31. गहन निर्वाह कृषि की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर – गहन निर्वाहन कृषि उन क्षेत्रों में प्रचलित है जहाँ जनसंख्या घनत्व बहुत अधिक होता है, जैसे – दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी एशिया। इन क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति कृषि भूमि की उपलब्धता बहुत कम होती है, इसलिए किसान छोटी और बिखरी हुई ज़मीन पर खेती करते हैं।
इस प्रकार की खेती में किसान आमतौर पर साधारण और आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं। वे पारंपरिक औजारों का उपयोग करते हैं और अधिकतर काम मानव श्रम तथा पशु शक्ति से किया जाता है। आधुनिक मशीनों और उन्नत तकनीकों का प्रयोग बहुत कम होता है। सिंचाई और रासायनिक खादों का प्रयोग भी सीमित होता है, और खेती मुख्य रूप से मानसूनी वर्षा पर निर्भर होती है। इसके बावजूद, इस कृषि प्रणाली में प्रति हेक्टेयर उत्पादन अधिक होता है। इसका मुख्य कारण यह है कि यहाँ खेती केवल जीविका का साधन नहीं, बल्कि एक जीवनशैली बन गई है। किसान अपने खेत को एक बगीचे की तरह संजोते हैं और दिन-रात मेहनत करके हर इंच ज़मीन का उपयोग करते हैं। वे वर्ष में दो से तीन फसलें लेते हैं, और कभी-कभी एक ही मौसम में कई तरह की फसलें उगाई जाती हैं। इस कृषि पद्धति में मुख्य रूप से खाद्यान्न फसलें उगाई जाती हैं, जबकि दूसरी फसलें केवल आवश्यकतानुसार बोई जाती हैं। चूँकि उत्पादन केवल जीविका चलाने भर का होता है, इसलिए बाजार के लिए बचा हुआ अंश बहुत ही कम होता है। यही कारण है कि इसे निर्वाहन कृषि कहा जाता है।
जलवायु के अनुसार गहन निर्वाहन कृषि को दो भागों में बाँटा जा सकता है:
चावल प्रधान गहन निर्वाहन कृषि – यह उन क्षेत्रों में होती है जहाँ पानी की भरपूर उपलब्धता होती है और चावल मुख्य फसल होती है।
चावल विहीन गहन निर्वाहन कृषि – यह उन इलाकों में पाई जाती है जहाँ पानी की कमी होती है और वहाँ गेहूँ, जौ, मक्का आदि फसलें उगाई जाती हैं।
32. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में हुए कृषि विकास की व्याख्या करें।
उत्तर – भारतीय कृषि: विकास की कहानी
भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि है। यह देश के लगभग 57% भू-भाग पर की जाती है और लगभग 53% जनसंख्या की आजीविका का प्रमुख स्रोत है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय, भारतीय कृषि की स्थिति बहुत ही खराब थी। देश अकाल, सूखा और विभाजन जैसी समस्याओं से जूझ रहा था। विभाजन के बाद भारत का एक-तिहाई सिंचित क्षेत्र पाकिस्तान में चला गया, जिससे खाद्यान्न की भारी कमी हो गई। ऐसे में, खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाना राष्ट्रीय प्राथमिकता बन गया।
प्रारंभिक सुधार और योजनाएँ
सरकार ने कृषि क्षेत्र को सुधारने के लिए कई रणनीतियाँ अपनाईं, जैसे:
व्यापारिक (कैश) फसलों की जगह खाद्यान्न उगाना।
कृषि गहनता (intensity) बढ़ाना।
बंजर और परती भूमि को खेती योग्य बनाना।
इन प्रयासों से कुछ हद तक खाद्यान्न उत्पादन बढ़ा, लेकिन धीरे-धीरे यह स्थिर हो गया।
हरित क्रांति की शुरुआत
1960 के दशक में आए अकाल और खाद्यान्न आयात की मजबूरी ने सरकार को नए कदम उठाने को प्रेरित किया। इस दिशा में शुरू हुए दो प्रमुख कार्यक्रम थे:
गहन कृषि जिला कार्यक्रम (IADP)
गहन कृषि क्षेत्र कार्यक्रम (IAAP)
सरकार ने मेक्सिको से गेहूँ और फिलिपींस से चावल के अधिक उपज देने वाले बीज मंगवाए। साथ ही:
