Class 12th Geography ( दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर ) ( 15 Marks ) PART- 2

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11. भारत में लौह एवं इस्पात उद्योग के विकास का वर्णन करें।

उत्तर – भारत में प्राचीन काल में भी उत्तम कोटि का इस्पात तैयार किया जाता था। दिल्ली का लौह-स्तंभ और कोणार्क मंदिर की लोहे की कड़ियाँ इसके प्रमाण हैं। प्राचीन काल में लोहा-इस्पात का उत्पादन मुख्यतः घरेलू उद्योगों में होता था। भारत में लोहा-इस्पात का पहला कारखाना 1830 में तमिलनाडु के पोर्टोनोवो नामक स्थान पर स्थापित किया गया, लेकिन प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण इसे बंद कर दिया गया। आधुनिक युग में लोहा-इस्पात का पहला कारखाना 1874 में पश्चिम बंगाल के कुल्टी में स्थापित हुआ, जिसे बाद में बराकर आयरन वर्क्स के नाम से जाना गया। भारत में आधुनिक ढंग से बड़े इस्पात कारखानों का निर्माण स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तेजी से हुआ। 1907 में झारखंड के स्वर्णरेखा घाटी के साकची (जो बाद में जमशेदपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ) में टाटा आयरन एण्ड स्टील कंपनी (TISCO) स्थापित की गई। इसके संस्थापक उद्योगपति जमशेदजी नौसेरवानजी टाटा थे। इसी के निकट, 1919 में बर्नपुर में इंडियन आयरन एण्ड स्टील कंपनी (IISCO) का कारखाना खोला गया। 1936 में कुल्टी के बराकर आयरन वर्क्स को IISCO में मिला लिया गया। दक्षिण भारत में 1923 में कर्नाटक के भद्रावती में विश्वेश्वरैया आयरन एण्ड स्टील लिमिटेड (VISL) स्थापित किया गया। यह कारखाना भद्रा नदी के किनारे स्थित था। भद्रावती का यह कारखाना पहले निजी क्षेत्र में था, लेकिन 1963 में इसे सरकारी नियंत्रण में ले लिया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, भारत में लोहा-इस्पात उद्योग का विकास अत्यधिक तीव्र हुआ। इसके तहत भिलाई (छत्तीसगढ़), राउरकेला (उड़ीसा), दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल) के साथ-साथ बोकारो (झारखंड), सलेम (तमिलनाडु), विशाखापटनम (आंध्र प्रदेश) और विजयनगर (कर्नाटक) में भी कारखाने स्थापित किए गए। ये सभी कारखाने सार्वजनिक क्षेत्र में स्टील ऑथरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (SAIL) के नियंत्रण में आए, जिसे 1974 में स्थापित किया गया। इस प्रकार, स्वतंत्रता के बाद भारत में लोहा-इस्पात उद्योग का विस्तार तेजी से हुआ और ये उद्योग अब देश की प्रमुख आधारभूत संरचनाओं में से एक बन गए हैं।

12. भारत के लौह एवं इस्पात उद्योग के विकास के लिए उपलब्ध भौगोलिक . दशाओं का वर्णन करें। 

उत्तर – लौह-इस्पात उद्योग एक आधारभूत उद्योग है, जो आधुनिक सभ्यता की रीढ़ के रूप में कार्य करता है। यह उद्योग विभिन्न कल-कारखानों के लिए मशीनरी और संयंत्र, कृषि उपकरण, परिवहन साधन आदि बनाने में सहायक होता है। इसके बिना अन्य प्रमुख उद्योगों और विकास कार्यों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। भारत में लौह-इस्पात उद्योग की स्थापना के लिए उपयुक्त भौगोलिक परिस्थितियाँ मौजूद हैं। यहाँ पर उच्च गुणवत्ता का हेमाटाइट लौह-अयस्क, बिटुमिनस कोयला, चूना-पत्थर, मैंगनीज आदि कच्चे माल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। ये सभी कच्चे माल भारत के छत्तीसगढ़, उत्तरी उड़ीसा, झारखंड, और पश्चिम बंगाल के अर्द्धचंद्राकार क्षेत्र में पाए जाते हैं। इस क्षेत्र में लौह-अयस्क की बहुतायत है, और यह कच्चा माल उद्योग के लिए आवश्यक मूलभूत संसाधन प्रदान करता है। इस उद्योग का मुख्य आधार इन कच्चे माल के समीप स्थित होने की वजह से है, क्योंकि लौह-इस्पात उद्योग को स्थूल (वजनदार) कच्चे माल की आवश्यकता होती है, जिन्हें अधिक दूरी से लाना महंगा और कठिन होता है। इसके अलावा, भारत के इस क्षेत्र में जल विद्युत, सस्ते श्रमिक, रेलमार्ग, जलमार्ग, और देशी तथा विदेशी बाजारों तक पहुंच की सुविधाएँ भी इस उद्योग की स्थापना के लिए अनुकूल बनीं। इन सुविधाओं के चलते भारत के इस क्षेत्र में लौह-इस्पात उद्योग का विकास शुरू से ही हुआ और यह एक महत्वपूर्ण आधारभूत उद्योग के रूप में स्थापित हो गया।

