र) जल की निरंतरता बनाए रखती हैं।
बड़ी नदियों को सहायक नदियों से भी जल प्राप्त होता है, जिससे जल आपूर्ति स्थिर बनी रहती है।
(ii) निरंतर जल प्रवाह
हिमालय की नदियाँ गर्मियों में बर्फ पिघलने से निरंतर जल प्रदान करती हैं।
दक्षिण भारत में नदियाँ मौसमी होती हैं, परंतु बाँधों और जलाशयों के माध्यम से जल को संचित करके प्रवाह को निरंतर बनाया जा सकता है।
(iii) जल का तीव्र वेग से गिरना
भारत के पर्वतीय एवं पठारी क्षेत्रों में अनेक जलप्रपात और तीव्र ढाल हैं, जो जल को गति प्रदान करते हैं।
कृत्रिम बाँधों के माध्यम से भी जल को ऊँचाई से गिराकर विद्युत उत्पन्न किया जा सकता है।
उदाहरण: भाखड़ा-नंगल बाँध, तेहरी बाँध, शरावती परियोजना (कर्नाटक) आदि।
(iv) बाजार और माँग का विस्तृत क्षेत्र
भारत में जलविद्युत की माँग घरेलू उपयोग, कृषि, उद्योग, और रेल परिवहन में निरंतर बढ़ रही है।
यह माँग जलविद्युत को एक व्यावसायिक रूप से व्यावहारिक विकल्प बनाती है।
(v) अन्य शक्ति संसाधनों की सीमाएँ
भारत में कोयला और पेट्रोलियम जैसे पारंपरिक संसाधन सीमित और असमान रूप से वितरित हैं।
जलविद्युत उन क्षेत्रों में अत्यंत लाभकारी है, जहाँ अन्य ऊर्जा संसाधनों की पहुँच नहीं है, जैसे — उत्तर-पश्चिम भारत और दक्षिण भारत के पठारी भाग।
(vi) तकनीकी और वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता
भारत में जलविद्युत परियोजनाओं के लिए आवश्यक तकनीकी ज्ञान और वित्तीय संसाधन अब पर्याप्त रूप से उपलब्ध हैं।
केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा जलविद्युत को बढ़ावा देने के लिए बहुउद्देशीय परियोजनाएँ चलाई जा रही हैं।
🔚 निष्कर्ष
भारत में जलविद्युत उत्पादन के लिए भौगोलिक, पर्यावरणीय और आर्थिक दृष्टिकोण से उत्कृष्ट अनुकूलताएँ हैं। यदि इन संसाधनों का सुनियोजित और टिकाऊ ढंग से दोहन किया जाए, तो यह न केवल ऊर्जा आत्मनिर्भरता, बल्कि पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम होगा।
50. भू-निम्नीकरण को कम करने के उपाय सुझाइये। (Suggest measures to reduce land degradation.) अथवा, भूमि / मृदा प्रदूषण को कम करने के उपाय बताइये।
उत्तर – 🌍 भू-निम्नीकरण : एक गंभीर पर्यावरणीय चुनौती
परिभाषा:
भू-निम्नीकरण का अर्थ है भूमि की उत्पादकता और गुणवत्ता में स्थायी या अस्थायी रूप से आई गिरावट। इसे भूमि विकृति (Land Degradation) भी कहा जाता है।
⚠️ भू-निम्नीकरण के कारण
🔹1. प्राकृतिक कारण
प्राकृतिक खड्ड और गड्ढे
रेतीली भूमि
चट्टानी/पथरीली असंवहनीय भूमि
हिमानीकृत (glaciated) क्षेत्र
अत्यधिक ढाल वाली भूमि
🔹2. मानवजनित कारण
जल-जमाव और दलदलीकरण
लवणता और क्षारता
अत्यधिक रासायनिक खाद व कीटनाशक का प्रयोग
वनों की अंधाधुंध कटाई
अव्यवस्थित सिंचाई व खेती की पद्धतियाँ
📊 भारत में भू-निम्नीकरण की स्थिति
सकल कृषि रहित भूमि: 17.98%
बंजर और कृषि अयोग्य भूमि: 2.18%
निम्नीकृत भूमि: 15.8%
प्रकृति जनित: 2.4%
प्रकृति व मानवजनित: 7.5%
मानवजनित: 5.88%
✅ भू-निम्नीकरण को रोकने के उपाय
(i) जल-संभर (Watershed) प्रबंधन
भूमि, जल और वनस्पति का एकीकृत उपयोग
सामुदायिक सहभागिता द्वारा स्थायी समाधान
झबुआ (म.प्र.) उदाहरण — 20% भूमि का सफल उपचार
(ii) चारागाह प्रबंधन और वनरोपण
परती व बेकार भूमि पर चारा उत्पादन
पर्वतीय ढालों पर वृक्षारोपण से मिट्टी अपरदन कम
वनों के पुनःस्थापन से पारिस्थितिक संतुलन
(iii) जैविक खाद और प्रशिक्षण
रासायनिक खाद का नियंत्रित उपयोग
कम्पोस्ट, गोबर गैस व जैविक अपशिष्ट से खाद निर्माण
किसानों को प्रशिक्षण देना
(iv) गंदे पानी का उपचार व पुनः उपयोग
नगरीय और औद्योगिक अपशिष्ट जल का ट्रीटमेंट प्लांट
साफ जल को सिंचाई व सफाई में प्रयोग करना
(v) ठोस और तरल कचरे का प्रबंधन
सुलभ शौचालय और स्वच्छता सुविधाओं का विस्तार
प्लास्टिक अपशिष्ट और घरेलू कचरे का पृथक्करण
ठोस कचरे का री-सायक्लिंग एवं कम्पोस्टिंग
🔚 निष्कर्ष
भू-निम्नीकरण भारत के कृषि, पर्यावरण और आर्थिक विकास के लिए एक गंभीर चुनौती है। यदि इसके कारणों को सही तरीके से पहचाना जाए और वैज्ञानिक, सामुदायिक और सतत उपायों को अपनाया जाए, तो भूमि को उपजाऊ और संरक्षित रखा जा सकता है। यह प्रयास भारत को हरित और समृद्ध राष्ट्र बनाने की दिशा में एक आवश्यक कदम होगा।

SANTU KUMAR
I am a passionate Teacher of Class 8th to 12th and cover all the Subjects of JAC and Bihar Board. I love creating content that helps all the Students. Follow me for more insights and knowledge.
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