सिंचाई क्षेत्र का विस्तार किया गया,
रासायनिक खाद, कीटनाशक और कृषि यंत्रों का प्रयोग बढ़ाया गया।
इन प्रयासों के कारण खाद्यान्न उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि हुई, जिसे हम हरित क्रांति के नाम से जानते हैं। इसके फलस्वरूप, भारत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बन गया।
क्षेत्रीय असमानता और बाद के सुधार
हरित क्रांति का लाभ मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और गुजरात जैसे सिंचित क्षेत्रों तक ही सीमित रहा, जिससे क्षेत्रीय असमानता बढ़ गई।
1980 के दशक में इस तकनीक का विस्तार भारत के मध्य और पूर्वी भागों में भी हुआ। योजना आयोग ने वर्षा आधारित क्षेत्रों पर ध्यान दिया और 1988 में कृषि, पशुपालन तथा जलकृषि को प्रोत्साहित करने के लिए स्थानीय संसाधनों के विकास पर ज़ोर दिया।
आर्थिक उदारीकरण और उसका प्रभाव
1990 के दशक में भारत ने उदारीकरण और खुले बाजार की नीति अपनाई। इससे कृषि क्षेत्र भी प्रभावित हुआ – कुछ क्षेत्रों को लाभ हुआ, तो कुछ को चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
निष्कर्ष:
भारतीय कृषि ने स्वतंत्रता के बाद से अब तक लंबा सफर तय किया है – अकाल से आत्मनिर्भरता तक। लेकिन अब भी क्षेत्रीय असमानता, वर्षा पर निर्भरता और आधुनिकीकरण की कमी जैसी चुनौतियाँ मौजूद हैं। भविष्य के लिए आवश्यक है कि कृषि में तकनीकी सुधारों को समावेशी बनाया जाए और छोटे किसानों की जरूरतों को प्राथमिकता दी जाए।
33. भारत में धान के उत्पादन एवं वितरण की विवेचना करें।
उत्तर – भारत में धान की खेती
🌾 भारत – विश्व में धान का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक
भारत, चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा धान उत्पादक देश है। भारत की लगभग एक-चौथाई कृषि भूमि पर धान की खेती की जाती है और यह देश के लगभग तीन-चौथाई लोगों का मुख्य खाद्यान्न है।
☁️ धान के लिए आवश्यक प्राकृतिक दशाएँ
धान की खेती विशेष जलवायु और मिट्टी की माँग करती है:
🌡️ तापमान:
बोने के समय: लगभग 20°C
पकने के समय: लगभग 27°C
🌧️ वर्षा:
आदर्श वर्षा 75 से 200 सेमी
कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सिंचाई आवश्यक होती है।
💧 जलभराव:
खेतों में लंबे समय तक पानी भरा रहना चाहिए, ताकि पौधों की जड़ें आर्द्र बनी रहें।
🧱 मिट्टी:
केवाल (clayey) या चिकनी मिट्टी सर्वोत्तम मानी जाती है।
🏞️ पर्वतीय क्षेत्रों में:
सीढ़ीनुमा खेतों (terrace farming) में धान की खेती की जाती है।
👩🌾 कृषि पद्धति और श्रम
धान की खेती में बहुत अधिक मानव श्रम की आवश्यकता होती है, विशेषकर:
रोपाई (धान की पौध लगाना),
कटाई, और
चावल निकालने की प्रक्रिया (धान कूटना और साफ़ करना) में।
जहाँ इन सभी अनुकूलताएँ मिलती हैं, वहाँ गहन चावल खेती (intensive rice farming) की जाती है।
📍 भारत में धान उत्पादन के प्रमुख क्षेत्र
भारत में धान की खेती लगभग हर राज्य में होती है, लेकिन पूर्वी भारत इसके उत्पादन में अग्रणी है।
मुख्य उत्पादक क्षेत्र:
गंगा का मध्य और निचला मैदान
असम घाटी
पूर्वी तटीय क्षेत्र और डेल्टा (जैसे – गोदावरी, कृष्णा डेल्टा)
धान उत्पादक प्रमुख राज्य (जो देश का लगभग 90% चावल प्रदान करते हैं):
पश्चिम बंगाल
उत्तर प्रदेश
बिहार
आंध्र प्रदेश
ओडिशा
तमिलनाडु
असम
केरल
महाराष्ट्र
कर्नाटक
छत्तीसगढ़
मध्य प्रदेश