13. उद्योगों के स्थानीयकरण के कारकों की विवेचना कीजिए।

उत्तर – उद्योगों के स्थानीयकरण के कारक उद्योगों की स्थापना के लिए कई प्रमुख कारक उत्तरदायी होते हैं, जो उद्योग के स्थान, विकास और सफलता को प्रभावित करते हैं। निम्नलिखित कारक उद्योगों के स्थानीयकरण के लिए जिम्मेदार होते हैं:

  1. कच्चा-माल (Raw Materials):
    सभी उद्योगों में कच्चे माल का उपयोग होता है, जिसे सस्ते दरों पर प्राप्त किया जाना चाहिए। भारी वजन और सस्ते मूल्य वाले कच्चे माल पर आधारित उद्योग, जैसे लोहा-इस्पात, सीमेंट, और चीनी उद्योग, कच्चे माल के स्रोत के समीप स्थापित होते हैं। यह स्थिति कच्चे माल को सस्ते और कुशलता से प्राप्त करने में मदद करती है, और उद्योग की लागत को कम करती है।

  2. बाजार (Markets):
    उद्योगों से उत्पादित माल की माँग और स्थानीय निवासियों की क्रयशक्ति को बाजार कहा जाता है। उद्योगों की स्थापना उन स्थानों पर होती है, जहाँ बाज़ार की व्यापकता और माँग अधिक होती है। यूरोप, उत्तरी अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया वैश्विक बाजार के रूप में कार्य करते हैं, जबकि दक्षिण और पूर्व एशिया के घने बसे क्षेत्र भी महत्वपूर्ण बाजार होते हैं, जो उद्योगों के विकास में सहायक होते हैं।

  3. श्रम (Labour):
    उद्योगों की स्थापना के लिए कुशल और अकुशल श्रमिकों की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, मुम्बई और अहमदाबाद के सूती वस्त्र उद्योग मुख्यतः बिहार और उत्तर प्रदेश से आने वाले श्रमिकों पर आधारित होते हैं। इसी तरह, स्विट्जरलैंड का घड़ी उद्योग और सूरत का हीरा तराशने का उद्योग कुशल श्रमिकों पर निर्भर होते हैं।

  4. ऊर्जा के स्रोत (Sources of power):
    उन उद्योगों में जो अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है, जैसे लोहा-इस्पात उद्योग, ऊर्जा के स्रोत के पास ही स्थित होते हैं, जैसे पिट्सबर्ग और जमशेदपुर। हालांकि, अब विद्युत-ग्रिड और पाइपलाइन द्वारा जल विद्युत और खनिज तेल दूर-दूर तक पहुँचाए जाते हैं, जिससे इन उद्योगों की स्थापना ऊर्जा स्रोत के पास अनिवार्य नहीं रही।

  5. जल (Water):
    कुछ उद्योगों, जैसे सूती वस्त्र उद्योग और लोहा-इस्पात उद्योग, में जल की आवश्यकता होती है। सूती वस्त्र उद्योग में कपड़े की धुलाई, रंगाई आदि के लिए पानी चाहिए, और लोहा-इस्पात उद्योग में प्रक्रमण, भाप निर्माण और लोहे को ठंढा करने के लिए पानी का उपयोग होता है। इस कारण इन उद्योगों की स्थापना जल स्रोत के पास होती है।

  6. परिवहन और संचार (Transport and Communication):
    कच्चे माल को कारखानों तक लाने और तैयार माल को बाजार तक पहुँचाने के लिए तीव्र और कुशल परिवहन सुविधाएँ आवश्यक होती हैं। इन सुविधाओं के बिना उद्योगों का संचालन और विकास असंभव हो सकता है।