इन क्षेत्रों में धान की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु, मिट्टी और जल-स्रोत उपलब्ध हैं।
🧾 निष्कर्ष
धान भारत का सबसे महत्वपूर्ण खाद्यान्न है। इसकी खेती भारतीय जनसंख्या की खाद्य सुरक्षा का आधार है। भविष्य में उत्पादन बढ़ाने के लिए आधुनिक तकनीकों, सिंचाई सुविधाओं और श्रमिकों के सहयोग की और अधिक आवश्यकता है।
34. भारत में गेहूँ के उत्पादन क्षेत्र (वितरण) का वर्णन कीजिए।
उत्तर – 🌾 भारत में गेहूँ की खेती
भारत दुनिया के प्रमुख गेहूँ उत्पादक देशों में से एक है। यहाँ गेहूँ की खेती मुख्यतः सतलज मैदान, ऊपरी और मध्य गंगा के मैदान, तथा मध्य भारत में की जाती है। यह एक रबी फसल है, जिसे ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती है और पकने के समय शुष्क मौसम अनुकूल होता है।
📍 भारत के प्रमुख गेहूँ उत्पादक राज्य
1️⃣ उत्तर प्रदेश
कृषि भूमि का उपयोग: 23% भूमि पर गेहूँ की खेती।
राष्ट्रीय उत्पादन में योगदान: लगभग 30%।
उत्पादक क्षेत्र:
गंगा-यमुना दोआब और गंगा-घाघरा क्षेत्र प्रमुख हैं।
पठारी क्षेत्र छोड़कर पूरे राज्य में गेहूँ की खेती होती है।
प्रमुख जिले:
मेरठ, बुलंदशहर, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, इटावा, कानपुर, आगरा, अलीगढ़।
2️⃣ पंजाब
कृषि भूमि पर खेती: 12.5% क्षेत्र।
राष्ट्रीय योगदान: लगभग 24% गेहूँ उत्पादन।
सिंचाई: नहरों की समुचित व्यवस्था।
प्रमुख जिले:
अमृतसर, लुधियाना, पटियाला, जालंधर, फिरोजपुर।
3️⃣ हरियाणा
खेती का क्षेत्र: 6.17% कृषि भूमि पर गेहूँ।
जलवायु: दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र शुष्क, लेकिन नहरों के विकास से उत्पादन में वृद्धि।
प्रमुख जिले:
रोहतक, हिसार, गुड़गाँव, करनाल, जिन्द।
4️⃣ मध्य प्रदेश
कृषि भूमि पर गेहूँ: 17.7%।
राष्ट्रीय योगदान: लगभग 12%, भारत में चौथा स्थान।
प्रमुख जिले:
होशंगाबाद, सागर, ग्वालियर, नीमाड़, उज्जैन, देवास, भोपाल, जबलपुर।
🔁 अन्य क्षेत्र जहाँ गेहूँ का महत्त्व बढ़ रहा है:
पूर्वी राजस्थान
बिहार
दक्षिण भारत में –
महाराष्ट्र और गुजरात की लावा मिट्टी वाले क्षेत्र
तमिलनाडु का मदुरै क्षेत्र
✅ निष्कर्ष:
भारत में गेहूँ की खेती एक महत्वपूर्ण खाद्यान्न उत्पादन गतिविधि है, जो खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में बड़ी भूमिका निभाती है। उत्तर भारत इसके उत्पादन का मुख्य क्षेत्र है, लेकिन धीरे-धीरे दक्षिण और पूर्वी क्षेत्रों में भी इसका महत्व बढ़ता जा रहा है। सिंचाई, बीजों की गुणवत्ता और तकनीकी सहायता इसके उत्पादन को और बढ़ा सकती है।
35. भारत में गेहूँ की खेती के लिए उपयुक्त भौगोलिक दशाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर – 🌾 भारत में गेहूँ उत्पादन की उपयुक्त भौगोलिक दशाएँ
गेहूँ एक शीतोष्ण कटिबंधीय फसल है, इसलिए इसकी खेती भारत में मुख्यतः कर्क रेखा के उत्तर-पश्चिमी भागों में की जाती है। यह फसल भारत की प्रमुख रबी फसल है, जो सर्दियों में बोई जाती है और गर्मी की शुरुआत में काटी जाती है।
🌡️ तापमान
बोने के समय: 10°C से 15°C
पकते समय: 20°C से 30°C
फसल पकने के समय तेज धूप और शुष्क वातावरण गेहूँ के लिए अत्यंत उपयुक्त होता है।
🌧️ वर्षा और सिंचाई
गेहूँ के लिए 50 से 75 सेमी वार्षिक वर्षा उपयुक्त मानी जाती है।
जहाँ वर्षा की मात्रा कम होती है, वहाँ सिंचाई की समुचित व्यवस्था अनिवार्य हो जाती है।
अधिक वर्षा गेहूँ की फसल को नुकसान पहुँचा सकती है, खासकर पकने के समय।
🧱 मिट्टी
गेहूँ की खेती लगभग सभी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है।
फिर भी, हल्की दोमट मिट्टी और काली मिट्टी गेहूँ के लिए सबसे उपयुक्त मानी जाती हैं।
ये मिट्टियाँ नमी बनाए रखने में सक्षम होती हैं और पौधों को पोषक तत्वों की अच्छी आपूर्ति करती हैं।
👨🌾 श्रम और कृषि यंत्र
गेहूँ की खेती में पहले मानव और पशु श्रम की अधिक आवश्यकता होती थी।
लेकिन अब पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार में ट्रैक्टर से जुताई और मशीनों से कटाई (दमाही) आम हो गई है।
इससे उत्पादन क्षमता और दक्षता दोनों में वृद्धि हुई है।
📅 बुआई और कटाई का समय
बुआई: नवंबर–दिसंबर
कटाई: मार्च–अप्रैल
यही समय भारत में गेहूँ उत्पादन के लिए सबसे उपयुक्त जलवायु प्रदान करता है।
🚫 जहाँ गेहूँ की खेती सीमित है
बंगाल और असम जैसे राज्य, जो धान उत्पादन में अग्रणी हैं, उच्च वर्षा और अधिक आर्द्रता के कारण गेहूँ की खेती के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
वहाँ की जलवायु और मिट्टी गेहूँ की फसल के लिए अनुकूल नहीं मानी जाती।
✅ निष्कर्ष
गेहूँ की खेती भारत में उन्हीं क्षेत्रों में सफलतापूर्वक होती है जहाँ मध्यम वर्षा, उचित तापमान, शुष्क वातावरण, और उपयुक्त मिट्टी पाई जाती है। उत्तर-पश्चिमी भारत जैसे पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में ये सारी दशाएँ मिलती हैं, इसलिए ये राज्य देश के प्रमुख गेहूँ उत्पादक बन गए हैं।
36. सूखा संभावी क्षेत्र कार्यक्रम और कृषि जलवायु नियोजन पर संक्षिप्त टिप्पणियां लिखें। ये कार्यक्रम देश में शुष्क भूमि कृषि विकास में कैसे सहायता करते हैं?
उत्तर – 🌾 भारत में शुष्क भूमि कृषि विकास हेतु दो प्रमुख योजनाएँ
भारत में सूखा संभावी और शुष्क क्षेत्रों के विकास के लिए दो प्रमुख योजनाएँ शुरू की गईं:
सूखा संभावी क्षेत्र विकास कार्यक्रम (DPAP)
कृषि जलवायु नियोजन कार्यक्रम (Agro-Climatic Planning Programme)
इन दोनों योजनाओं का मुख्य उद्देश्य था – शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में कृषि और ग्रामीण जीवन को सशक्त बनाना, साथ ही रोजगार के अवसर बढ़ाना और प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करना।
1️⃣ सूखा संभावी क्षेत्र विकास कार्यक्रम (DPAP)
प्रारंभ:
यह कार्यक्रम चौथी पंचवर्षीय योजना (1969–74) में शुरू किया गया और पाँचवीं योजना (1974–79) में इसका विस्तार किया गया।उद्देश्य:
सूखा प्रभावित क्षेत्रों में रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना।
सूखे के प्रभाव को कम करने हेतु उत्पादन के साधनों का विकास।
स्थायी आजीविका को प्रोत्साहित करना।
प्रमुख गतिविधियाँ:
श्रम-प्रधान सार्वजनिक निर्माण कार्य
सिंचाई योजनाएँ और भूमि विकास
वनरोपण, चारागाह विकास, बिजली उत्पादन, सड़क निर्माण
विपणन, ऋण सुविधाएँ और अन्य सार्वजनिक सेवाओं का विकास
भौगोलिक विस्तार:
1967 में योजना आयोग ने 67 जिलों को सूखा संभावी घोषित किया।
1972 में सिंचाई आयोग ने 30% से कम सिंचित क्षेत्र वाले इलाकों को सूखा संभावी क्षेत्र माना।
मुख्य क्षेत्र:
राजस्थान, गुजरात, पश्चिम मध्यप्रदेश,
मराठवाड़ा (महाराष्ट्र), रायलसीमा और तेलंगाना (आंध्रप्रदेश),
कर्नाटक पठार, तमिलनाडु की उच्चभूमि और आंतरिक क्षेत्र।
1981 की समीक्षा निष्कर्ष:
कार्यक्रम ने कृषि क्षेत्र को प्राथमिकता दी।