  7. प्रबंधन (Management):
    उद्योग की सफलता और विकास के लिए एक सक्षम प्रबंधन टीम का होना जरूरी है। इसलिए यह देखना जरूरी है कि चुने गए उद्योग स्थल पर अच्छे प्रबंधकों को आकर्षित किया जा सके।

  8. पँजी (Capital):
    उद्योग की स्थापना और संचालन के लिए पर्याप्त पूँजी की आवश्यकता होती है। बैंकिंग सेवाओं के माध्यम से देश के भीतर पूँजी अब अधिक गतिशील हो गई है, लेकिन अशांत और खतरनाक क्षेत्रों में पूँजी निवेश करने में जोखिम होता है। ऐसे क्षेत्रों में उद्योग स्थापित करना पूँजी के लिए कम आकर्षक हो सकता है।

  9. सरकारी नीति (Government Policy):
    संतुलित आर्थिक विकास को सुनिश्चित करने के लिए सरकार कुछ निश्चित क्षेत्रों में औद्योगिक विकास को प्रोत्साहित करती है। इसके अलावा, संसाधनों के सर्वोत्तम उपयोग के लिए विशिष्ट क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना की जाती है।

  10. पर्यावरण (Environment):
    उद्योगों की स्थापना, उद्योगकर्मियों के रहने, काम करने, और जीवन स्तर की सुविधाओं के लिए उपयुक्त भूमि, जलवायु और अन्य पर्यावरणीय तत्व महत्वपूर्ण होते हैं। उचित पर्यावरणीय स्थितियाँ उद्योगों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

इन सभी कारकों का समुचित संतुलन उद्योगों के स्थायी विकास और स्थान निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

14. उच्च प्रौद्योगिकी उद्योग से आप क्या समझते हैं? ये उद्योग अधिकतर देशों में प्रमुख महानगरों के परिधि क्षेत्रों में ही क्यों विकसित हो रहे हैं?

उत्तर – उच्च प्रौद्योगिकी उद्योग (High Technology Industries)

उच्च प्रौद्योगिकी उद्योग नवीनतम तकनीकी और वैज्ञानिक नवाचारों पर आधारित होते हैं, जो गहन शोध और विकास के माध्यम से अत्याधुनिक उत्पादों का निर्माण करते हैं। इन उद्योगों में उत्पादों की गुणवत्ता निरंतर सुधरती रहती है और इनका उत्पादन तेज़ी से बदलते हुए तकनीकी परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए होता है। इन उद्योगों के उत्पादन में केवल अत्यधिक कुशल, प्रशिक्षित और प्रतिभाशाली व्यक्तियों की आवश्यकता होती है।

उच्च प्रौद्योगिकी उद्योग के प्रमुख गुण:

  1. गहन शोध और विकास (R&D): इन उद्योगों के उत्पादों को बनाने के लिए निरंतर अनुसंधान एवं विकास की आवश्यकता होती है।

  2. कुशल मानव संसाधन (Skilled Workforce): इन उद्योगों में काम करने के लिए अत्यधिक प्रशिक्षित और विशेषज्ञ व्यक्तियों की आवश्यकता होती है।

  3. स्वच्छंद उद्योग (Foot-loose Industry): उच्च प्रौद्योगिकी उद्योगों को परंपरागत उद्योगों की तरह स्थानिक कारकों के आधार पर स्थान नहीं मिलता। ये उद्योग किसी विशेष स्थान पर निर्भर नहीं रहते और उन्हें स्थापित करने के लिए ज्यादा विशिष्ट प्राकृतिक संसाधनों की आवश्यकता नहीं होती।

उच्च प्रौद्योगिकी उद्योग के स्थानिक लाभ:

  1. भविष्य में विस्तार के लिए स्थान (Space for future expansion):
    महानगरों के उपान्त क्षेत्र में इन उद्योगों को स्थापित किया जाता है, जहां एक मंजिले कारखाने और भविष्य में विस्तार के लिए पर्याप्त स्थान उपलब्ध होता है।

  2. सस्ता भू-मूल्य (Lower land cost):
    नगर के अंदर स्थित स्थानों की तुलना में उपान्त क्षेत्रों में भू-मूल्य कम होता है, जिससे उद्योगों को सस्ती ज़मीन उपलब्ध हो सकती है, जो लागत को कम करने में मदद करती है।

  3. सड़क और वाहन मार्गों तक गम्यता (Proximity to main roads and transport routes):
    इन उद्योगों का स्थान मुख्य सड़क और वाहन मार्गों के निकट होता है, जिससे परिवहन की लागत में कमी आती है और उत्पादों के वितरण में सुविधा होती है।

  4. प्रदूषण रहित पर्यावरण (Pollution-free environment):
    उच्च प्रौद्योगिकी उद्योगों के लिए उपान्त क्षेत्रों में प्रदूषण रहित वातावरण मिलता है, जो इन उद्योगों के लिए अनुकूल होता है, और साथ ही इन क्षेत्रों में हरित क्षेत्र का अतिरिक्त लाभ भी होता है। यह कर्मचारियों के स्वास्थ्य और कार्य क्षमता को भी सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।

  5. आवासीय क्षेत्रों और श्रम की आपूर्ति (Proximity to residential areas and labor supply):
    उपान्त क्षेत्रों में निकटवर्ती आवासीय क्षेत्रों और ग्रामीण क्षेत्रों से श्रमिकों की आपूर्ति होती है। इस स्थान पर श्रमिकों के आवागमन की समस्या कम होती है, जिससे उद्योगों को उच्च गुणवत्ता वाले श्रमिक मिलते हैं।

निष्कर्ष:

उच्च प्रौद्योगिकी उद्योगों का स्थानिक निर्धारण पारंपरिक कारकों के बजाय समकालीन जरूरतों और भविष्य की विकास संभावनाओं पर आधारित होता है। ये उद्योगों में गहन अनुसंधान और विकास की आवश्यकता होती है और उन्हें स्थापित करने के लिए विशेष स्थानों की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए ये उद्योग अक्सर महानगरों के उपान्त क्षेत्रों में स्थित होते हैं, जहां वे भविष्य में विस्तार की क्षमता रखते हैं और इनकी स्थापना के लिए सुविधाजनक कारक होते हैं।

15. औद्योगिक क्रांति के धनात्मक तथा ऋणात्मक प्रभावों का वर्णन कीजिए।

उत्तर – औद्योगिक क्रांति का प्रभाव

औद्योगिक क्रांति, जो लगभग 1750 ई. में इंग्लैंड में शुरू हुई, एक ऐसे परिवर्तन की प्रक्रिया थी जिसमें पारंपरिक हस्तशिल्प उद्योगों को बड़े पैमाने पर उत्पादन वाली मशीनों द्वारा बदल दिया गया। इसके फलस्वरूप औद्योगिक, सामाजिक, और आर्थिक संरचनाओं में बड़े बदलाव हुए। इसका प्रभाव न केवल उद्योगों पर पड़ा, बल्कि कृषि, यातायात, संचार, व्यापार, और शिक्षा पर भी गहरा प्रभाव पड़ा।

धनात्मक (अच्छा) प्रभाव:

  1. उद्योगों पर प्रभाव (Impact on Industries):
    औद्योगिक क्रांति ने उद्योगों में बड़े पैमाने पर बदलाव किए। नई तकनीक और मशीनों के आविष्कार ने श्रमिकों की आवश्यकता को कम किया और उत्पादन की दर और मात्रा में वृद्धि की। इससे उत्पादन अधिक तेज़ी से और सस्ते में होने लगा।

  2. कृषि पर प्रभाव (Impact on Agriculture):
    नई मशीनों के उपयोग ने कृषि कार्यों में क्रांतिकारी बदलाव किए। नई किस्मों के बीज, रासायनिक खाद, और सिंचाई के नए उपकरणों के प्रयोग से कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई। इससे खाद्य आपूर्ति बढ़ी और कृषि क्षेत्र में तकनीकी सुधार हुआ।

  3. यातायात पर प्रभाव (Impact on Transport):
    औद्योगिक क्रांति के कारण यातायात के नए और तेज़ साधन विकसित हुए। मोटर वाहन, रेलगाड़ियाँ, जलयान, और वायुयान का विकास हुआ, जिससे कच्चे माल और तैयार माल का परिवहन बहुत तेज़ और कुशल हुआ।

  4. संचार पर प्रभाव (Impact on Communication):
    औद्योगिक क्रांति ने संचार क्षेत्र में भी नए अविष्कारों को जन्म दिया। तार, टेलीफोन, वायरलेस, मोबाइल फोन, और इंटरनेट जैसी तकनीकों ने संचार के तरीके को पूरी तरह से बदल दिया और दुनिया भर में सूचनाओं का आदान-प्रदान तेज़ किया।