सीमांत क्षेत्रों में कृषि के अत्यधिक विस्तार से पर्यावरणीय असंतुलन उत्पन्न हुआ।
2️⃣ कृषि जलवायु नियोजन कार्यक्रम
प्रारंभ:
यह कार्यक्रम योजना आयोग द्वारा शुरू किया गया ताकि प्रादेशिक स्तर पर कृषि विकास को संतुलित और टिकाऊ बनाया जा सके।उद्देश्य:
भूमि और जल संसाधनों का टिकाऊ विकास।
फसल और गैर-फसल आधारित गतिविधियों को जलवायु के अनुसार बढ़ावा देना।
सार्वजनिक और निजी निवेश द्वारा अवसंरचना का निर्माण।
प्रसंस्करण, विपणन, और संस्थागत सहयोग को बढ़ावा देना।
भौगोलिक दृष्टिकोण:
देश को 15 कृषि जलवायु प्रदेशों में विभाजित किया गया।
इन प्रदेशों को आगे 127 उप-प्रदेशों में बाँटा गया।
जिले योजना कार्यान्वयन की आधिकारिक इकाई माने गए।
✅ निष्कर्ष:
इन दोनों योजनाओं ने मिलकर भारत के सूखा प्रभावित और शुष्क क्षेत्रों में कृषि विकास को मजबूती दी है।
जहाँ DPAP ने रोजगार और मूलभूत सुविधाओं पर ज़ोर दिया,
वहीं कृषि जलवायु नियोजन ने स्थायी कृषि और संसाधन प्रबंधन को दिशा दी।
इन प्रयासों से शुष्क भूमि कृषि को नया जीवन मिला है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को स्थायित्व प्राप्त हुआ है।
37. हरित क्रांति की व्याख्या करें।
उत्तर – 🌾 हरित क्रांति: भारतीय कृषि में परिवर्तन का युग
🔰 परिचय
भारत में 1960 के दशक में खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिए जिस रणनीति को अपनाया गया, उसे “हरित क्रांति” (Green Revolution) कहा जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य था – अकाल जैसी स्थिति से उबरना और देश को खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर बनाना।
🧪 मुख्य विशेषताएँ
इस नीति के अंतर्गत अधिक उत्पादन देने वाली किस्में (HYV) अपनाई गईं:
गेहूँ की किस्में – मेक्सिको से
चावल की किस्में – फिलीपींस से
इसे “पैकेज प्रौद्योगिकी” के रूप में लागू किया गया, जिसमें शामिल थे:
उन्नत बीज
रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक
सिंचाई सुविधा
कृषि यंत्रों का प्रयोग
📍 प्रमुख क्षेत्र
हरित क्रांति का प्रारंभिक लाभ मुख्यतः उन क्षेत्रों को मिला जहाँ सिंचाई की अच्छी सुविधा थी, जैसे—
पंजाब
हरियाणा
पश्चिम उत्तर प्रदेश
आंध्र प्रदेश
गुजरात
इन क्षेत्रों में उत्पादकता में भारी वृद्धि हुई।
⚙️ प्रभाव और उपलब्धियाँ
खाद्यान्न उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि हुई।
भारत खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन गया।
कृषि आधारित उद्योगों (जैसे—उर्वरक, ट्रैक्टर, कीटनाशक उद्योग) को बढ़ावा मिला।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बदलाव आया और रोजगार के अवसर बढ़े।
🚫 सीमाएँ और नकारात्मक प्रभाव
1970 के दशक के अंत तक हरित क्रांति केवल सिंचित क्षेत्रों तक सीमित रही।
मध्य भारत और पूर्वी भारत में इसका विस्तार बाद में हुआ।
अत्यधिक रासायनिक उर्वरकों और सिंचाई के कारण:
भूमि की उर्वरता घटने लगी।
जल स्तर गिरा।
मिट्टी और जल प्रदूषण की समस्या बढ़ी।
दीर्घकालीन उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
✅ निष्कर्ष
हरित क्रांति ने भारत को भुखमरी और खाद्यान्न संकट से उबारने में अहम भूमिका निभाई, लेकिन इसकी समीक्षित और संतुलित नीति की आवश्यकता है ताकि प्राकृतिक संसाधनों का संतुलित उपयोग हो सके और टिकाऊ कृषि विकास सुनिश्चित किया जा सके।
38. भारत में सिंचाई की आवश्यकता है। क्यों ?