  5. व्यापार पर प्रभाव (Impact on Trade):
    उत्पादन में वृद्धि और परिवहन व संचार के सुधार के कारण व्यापार क्षेत्र में भी वृद्धि हुई। चीजों की मांग बढ़ी और विश्व व्यापार में एक नया आयाम जुड़ा। इससे वैश्विक व्यापार और आर्थिक सहयोग का मार्ग प्रशस्त हुआ।

  6. शिक्षा पर प्रभाव (Impact on Education):
    औद्योगिक क्रांति ने शिक्षा के क्षेत्र में भी सुधार किए। नई तकनीकों जैसे प्रोजेक्टर, कंप्यूटर, और इंटरनेट के प्रयोग से शिक्षा को और अधिक प्रभावी और सुलभ बनाया गया। इससे शिक्षा के प्रसार और गुणवत्ता में सुधार हुआ।

ऋणात्मक (बुरा) प्रभाव:

  1. बेरोज़गारी (Unemployment):
    मशीनों के बढ़ते प्रयोग के कारण पारंपरिक श्रमिकों की आवश्यकता कम हो गई, जिससे बेरोज़गारी का स्तर बढ़ा। कई पुराने उद्योगों और कारीगरों का काम खत्म हो गया और वे बेरोज़गार हो गए।

  2. उपनिवेशीकरण (Colonisation):
    औद्योगिक क्रांति के कारण विकसित पश्चिमी देशों ने एशिया और अफ्रीका के देशों को उपनिवेश बना लिया। इन देशों से कच्चा माल प्राप्त किया जाता था और वहाँ तैयार माल की बिक्री भी की जाती थी। इस प्रक्रिया ने उपनिवेशी देशों की स्वतंत्रता पर आक्रमण किया और उनका शोषण हुआ।

  3. औद्योगिक देशों के बीच संघर्ष (Conflict among Industrial countries):
    औद्योगिक क्रांति ने देशों के बीच कच्चे माल की प्राप्ति और तैयार माल के लिए प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दिया। इसके परिणामस्वरूप औद्योगिक देशों के बीच संघर्ष और राजनीतिक तनाव बढ़ा। ये संघर्ष बाद में वैश्विक युद्धों में बदल गए।

  4. सैन्यवाद और शस्त्रीकरण (Militarisation and Armament):
    साम्राज्यवादी देशों के बीच प्रतिस्पर्धा और युद्धों के लिए नए हथियारों के निर्माण ने सैन्यवाद को बढ़ावा दिया। औद्योगिक क्रांति के कारण युद्धों में अधिक उन्नत तकनीक का इस्तेमाल हुआ, जिससे प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध जैसे विनाशकारी संघर्ष हुए।

निष्कर्ष:

औद्योगिक क्रांति ने मानव समाज में गहरे और व्यापक परिवर्तन किए। इसके सकारात्मक प्रभावों ने जीवन को सरल, तेज़ और उत्पादक बनाया, जबकि इसके नकारात्मक प्रभावों ने कई सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं को जन्म दिया। यह एक ऐसा युग था जिसने न केवल तकनीकी और आर्थिक दृष्टिकोण से बल्कि समाज और राजनीति में भी बहुत बड़ी क्रांतिकारी परिवर्तन लाए।

16. “संसार के अधिकांश लोहा तथा इस्पात उद्योग केंद्र समुद्रतटीय भागों में स्थित है।” इस कथन की समीक्षा करें।

उत्तर – पत्तन व्यापार के लिए किस प्रकार सहायक होते हैं?

पत्तन समुद्र तट पर स्थित वे स्थान होते हैं जहां समुद्री जहाजों द्वारा माल को उतारा जाता है और उसे देश में लाया जाता है, या फिर देश में उत्पादित माल को विदेशों में निर्यात किया जाता है। इस प्रकार पत्तन अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और इन्हें अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का “प्रवेश द्वार” (Gateway) कहा जाता है। पत्तन व्यापार के लिए निम्नलिखित तरीकों से सहायक होते हैं:

  1. आयात-निर्यात का केन्द्र (Import-Export Hub):
    पत्तन मुख्य रूप से माल के आयात और निर्यात का केन्द्र होते हैं। यहाँ से बड़े पैमाने पर विभिन्न प्रकार के माल दुनियाभर में भेजे और प्राप्त किए जाते हैं। यह देशों के बीच व्यापारिक संबंध स्थापित करने का मुख्य मार्ग होता है।