उत्तर – 🚰 भारत में सिंचाई का महत्त्व
भारत एक कृषिप्रधान देश है, जहाँ अधिकांश जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। यहाँ की जलवायु मानसूनी है, जो कि अनिश्चित और असमान होती है। इसी कारण सिंचाई भारत में कृषि की सफलता के लिए अत्यंत आवश्यक बन जाती है।
🌿 ट्रेवेलेन का कथन
“भारत में सिंचाई ही सब कुछ है। पानी भूमि से अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि जब भूमि को पानी मिलता है, तो उसकी उर्वरता छह गुना तक बढ़ जाती है। यहाँ तक कि जो भूमि पहले बंजर थी, वह भी उपजाऊ बन जाती है।”
इसी महत्त्व को देखते हुए कहा जाता है कि
“भारत में पानी सोना है” (Water in India is gold)।
💧 भारत में सिंचाई की आवश्यकता के प्रमुख कारण
1️⃣ अनिश्चित और अनियमित वर्षा
मानसून की वर्षा समय पर और समान रूप से नहीं होती।
कभी अधिक वर्षा होती है, कभी बहुत कम, जिससे फसलें प्रभावित होती हैं।
2️⃣ वर्षा का असमान वितरण
कुछ क्षेत्रों में अत्यधिक वर्षा होती है (जैसे – असम, बंगाल), जबकि कुछ स्थानों पर बहुत कम (जैसे – राजस्थान, गुजरात)।
इस असमानता को केवल सिंचाई के माध्यम से संतुलित किया जा सकता है।
3️⃣ वर्षा का शीघ्र समाप्त हो जाना
भारत में वर्षा केवल जुलाई से सितम्बर तक सीमित रहती है।
बाकी महीनों में फसलों को सिंचाई की आवश्यकता होती है।
4️⃣ वर्षा का मूसलधार होना
एक ही समय में बहुत अधिक वर्षा होने से पानी बह जाता है, और फसलें जलभराव से नष्ट हो सकती हैं।
सिंचित जल को नियंत्रित रूप में उपयोग कर उत्पादन को स्थिर किया जा सकता है।
5️⃣ जाड़े में वर्षा का अभाव
रबी फसलों (जैसे गेहूँ, सरसों) के लिए जाड़े में सिंचाई अनिवार्य है, क्योंकि इस मौसम में वर्षा नहीं होती।
6️⃣ गहन खेती के लिए आवश्यक
गहन कृषि पद्धति में साल में दो या तीन बार फसलें ली जाती हैं।
इसके लिए नियमित सिंचाई व्यवस्था जरूरी है, जिससे फसल चक्र बाधित न हो।
✅ निष्कर्ष
भारत में सिंचाई केवल पानी देने की प्रक्रिया नहीं, बल्कि यह कृषि उत्पादकता बढ़ाने, कृषक जीवन सुधारने, और राष्ट्र की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने का साधन है। यदि भारत को कृषि में स्थायित्व और समृद्धि प्राप्त करनी है, तो सिंचाई को सर्वोच्च प्राथमिकता देना आवश्यक है।
39. इंटरनेट (साइबर स्पेस) क्या है?
उत्तर – 🌐 इंटरनेट और साइबर स्पेस: सूचना संचार की डिजिटल क्रांति
📡 इंटरनेट क्या है?