  2. जल मार्ग की सुविधा (Sea Route Facility):
    समुद्रतटीय पत्तन समुद्री यातायात के लिए सुविधाजनक होते हैं। समुद्र के मार्ग से माल भेजना और प्राप्त करना स्थलीय मार्गों की तुलना में सस्ता और अधिक सुविधाजनक होता है। इस कारण पत्तन का महत्व बढ़ जाता है, क्योंकि ये समुद्र के माध्यम से माल को सस्ते और तेज़ तरीके से देश-विदेश भेजने में मदद करते हैं।

  3. गोदी और भंडारण (Docking and Storage):
    पत्तन पर गोदी (Dock) की सुविधा उपलब्ध होती है जहां जहाजों से माल उतारा जाता है और लादा जाता है। इसके अलावा, पत्तन में माल के भंडारण के लिए गोदाम (Storage) भी होते हैं, जहां माल को सुरक्षित रखा जाता है। इससे माल के व्यापार में गति आती है और उत्पादकों और व्यापारियों के लिए लाभकारी होता है।

  4. दुनियाभर के व्यापारियों से संपर्क (Connecting Global Traders):
    पत्तन अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र होते हैं, जो दुनिया भर के व्यापारियों के बीच संपर्क स्थापित करते हैं। यहाँ विभिन्न देशों से व्यापारिक संवाद होता है और माल के आदान-प्रदान के लिए समझौते होते हैं।

  5. नौवहन और अन्य सेवाएँ (Shipping and Other Services):
    पत्तन में माल की लादाई-उताराई के लिए श्रमिकों की टीम होती है, जो भारी माल को जहाजों में लादने और उतारने का काम करते हैं। इसके अलावा, पत्तन पर रिसर्च, ट्रांसपोर्टेशन, पैकेजिंग और अन्य महत्त्वपूर्ण सेवाएँ भी प्रदान की जाती हैं।

  6. स्थलीय और समुद्री मार्ग का संयोजन (Combination of Land and Sea Routes):
    पत्तन, समुद्र के साथ-साथ स्थल मार्गों के लिए भी कनेक्टिविटी प्रदान करते हैं। यहाँ से ट्रकों, रेलों, और अन्य परिवहन साधनों द्वारा माल को अन्य स्थानों पर भेजने की व्यवस्था होती है, जिससे व्यापार की गति और सुगमता में इजाफा होता है।

इस प्रकार पत्तन व्यापार के लिए न केवल एक जरिया होते हैं, बल्कि ये देश के आर्थिक विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पत्तन के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा मिलता है, जिससे रोजगार, उत्पादन और आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ती हैं।

18. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में पनामा नहर की महत्ता का वर्णन करें।

उत्तर – पनामा नहर:

पनामा नहर को प्रशांत महासागर का सिंहद्वार कहा जाता है, क्योंकि यह दो महासागरों – प्रशांत महासागर और अटलांटिक महासागर – को जोड़ने वाली महत्वपूर्ण जलमार्ग है। यह मध्य अमेरिका के पनामा देश में स्थित है और पनामा जलडमरूमध्य से होकर गुजरती है, जो पनामा नगर और कोलोन के बीच स्थित है।

निर्माण और संरचना:

  • पनामा नहर का निर्माण कार्य 1904 में शुरू हुआ और 1914 में पूरा हुआ।

  • नहर की लंबाई 72 किमी है, न्यूनतम गहराई 13 मीटर है, और इसकी चौड़ाई 100-330 मीटर के बीच होती है।

  • नहर में छह जलबंधक तंत्र (लॉकगेट) हैं, जिनकी मदद से जहाजों को ऊँचाई पर चढ़ाया जाता है या नीचे लाया जाता है। यह नहर अत्यधिक ऊँचे-नीचे क्षेत्र से होकर गुजरती है और गहरी कटान से युक्त होती है, जिससे इसे संचालित करना एक जटिल प्रक्रिया है।

  • प्रतिदिन औसतन 80 जहाज इस नहर से गुजरते हैं और एक जहाज को पूरी नहर पार करने में लगभग 8 घंटे का समय लगता है।

वैश्विक महत्व:

  • पनामा नहर ने जहाजों के लिए यात्रा के मार्ग को बहुत छोटा कर दिया है, जिससे बहुत बड़ी दूरी कम हो गई है। उदाहरण स्वरूप:

    • न्यूयार्क से सैन-फ्रांसिस्को तक की यात्रा में 13,000 किमी की दूरी कम हो गई।

    • न्यूयार्क से याकोहामा (जापान) तक की यात्रा में 5,440 किमी की दूरी कम हो गई।

    • न्यूयार्क से ऑकलैंड (न्यूजीलैंड) तक की यात्रा में 4,000 किमी की दूरी कम हो गई।

    • सैन-फ्रांसिस्को से लिवरपूल (यू.के.) तक की यात्रा में 8,000 किमी की दूरी कम हो गई।

आर्थिक और व्यापारिक लाभ:

  • पनामा नहर के कारण मुख्य रूप से उत्तर अमेरिका के पूर्वी और पश्चिमी तटीय क्षेत्र, दक्षिण अमेरिका के पूर्वी और पश्चिमी देश, पश्चिमी यूरोप के देश और एशिया के पूर्वी देश लाभान्वित हुए हैं।

  • नहर के द्वारा व्यापार और यातायात में सुविधा मिली है, और समुद्री परिवहन को अधिक सस्ता, तेज और प्रभावी बना दिया गया है।

स्वामित्व:

  • पनामा नहर का स्वामित्व पनामा सरकार के पास है, जो नहर के संचालन और रखरखाव के लिए जिम्मेदार है।

निष्कर्ष:
पनामा नहर न केवल समुद्री यात्रा को आसान और सस्ती बनाती है, बल्कि यह वैश्विक व्यापार के लिए एक प्रमुख मार्ग के रूप में काम करती है, जिससे दुनिया के कई देशों के बीच व्यापार को बढ़ावा मिलता है।

19. पत्तनों का वर्गीकरण उनकी अवस्थिति के आधार पर कीजिए।

उत्तर – पत्तन के प्रकार (Types of Ports):

पत्तन (Ports) समुद्री परिवहन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं और इनकी श्रेणी मुख्य रूप से अवस्थिति (Location) के आधार पर की जाती है। पत्तन दो प्रकार के होते हैं:

1. अंतर्देशीय या आंतरिक पत्तन (Inland Ports):

  • ये पत्तन समुद्र तट से दूर स्थित होते हैं, लेकिन किसी नदी, नहर, या जलमार्ग के माध्यम से समुद्र से जुड़े होते हैं।

  • इन पत्तनों का मुख्य लाभ यह है कि ये समुद्र से दूर होने के बावजूद आंतरिक जलमार्ग के जरिए समुद्री व्यापार और परिवहन की सुविधा प्रदान करते हैं।

  • चपटे तलों वाले जहाजों या बजरों (boats) द्वारा इन पत्तनों तक पहुँचना संभव होता है।

  • उदाहरण:

    • मैनचेस्टर (ब्रिटेन) – यह एक नहर पर स्थित पत्तन है।

    • कोलकाता (भारत) – यह हुगली नदी के किनारे स्थित पत्तन है।

2. बाह्य पत्तन (Out Ports):

  • बाह्य पत्तन गहरे पानी में बनाए जाते हैं, जो मुख्य पत्तन से दूर होते हैं।

  • इन पत्तनों का उद्देश्य उन जहाजों को सेवा प्रदान करना है जो अपने बड़े आकार या समुद्र में अवसाद के कारण मुख्य पत्तन तक नहीं पहुँच सकते।

  • इन बाह्य पत्तनों में जहाज लंगर डाल सकते हैं या खड़े हो सकते हैं, और फिर वहां से तैयार माल या कच्चा माल मुख्य पत्तन तक भेजा जाता है।

  • उदाहरण:

    • पिरॉस (ग्रीस) – यह एथेंस का बाह्य पत्तन है, जो मुख्य पत्तन से दूर स्थित है।

निष्कर्ष:

अंतर्देशीय पत्तन आंतरिक जलमार्गों के माध्यम से समुद्र से जुड़ते हैं, जबकि बाह्य पत्तन मुख्य पत्तन से दूर स्थित होते हैं और बड़े जहाजों के लिए सहायक भूमिका निभाते हैं। दोनों प्रकार के पत्तन वैश्विक व्यापार और परिवहन की प्रक्रिया को सरल और प्रभावी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

20. भारत में परिवहन के मुख्य साधन कौन-कौन से हैं? इनके विकास को प्रभावित करने वाले कारकों की विवेचना करें।

उत्तर – भारत में परिवहन के मुख्य साधन:

भारत में परिवहन के तीन मुख्य साधन होते हैं – स्थल परिवहन, जल परिवहन, और वायु परिवहन। इन तीनों का हर एक क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान है और एक-दूसरे से मिलकर समग्र परिवहन प्रणाली को मजबूत करते हैं।