इंटरनेट आज के समय में सूचना संचार का सबसे तेज और प्रभावशाली माध्यम बन गया है। यह एक ऐसी वैश्विक नेटवर्क प्रणाली है, जो दुनिया भर के कम्प्यूटरों को आपस में जोड़ती है। यह जुड़ाव मॉडम जैसे उपकरणों की सहायता से होता है।
इंटरनेट पर दुनिया भर की संस्थाओं ने अपनी वेबसाइटें बनाई हैं।
उपयोगकर्ता जब कम्प्यूटर या मोबाइल के की-बोर्ड पर वेबसाइट का पता टाइप करते हैं, तो वह वेबसाइट खुल जाती है और उस पर मौजूद सूचनाओं का विशाल भंडार हमारे सामने आ जाता है।
💻 साइबर स्पेस क्या है?
साइबर स्पेस का तात्पर्य उस डिजिटल वातावरण से है जिसमें कम्प्यूटर के माध्यम से सूचनाओं का आदान-प्रदान होता है।
इसे एक विद्युत-आधारित, कम्प्यूटरीकृत संसार माना जाता है।
यह स्थान रहित (non-physical) होता है, यानी इसमें भौतिक रूप से कहीं जाने की आवश्यकता नहीं होती, फिर भी सूचनाएँ एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँच जाती हैं।
साइबर स्पेस का प्रयोग:
कार्यालयों में
नावों में
विमानों में भी किया जाता है — यानी यह हर जगह मौजूद है।
🌍 इंटरनेट का वैश्विक प्रसार
प्रतिवर्ष लाखों नए उपयोगकर्ता इंटरनेट से जुड़ते हैं।
इसका प्रसार और विकास इतिहास में सबसे तेज माना जाता है।
विश्व के प्रमुख इंटरनेट उपयोगकर्ता देश हैं:
संयुक्त राज्य अमेरिका
ब्रिटेन
जर्मनी
जापान
चीन
भारत
✅ निष्कर्ष
इंटरनेट और साइबर स्पेस ने दुनिया को एक “ग्लोबल गांव” (Global Village) में बदल दिया है। अब सूचनाओं का आदान-प्रदान तेज, सटीक और सुलभ हो गया है। शिक्षा, व्यापार, स्वास्थ्य, शासन और जीवन के अन्य क्षेत्रों में इसका गहरा प्रभाव देखा जा सकता है।
40. सतत पोषणीय विकास की अवधारणा का वर्णन करें।
उत्तर – 🌱 सतत पोषणीय विकास (Sustainable Development)
📘 परिभाषा
संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रसिद्ध रिपोर्ट “Our Common Future” के अनुसार:
“सतत पोषणीय विकास वह विकास है जिसमें वर्तमान पीढ़ी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति इस प्रकार करे कि भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताएँ प्रभावित न हों।”
अर्थात, हम अपने संसाधनों का इस प्रकार उपयोग करें कि:
उनका प्राकृतिक पुनरुत्पादन संभव हो,
और भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी वे उपलब्ध रहें।
🧭 सतत विकास के दो मुख्य दृष्टिकोण
🔹 पर्यावरणीय दृष्टिकोण:
प्राकृतिक संसाधनों (जैसे — मिट्टी, जल, वन, खनिज आदि) का संतुलित उपयोग।
प्रदूषण की रोकथाम और जैव विविधता की रक्षा।
🔹 आर्थिक दृष्टिकोण:
संसाधनों का समुचित और विवेकपूर्ण प्रयोग।
आर्थिक वृद्धि, रोजगार सृजन, और गरीबी उन्मूलन।
🎯 सतत विकास के उद्देश्य
प्रत्येक व्यक्ति को बेहतर जीवन सुनिश्चित करना।
प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करना।
पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखना।
लंबे समय तक टिकाऊ आर्थिक प्रगति करना।
वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लिए समान रूप से विकास के अवसर सुनिश्चित करना।
✅ निष्कर्ष
सतत पोषणीय विकास एक ऐसा मार्ग है जो विकास और संरक्षण के बीच संतुलन बनाता है। इसका लक्ष्य है —
“प्रकृति का संरक्षण करते हुए मानव का विकास”।
यदि हम सतत विकास के सिद्धांतों को अपनाएं, तो हम एक ऐसा भविष्य सुनिश्चित कर सकते हैं जहाँ पर्यावरण सुरक्षित, आर्थिक ढाँचा मजबूत, और मानव जीवन समृद्ध होगा।

SANTU KUMAR
I am a passionate Teacher of Class 8th to 12th and cover all the Subjects of JAC and Bihar Board. I love creating content that helps all the Students. Follow me for more insights and knowledge.
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