1. स्थल परिवहन (Land Transport):

स्थल परिवहन के अंतर्गत सड़क, रेलवे, और पाइपलाइन आते हैं। इसमें सड़क परिवहन सबसे प्रमुख है, जो यात्री और माल दोनों के लिए सर्वाधिक उपयोगी है।

  • सड़क परिवहन: प्रतिवर्ष 85% यात्री और 70% भार यातायात का परिवहन सड़क मार्ग से होता है। यह सस्ता, लचीला और आसानी से उपलब्ध होने वाला साधन है।

  • रेलवे: रेल मार्ग से भारी और दूरस्थ स्थानों के लिए माल परिवहन किया जाता है। यह भी बहुत सस्ता और प्रभावी साधन है।

  • पाइपलाइन: खासतौर पर तरल और गैसीय वस्तुओं जैसे पेट्रोल, प्राकृतिक गैस आदि के लिए पाइपलाइन प्रणाली का उपयोग किया जाता है।

2. जल परिवहन (Water Transport):

जल परिवहन में अंत:स्थलीय (इनलैंड) और सागरीय/महासागरीय मार्ग शामिल होते हैं।

  • जल परिवहन ईंधन दक्ष और पारिस्थितिकी अनुकूल होता है। यह सस्ता होता है और भारी तथा स्थूल वस्तुओं के परिवहन के लिए उपयुक्त होता है।

  • महासागरीय मार्ग: भारत में विदेशी व्यापार का अधिकांश हिस्सा महासागरीय मार्ग से होता है। भार के अनुसार 95% और मूल्य के अनुसार 70% विदेशी व्यापार इसी मार्ग से होता है। यह विश्व व्यापार के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।

3. वायु परिवहन (Air Transport):

वायु परिवहन में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों प्रकार के मार्ग आते हैं। यह तेजी से सामान और यात्रियों का परिवहन करने का एक आधुनिक साधन है, जो विशेष रूप से उच्च मूल्य वाले और तात्कालिक वस्तुओं के लिए उपयुक्त है।

परिवहन के विकास को प्रभावित करने वाले कारक:

(i) प्राकृतिक कारक (Physical Factors):

  • मैदानी क्षेत्रों में सड़क और रेलमार्ग का निर्माण सस्ता और आसान होता है, जबकि पहाड़ी और पठारी क्षेत्रों में इसका निर्माण कठिन और महंगा होता है।

  • उत्तरी मैदान जैसे उत्तर भारत में सड़क और रेलमार्ग का घना जाल मिलता है, जबकि हिमालय, पूर्वी उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे पहाड़ी क्षेत्रों में परिवहन मार्गों का घनत्व कम है।

(ii) आर्थिक कारक (Economic Factors):

  • आर्थिक दृष्टि से विकसित क्षेत्रों में परिवहन का जाल अधिक सघन होता है, क्योंकि वहां उत्पादक और उपभोक्ता क्षेत्रों के बीच सामानों का आदान-प्रदान अधिक होता है।

  • भारत के मैदानी, व्यापारिक और औद्योगिक क्षेत्रों में रेल और सड़क दोनों के मार्ग सघन होते हैं। उदाहरण के तौर पर, महाराष्ट्र-गुजरात के सूती वस्त्र उद्योग, केरल के मसाले, और पश्चिम बंगाल के जूट उद्योग समुद्री मार्ग से जुड़े होते हैं।

(iii) राजनैतिक कारक (Political Factors):

  • ब्रिटिश शासनकाल में रेलवे का विकास प्रमुख नगरों को जोड़ने और प्रशासनिक सुविधा के लिए किया गया था।

  • स्वतंत्रता के बाद भारत में समग्र विकास के लिए रेल और सड़क मार्ग का विकास किया गया, ताकि ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर शहरों तक संसाधनों की सही आपूर्ति हो सके और देश के सभी क्षेत्रों को एकजुट किया जा सके।

निष्कर्ष:
भारत में परिवहन की समग्र प्रणाली में सड़क, रेल, जल और वायु परिवहन की महत्वपूर्ण भूमिका है। इनमें से प्रत्येक का अपना स्थान और उपयोगिता है, और इन्हें प्राकृतिक, आर्थिक, और राजनैतिक कारकों द्वारा प्रभावित किया जाता है। इन साधनों का सामूहिक विकास और प्रभावी नेटवर्क निर्माण देश के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है।

Author

SANTU KUMAR

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